आपस की बात
मज़दूर भाइयों के नाम चिट्ठी

रीना देवी, बादली

मैं कन्नौज उ.प्र. की रहने वाली हूँ। मेरी पिछले साल जुलाई 2011 में शादी हुई। और मेरे पति हमें सितम्बर में दिल्ली के समयपुर बादली इलाके में ले आये जहाँ ये काम करते हैं। हमारे आने के पहले मेरे पति एक कमरे में दो-तीन लोगों के साथ साझे में रहते थे जिससे क़रीब 2500 रुपये बचाकर घर भी भेज देते थे। अब जब से मैं आ गयी हूँ तब से घर का सारा किराया (1500) और ऊपर से हमारा खर्चा इन्हीं के ऊपर आ गया है। अब ये एक भी छुट्टी नहीं मारते और 4 घण्टा ओवरटाइम और लगाने लगे हैं। अब तो रविवार को भी ओवरटाइम लगा लेते हैं। हमको कहते हैं कि तुमको कोई दिक्कत नहीं होने देंगे, हमेशा खुश रखेंगे। और खुद इतना कष्ट उठाते हैं। मैंने एक दिन कहा भी कि हम घर में अकेले परेशान हो जाती हैं। हमें भी काम पर लगा दो हम लोग आठ-आठ घण्टा काम करेंगे और आराम से रहेंगे। तो बहुत नाराज हो गये और हमको डाँट दिये और कहा अभी मैं मर नहीं गया हूँ कि तुमसे काम कराऊँ। उस दिन हम बहुत रोये थे कि मेरी वजह से इन्होंने मरने-जीने की बात कही थी। हमारी वजह से न तो ये खुश और न ही हम। ये 12 घण्टे काम करके एकदम थक जाते हैं और बस रोटी का ही इंतजाम हो जाता है। इनकी तनख्वाह आठ घण्टा का 4 हजार रुपये हैं और महँगाई इतनी कि भगवान बचाये। इनके रुपये कमाने के चक्कर में हमारी और इनकी नौजवानी खत्म हो रही है। न तो हमें कोई शारीरिक सुख और न इनको भी। ये अपनी मूँछें और मान-मर्यादा बचाये अच्छी-खासी स्वस्थ औरत को परदे में कैद कर रखे हैं। और यूँ ही ये खत्म हो जायेंगी।

मेरा देवर भी अपने दोस्तों के साथ यहीं रहता है। वह अक्सर शहीद पुस्तकालय राजा विहार में जाता है। मेरा देवर ही एक दीदी से हमको मिलाया था जो कि महिलाओं का संगठन बनाने का काम करती हैं। उनके संगठन का नाम है ‘स्त्री मज़दूर संगठन’। दीदी ने हमको और मेरे पति दोनों को समझाया कि कोई लूला, लँगड़ा या बीमार व्यक्ति हो तो उसकी सेवा करना ठीक भी है। मगर एक अच्छी-खासी महिला की दुनिया सिर्फ कमरे तक ही समेटकर उसको बीमार करने में क्यों लगे हो। अभी तुम अकेले दोनों लोगों का खर्चा उठाते हो। ज़्यादा मेहनत करते हो। दोनों मिलकर काम करो। आठ-आठ घण्टे भी काम करोगे तो सोलह घण्टे हो जायेंगे और मिल-बाँटकर घर का काम करो, एक-दूसरे को ज्यादा समय दो, प्यार करो और एक अच्छी ज़िन्दगी जिओ। अभी आप 12 घण्टे काम करके थक जाते हैं ओर ये कमरे में पड़े-पड़े रहकर थक जाती हैं। ये बात मेरे पति को समझ में आ गयी। और अब हम दोनों मिलकर कमाते हैं। आठ घण्टा काम करते हैं। टीवी भी ले लिया है। रविवार को सिनेमा भी देख आते हैं। कभी छुट्टी मारकर दिल्ली भी घूम आते हैं। और हम दोनों एक-दूसरे के जीवनसाथी बनकर एक अच्छी जिन्दगी जी रहे हैं। हमको ज़्यादा पढ़ना-लिखना नहीं आता तो दीदी हमें हर शुक्रवार को शहीद पुस्तकालय में शाम 6 बजे पढ़ाती हैं। मगर हम ये चिट्ठी अपने देवर से लिखा रहे हैं।

 

मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर-दिसम्‍बर  2012

 


 

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