राजधानी की चमकती इमारतों के निर्माण में : ठेका मजदूरों का नंगा शोषण
ऐसे में बेमानी हैं कानून और संविधान की बातें

राजकुमार

राष्ट्रमण्डल खेलों (सी.डब्ल्यू.जी.) के समाप्त होने के बाद सभी अख़बारों और टीवी ख़बरों में लगातार घोटालों से सम्बन्धित भ्रष्टाचार के खुलासों की एक बाढ़ सी आ गयी है। इस सबके बीच हर उत्पादन और निर्माण कार्य में ठेकाकरण के चलते, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सी.डब्ल्यू.जी. और अन्य निर्माण कार्य में लगे कितने ही ठेका मजदूर विकास की चमक-दमक के खोखले दिखावे के चलते मौत के शिकार हो चुके हैं। एक अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार (टाइम्स ऑॅफ इण्डिया, 23 अक्टूबर, 2010, ”सी.डब्ल्यू.जी. में मरने वालों की संख्या सरकार को नहीं पता!”) सी.डब्ल्यू.जी. के निर्माण कार्य में लगे 70,500 मजदूरों में से 101 मजदूरों की दुर्घटना से मृत्यु हुई, लेकिन किसी के पास, यहाँ तक कि सरकार के पास भी मजदूरों की मृत्यु से सम्बन्धित ”सही आँकड़े” नहीं हैं।

इसी अख़बार की एक अन्य रिपोर्ट (21 अक्टूबर 2010, ”मिलेनियम सिटी के मजदूर निर्माण करते हुए मर रहे है”) के मुताबिक पिछले दो वर्षों में गुड़गाँव के निर्माण कार्य में सुरक्षा उपायों के अभाव के चलते 47 निर्माण मजदूरों की ऊँचाई से गिरकर मृत्यु हो चुकी है। यह संख्या सिर्फ सूचित की गयी घटनाओं की है।

अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार श्रम विभाग का कहना है कि ”कई ऐसे मामले बिना सूचना के ही ठेकेदारों या बिल्डरों द्वारा दबा दिये जाते हैं, और अधिकांश मामलों में मृतक के परिवारवालों को कुछ पैसे देकर चुप करा देने के बाद मामले को दबा दिया जाता है।”

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मजदूरों को 12 से 14 घण्टों के काम के लिए 150 रुपयों का भुगतान किया जाता है, और महिला मजदूरों के बच्चों के लिए कोई सुविधा मुहैया नहीं करायी जाती, जिसके कारण काम के वक्त उनके बच्चे सड़क पर घूमते रहते है। जबकि ”बिल्डिंग और अन्य निर्माण मजदूर कल्याण एक्ट 1966” के अनुसार महिला मजदूरों के बच्चों के लिए पालनाघर की सुविधा होनी चाहिए। इसी प्रकार न्यूनतम मजदूरी, ओवरटाइम का दोगुनी दर से भुगतान, काम के घण्टों आदि को लेकर कानून बने हुए हैं। लेकिन वर्तमान ठेका व्यवस्था में मजदूरों का खुला शोषण हो रहा है और सरकार ने इसे एक मौन समर्थन दे रखा है। सरकार अपने उस वायदे को भुला चुकी है जिसके तहत उसने ठेका मजदूर कानून का नाम ठेका मजदूरी (विनियमन व उन्मूलन) कानून रखा था। यानी कि सरकार ने यह कानून ठेका व्यवस्था को एक क्रमिक प्रक्रिया में समाप्त करने के लिए बनाया था। लेकिन अब सरकार स्वयं अपने ही उपक्रमों में ठेकाकरण के जरिये स्थायी नौकरियों को ख़त्म कर रही है और ठेका मजदूरों की संख्या को बढ़ा रही है। जाहिर है कि ठेका प्रथा को पूँजीवादी व्यवस्था के लिए समाप्त कर पाना सम्भव नहीं है और ख़ासतौर पर अब तो बिल्कुल नहीं। कारण यह है कि मन्दी के इस दौर में मुनाफे की दर इस कदर नीचे  हो चुकी है कि पूँजीपति मजदूरी के खाते में हर संभव कटौती कर अपना मुनाफा बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। ऐसे में ठेका मजदूर तो ख़ासतौर पर पूँजीपति के मुनाफे को बढ़ाने का काम करते हैं। जाहिर है कि ठेकाकरण लगातार बढ़ेगा ही, कम नहीं होगा।

