मज़दूरों और नौजवानों के विद्रोह से तानाशाह सत्ताएँ ध्वस्त
जनविद्रोह से ट्यूनीशिया और मिस्र में पलटीं निरंकुश दमनकारी सत्ताएँ!
लीबिया में जनउभार के आगे तानाशाही डावाँडोल! यमन, बहरीन, अल्जीरिया, जॉर्डन में भी ज़नता सड़कों पर!
करोड़ों लोग उठ खड़े हुए… लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी

 सम्‍पादकीय अग्रलेख

वर्ष 2011 की शुरुआत दुनिया भर के साम्राज्यवादी-पूँजीवादी लुटेरों के लिए एक बुरे सपने की तरह रही। दिसम्बर के अन्त से ही अरब दुनिया के भीतर भयंकर उथल-पुथल शुरू हुई और नये साल के पहले दो महीनों के दौरान दो देशों, ट्यूनीशिया और मिस्र, में राज कर रहे दमनकारी तानाशाहों की सत्ताओं को मज़दूरों, नौजवानों और औरतों के प्रचण्ड विद्रोह ने ज़मींदोज़ कर दिया। पहले ट्यूनीशिया के तानाशाह ज़ैनुल आबेदीन बेन अली को जनविद्रोह से डरकर देश छोड़कर भागना पड़ा और फिर ट्यूनीशिया में ज़नता की जीत से प्रेरित होकर मिस्र की ज़नता ने भी अपने ज़बर्दस्त संघर्ष के बूते 30 साल से राज कर रहे राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया। मिस्र और ट्यूनीशिया में शुरू हुई सत्ता परिवर्तन की लहर ने अरब विश्व के कई देशों को अपनी चपेट में ले लिया है। जब यह सम्पादकीय लेख लिखा जा रहा है उस समय लीबिया में विद्रोहियों ने देश के पूर्वी भाग पर कब्ज़ा कर लिया है और कई शहरों को कज्जाफी की सत्ता से आज़ाद करा लिया है और कज्जाफी ने राजधानी त्रिपोली में किलेबन्दी कर ली है। ऐसा लग रहा है कि लीबिया एक बड़े गृहयुद्ध की तरफ बढ़ रहा है। लेकिन कज्जाफी की सत्ता डावाँडोल हो चुकी है और उसका टिक पाना मुश्किल दिख रहा है। यमन और बहरीन में भी ज़नता सत्ताधारियों के ख़िलाफ सड़कों पर उतर चुकी है।

पूरे अरब विश्व में जो बारूद की ढेरी लगातार इकट्ठा हो रही थी, उस पर चिंगारी फेंकने का काम किया ट्यूनीशिया में 26 साल के एक नौजवान द्वारा पुलिस उत्पीड़न के विरोध में किये गये आत्मदाह ने। यह नौजवान एक सब्ज़ीवाला था जिसे पुलिस लम्बे समय से प्रताड़ित कर रही थी। इससे तंग आकर अन्तत: उसने सरेआम शरीर पर पेट्रोल डालकर ख़ुद को आग लगा ली। ट्यूनीशिया में तानाशाह बेन अली के ख़िलाफ ज़नता के दिल में जो ग़ुस्सा लम्बे समय से सुलग रहा था, वह इस घटना के बाद फूटकर सड़कों पर उबल पड़ा। पूरे देश में ज़नता सड़कों पर उतरने लगी और कुछ ही समय में इस पूरी उथल-पुथल ने एक जनविद्रोह का रूप धारण कर लिया। इस जनविद्रोह के दबाव में आख़िरकार बेन अली को सत्ता छोड़कर देश से भागना पड़ा।

हज़ारों लोग बेख़ौफ़ पुलिस से भिड़ गये

हज़ारों लोग बेख़ौफ़ पुलिस से भिड़ गये

इसके कुछ ही दिन बाद मिस्र में भी विद्रोह की चिंगारी भड़क उठी। सन् 2008 से ही मिस्र में मज़दूर आन्दोलनों का सिलसिला जारी था। 2004 से 2011 के बीच सैकड़ों हड़तालें हुईं जिनमें लाखों मज़दूरों ने हिस्सा लिया। मिस्र में मौजूदा बग़ावत की शुरुआत वास्तव में मज़दूर आन्दोलन से ही हुई जिसमें छात्र-नौजवान और स्त्रियाँ जुड़ती गयीं। आन्दोलन ने एक प्रचण्ड जनविद्रोह का रूप ले लिया जिसमें देशभर में लाखों-लाख लोग सड़कों पर उतरे और कई दिनों तक हथियारबन्द पुलिस और मुबारक के गुण्डा-गिरोहों से लोहा लेते रहे। मज़दूर आन्दोलन से जुड़ी एक महिला अस्मा महफूज़ ने काहिरा के तहरीर चौक पर मुबारक की दमनकारी सत्ता के ख़िलाफ नारेबाज़ी के साथ जो बग़ावत शुरू की, वह कुछ ही समय में एक जनविद्रोह में तब्दील हो गयी। इस जनविद्रोह के दबाव में मिस्र के तानाशाह हुस्नी मुबारक को इस्तीफा देना पड़ा।

