माइक्रो फ़ाइनेंस : महाजनी का पूँजीवादी अवतार

आनन्द

पिछले कुछ महीनों में आन्‍ध्र प्रदेश में ग़रीबों की आत्महत्याओं के कई मामले सामने आये हैं। आत्महत्या करने वाले ज्यादातर लोग ऐसे थे जिन पर किसी न किसी माइक्रो फाइनेंस संस्था का कर्ज था। माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं के बर्बर और शोषक चरित्र के इस नग्न रूप में सामने आने पर प्रदेश एवं देश के हुक्मरानों में खलबली मची हुई है। इन माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं को ग़रीबी हटाओ मुहिम के अग्रदूत के रूप में बढ़ावा दिया गया था लेकिन ग़रीबी तो नहीं हट रही है, हाँ इन संस्थाओं द्वारा लादे गये भारी कर्ज के बोझ से ग़रीबों का ही सफाया हो रहा है। बुर्जुआ मीडिया जो कल तक ऐसी संस्थाओं के गुणगान में लगा था, उसमें भी ऐसी संस्थाओं की आलोचनाएँ शुरू हो गयी हैं।

माइक्रो फाइनेंस एक नयी परिघटना के रूप में लगभग 2 दशक पहले ख़ासकर तीसरी दुनिया के देशों में ग़रीबी हटाने के उपक्रम के नाम पर विश्व पूँजीवाद के पटल पर आया। चूँकि पूँजीवादी बैंकों से कर्ज लेने के लिए एक निश्चित सम्पत्ति होना अनिवार्य होता है, अत: बहुसंख्यक ग़रीब आबादी इन बैंकों की पहुँच से बाहर ही रहती है। पारम्परिक रूप से ग़रीब अपनी खेती और पारिवारिक जरूरतों को पूरा करने के लिए गाँव के महाजन या साहूकार द्वारा दिये गये कर्ज पर निर्भर रहते थे। ऐसे कर्र्जों पर ब्याज दर बहुत अधिक हुआ करती थी जिसकी वजह से ग़रीबों की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा ब्याज चुकाने में निकल जाता था और इस प्रकार वे एक दुष्चक्र में फँस जाते थे। गाँव के ग़रीबों को महाजनों और साहूकारों से मुक्ति दिलाने और उनको ग़रीबी के दुष्चक्र से बाहर निकालने के नाम पर पिछले 2 दशकों में माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं को ख़ूब बढ़ावा दिया गया। ऐसी संस्थाएँ ग़रीबों को एक समूह (सेल्फ हेल्प ग्रुप) में संगठित करती हैं और एक व्यक्ति के बजाय पूरे समूह को कर्ज देती हैं। ऐसे समूहों को छोटे-मोटे उपक्रम जैसे टोकरी बनाना, पापड़ बनाना, अचार बनाना, मुर्ग़ी पालन इत्यादि में निवेश के लिए प्रेरित किया जाता है। महिला सशक्तीकरण के नाम पर महिलाओं को ऐसे समूहों में वरीयता दी जाती है। सतही तौर पर देखने में किसी को भी यह भ्रम हो सकता है कि ये संस्थाएँ वाकई ग़रीबी हटाने के प्रयास में संलग्न हैं। लेकिन इन संस्थाओं की संरचना, काम करने का तरीका, फण्डिंग के ड्डोत,इनके द्वारा दिये गये कर्ज पर ब्याज की दरों की गहरायी से पड़ताल करने पर इनके मानवद्रोही चरित्र का पर्दाफाश हो जाता है और हम इस घिनौनी सच्चाई से रूबरू होते हैं कि दरअसल ऐसी संस्थाएँ ग़रीबों का महाजनों और साहूकारों से भी अधिक बर्बर किस्म का शोषण करती हैं और ग़रीबों का ख़ून चूसकर इनके संस्थापक और शीर्ष अधिकारी अपनी तिजोरियाँ भरते हैं।

