अरबों रुपए के धन्धे में इन्सानी ज़िन्दगी का सौदा
ग़रीबों की जान से खेलकर होती है दवाओं की परख

डॉ. अमृत पाल

कई दशक पहले एक मशहूर डॉक्टर ने कहा था – जब डॉक्टर पैसा कमाने के लिए काम करेंगे तो जनता के पैर बिना बात के ही काटे जायेंगे, बिना ज़रूरत जनता को टनों के हिसाब से दवाइयाँ खिलायी जायेंगी। वह शायद यह जोड़ना भूल गया कि जनता की जानें भी ली जायेंगी क्योंकि दुनिया का स्वास्थ्य ढाँचा अब विकास के उस चरण पर पहुँच गया है जहाँ ऐसे “चमत्कार” भी सम्भव हैं। पहले से आम लोग यह तो सुनते रहे हैं कि ग़रीब मरीज़़ सही समय पर डॉक्टरी सहायता या दवाएँ न मिलने के चलते, या फिर सरकारी लापरवाही के चलते जान से हाथ धो बैठते हैं, लेकिन अब दवा कम्पनियों ने लोगों की जान लेने का बिलकुल नया तरीक़ा ईजाद किया है, जिसके तहत दवाओं की परख के लिए ग़रीब देशों की जनता को बलि का बकरा बनाया जा रहा है।

'मेल टुडे' से साभार

‘मेल टुडे’ से साभार

पहले पहल यह बात 2004 में सामने आयी जब दो भारतीय दवा कम्पनियों द्वारा ग़ैर-क़ानूनी तौर पर दवाओं का परीक्षण करने का मामला सामने आया। इन परीक्षणों के दौरान आठ लोगों की मौत हो गयी। फिर दिसम्बर 2008 में एक अख़बारी रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में लोगों को पूरा इलाज लेने के लिए दवाओं के परीक्षण में शामिल होने के लिए मजबूर किया जाता है या इलाज पूरा करने का झाँसा देकर परीक्षणों में शामिल कर लिया जाता है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि कैंसर के एक मरीज़ को शुरुआती इलाज मिलने के बाद बाक़ी बचे इलाज के लिए कहा गया कि वह या तो परीक्षण में शामिल हो या फिर घर जाये। फिर 2010 के दौरान कैंसर रोकने वाली वैक्सीन का ट्रायल सुखि़र्यों में रहा, जो कि आन्ध्र प्रदेश और गुजरात में चल रहा था। इस ट्रायल के दौरान छह आदिवासी लड़कियों की मौत हो गयी, हालाँकि बाद में कहा गया कि ये मौतें परीक्षण की वैक्सीन की वजह से नहीं बल्कि किसी अन्य कारणवश हुई हैं। लेकिन फिर भी इस ट्रायल की जाँच के दौरान इसमें घोर अनियमितताएँ और लापरवाहियाँ सामने आयीं कि किस तरह भारत में लोगों की निरक्षरता, अल्प-ज्ञान और ग़रीबी का फ़ायदा उठाया जाता है और मानवता तथा विज्ञान के नियमों और उसूलों को ताक पर रख दिया जाता है।

इन ख़बरों के बाद सरकार के स्वास्थ्य मन्त्रालय की कुम्भकर्णी नींद में कुछ ख़लल पड़ा और स्वास्थ्य मन्त्री जी ने आँखों पर पानी के छींटे मारते हुए जागते होने का सबूत देने की कोशिश की। अभी-अभी केन्द्रीय स्वास्थ्य मन्त्री ने यह माना है कि पिछले चार सालों के दौरान दवाओं के परीक्षण के कारण 1725 लोगों की जान चली गयी है। 2007 में मौतों की गिनती 132 थी जो 2008 में 288, 2009 में 637 और 2010 में बढ़कर 688 तक पहुँच चुकी है। इनमें से सिर्फ़ 22 मामलों में ही मुआवज़ा दिया गया है।