ज़नता ने ट्यूनीशिया और मिस्र में तानाशाहों को हटा तो दिया है लेकिन अभी इन दोनों ही देशों में स्थिति तरल बनी हुई है। मिस्र में सत्ता वास्तव में सेना के प्रमुख तन्तावी के हाथ में है जो अमेरिका के प्रति वफादार है और जनविद्रोह को दबाने की हर सम्भव कोशिश कर रहा है। जनविद्रोह भी मुबारक के हटने के बाद कुछ कमज़ोर पड़ा है और कुछ लोग मुबारक के इस्तीफे को ही जीत मानकर बैठ गये हैं। लेकिन यह विद्रोह अभी समाप्त नहीं हुआ है। लाखों की संख्या में मिस्र की ज़नता अभी भी सड़कों पर है और उनमें से कई इस बात को समझ रहे हैं कि अगर वास्तव में कुछ जनवादी अधिकार हासिल करने हैं, तो अभी इस लड़ाई को जारी रखना होगा। आगे क्या होगा, इस सवाल का जवाब भविष्य के गर्भ में है। इतना तय है कि यह जनविद्रोह कोई व्यवस्थागत परिवर्तन न भी ला पाया तो यह मिस्र की ज़नता को काफी कुछ सिखा जायेगा। ऐसे विद्रोह ज़नता की राजनीतिक पहलक़दमी को खोल जाते हैं और नये उन्नत धरातल पर वर्ग संघर्ष की ज़मीन तैयार करते हैं। अगर यह विद्रोह मुबारक की निरंकुश दमनकारी सत्ता के मुक़ाबले ज़नता को कुछ जनवादी अधिकार दिलाने में भी कामयाब होता है, तो इससे मिस्र में मज़दूर आन्दोलन और मज़दूर वर्गीय राजनीति के पनपने के लिए अधिक अनुकूल ज़मीन तैयार करने में मदद मिलेगी।

इतिहास में पहले भी ऐसे अवसर आये हैं जब किसी व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों द्वारा शुरू हुआ विद्रोह एक जनविद्रोह में तब्दील हो गया है। लेकिन ऐसा सिर्फ तब होता है जब उस व्यक्ति या व्यक्तियों के विद्रोह करने के कारण सारी ज़नता के भी कारण हों या बन जाएँ। रूस में फरवरी क्रान्ति के दौरान यही हुआ था, जिसने ज़ार की निरंकुश सत्ता को उखाड़ फेंका था। इस फरवरी क्रान्ति के 9 महीनों बाद ही रूस में मज़दूर क्रान्ति हो गयी और दुनिया का पहला समाजवादी देश अस्तित्व में आया। इसका कारण यह था कि रूस में एक मँजा हुआ विवेकवान राजनीतिक नेतृत्व मौजूद था जो देश के मज़दूर आन्दोलन को नेतृत्व दे रहा था। लेकिन मिस्र, ट्यूनीशिया और तमाम दूसरे अरब देशों में ऐसा कोई राजनीतिक नेतृत्व मौजूद नहीं है जो इस स्वत:स्फूर्त जनविद्रोह को एक सही क्रान्तिकारी विचारधारा, कार्यक्रम और संगठन के ज़रिये क्रान्ति में तब्दील कर सके। यही कारण है कि ट्यूनीशिया और मिस्र में ज़नता निरंकुश तानाशाहों को सत्ता से भगाने में तो कामयाब रही, लेकिन उसके पास पूरी पूँजीवादी व्यवस्था का कोई विकल्प मौजूद नहीं था। निश्चित रूप से, यह ज़नता की शानदार जीत थी कि उसने घृणा और नफरत की पात्र इन भ्रष्ट तानाशाहियों को ध्वस्त कर दिया। लेकिन जिस पूँजीवादी व्यवस्था के संकट ने इन निरंकुश तानाशाहियों को जन्म दिया था, वह व्यवस्था अभी अपनी जगह पर बनी हुई है। इसलिए, अभी ज़नता के सामने एक बहुत लम्बा रास्ता तय करना बाकी है। इस पर हम आगे विस्तार से बात रखेंगे। पहले अरब विश्व में शुरू हुए इस जनउभार के पीछे काम कर रही ताक़तों और कारणों के बारे में कुछ बातें।

मौजूदा अरब जनउभार के पीछे काम कर रही ताक़तें

मौजूदा अरब जनउभार के पीछे मुख्य तौर पर दो ताक़तें काम कर रही हैं। एक ताक़त जो विशेष रूप से मिस्र में प्रबल है, वह है मज़दूर आन्दोलन की ताक़त। मिस्र में पिछले दो दशकों में हुस्नी मुबारक की सरकार ने तेज़ी से भूमण्डलीकरण और निजीकरण की नीतियों को लागू किया और देश के प्राकृतिक और मानव संसाधनों की देशी और विदेशी लूट को बढ़ावा दिया है। 2001 से 2011 के बीच में ख़ास तौर पर बेहद तेज़ गति से छँटनी और तालाबन्दी हुई है। इससे मज़दूरों के बीच बेरोज़गारी बढ़ी है और उनको जो भी सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा मुहैया थी, वह ख़त्म हुई है। विशेषकर, मिस्र के प्राकृतिक संसाधनों को देशी और विदेशी बड़ी पूँजी के हवाले किया गया है। इन नीतियों के कारण मिस्र की ज़नता का एक बड़ा हिस्सा आज भयंकर बेरोज़गारी और ग़रीबी का सामना कर रहा है। क़रीब 40 प्रतिशत ज़नता ग़रीबी रेखा के नीचे जी रही है और पूरे अरब विश्व में क़रीब 14 करोड़ लोग एक डॉलर प्रतिदिन से भी कम की आय पर गुज़र कर रहे हैं। नतीजतन, पिछले दस वर्षों में मज़दूरों के बीच असन्तोष तेज़ी से बढ़ा है। इस असन्तोष की अभिव्यक्ति मज़बूत होते मज़दूर आन्दोलन में सामने आयी है। 2004 से 2011 के बीच मिस्र में हुई हड़तालों में क़रीब दस लाख मज़दूरों से हिस्सा लिया है। 2008 में मज़दूर आन्दोलन ने विशेष रूप से गति पकड़ी। अप्रैल में, मिस्र में औद्योगिक मज़दूरों ने दुकान पर काम करने वाले और अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों के साथ मिलकर ‘6 अप्रैल आन्दोलन’ की शुरुआत की। जिस महिला ने तहरीर चौक पर मुबारक की सत्ता के ख़िलाफ नारेबाज़ी करते हुए मौजूदा विद्रोह की शुरुआत की, वह वास्तव में इसी मज़दूर आन्दोलन से जुड़ी हुई थी। इस तरह से हम देख सकते हैं कि मौजूदा जनविद्रोह की जड़ें मज़दूर आन्दोलन में थीं, और वास्तव में यह मज़दूर आन्दोलन इस विद्रोह की प्रमुख ताक़त था।