‘इकॉनोमिक टाइम्स’ (21 अक्टूबर 2010) की एक रिपोर्ट ”मजदूर बकाया राशि से वंचित” में सी.डब्ल्यू.जी. निर्माण के बारे में कई अन्य तथ्यों का खुलासा किया गया है, जो  ठेकेदारों द्वारा मजदूरों के शोषण की एक नंगी तस्वीर प्रस्तुत करता है।

पहला, निर्माण कार्य में लगे मजदूरों को 110 या 130 रुपये प्रति दिन का भुगतान किया गया जबकि सरकार द्वारा 203 रुपये प्रतिदिन निर्धारित था, और इसमें ठेकेदारों ने प्रतिदिन प्रत्येक मजदूर से 80 से 75 रुपये लूटे।

दूसरा, कुछ निर्माण स्थलों पर मजदूरों को 300 से 400 रुपये प्रति सप्ताह के अनुसार भुगतान किया गया।

तीसरा, सभी मजदूरों से उनकी क्षमता से ज्यादा काम कराया गया; उनसे 10 घण्टों से ज्यादा काम कराया गया और इसके लिए कोई अतिरिक्त वेतन नहीं दिया गया। नियमानुसार 12 घण्टे के काम के लिए 406 रुपये दिये जाने चाहिए, लेकिन सिर्फ 180 से 170 रुपये प्रतिदिन दिये गये।

चौथा, मजदूरों को कोई साप्ताहिक छुट्टी नहीं भी नहीं दी जाती थी।

छोटी-छोटी ख़बरों को भी सनसनी का रूप दे देने वाले सूचना के ज्यादातर माध्‍यम जो जनतन्त्र और जनवाद का ढिंढोरा पीटते रहते हैं, उनके पास जनता के सामने ठेका मजदूरों की इस सच्चाई को लाने के लिए समय नहीं होता, या कहा जाये कि वे समय देना ही नहीं चाहते।

राजधानी और अन्य मेट्रो शहरों के इस चमकते चेहरे के पीछे छुपायी गयी इस सच्चाई को समझने के लिए ये तथ्य पर्याप्त हैं, जिसके निर्माण में लगे लाखों मजदूरों का मुनाफाख़ोर ठेकेदार खुला शोषण करते हैं और खुली पूँजीवादी ठेका व्यवस्था के चलते पर्याप्त सुरक्षा के अभाव और लापरवाही के कारण कई मजदूरों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। मजदूरों की कब्रों पर खड़े इन भवनों के चमकते चेहरे को दुनिया के सामने राष्ट्र के विकास का मील का पत्थर साबित करने का स्वाँग किया जाता है।

कई लोग, जो संविधान में लिखे शब्दों का तात्पर्य समझे बिना उन्हें सिर्फ याद कर लेते हैं, वे कहते फिरते हैं कि सभी को शिक्षा प्राप्त करने और स्वतन्त्रता के साथ जीने का समान अवसर दिया गया है। और कुछ लोग यह भी नहीं समझ पाते कि जो मजदूर अपनी मेहनत से पूरे राष्ट्र का निर्माण करते हैं, जो अपने श्रम से समाज के लिए आवश्यक हर चीज को पैदा करते है, वे स्वयं अधिकांश चीजों का उपयोग कभी नहीं कर पाते। जिनकी मेहनत से निर्मित हर वस्तु का उपयोग समाज का एक छोटा हिस्सा अपनी सुख-सुविधाओं के लिए करता है; जबकि मेहनत करने वाले 77 से 80 प्रतिशत लोग प्रतिदिन 20 रुपये या उससे कम की आमदनी में, अपनी आजीविका के लिए आवश्यक बुनियादी वस्तुओं के अभाव में, अपना पूरा जीवन गुजार देते हैं।

 

 

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2011


 

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