पूरे मेडिकल क्षेत्र की तरह अब दवाओं का परीक्षण भी करोड़ों-अरबों रुपयों का व्यवसाय बन चुका है। इस धन्धे में लगभग 1000 कम्पनियाँ हैं जिसमें से आधे से ज़्यादा के मुख्यालय अमेरिका में हैं। 1990 से पहले दवाओं के परीक्षण मुख्य तौर पर अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों में होते थे लेकिन 1990 के बाद बदलाव आना शुरू हो गया। दवाओं का परीक्षण करने वाली कम्पनियों ने अपने मुनाफ़े तथा दवा बनाने वाली कम्पनियों के मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए इन ट्रायलों पर होने वाले ख़र्च को कम करने के लिए विकासशील तथा पिछड़े देशों की तरफ रुख़ करना शुरू किया क्योंकि एक तो इन देशों में लागत कम हो जाती है और साथ ही क़ानूनी तथा मरीज़़ों को ट्रायलों में शामिल करने की “व्‍यवहारिक” समस्याएँ भी कम आती हैं।

कम्पनियों के मुताबिक़ एक नयी दवा विकसित करने तथा इसे मनुष्य के इस्तेमाल के लिए फ़ायदेमन्द या नुकसानदेह सिद्ध करने में एक बिलियन मतलब 100 करोड़ डॉलर का ख़र्च आता है। हालाँकि इस ख़र्च पर बहुत से लोगों ने सवालिया निशान खड़े किये हैं जिनका कहना है कि असल में ख़र्च दवा विकसित करने पर नहीं बल्कि दवाओं को बेचने के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले हथकण्डों जैसे डॉक्टरों की हिस्सेदारी तथा तोहफ़े देने और इन कम्पनियों को चलाने वालों की मोटी तनख़्वाहों पर होता है। ख़ैर, इस बारे में फिर कभी। कहा जाता है कि दवा को विकसित करने पर आने वाले ‘बड़े’ खर्च़े का काफ़ी बड़ा हिस्सा, लगभग 40 फ़ीसदी, दवा के मनुष्यों पर होने वाले प्रयोगों पर होता है। भारत जैसे देशों में यह ख़र्चा अमेरिका तथा यूरोपीय देशों के मुक़ाबले 10 गुना कम होता है। इसके अलावा मरीज़़ों की बहुतायत के कारण परीक्षण के लिए मरीज़़ जल्दी मिल जाते हैं जिस कारण ट्रायल जल्दी ख़त्म होते हैं तथा कम्पनी को पेटेण्ट के 20 सालों के दौरान अपनी दवा बेचने के लिए ज़्यादा समय मिल जाता है। ज़्यादा समय मतलब ज़्यादा मुनाफ़ा।

आइये देखें, कम्पनियाँ अपनी लागत कैसे कम करती हैं

अमेरिकी तथा पश्चिमी यूरोप के देशों में मरीज़ों को प्रयोगों में शामिल करने के लिए कम्पनियों को तरह-तरह के प्रलोभन देने पड़ते हैं क्योंकि स्वास्थ्य बीमा या स्वास्थ्य की सरकारी सहूलियत होने के कारण इन देशों में नयी दवाओं के प्रयोगों में शामिल होने के लिए कम ही लोग राजी होते हैं। इसके अलावा उनकी भागीदारी को बनाये रखने के लिए भारी ख़र्च करना पड़ता है क्योंकि इन देशों में मरीज़ अक्सर प्रयोगों से बाहर हो जाने के अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए दवा के ट्रायल को बीच में ही छोड़कर चले जाते हैं। इससे एक ओर तो छोड़कर गये मरीज़ों का ख़र्चा कम्पनी के सिर पर पड़ता है वहीं नये मरीज़ लेने का ख़र्च भी आन पड़ता है। इसके साथ ही प्रयोगों का समय भी ज़्यादा लम्बा हो जाता है जिस कारण पेटेण्ट के बाद दवा बेचकर कमाई करने का मौक़ा भी कम मिलता है।

लेकिन भारत और अन्य विकासशील देशों में कम्पनियों को इन ‘मुश्‍क़िलों’ का सामना नहीं करना पड़ता। इन देशों में इलाज का ख़र्च उठाने में असमर्थ मरीज़ों की बड़ी गिनती मिल जाती है। उनकी इस मजबूरी का फ़ायदा उठाकर मुफ़्त इलाज़, मुफ़्त डॉक्टरी सलाह का लालच देकर मेडिकल प्रयोगों तथा परीक्षणों को प्रायोजित करने वाली संस्थाएँ तथा फ़ार्मेसी कम्पनियाँ बिना किसी अतिरिक्त ख़र्चे के ऐसे ग़रीब मरीज़ों को नयी दवाओं के प्रयोगों में शामिल कर लेती हैं। बहुत बार धोख़े से नयी दवाओं के प्रयोग को इलाज़ का एक तरीक़ा बताकर पेश किया जाता है और ग़रीब लोगों की जान के साथ खिलवाड़ किया जाता है। चूँकि भारत में ग़रीबी का महासागर है तथा ऐसे मरीज़ों की विशाल गिनती है जो अपने इलाज़ का ख़र्च नहीं उठा सकते इसलिए भारत इन कम्पनियों तथा संस्थाओं के लिए स्वर्ग है।