दूसरी ताक़त थी मुबारक की दमनकारी निरंकुश सत्ता के ख़िलाफ युवाओं और स्त्रियों का भयंकर असन्तोष। मुबारक की सरकार ने लम्बे समय से आपातकाल लगा रखा था। बदनाम इमरजेंसी क़ानून के तहत हज़ारों लोग जेलों में बन्द थे। कहीं पर भी पाँच से ज्यादा लोग इकट्ठा नहीं हो सकते थे; सरकार के विरुद्ध किसी प्रकार के विरोध या प्रदर्शन की इजाज़त नहीं थी; विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में छात्रों और शिक्षकों को किसी किस्म की आज़ादी नहीं थी और हर समय वे सरकार की निगाहों तले रहते थे। ऐसे दम घोंट देने वाले माहौल ने युवाओं के भीतर भयंकर ग़ुस्सा भर रखा था। कुछ समय पहले एक नौजवान ख़ालिद सईद ने कुछ पुलिस वालों का एक वीडियो बना लिया था जिसमें वे ज़ब्त की गयी नशीली दवाओं को आपस में बाँट रहे थे। इस वीडियो को उसने इण्टरनेट पर डाल दिया। इसके बाद पुलिसवालों ने उस नौजवान को पकड़ा और क्रूर यातनाएँ देकर मार डाला। इसके बाद युवाओं ने एक पूरा अभियान शुरू कर दिया, जिसमें उन्होंने एक वेबसाइट बनायी जिसका नाम था ”हम सब ख़ालिद सईद हैं”। युवाओं ने लम्बे समय से लागू इमरजेंसी क़ानून के ख़िलाफ पहले से ही आन्दोलन छेड़ रखा था और इस अभियान ने उस आन्दोलन को और बल दिया। इसके अलावा, पुलिस द्वारा स्त्रियों का उत्पीड़न मिस्र में आम बात थी। इसके चलते स्त्रियों के लिए पुलिस आतंक का सबब बन गयी थी। स्त्रियों के अन्दर पुलिस और सरकार के ख़िलाफ ज़बर्दस्त ग़ुस्सा था। युवाओं और स्त्रियों के बीच जनवादी अधिकारों की प्रचण्ड इच्छा मौजूद थी और तहरीर चौक पर अस्मा महफूज़ द्वारा विद्रोह की शुरुआत ने इस चाहत को खुलकर सामने आने का अवसर दे दिया। मिस्र में और पूरे अरब विश्व में मौजूद तानाशाह सत्ताओं के ख़िलाफ नौजवानों और आम निम्न मध्यवर्ग का आक्रोश वह दूसरी ताक़त है, जो मौजूदा अरब जनउभार के पीछे काम कर रही है। किसी देश में मज़दूर आन्दोलन की ताक़त प्रमुख है, तो किसी में जनवादी अधिकारों के लिए और तानाशाही के ख़िलाफ आम ज़नता के आन्दोलन की ताक़त। इन दोनों ताक़तों के संगम ने ही ट्यूनीशिया और मिस्र में जनविद्रोह को जन्म दिया और यही ताक़तें लीबिया, यमन और बहरीन में भी जनविद्रोह की तैयारी कर रही हैं।

इस प्रकार मौजूदा अरब जनउभार के पीछे तानाशाही और जनवादी अधिकारों की अनुपस्थिति के ख़िलाफ समूची आम ज़नता का ग़ुस्सा और साथ ही नवउदारवादी नीतियों के कारण व्यापक मज़दूर आबादी की तबाही के कारण पैदा हुआ मज़दूर असन्तोष और मज़दूर आन्दोलन है। अरब ज़नता की बग़ावत के पीछे काम कर रही इन दो मुख्य ताक़तों के बाद अब उन प्रमुख ऐतिहासिक-राजनीतिक कारणों को  समझ लेना हमारे देश के मज़दूर आन्दोलन के लिए भी उपयोगी होगा, जिन्होंने इस विद्रोह की ज़मीन लम्बे समय से तैयार की है।

