माँगपत्रक शिक्षणमाला – 8
स्त्री मज़दूर सबसे अधिक शोषित-उत्पीड़ित हैं
उन्हें साथ लिये बिना मज़दूर आन्दोलन बड़ी जीतें नहीं हासिल कर सकता! (दूसरी किश्त)

 

मज़दूर माँगपत्रक 2011 क़ी अन्य माँगों — न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे कम करने, ठेका के ख़ात्मे, काम की बेहतर तथा उचित स्थितियों की माँग, कार्यस्थल पर सुरक्षा और दुर्घटना की स्थिति में उचित मुआवज़ा, प्रवासी मज़दूरों के हितों की सुरक्षा, स्त्री मज़दूरों की विशेष माँगों, ग्रामीण व खेतिहर मज़दूरों, घरेलू मज़दूरों, स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूरों की माँगों के बारे में विस्तार से जानने के लिए क्लिक करें। — सम्पादक

 

होड़ में टिके रहने के लिए पूँजीपति हमेशा माल उत्पादन की लागत कम करने की फिराक़ में सस्ते कच्चे माल और सस्ते श्रम की तलाश में लगे रहते हैं। इसी तलाश में 1960 के दशक से ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने तीसरी दुनिया के कुछ देशों में कारख़ाने लगाने शुरू कर दिये थे। हांगकांग और ताइवान, फिर मेक्सिको, दक्षिण कोरिया, थाईलैण्ड, सिंगापुर, फिलिप्पीन्स आदि देश उनके ठिकाने बने। इन देशों में आम तौर पर ही मज़दूरी काफ़ी कम थी, लेकिन स्त्रियों की मज़दूरी तो और भी कम थी। उत्पादन प्रक्रिया को छोटे-छोटे हिस्सों में बाँटकर सस्ते से सस्ते दामों पर उत्पादन कराने की यह तरक़ीब जल्दी ही दुनिया के पैमाने पर पूँजीवादी विकास की मुख्य रणनीति बन गयी।

1970 के दशक तक नया अन्तरराष्ट्रीय श्रम विभाजन क़ायम हो चुका था। विकसित पूँजीवादी देशों ने सस्ते श्रम की लूट से अपनी लागत कम करने के लिए अपने यहाँ से श्रम.सघन उद्योगों को हटाकर तीसरी दुनिया के देशों में लगाना शुरू कर दिया था। भूमण्डलीकरण के दौर में इसमें और तेज़ी आयी जब तीसरी दुनिया के देशों की सरकारों ने विदेशी कम्पनियों के लिए दरवाज़े पूरे खोल दिये। इन देशों के पूँजीपति वर्ग के लिए ऐसा करने की अपनी मजबूरियाँ थीं। अपने देश की जनता को और लूटने के लिए औद्योगिक विकास तथा बाज़ार के विस्तार के वास्ते उसे विदेशी पूँजी और तकनोलॉजी की ज़रूरत थी। दूसरी ओर, विकसित पूँजीवादी देशों को बढ़ती अन्तरराष्ट्रीय होड़ में टिके रहने के लिए सस्ते श्रम की दरकार थी।

यूरोप के देशों और अमेरिका में स्त्री मज़दूर को एक घण्टे के काम के लिए जितनी मज़दूरी देनी पड़ती है, उससे भी कम पर जब एशिया या लातिनी अमेरिका के किसी देश में पूरे दिन की हाड़तोड़ मेहनत के लिए स्त्री मज़दूर मिल सकती हो, तो कम्पनियाँ इन देशों की ओर भला क्यों न दौड़ लगातीं? 1980 के दशक में एशिया में मलेशिया, थाईलैण्ड, ताइवान से लेकर लातिनी अमेरिका में मेक्सिको, ब्राज़ील, हैती, ग्वाटेमाला, प्वेर्तो रिको आदि देशों में ऐसे कारख़ानों और वर्कशॉपों की भरमार हो गयी जिनमें बर्बर हालात में, बहुत कम मज़दूरी पर लाखों-लाख औरतें बड़ी-बड़ी कम्पनियों के लिए सामान तैयार करने में लगी रहती थीं। छोटे-छोटे पुर्ज़ों को जोड़कर बनने वाले खिलौने, कपड़े, कम्प्यूटर के सामान, आलू चिप्स जैसे सैकड़ों उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन इन नरक जैसे कारख़ानों में होता था। पिछली सदी के अन्तिम दशक में, नयी आर्थिक नीतियाँ लागू होने के साथ ही भारत भी इन देशों की कतार में शामिल हो गया।