इसके अलावा भारत या अन्य ग़रीब देशों में मरीज़ों के ट्रायल को बीच में छोड़कर जाने की दर बहुत कम है। इन देशों में 90 फ़ीसदी मरीज़ ट्रायल को पूरा करते हैं जबकि पश्चिमी देशों में 10 में से 6 मरीज़ ट्रायल को बीच में ही छोड़कर चले जाते हैं। इसका एक कारण तो मुफ़्त इलाज़ तथा मुफ़्त डॉक्टरी सलाह का लालच होता है जो ग़रीब मरीज़ों को दिया जाता है। एक और बड़ा कारण यह भी है कि इन पिछड़े देशों के लोग आमतौर पर अनपढ़ होते हैं इसलिए वे अपने अधिकार नहीं जानते या उनके पिछड़ेपन का फ़ायदा उठाकर कम्पनियाँ और ट्रायल करने वाले कर्मचारी उनको इस बारे में बिल्कुल नहीं बताते। इस तरह पश्चिमी लोगों के इलाज के लिए दवाओं के प्रयोगों की क़ीमत पिछड़े देशों के लोग उठाते हैं, सिर्फ़ इसलिए कि कम्पनियों की नज़र में उनकी जान की क़ीमत अमीर देशों के लोगों की जान की क़ीमत के मुक़ाबले कहीं कम है।

सिर्फ़ यही नहीं, पिछड़े देशों में दवाओं के प्रयोग सम्बन्धी क़ानूनों तथा नियामक प्रबन्धों का वजूद नहीं है। या इनके कम प्रभावी होने के चलते भी कम्पनियों का काम आसान हो जाता है। रही-सही कसर इन देशों के ढाँचे में फैला हुआ व्यापक भ्रष्टाचार निकाल देता है क्योंकि इससे मरीज़ों के प्रति ज़िम्मेदारी तथा एकदम सही रिकॉर्ड रखने की ज़रूरत कम हो जाती है, जो पश्चिमी देशों में सख़्त क़ानून तथा प्रबन्ध होने के कारण सम्भव नहीं। भारत में भी ऐसा ही हुआ है। आम तौर पर होना तो यह चाहिए कि सरकार ज़रूरत को पहले ही भाँपकर कानून तथा नियामक संस्था स्थापित करे, पर हुआ इसके बिल्कुल विपरीत। 1990 में ही यह रुझान सामने आने के बावजूद कुछ साल पहले तक सरकार के कान पर जूँ नहीं रेंगी, उसके बाद यह जूँ रेंगी भी तो 2005 में ऐसे क़ानून बनाये गये जिससे भारत में होने वाले ट्रायलों की संख्या पहले से कहीं तेज़ गति से बढ़ी है। न सिर्फ़ इतना ही, बल्कि भारत सरकार ने कम्पनियों द्वारा देश के लोगों पर परखी जाने वाली दवाओं को भारतीय लोगों के लिए सस्ती दरों पर उपलब्ध करवाने के अपने दावे को भी छोड़ दिया है तथा कम्पनियों को भारतीय जनता की ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ करके मुनाफ़ा कमाने की खुली छूट दे दी है।