अरब जनविद्रोह के ऐतिहासिक कारण

आज हम अरब विश्व में जिस जनविद्रोह के गवाह बन रहे हैं, उसके तीन प्रमुख कारण हैं।

पहला कारण है पूरी अरब ज़नता में साम्राज्यवाद के ख़िलाफ भयंकर नफरत। इस नफरत का इतिहास बहुत पुराना है। उन्नीसवीं सदी में अरब विश्व में तेल की खोज हुई और इसके बाद साम्राज्यवादी ताक़तों ने इस पर आधिपत्य जमाने की मुहिम शुरू कर दी। उस समय ब्रिटेन सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताक़त थी और उसने अरब जगत का औपनिवेशीकरण शुरू किया। इसके बाद अन्य साम्राज्यवादी ताक़तों ने भी अरब विश्व में प्रवेश किया और उन्नीसवीं सदी का मध्य आते-आते अरब विश्व को ब्रिटेन, फ्रांस और इटली अपने-अपने प्रभाव-क्षेत्रों में बाँट चुके थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समापन और उसके बाद के बीस वर्षों तक ये साम्राज्यवादी शक्तियाँ तेल समेत अरब के प्राकृतिक संसाधनों को बेतहाशा लूटती रहीं और वहाँ की ज़नता का भयंकर शोषण, उत्पीड़न और दमन किया। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अरब विश्व में राष्ट्रीय मुक्ति युद्धों की शुरुआत हुई और 1960 का दशक आते-आते द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद कमज़ोर हो चुकी पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियाँ अरब विश्व छोड़ने के लिए बाध्य हो गयीं। लेकिन दो दशक लम्बे दौर में एक क्रमिक प्रक्रिया में अरब विश्व को छोड़ने के दौरान साम्राज्यवादियों ने इसे कई देशों में बाँट दिया। ऐतिहासिक तौर पर, अरब ज़नता एक थी और अगर पूरे अरब विश्व में किन्हीं दो राज्यों की बात होती थी, तो वे थे — एक अरब राज्य और एक यहूदी राज्य। लेकिन साम्राज्यवादी किसी एकीकृत अरब राज्य की मौजूदगी का अर्थ समझते थे। ऐसा कोई भी एकीकृत राज्य अपनी अकूत तेल सम्पदा के बूते भविष्य में उनके लिए चुनौती बन सकता था। इसलिए साम्राज्यवादियों ने साज़िशाना तरीक़े से अरब ज़नता को कई देशों में बाँट दिया। जिन अरब देशों में साम्राज्यवादियों ने जाने से पहले सत्ता किसी बादशाह या सुल्तान के हवाले की, वहाँ पर उनके आर्थिक हित काफी हद तक सुरक्षित हो गये। इन देशों पर साम्राज्यवाद का प्रबल प्रभाव भी लम्बे समय तक बना रहा। इस दौरान अमेरिका साम्राज्यवाद के नये चौधरी के तौर पर उभर चुका था और अरब विश्व पर साम्राज्यवाद का जारी प्रभाव उसे विरासत में मिल गया। अमेरिका ने नये और ज्यादा शातिर तरीक़े से अरब विश्व की साम्राज्यवादी लूट को जारी रखा। इस बीच इज़रायल के रूप में एक यहूदी राज्य को अरब विश्व में अन्यायपूर्ण तरीक़े से स्थापित किया गया और फिलिस्तीनियों को हिंसक तरीक़े से अपनी जगह-ज़मीन से विस्थापित किया गया। इस परिघटना ने साम्राज्यवाद के ख़िलाफ अरब ज़नता की पहले से ही प्रबल घृणा को कई गुना बढ़ा दिया। अमेरिका ने इसके बाद से अपनी बर्बर ताक़त के दम पर अरब विश्व की तेल सम्पदा पर आधिपत्य जमाना शुरू किया। इसके लिए इन देशों में पैसे और हथियार से धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा दिया गया; जातीय और पन्थगत अन्तरविरोधों को भड़काया गया (जैसे, कुर्द, द्रुज़, सुन्नी, शिया, तुर्क आदि)। तमाम देशों में अमेरिका ने अपने हितों की सेवा करने वाली सत्ताओं को साज़िशाना ढंग से बैठाया। जहाँ डॉलर से सम्भव हुआ, वहाँ डॉलर से और जहाँ हथियार से सम्भव हुआ वहाँ हथियार से अमेरिका ने अपना उल्लू सीधा किया। चाहे वह इराक द्वारा ईरान के ख़िलाफ युद्ध करवाना हो, या अरब-इज़रायल युद्ध में अरब ज़नता के अमानवीय दमन में इज़रायल की मदद करना हो, या फिर तेल और प्राकृतिक गैस के भण्डारों पर एकाधिपत्य के लिए इराक पर थोपा गया अमानवीय युद्ध हो; अमेरिका ने अरब विश्व पर अपने प्रभाव को बनाये रखने के लिए हर सम्भव रास्ता अपनाया। पहले ब्रिटेन, फ्रांस और इटली द्वारा उपनिवेशीकरण और बँटवारा और फिर अमेरिका द्वारा भयंकर दमन और लूट का सामना करने वाली अरब ज़नता के दिल में साम्राज्यवाद के ख़िलाफ भयंकर नफरत भरी हुई है। अरब विश्व में मौजूदा जनउभार में इस नफरत ने बहुत बड़ी भूमिका निभायी है। जिन देशों में ज़नता सड़कों पर है, वहाँ राज कर रहे तानाशाह अमेरिकी साम्राज्यवाद से समझौते की मौकापरस्त नीति पर अमल करते हैं, और यह उन देशों की ज़नता को क़तई स्वीकार नहीं है। मिस्र का हुस्नी मुबारक मध्यपूर्व में अमेरिका का एक अहम प्यादा था। इज़रायल मध्यपूर्व में अमेरिकी साम्राज्यवादी नीति के लिए बहुत अहमियत रखता है और पूरे मध्यपूर्व में वह जिस क़दर अलग-थलग पड़ गया है, वह उसके लिए ख़तरनाक है। अरब विश्व में उसके कुछ सहयोगी होना बहुत आवश्यक है। इसी नज़रिये से मिस्र को अमेरिका ने 1978 से इज़रायल का प्रमुख सहयोगी बना रखा है। इज़रायल के बाद मिस्र को ही अमेरिका से सबसे ज्यादा सैन्य सहायता प्राप्त होती रही थी। इसी प्रकार यमन और बहरीन के शासकों के ख़िलाफ भी अमेरिका से समझौतापरस्ती करने के कारण वहाँ की ज़नता में भयंकर आक्रोश है। लीबिया में कज्जाफी के प्रति गुस्से के पीछे भी एक कारण साम्राज्यवाद से कज्जाफी की समझौतापरस्ती है।