Toxics e-waste documentation (China : 2005) WOMEN_BEEDI_1389284g Women garment worker

पहले दौर में, विश्व-बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और गैट के दबाव में लागू की गयी “संरचनागत समायोजन” की नीतियों के तहत यह सुनिश्चित किया गया कि पूँजी और श्रम के बीच से सरकार हट जाये और पूँजीपतियों को मनमानी शर्तों पर मज़दूरों से काम कराने, रखने और निकालने की पूरी छूट मिल जाये। मज़दूर आन्दोलन के पीछे हटने और बिखराव ने इस काम को और भी आसान बना दिया। लम्बे समय से अर्थवाद की दलदल में धँसी संशोधनवादियों की ट्रेड यूनियनों के पास मज़दूर अधिकारों पर इन हमलों से लड़ने की ताक़त ही नहीं रह गयी थी। पिछले 10-15 वर्षों के दौरान नवउदारवादी नीतियों पर अन्धाधुन्ध अमल के दौर में, सरकार ने पूँजी और श्रम के सम्बन्धों के विनियमन से पूरी तरह हाथ खींच लिये और मज़दूरों को पूरी तरह पूँजीपतियों की लूट के हवाले कर दिया।

भारत जैसे देश, जो परम्परागत तौर पर विदेशों में निर्यात के लिए सूती कपड़े, आभूषण, चमड़े के सामान या दस्तकारी के सामानों तक सीमित थे, वे भी अब टुकड़ों में बँटी वैश्विक असेम्बली लाइन का हिस्सा बन गये। देश के भीतर भी बड़े उद्योगों ने उत्पादन का भारी हिस्सा छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँटकर छोटे-छोटे कारख़ानों और वर्कशॉपों में कराना शुरू कर दिया जहाँ ज़्यादातर काम ठेका या पीसरेट पर काम करने वाले मज़दूर करते थे। उत्पादन का ज़्यादा से ज़्यादा काम असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र में स्थानान्तरित कर दिया गया। बड़े उद्योगों में भी अधिकांश काम असंगठित मज़दूरों से कराया जाने लगा। आज देश की कुल मज़दूर आबादी का लगभग 95 प्रतिशत असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहा है। इन मज़दूरों के लिए किसी भी श्रम क़ानून का कोई मतलब नहीं रह गया है। बेहद कम मज़दूरी पर, बहुत बुरे हालात में वे 10.12 घण्टे तक खटते हैं। उन्हें कभी भी निकाल बाहर किया जा सकता है, अक्सर बेकारी झेलनी पड़ती है और किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा नहीं हासिल होती।

इनमें भी सबसे निचले पायदान पर स्त्री मज़दूर हैं। उन्हें सबसे कम दामों पर, सबसे निचले दर्जे के, कमरतोड़, आँखफोड़ू और ऊबाऊ कामों में लगाया जाता है। मोबाइल फोन के चार्जर, माइक्रोचिप्स, सिले-सिलाये कपड़ों से लेकर गाड़ियों के सी.एन.जी. किट और प्लास्टिक के सामान बनाने वाले उद्योगों तक में औरतें काम कर रही हैं। घण्टों तक खड़े-खड़े कपड़ों की कटिंग, पुर्जों की वेल्डिंग, बेहद छोटे-छोटे पुर्जों की छँटाई, या फिर पूरे-पूरे दिन झुके हुए बैठकर कागज़ की प्लेटों की गिनती, पंखे की जाली की सफ़ाई, पेण्टिंग, पैकिंग, धागा कटिंग, बटन टाँकने, राख में से धातु निकालने जैसे अनगिनत काम बेहद कम दरों पर स्त्री मज़दूरों से कराये जाते हैं। स्त्रियाँ पहले से ही सबसे सस्ती श्रम शक्ति रही हैं जिन्हें जब चाहे धकेलकर बेकारों की रिज़र्व आर्मी में फेंका जा सकता है। आज उनकी स्थिति और भी कमज़ोर हो गयी है।