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 माइक्रो फाइनेंस संस्थाएँ एक व्यक्ति के बजाय समूह को कर्ज और महिलाओं को वरीयता इसलिए देती हैं ताकि कर्ज का भुगतान सुनिश्चित हो सके। इनकी कर्ज भुगतान की दर लगभग 100 प्रतिशत होती है, ऐसी दर जो बड़े से बड़े बैंकों को भी ठेंगा दिखाती है। इसका राज यह है कि कर्ज का निश्चित समय पर भुगतान न करने पर ये संस्थाएँ गुण्डों और मुश्टण्डों की सेवा लेने में जरा भी नहीं हिचकती हैं। ये संस्थाएँ प्राय: हर हफ्ते ब्याज वसूल करती हैं। इनके द्वारा वसूले गये ब्याज की दर 28-30 प्रतिशत और कई मामलों में इससे भी ज्यादा हुआ करती है। इन संस्थाओं के साथ ही साथ इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के अमानवीय चरित्र को इसी बात से समझा जा सकता है कि एक ओर तो खाते-पीते मध्‍य वर्ग के ऐशो-आराम के लिए जरूरी साजो-समान जैसे कार, फ्रि‍ज, एयर कण्डीशनर, फ्लैट इत्यादि के लिए 6-10 प्रतिशत की सस्ती दरों पर ऋण उपलब्ध है, वहीं ग़रीबी हटाने के लिए जो कर्ज ग़रीबों को दिया जाता है उसकी ब्याज दर 30 प्रतिशत या उससे भी ज्यादा है। इसके अतिरिक्त माइक्रो फाइनेंस संस्थाएँ समाज कार्य के नाम पर बैंकों से बेहद सस्ती दरों पर ऋण (प्रिओरिटी सेक्टर लेण्डिंग के तहत) लेकर अत्यधिक ऊँची दरों पर ग़रीबों को ऋण देने का घृणित कारोबार करती हैं। वास्तव में, सूक्ष्म ऋण एक तीर से कई निशाने लगाता है। इसका एक लाभ तो यह है कि यह गाँवों की ग़रीब आबादी को तबाह होने से नहीं बचाता बल्कि लम्बे समय तक भ्रम में रखने के बाद तबाह करता है। दूसरा लाभ – यह गाँवों से होने वाले प्रवास की गति को धीमा करता है और गाँवों की ग़रीब आबादी को लम्बे समय तक भुखमरी के स्तर पर जिन्दा रखता है। तीसरा लाभ – वित्तीय पूँजी के मुनाफे को इससे तेज रफ्तार से बढ़ाने के रास्ते कम ही हैं। दूसरा ऐसा रास्ता है सबप्राइम ऋण, लेकिन सूक्ष्म ऋण इससे भी भयंकर और क्रूर है क्योंकि इसकी पहुँच सबसे ग़रीब आदमी तक है इसलिए, यह उसे तबाह करता है और इसके अलावा, इसकी ब्याज दर दस में आठ मामलों में सबप्राइम ऋण से भी ज्यादा होती है। चौथा लाभ – यह सब कुछ करके तथा और भी बहुत कुछ करके पूँजीवादी व्यवस्था की उम्र बढ़ाने का काम करता है,क्योंकि यह ग़रीबों का भ्रम टूटने के वक्त को बढ़ाता है और मध्‍यवर्ग के तमाम इंसाफपसन्द नौजवानों के दिमाग़ में भी पूँजीवाद का नकली मानवीय चेहरा पेश कर एक वहम पैदा करता है। यह पूँजीवाद के अन्तरविरोधों के तीखा होने की रफ्तार को धीमा कर देता है। इसीलिए, तो मोहम्मद यूनुस को अर्थशास्त्र का नहीं बल्कि शान्ति का नोबेल पुरस्कार मिला।

माइक्रो फाइनेंस के जनक मोहम्मद युनुस को 2006 में नोबल पुरस्कार दिये जाने के बाद तो माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं की और भी चाँदी हो गयी। ग़रीबों के रक्तचूषक उद्यमियों को ग़रीबों का मसीहा और विश्व शान्ति के दूत का तमगा मिल गया। अब अकूत मुनाफा कमाने के साथ-साथ समाज सेवक होने का रुतबा भी हासिल किया जा सकता है। माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं में शीर्षपदों पर नियुक्त मैनेजमेण्ट कर्मियों की तनख्वाह, बोनस और भत्तो कॉर्पोरेट सेक्टर के समकक्ष होती है और कई मामलों में तो उससे भी ज्यादा होती है। देश की सबसे बड़ी माइक्रो फाइनेंस संस्था एस.के.एस. माइक्रो फाइनेंस (स्वयं कृषि संगम सूक्ष्म ऋण) के मुनाफे की दर में 2007 में 700 प्रतिशत की वृध्दि पायी गयी। अभी हाल में ही इस संस्था ने शेयर मार्केट से पूँजी उठाने के लिए अपना आईपीओ भी निकाला जो काफी सफल रहा। ग़ौरतलब है कि आन्‍ध्र में आत्महत्या करने वाले ज्यादातर किसानों ने इसी संस्था से कर्ज लिया था। इस संस्था के संस्थापक विक्रम अकुला को 2006 में टाइम मैगजीन ने विश्व के 100 ऐसे लोगों की श्रेणी में रखा था जिन्होंने इस दुनिया की शक्ल बदल दी। 2010 तक आते-आते दुनिया को पता चल चुका है कि विक्रम अकुला जैसे लोगों ने इस दुनिया की शक्ल को कितना पहले से भी ज्यादा बदनुमा बना दिया है। यहाँ तक कि बुर्जुआ मीडिया के पोस्टर बॉय और नैतिकता के प्रतिमूर्ति माने जाने वाले नारायणमूर्ती भी अपनी पूँजी एस.के.एस. माइक्रो फाइनेंस में लगाकर ग़रीबों का भला करने के नाम पर अपनी तिजोरी भर रहे हैं। ऐसी संस्थाओं में देशी पूँजीपतियों के अलावा बड़े पैमाने पर साम्राज्यवादी पूँजी भी लगी हुई है।

यकायक आत्महत्याओं के कई मामलों के आने के बाद आन्‍ध्र प्रदेश सरकार ने जनरोष की आग को ठण्डा करने के लिए माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं को नियन्त्रित करने वाला एक अधयादेश पास किया। मीडिया में चहुँओर आलोचना होने के बाद रिजर्व बैंक भी हरकत में आ गया और माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं की गतिविधियों पर काबू पाने के लिए एक समिति के गठन की घोषणा कर दी गयी। लेकिन यह सर्वविदित है कि इन सारी कवायदों का मकसद ग़रीबों का हित नहीं बल्कि बस यह है कि ऐसी घटनाओं को घटने से रोकने का कम से कम नाटक किया जाये और कुछ हद तक इसकी रफ्तार में थोड़ी कमी लायी जाये, जिससे कि इस समूची व्यवस्था के घोर जनविरोधी होने की नंगी तस्वीर सामने उभरकर आती है। ग़रीबों और वंचितों के जीवित रहने के मानवाधिकार की रक्षा इस पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे में सम्भव ही नहीं है, क्योंकि पूँजीवादी लुटेरे ग़रीबों के ख़ून का एक-एक कतरा चूसने के लिए दिन-प्रतिदिन नयी-नयी तरकीब निकालते रहते हैं। माइक्रो फाइनेंस ऐसी ही एक घृणित पूँजीवादी तरकीब है।

 

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2011


 

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