दूसरा कारण है तमाम अरब देशों में राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों और युद्धों के बाद सत्ता में आये रैडिकल बुर्जुआ वर्ग का क्रमिक पतन, उसके नायकत्व का खण्डित होते जाना और अन्तत: उसकी बुर्जुआ सत्ताओं का निरंकुश, तानाशाह, दमनकारी और भयंकर भ्रष्ट सत्ताओं में तब्दील हो जाना। इन देशों के पूँजीपति वर्ग को ज़नता ने अपनी आँखों के सामने पिछले चार दशकों में पतित होते हुए देखा है। एक समय था जब इन देशों के पूँजीपति वर्ग ने साम्राज्यवाद के ख़िलाफ समझौताविहीन संघर्ष किया था और उपनिवेशवादियों को अपने देश से भगाने में ज़नता की अगुवाई की थी। मिस्र में जनरल नासिर, लीबिया में कज्जाफी, अल्जीरिया में बेन-बेला और बूमेदियेन, ट्यूनीशिया में हबीब बुर्ग़ीबा ने साम्राज्यवाद के ख़िलाफ संघर्ष में भूमिका निभायी और अपने-अपने देशों को साम्राज्यवाद से आज़ाद कराने में ज़नता को नेतृत्व दिया। लेकिन आज़ादी के बाद इन सभी ने पूँजीवादी विकास का रास्ता अख्तियार किया। विश्व में अमेरिकी और सोवियत साम्राज्यवाद के बीच की प्रतिर्स्पद्धा का पूँजीपति वर्ग के इन सभी प्रतिनिधियों ने लाभ उठाया और अपने देश में आयात प्रतिस्थापन, सार्वजनिक क्षेत्र और राष्ट्रीकरण की नीतियों द्वारा राजकीय एकाधिकारी पूँजीवाद का विकास किया। इस पूरे दौर में इन सभी ने अपने-अपने देशों में कम्युनिस्टों का जमकर दमन किया। कुछ देशों में कोई भी मौक़ा दिये बिना कम्युनिस्टों की धर-पकड़ की गयी, उन्हें जेलों में ठूँसा गया, यातनाएँ दी गयीं या बड़ी संख्या में उन्हें मार दिया गया। अन्य देशों में पूँजीपति वर्ग के इन प्रतिनिधियों ने दो विकल्प सामने रखे : या तो पूँजीवादी संसदीय व्यवस्था का अंग बनो या अपने पूर्ण विनाश के लिए तैयार हो जाओ। 1956 में सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बाद ख्रुश्चेव ने ”शान्तिपूर्ण संक्रमण”, ”शान्तिपूर्ण प्रतिस्पर्द्धा” और ”शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व” के नारों के साथ जो संशोधानवादी हवा चलायी उसके प्रभाव ने इन पार्टियों के जुझारू तेवर ढीले करने और उन्हें समझौतापरस्त बनाने में बड़ी भूमिका निभायी। 1980 के दशक तक अधिकांश अरब देशों में कम्युनिस्ट पार्टियाँ बेहद कमज़ोर हो चुकी थीं, बिखर चुकी थीं या ख़त्म होने की कगार पर थीं या फिर वे पूँजीवादी संसदीय जनतन्त्र का अंग बन चुकी थीं। इस पूरे दौर में इस पूँजीपति वर्ग का पतन जारी था। जिस पूँजीपति वर्ग ने साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक समय संघर्ष किया था और जो ज़नता के विशाल जनसमुदायों का नायक था, वह भ्रष्टाचार, पतन, विलासिता और भाई-भतीजावाद में डूब चुका था। 1980 के दशक के बाद अधिकांश अरब देशों में राजकीय पूँजीवाद पूँजी संचय में बाधा बनने लगा था। नतीजतन, इन देशों के पूँजीपति वर्ग ने धीरे-धीरे निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों को लागू करना शुरू किया। पूँजीवादी व्यवस्था के संकट और भूमण्डलीकरण के दौर में इन देशों के पूँजीवाद के पास साम्राज्यवाद का ‘जूनियर पार्टनर’ बनने और उसके प्रति समझौतापरस्त रुख़ अख्तियार करने के सिवा और कोई रास्ता नहीं था। इस पूरी प्रक्रिया में इन देशों का सत्तासीन पूँजीपति वर्ग अधिक से अधिक भ्रष्ट, पतित और विलासी होता गया। इन देशों के शासक अपनी और अपने परिवार वालों की जेबें भरने में लग गये और अमेरिकी साम्राज्यवाद से शर्मनाक समझौते करने लगे। इस पूरी प्रक्रिया ने ज़नता में इन शासकों के ख़िलाफ भयंकर नफरत और घृणा भर दी। मौजूदा जनविद्रोह इस नफरत के फूटने का भी अवसर था। वास्तव में, साम्राज्यवाद और उसके प्रति समझौतापरस्ती का रुख़ अख्तियार करने वाले अरब शासकों के ख़िलाफ नफरत ने जारी अरब जनविद्रोह में एक अहम भूमिका निभायी है।