कृषि और उससे जुड़े ग्रामीण उद्योगों में लगी स्त्रियों की दशा और भी ख़राब है। वहाँ भी सबसे अधिक मेहनत वाले काम बहुत कम मज़दूरी पर औरतें ही करती हैं। कृषि मज़दूरों की माँगों पर चर्चा करते समय हम और विस्तार से इसकी बात करेंगे। घरेलू काम करने वाली लाखों स्त्रियों के शोषण और उनकी माँगों की चर्चा हम घरेलू कामगारों से सम्बन्धित खण्ड में करेंगे। स्त्रियों की एक बहुत बड़ी आबादी सेवा क्षेत्र में निकृष्टतम क़िस्म के कामों में लगा दी गयी है। छोटे व्यापारियों से लेकर बड़े स्टोर तक बादाम और मूँगफली छीलने, दालों की छँटाई-बिनाई करने, कागज़ और कपड़े के थैले बनाने आदि से लेकर झाड़ू-पोंछा, पैकिंग आदि अनगिनत काम बहुत कम दरों पर स्त्रियों से कराते हैं। प्राइवेट कम्पनियों के दफ़्तरों, कैण्टीन आदि में भी ठेके पर या पार्ट-टाइम काम करने वाली स्त्री मज़दूरों की अच्छी-ख़ासी आबादी है।

थाईलैण्ड या ताइवान जैसे देशों में कारख़ानों में काम करने वाली ‘फ़ैक्ट्री गर्ल’ को जो भी थोड़ी-बहुत सुविधाएँ मिल जाती हैं, भारत में अधिकांश स्त्री मज़दूरों को वह भी हासिल नहीं होतीं। भारतीय समाज का पिछड़ापन भी पूँजीपतियों के काम आता है। पुरुष मज़दूर अपने घरों की स्त्रियों को कारख़ाने में जाकर काम करने देने के बजाय बेहतर समझते हैं कि वे पीसरेट पर घर पर ही लाकर कुछ काम कर लें। बहुत कम मज़दूरी मिलने पर भी उन्हें लगता है कि बैठे-बिठाये कुछ अतिरिक्त आमदनी हो गयी, यही बहुत है।

कार्यस्थलों पर भी स्त्रियाँ दोयम दर्जे की नागरिक बनी रहती हैं। कारख़ाने में यूनियन अगर है भी तो उसमें स्त्री मज़दूरों की कोई भागीदारी नहीं होती। यूनियनें भी स्त्री मज़दूरों की विशेष माँगों की ओर ध्यान नहीं देतीं। मज़दूर माँगपत्रक-2011 की जिन माँगों के बारे में हमने इस शिक्षणमाला की पिछली किश्तों में चर्चा की है, वे सभी माँगें सारे मज़दूरों की माँगें हैं और इस नाते स्त्री मज़दूरों की भी माँगें बनती हैं। काम के उचित घण्टे, न्यूनतम मज़दूरी, ठेका मज़दूरी, पीस रेट और कैजुअल मज़दूरी से जुड़ी माँगें, काम करने के हालात और दुर्घटना के उचित मुआवज़े से जुड़ी माँगें तथा प्रवासी मज़दूरों के अधिकारों सम्बन्धी माँगें स्त्री मज़दूरों की भी माँगें हैं। आज अधिकांश परम्परागत यूनियनें इन माँगों को या तो उठाती नहीं या उठाती भी हैं तो उनमें स्त्री मज़दूरों की भागीदारी बहुत कम होती है। स्त्री मज़दूर इन माँगों के लिए संघर्ष में पुरुष मज़दूरों के साथ बढ़-चढ़कर हिस्सा लेंगी तो वे अपनी विशिष्ट माँगों के लिए लड़ाई में साथ देने के लिए भी पुरुष मज़दूरों से हक़ के साथ कह सकती हैं।

स्त्री मज़दूरों से सम्बन्धित विशेष माँगें

मज़दूर माँगपत्रक में स्त्री मज़दूरों के लिए पहली माँग यह की गयी है कि सब एक ही तरह के काम के लिए पुरुष और स्त्री मज़दूरों की मज़दूरी में ग़ैर-बराबरी को ख़त्म किया जाये। इसके लिए ‘समान मज़दूरी क़ानून, 1976’ को सख़्ती से लागू किया जाये।