एक अन्य बहुत अहम मुद्दा है जिस पर विचार किया जाना चाहिए। हर समाज अमीरों तथा ग़रीबों में बँटा हुआ है। भारत में अमीर ग़रीब के बीच की खाई कहीं अधिक गहरी है। इन दोनों वर्गों में ख़ुराक तथा रहन-सहन के सम्बन्ध में बड़ा फ़र्क़ है जिसके चलते इनकी बीमारियाँ भी अलग-अलग हैं। जैसे कि शुगर, हाई ब्लड-प्रेशर, दिल के रोग तथा कुछ मानसिक रोग आदि मुख्यतः धनिकों तथा मध्य वर्ग की बीमारियाँ हैं जबकि ग़रीब जनता की बीमारियाँ आम तौर पर विभिन्न क़िस्म के बैक्टीरिया, अन्य इन्प़फ़ेक्शनों या कुपोषण के चलते होती हैं। अब चूँकि धनिक तथा मध्य वर्ग के लोग आमतौर पर दवाओं के परीक्षण में शामिल नहीं होते क्योंकि उनको परीक्षण में शामिल करने के लिए मना पाना कठिन होता है या शामिल होने के फ़ायदे से वे ज़्यादा प्रभावित नहीं होते, इसलिए इस वर्ग की बीमारियों के लिए दवाओं का परीक्षण भी ग़रीब तथा अनपढ़ लोगों पर ही किया जाता है। यह सामाजिक तौर पर ग़लत है। एक अल्पसंख्यक वर्ग के लिए बहुसंख्यक आबादी अपनी मजबूरियों के चलते बलि का बकरा क्यों बने? दूसरा, अक्सर नयी दवाओं की क़ीमत हज़ारों-लाखों में होती है जिसे ख़रीद पाना ग़रीबों के वश में नहीं होता। अब जो नयी दवाएँ ग़रीब लोग ख़रीद ही नहीं सकते उनके परीक्षण का जोखिम अपनी जान की क़ीमत पर आम लोग क्यों उठाएँ?

मरीज़ों पर होने वाले कम ख़र्च के अलावा, भारत जैसे देशों में परीक्षण करने के लिए तथा रिकॉर्ड रखने के लिए ज़रूरी मेडिकल श्रम शक्ति पश्चिमी देशों के मुक़ाबले सस्ती है। इस तरह न सिर्फ़ भारत की बहुसंख्यक ग़रीब आबादी का शारीरिक शोषण ही किया जाता है बल्कि यहाँ का बौद्धिक शोषण भी किया जाता है।

यहीं पर बस नहीं, भारत में इस तरह के खोज कार्यों के लिए कम्पनियों को एक अन्य ‘वैज्ञानिक’ लाभ भी मिलता है जो भारत के लिए गर्व की नहीं बल्कि शर्म की बात है तथा जिसकी वजह है भारत की बहुसंख्यक आबादी का स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित होना। चूँकि भारत में बहुत सारे मरीज़ों को सही वक़्त पर सही डॉक्टरी सलाह तथा सही इलाज़ नहीं मिलता, इसलिए यहाँ बीमारियों के काफ़ी बढ़ चुके तथा बिगडे़ हुए केस आराम से मिल जाते हैं तथा ऐसे मरीज़ भी बहुत मिल जाते हैं जिन्होंने दवा के परीक्षण से पहले कोई भी दवा नहीं ली होती। यह ‘वैज्ञानिक’ लाभ आम तौर पर पश्चिमी देशों में नहीं मिलते।

दूसरी ओर भारत के धनिक तथा नवधनिक वर्ग, जिसमें यहाँ के बहुत से डॉक्टर भी शामिल हैं, दवाओं के परीक्षण के लिए कम्पनियों के भारत में आने को ‘मेडिकल टूरिज़्म’ जैसे बड़े विशेषण लगाकर भारत की जनता के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध करने पर तुला हुआ है। उनके मुताबिक़ इससे भारत के स्वास्थ्यकर्मियों को नई तकनीकों तथा नयी दवाओं के बारे में जानकारी मिल रही है तथा भारत में मेडिकल शिक्षा तथा खोज कार्यों का ‘स्टैण्डर्ड’ ऊँचा हो रहा है। इनकी मानें तो यह एक मुँहमाँगी नियामत है। पर क्या सचमुच ऐसा है? हो सकता है, नयी तकनीकें तथा नयी दवाएँ आ भी रही हों, लेकिन इनका फ़ायदा किसको है? क्या इसका फ़ायदा बहुसंख्यक आबादी को है या कुछ फ़ीसदी धनिक लोगों को है जो आमतौर पर इसलिए बीमार होते हैं क्योंकि वे ज़रूरत से ज़्यादा खाते हैं और कोई शारीरिक काम नहीं करते या फिर अलगाव के चलते मानसिक तौर पर परेशान हैं। इन नयी तकनीकों तथा दवाओं का फ़ायदा भी इन्हीं लोगों को है क्योंकि जिन दवाओं के लिए खोज कार्य या परीक्षण होते हैं वे दरअसल इन्हीं की बीमारियों से सम्बन्धित होती हैं और यही वह तबका है जो देश की धन-दौलत पर क़ाबिज़ होने के चलते दवाओें पर मोटा पैसा ख़र्च कर सकता है। अगर आम जनता की बीमारियों से सम्बन्धित दवाओं का परीक्षण होता भी है तो वे इतनी महँगी होती हैं कि भारत के मेहनतकश लोग इन्हें प्राप्त करने के बारे में सोच भी नहीं सकते। हाँ, एक फ़ायदा ट्रायलों में शामिल डॉक्टरों को होता है! उन्हें उस करोड़ों-अरबों के व्यवसाय में से मुनाफ़े के कुछ टुकड़े मिल जाते हैं जिस पर पहले अमेरिकी तथा यूरोपीय डॉक्टरों का एकाधिकार था।