तीसरा प्रमुख कारण, जो कि पहले कारण से जुड़ा हुआ है, वह है फिलिस्तीन का सवाल। फिलिस्तीन के सवाल ने पूरी अरब ज़नता को रैडिकल बनाने और उसके क्रान्तिकारीकरण में एक अहम भूमिका निभायी है। 1948 में इज़रायल के निर्माण के बाद फिलिस्तीन की ज़नता को जिस तरह से अपनी ज़मीन से बेदख़ल किया गया, उसने पूरे अरब विश्व में फिलिस्तीनी ज़नता के साथ हमदर्दी की लहर पैदा की। विस्थापित होने वाले फिलिस्तीनी पूरे अरब इलाक़े में बिखर गये। इस बिखराव ने अरब ज़नता में फिलिस्तीन के उद्देश्य के साथ भारी सहानुभूति पैदा की और फिलिस्तीनी ज़नता के साथ हुए सुलूक ने उन्हें काफी रैडिकलाइज़ किया। इज़रायल को पूरे अरब विश्व में भयंकर घृणा के साथ देखा जाता है। 1978 में मिस्र ने कैम्प डेविड समझौते के बाद इज़रायल के सहयोगी की भूमिका अपना ली। उसी समय से यह मिस्र में सत्ता के ख़िलाफ ज़नता के असन्तोष का एक कारण बना हुआ है। अरब की ज़नता ने इसे फिलिस्तीनी उद्देश्य के साथ ग़द्दारी के रूप में देखा। जिन अरब देशों के शासकों ने फिलिस्तीन के सवाल पर समझौतापरस्ती की उन सभी देशों में शासकों के ख़िलाफ ज़नता में भयंकर रोष है। इज़रायल का घमण्ड और उसके द्वारा बार-बार किया जाने वाला अरब ज़नता का नरसंहार इस रोष को और अधिक बढ़ाता है। इस समय अमेरिका और इज़रायल काफी घबराये हुए हैं। वे जानते हैं कि मौजूदा बग़ावतें मध्यपूर्व में उनके हितों पर प्राणान्तक चोट कर सकती हैं। अमेरिका अभी से इन प्रयासों में लग गया है कि तानाशाहों की सत्ताएँ जाने के बाद कुछ जनवादी अधिकार देने वाली ऐसी सत्ताएँ इन देशों में स्थापित हों जो उसके हितों को संरक्षण दें; इज़रायल के प्रति उनका रुख़ दुश्मनाना न हो और फिलिस्तीनी ज़नता के दमन के सवाल पर इन सत्ताओं का रुख़ अमेरिका-इज़रायल विरोधी न हो। हो सकता है कि मिस्र, ट्यूनीशिया और लीबिया में ऐसी सत्ताएँ अस्तित्व में आएँ जो अमेरिकी हितों पर सीधे चोट न करें। लेकिन अब खुले तौर पर अमेरिका और इज़रायल का समर्थन कर सकना नयी सत्ताओं के लिए मुश्किल होगा। यह काम अगर जारी भी रहता है तो परोक्ष तौर पर और कुछ सम्भलकर ही जारी रह सकता है।

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यही वे तीन प्रमुख कारण हैं जो अरब ज़नता को बार-बार सड़कों पर उतारते हैं। यही वे कारण हैं जिन्होंने अरब विश्व को आज विश्व राजनीति में विस्फोटक सामग्री बना रखा है। इन्हीं के चलते आज अरब विश्व में साम्राज्यवाद के अन्तरविरोध एक गाँठ के रूप में संकेन्द्रित दिखलायी पड़ते हैं। यही कारण है कि अरब विश्व में जारी जनविद्रोह ने साम्राज्यवादियों के दिलो-दिमाग़ में बेचैनी भर दी है। पूरे मध्यपूर्व में साम्राज्यवाद के हितों का समीकरण बेहद नाज़ुक सन्तुलन पर टिका हुआ है। कोई भी झटका इसके लिए घातक साबित हो सकता है। ऐसे में, मध्यपूर्व में चीज़ें जिस दिशा में जा रही हैं, वे साम्राज्यवादी हितों को जोखिम में डाल सकती हैं।

लेकिन ऐसे में हमें किसी छद्म आशावाद का शिकार नहीं होना चाहिए। निश्चित रूप से मिस्र और ट्यूनीशिया के मज़दूरों, नौजवानों और औरतों की बहादुरी को, उनके जुझारूपन को हम सलामी देते हैं और उससे सीखते हैं। अरब विश्व में जारी जनविद्रोह ने आज के निराशा के दौर में इस बात को एक बार फिर रेखांकित किया है कि चीज़ें बदलती हैं! कोई भी दमनकारी, शोषक सत्ता स्थायी नहीं होती! परिवर्तन प्रकृति और समाज का नियम है! बड़े-बड़े तानाशाहों और जनरलों की सत्ताओं को जनशक्ति ने धूल में मिलाकर रख दिया है। पैसे और हथियारों की ताक़त ज़नता के संगठन और एकजुटता की ताक़त के सामने धरी की धरी रह जाती है। इस रूप में मिस्र, ट्यूनीशिया, लीबिया और अरब विश्व के तमाम देशों में ज़नता जिस तरह से लड़ रही है और तानाशाहों को खदेड़ रही है, वह क़ाबिले-तारीफ है।