इसमें दूसरी माँग यह है कि सभी स्त्री मज़दूरों को, चाहे वह नियमित हों, ठेका, कैजुअल या पीसरेट पर काम करती हों, छह महीने का वेतन सहित मातृत्व अवकाश और नवजात बच्चे के पालन-पोषण के लिए तीन महीने का अवकाश दिया जाये। दिहाड़ी, पीसरेट और कैजुअल मज़दूरों को यह सुविधा देने का ख़र्च सरकार उठाये। इसके लिए उद्योगपतियों पर विशेष टैक्स लगाकर धन का इन्तज़ाम किया जाये। स्तनपान कराने वाली स्त्री मज़दूरों को लंच के अलावा तीन किश्तों में 30 मिनट का अतिरिक्त अवकाश मिलना चाहिए। उल्लेखनीय है कि सरकारी नौकरियों और बड़ी प्राइवेट कम्पनियों में अच्छे पदों पर काम करने वाली स्त्रियों को एक वर्ष के मातृत्व अवकाश के साथ और भी कई तरह की सुविधाएँ मिलती हैं। मध्य वर्ग की स्त्रियों की छोटी-सी आबादी को मिलने वाली सुविधाओं की क़ीमत भारी मेहनतकश आबादी अपनी हड्डियाँ निचुड़वाकर चुकाती है।

माँगपत्रक में अगली माँग यह है कि जहाँ भी पाँच या उससे अधिक स्त्री मज़दूर काम करती हों वहाँ हर 5 बच्चों पर एक प्रशिक्षित दाई और तीन से पाँच वर्ष तक के बच्चों के लिए प्ले वे और नर्सरी शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए।

गर्भावस्था और बच्चे की देखभाल के कारण बेरोज़गार रहने वाली असंगठित या अनौपचारिक स्त्री मज़दूरों को सरकार से बेकारी भत्ता मिलना चाहिए।

जहाँ भी स्त्री मज़दूर काम करती हैं, वहाँ उनके लिए अलग शौचालय, साफ-सफ़ाई व आराम करने की जगह का इन्तज़ाम होना चाहिए। स्त्री मज़दूरों के साथ छेड़छाड़ और किसी भी क़िस्म की बदसलूकी पर तुरन्त कठोर कार्रवाई होनी चाहिए। किसी भी स्त्री मज़दूर को रात की पाली में काम करने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए और रात में काम करने वाली स्त्रियों के लिए परिवहन और सुरक्षा की पूरी ज़िम्मेदारी नियोक्ता की होनी चाहिए।

माँगपत्रक में इस बात पर विशेष ज़ोर दिया गया है कि स्त्री मज़दूरों से सम्बन्धित सभी क़ानूनों और नियमों आदि पर अमल तथा इसकी निगरानी के लिए श्रम विभाग में ऊपर से नीचे तक विशेष प्रकोष्ठ होने चाहिए। साथ ही ऐसी निगरानी समितियाँ बनायी जानी चाहिए जिनमें सरकारी अधिकारी, स्त्री मज़दूरों की प्रतिनिधि, स्त्री संगठनों की प्रतिनिधि, मज़दूर संगठनों के प्रतिनिधि और जनवादी अधिकार आन्दोलन के कार्यकर्ता शामिल हों।

माँगपत्रक में अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस (8 मार्च) को राष्ट्रीय स्तर पर अवकाश घोषित करने की माँग की गयी है ताकि सभी मेहनतकश और कामकाजी स्त्रियाँ इसे मना सकें। अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस मेहनतकश स्त्रियों के संघर्ष से जन्मा है लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इसे लगातार विकृत करने और इसकी क्रान्तिकारी विरासत पर परदा डालने की कोशिश की जा रही है। यह सबसे बढ़कर मज़दूर स्त्रियों के संघर्ष और आज़ादी का प्रतीक है।