थोड़ा भारत में मेडिकल शिक्षा तथा खोज कार्यों का स्टैण्डर्ड ऊँचा होने के तर्क की छानबीन भी कर लें। पहली बात तो यह कि इस ऊँचे हो रहे ‘स्टैण्डर्ड’ का फ़ायदा भी बहुसंख्यक 80 फ़ीसदी आबादी को नहीं होता तो ऐसे ऊँचे स्टैण्डर्ड का लाभ ही क्या? दूसरी बात क्या वाक़ई ऐसा हो भी रहा है? अगर राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही चर्चा पर ध्यान दें तो इसका जवाब ना में ही मिलता है। भारत में बहुतेरे मेडिकल कालेजों में अध्यापक भी पूरे नहीं हैं तथा पढ़ाई के लिए साज़ो-सामान की ज़बरदस्त कमी है। ऐसे में ‘स्टैण्डर्ड’ ऊँचा हो भी कैसे सकता है? अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इन परीक्षणों तथा ट्रायलों की रिपोर्टें शक़ के घेरे में हैं क्योंकि भारत जैसे ग़रीब देश में रिकार्ड रखने तथा परीक्षण के समय ज़रूरी सावधानियों तथा नियमों की कोई परवाह नहीं की जाती। इस तरह ये परीक्षण न सिर्फ़ ग़रीब जनता को मौत के मुँह में धकेलते हैं बल्कि विज्ञान की भी ऐसी-तैसी कर देते हैं तथा परीक्षणों पर ख़र्च होने वाले मानवीय संसाधनों को भी बर्बाद करते हैं।

एक नज़र परीक्षणों के बारे में अन्तरराष्ट्रीय नियमावली पर

विश्व स्वास्थ्य एसोसिएशन के हेलसिंकी घोषणापत्र के पैरा 17 के मुताबिक़ – किसी पिछड़ी हुई आबादी या समुदाय पर होने वाले खोज कार्य को तभी जायज़ ठहराया जा सकता है यदि ऐसा खोज कार्य उस आबादी या समुदाय की स्वास्थ्य सम्बन्धी ज़रूरतों तथा प्राथमिकताओं के मुताबिक़ हो और इस बात की पूरी सम्भावना हो कि खोज कार्य के नतीजों से उस आबादी या समुदाय को लाभ मिलेगा। पर इस दिशानिर्देश की सरेआम धज्जियाँ उड़ायी जाती हैं। भारत में होने वाले बहुतेरे ट्रायलों से तो भारत की आम जनता को कोई ख़ास लाभ नहीं होता। अक्सर कम्पनियाँ जिन दवाओं का परीक्षण करती हैं या तो उनकी बहुतेरे भारतीय लोगों को ज़रूरत ही नहीं होती या फिर उनकी क़ीमत इतनी होती है कि बहुसंख्यक भारतीय आबादी उन्हें ख़रीद ही नहीं सकती। हालाँकि कम्पनियों के लिए यह लाज़िमी होता है कि वह परीक्षण के तहत आने वाली आबादी या समुदाय के लिए लोगों की क्रयशक्ति के मुताबिक़ दवा उपलब्ध करवाए, लेकिन ऐसे उद्देश्यों की मुनाफ़े की अन्धी दौड़ में कोई जगह नहीं है। इस व्यवस्था में अन्य तमाम क़ानूनों-उसूलों की तरह यह घोषणापत्र भी एक सफ़ेद हाथी से ज़्यादा कुछ नहीं है। बस कुछ भोली आत्माएँ इन घोषणापत्रों की दुहाई देती रहती हैं तथा मुनाफ़े के तेज़ चलते चक्कों तले रौंदी जा रही मानवता की चीख़-पुकार सरकार और कम्पनियों के झूठे दावों-दिलासों के आगे जाड़ों की ठण्डी रात की चुप्पी की तरह गुम हो जाती हैं।

 

मज़दूर बिगुलअगस्त-सितम्बर 2011

 


 

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