लेकिन हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि इस समय अरब विश्व में जारी जनउभार एक स्वत:स्फूर्त जनविद्रोह है। इस स्वत:स्फूर्त जनविद्रोह के पास किसी वैकल्पिक व्यवस्था का कोई खाका नहीं है। मिस्र के मज़दूर आन्दोलन के नेतृत्व में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ताक़तें भी शामिल हैं, लेकिन वे एकमात्र ताक़तें नहीं हैं जो इसमें शामिल हैं। कई प्रकार की शक्तियाँ मज़दूर आन्दोलन के नेतृत्व में हैं। कोई एकीकृत क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्ति इस आन्दोलन को राजनीतिक नेतृत्व नहीं दे रही है। छात्र-युवा और स्त्रियाँ भी स्वत:स्फूर्त ढंग से सड़कों पर जनवादी अधिकारों की ख़ातिर उतर पड़े हैं। उनका भी कोई एकीकृत नेतृत्व नहीं है। यही कारण है कि हुस्नी मुबारक के इस्तीफा देने के बाद मिस्र में सत्ता वास्तव में सेना प्रमुख तन्तावी के हाथ में है, जो कि अमेरिका का वफादार है। तन्तावी ने ज़नता से तमाम जनवादी सुधारों का वायदा किया है, लेकिन उसने अभी तक इमरजेंसी क़ानून तक को नहीं हटाया है। वह कह रहा है कि ज़नता पहले तहरीर चौक से वापस जाये और उसके बाद इमरजेंसी क़ानून को हटाने पर विचार किया जायेगा। यानी, पहले अपना मुँह बन्द रखो, फिर हम तुम्हारे बोलने की आज़ादी पर विचार करेंगे! तन्तावी ने मुबारक के हटते ही तत्काल ही यह बयान भी दे डाला कि मिस्र की आर्थिक नीतियों और विश्व राजनीति में उसकी नीतियों में कोई विशेष अन्तर नहीं आने दिया जायेगा। नयी सत्ता ने अपना असली रूप दिखाते हुए मज़दूर हड़तालों को फौरन बन्द करने की धमकियाँ देनी शुरू कर दीं। यानी, तन्तावी ने कुल मिलाकर ज़नता से जो वायदा किया है, वह कुछ जनवादी अधिकारों का है, और वह वायदा भी पूरा होगा या नहीं इसके बारे में दावे से कुछ कहा नहीं जा सकता। शायद इसके लिए अभी ज़नता को और संघर्ष करना पड़ेगा। यही स्थिति ट्यूनीशिया में भी है। नयी सत्ता से व्यवस्था में कोई बदलाव  नहीं आने वाला। वास्तव में, वह कुछ जनवादी अधिकार देकर ज़नता का मुँह बन्द करना चाहती है। ज़नता के बड़े हिस्से में भी यह भावना व्याप्त है कि तानाशाह शासक के जाने के साथ आन्दोलन का लक्ष्य तो लगभग पूरा हो गया। इसके अलावा, ज़नता अभी सेना से टकराने की स्थिति में भी नहीं है। इसके लिए उसके पास दो बुनियादी चीज़ें होनी चाहिए। पहला, अपनी क्रान्तिकारी पार्टी और उसका राजनीतिक नेतृत्व और दूसरा अपनी सशस्त्र सेना। दूसरी बात यह कि मिस्र में सेना के आला अधिकारी पूँजीपतियों की भूमिका में भी हैं। कई सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियाँ सेना के अधिकारियों के हाथ में हैं। सेना के ये अधिकारी आम तौर पर साम्राज्यवाद से हाथ मिलाकर काम करते हैं। मिस्र की सेना का अमेरिका से गहरा रिश्ता है। ऐसे में, सेना में दो-फाँक हो जाये तो भी पूँजीवादी व्यवस्था की रक्षा करने वाली एक सेना मौजूद रहेगी और उससे टकराने के लिए ज़नता का अपना राजनीतिक नेतृत्व और सशस्त्र सेना होना आवश्यक है। ऐसी कोई तैयारी अभी मिस्र की ज़नता की नहीं है। इस तरह से देखें तो हम पाते हैं कि मिस्र की ज़नता के पास कोई क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्व, एक वैकल्पिक व्यवस्था की रूपरेखा और कोई सैन्य संगठन मौजूद नहीं है। इन तीनों के बिना यह जनविद्रोह क्रान्ति में तब्दील नहीं हो सकता। मिस्र का जनविद्रोह अरब में जारी उथल-पुथल में सबसे उन्नत और महत्वपूर्ण है। बाकी देशों की तो इस मामले में बात भी करना बेकार है। कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि मौजूदा जनउभार ने कुछ तानाशाहों की सत्ता को उखाड़ फेंका है, और हो सकता है कि कुछ और तानाशाहों की सत्ता को भी यह पलट दे। लेकिन व्यवस्थागत परिवर्तन करने के लिए जिन चीज़ों की ज़रूरत है, उससे यह जनविद्रोह अभी वंचित है। इसलिए इसके क्रान्ति में परिणत होने की सम्भावना नगण्य है।

लेकिन अन्त में दो बातें जोड़ देना ज़रूरी है। पहली बात यह कि ऐसे विद्रोह अगर क्रान्ति तक न भी पहुँचें तो ज़नता को कई सुधार तो दिलवा ही देते हैं। अगर कोई व्यवस्था परिवर्तन न भी हो तो नये शासक हुस्नी मुबारक, बेन अली, और कज्जाफी जैसे दमनकारी, उत्पीड़क तौर-तरीकों को तुरन्त जारी नहीं कर सकेंगे और उन्हें कुछ जनवादी अधिकार देने ही पड़ेंगे। दूसरी बात यह, कि हर ऐसे विद्रोह के बाद ज़नता की राजनीतिक पहलकदमी खुल जाती है और वह चीज़ों पर खुलकर सोचने और अपना रुख तय करने लगती है। यह राजनीतिक उथल-पुथल भविष्य में नये उन्नत धरातल पर वर्ग संघर्ष की ज़मीन तैयार करती है। इसके दौरान ज़नता वर्ग संघर्ष में प्रशिक्षित होती है और आगे की लड़ाई में ऐसे अनुभवों का उपयोग करती है। मिस्र के मज़दूर आन्दोलन में भी आगे राजनीतिक स्तरोन्नयन होगा और मुबारक की सत्ता के पतन के बाद जो थोड़े सुधार और स्वतन्त्रता हासिल होंगे, वे मज़दूर आन्दोलन को तेज़ी से आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध होंगे। लेनिन ने कहा था कि बुर्जुआ जनवाद सर्वहारा राजनीति के लिए सबसे अनुकूल ज़मीन होता है। जिन देशों में निरंकुश पूँजीवादी सत्ताओं की जगह सीमित जनवादी अधिकार देने वाली सत्ताएँ आयेंगी, वहाँ सर्वहारा राजनीति का भविष्य उज्ज्वल होगा। इस रूप में पूरे अरब विश्व में होने वाले सत्ता परिवर्तन यदि क्रान्ति तक नहीं भी पहुँचते तो अपेक्षाकृत उन्नत वर्ग संघर्षों की ज़मीन तैयार करेंगे। हम अरब विश्व के जाँबाज़ बग़ावती मज़दूरों, नौजवानों और औरतों को बधाई देते हैं और उनकी बहादुरी को सलाम करते हैं! हमें उम्मीद है कि यह उनके संघर्ष का अन्त नहीं, बल्कि महज़ एक पड़ाव है और इससे आगे की यात्रा करने की ऊर्जा और समझ वे जल्दी ही संचित कर लेंगे।

इंकलाब ज़िन्दाबाद!