स्त्री मज़दूरों की इन विशेष माँगों को ज़्यादातर यूनियनें उठाती ही नहीं हैं। अगर कहीं इनमें से कुछ माँगें आगे की भी जाती हैं तो उन पर कभी ज़ोर नहीं दिया जाता। अधिकांश पुरुष मज़दूरों की यह मानसिकता है कि वे घरेलू काम का तो कोई मोल ही नहीं समझते, औरतों द्वारा किये जाने वाले उत्पादन के काम का जो भी मोल मिल जाये उसे अतिरिक्त आय मानकर सन्तुष्ट हो जाते हैं। कार्यस्थल पर स्त्री मज़दूरों की समस्याओं की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता। अक्सर कई पुरुष मज़दूर ख़ुद ही स्त्रियों के उत्पीड़न और छेड़छाड़ में भागीदार बनते हैं या उसका मज़ा लेते हैं। यह मज़दूर आन्दोलन के भीतर सतत् साँस्कृतिक काम की माँग करता है। पुरुष मज़दूरों को यह समझना होगा कि आधी आबादी अगर ग़ुलाम बनी रहेगी तो वे भी आज़ाद नहीं हो सकेंगे। स्त्री मज़दूरों की जुझारू आबादी को साथ लिये बिना कोई भी मज़दूर आन्दोलन कभी बड़ी जीतें हासिल नहीं कर सका है। उन्हें इस ग़लत सोच से भी मुक्ति पानी होगी कि स्त्री मज़दूरों के कारण उनकी मज़दूरी या रोज़गार के अवसरों में कमी आती है।

लेकिन स्त्री मज़दूर अलग-थलग रहकर अपनी माँगों के लिए संघर्ष नहीं कर सकतीं। आज कई एन.जी.ओ. मार्का संगठन भी स्त्री मज़दूरों के बीच सुधार के काम करते हुए इस तरह की कुछ माँगें उठाते रहते हैं। उनके तरीक़ों से स्त्री मज़दूरों को कुछ भी हासिल नहीं होगा। सभी मज़दूरों के साझा सवालों पर साझा संघर्ष में सक्रिय भागीदारी करते हुए ही स्त्री मज़दूर अपनी विशिष्ट माँगों के लिए संघर्ष में पुरुष मज़दूरों को अपने साथ खड़ा कर सकती हैं।

यहाँ एक और बात का भी ज़िक्र ज़रूरी है। बहुत से स्त्री संगठन, जिनमें वाम संगठनों से जुड़े स्त्री संगठन भी शामिल हैं, स्त्री मुक्ति की बात करते हुए जेण्डर आधारित शोषण-उत्पीड़न की बात तो करते हैं लेकिन स्त्री मज़दूरों की विशाल आबादी की विशिष्ट माँगें हाशिये पर रह जाती हैं। उनकी माँगें प्रायः मध्यवर्गीय स्त्रियों की माँगों तक सीमित रहती हैं और उनका नेतृत्व भी मध्यवर्गीय-बौद्धिक स्त्रियों के हाथों में रहता है।

मज़दूर संगठन भी जब अपना कोई विस्तृत माँगपत्रक तैयार करते हैं तो वहाँ भी स्त्री मज़दूरों की विशिष्ट माँगें हाशिये पर चली जाती हैं। इस समस्या का मुक़ाबला स्त्री मज़दूरों को करना ही होगा। इसका एकमात्र समाधान यह है कि वे ट्रेड यूनियन आन्दोलन में भागीदारी बढ़ायें, और साथ ही साथ स्त्री मज़दूरों के स्वतन्त्र संगठन भी खड़े हों। पुरुषों द्वारा उत्पीड़न और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विरुद्ध स्त्रियों के साझा संघर्ष के साथ-साथ स्त्री मज़दूरों को अपने विशिष्ट हितों के लिए भी संगठित होकर लड़ना होगा।

भारत के मज़दूर वर्ग की ओर से शासक वर्गों के समक्ष पेश करने के लिए शुरू किये मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन के पीछे की सोच यही है कि मज़दूर वर्ग इसके इर्द-गिर्द अपने जनवादी अधिकारों को लेकर लड़ने के लिए संगठित हो। अलग-अलग पूँजीपतियों से एक-एक कारख़ाने में लड़ने के बजाय पूरा मज़दूर वर्ग राज्य के सामने अपनी साझा माँगों को रखे। यह देश भर के मज़दूरों को उनकी साझा माँगों पर एकजुट करने की एक लम्बी चलने वाली मुहिम है। यह आन्दोलन अगर असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र में दिहाड़ी और ठेके पर काम करने वाली, घरों पर पीसरेट पर काम करने वाली स्त्री मज़दूरों की भारी आबादी की माँगों को पुरजोर ढंग से नहीं उठाता तो यह अपने लक्ष्य से दूर ही रह जायेगा। इसीलिए इसमें स्त्री मज़दूरों से सम्बन्धित विशेष माँगों को एक अलग शीर्षक के तहत सूचीबद्ध किया गया है।

 

मज़दूर बिगुलअगस्त-सितम्बर 2011

 


 

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