 

मुबारक की सत्ता को निर्णायक धक्का दिया मिस्र के मज़दूरों ने

मिस्र में मज़दूर संघर्षों के विस्फोट ने आम ज़नता के व्यापक विरोध प्रदर्शनों को वह ताक़त प्रदान की जिसके दम पर वह पहली जीत हासिल कर सके। वैसे तो मिस्र में मज़दूर आन्दोलनों का सिलसिला काफी समय से चल रहा था लेकिन फरवरी की शुरुआत से वहाँ मज़दूर हड़तालों की जो लहर उमड़ी उसकी तीन हफ्ते पहले कल्पना नहीं की जा सकती थी। काहिरा में हज़ारों डाक कर्मचारी काम बन्द कर सत्ता-विरोधी प्रदर्शनों में शामिल हो गये; हड़ताली रेलवे मज़दूरों ने रेल की पटरियाँ जाम कर दीं; बस ड्राइवर, केमिकल, स्टील, सीमेण्ट, कपड़ा, पेट्रोकेमिकल, दूरसंचार और पर्यटन उद्योगों के लाखों मज़दूर हड़ताल पर चले गये; केन्द्रीय जनगणना ब्यूरो के हज़ारों कर्मचारी काम बन्द करके सड़क पर उतर आये। मज़दूरों ने स्वेज़ नहर की एक महत्वपूर्ण सेवा कम्पनी को भी ठप कर दिया और यहाँ तक कि सैन्य उत्पादन कारख़ानों के मज़दूर, जो सेना के अनुशासन में होते हैं, वे भी काम बन्द करके बाहर आ गये।

मज़दूरों ने जगह-जगह बैरिकेड बनाकर पुलिस से मोर्चा लिया

मज़दूरों ने जगह-जगह बैरिकेड बनाकर पुलिस से मोर्चा लिया

अमेरिका के प्रसिद्ध पूँजीवादी अख़बार ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ ने फरवरी के शुरू में लिखा था: ”मिस्र का मज़दूर आन्दोलन पिछले दो हफ्तों से जारी विरोध प्रदर्शनों के दौरान सोये हुए दैत्य के समान रहा है, और उसकी बड़े पैमाने पर भागीदारी सरकार-विरोधी प्रदर्शनों को नयी ताक़त देगी। युवाओं के नेतृत्व में चल रहे विरोध आन्दोलन के तीसरे हफ्ते में दाखिल होने तक मिस्र की सरकार को झुकाने की उसकी कोशिशें बाधित होने लगी थीं तभी मज़दूर अपना अनुभव और संगठनबद्धता लेकर उसमें शामिल हो गये।”

कुछ विश्लेषकों का सोचना था कि मज़दूरों की माँगें अपने वेतन-भत्तों तक सीमित थीं, लेकिन जल्दी ही यह साफ हो गया कि ज्यादातर हड़ताली मज़दूर तहरीर चौक और सिकन्दरिया की सड़कों से संचालित जनउभार की राजनीतिक माँगों का समर्थन कर रहे थे।

10 फरवरी को लोहा और इस्पात उद्योग के हज़ारों मज़दूरों की ओर से एक माँगपत्रक जारी किया गया जो बड़े पैमाने पर पूरे मिस्र में बाँटा गया। उसे हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं :

1. राष्ट्रपति तत्काल इस्तीफा दें और सत्ता के सभी अधिकारी तथा प्रतीक तत्काल हटाये जायें।

2. पुरानी सत्ता के सभी प्रतीकों तथा भ्रष्ट साबित होने वाले सभी लोगों के कोष और सम्पत्ति को ज़ब्त किया जाये।

3. लोहा और इस्पात मज़दूर, जिनके बीच से अनगिनत शहीद और लड़ाकू निकले हैं, मिस्र के तमाम मज़दूरों का आह्नान करते हैं कि वे सत्ता और शासक पार्टी की मज़दूर फेडरेशन से बग़ावत करें, उसे भंग कर दें और अभी अपनी स्वतन्त्र यूनियन का ऐलान करें, तथा सत्ता की इजाज़त या सहमति के बिना अपनी स्वतन्त्र यूनियन बनाने की आज़ादी के लिए मज़दूरों की आम सभा बुलाने की योजना बनायें। यह सत्ता ढह चुकी है और अपनी वैधता पूरी तरह खो चुकी है।

4. सार्वजनिक क्षेत्र की उन सभी कम्पनियों को ज़ब्त किया जाये जिन्हें बेच या बन्द कर दिया गया या निजीकरण कर दिया गया है, और पूरे सार्वजनिक क्षेत्र, जो कि ज़नता की सम्पत्ति है, का वास्तविक राष्ट्रीकरण किया जाये और मज़दूरों तथा तकनीशियनों का नया मैनेजमेण्ट गठित किया जाये।

5. सभी कार्यस्थलों पर मज़दूरों की निगरानी कमेटियों का गठन किया जाये, जो उत्पादन, दाम, वितरण और मज़दूरी पर निगरानी रखेंगी।

6. सत्ता की सहमति या वार्ता का इन्तज़ार किये बिना नया संविधान तैयार करने और वास्तविक जन कमेटियों का चुनाव करने के लिए ज़नता के सभी सेक्टरों तथा सभी राजनीतिक प्रवृत्तियों की महासभा बुलायी जाये।

 मज़दूरों का एक विराट प्रदर्शन शुक्रवार, 11 फरवरी 2011 को इंकलाब में शामिल होने और मिस्र के मज़दूरों की माँगों का ऐलान करने के लिए तहरीर चौक पहुँचेगा।

इंकलाब ज़िन्दाबाद! मिस्र के मज़दूर ज़िन्दाबाद!

मिस्र के नौजवानों की इन्तिफादा ज़िन्दाबाद  ज़नता के लिए ज़नता का इंकलाब!

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2011

 


 

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