दिहाड़ी मज़दूरों की जिन्दगी!
क़पिल कुमार, करावल नगर, दिल्ली
मैं एक भवन निर्माण मज़दूर हूँ। मैं बिहार प्रदेश से रोजी-रोटी के लिए दिल्ली आया हूँ। यहाँ मुश्किल से 30 दिनों में 20 दिन ही काम मिल पाता है। जिसमें भी काम करने के बाद पैसे मिलने की कोई गारण्टी नहीं होती है। कहीं मिल भी जाते हैं तो कहीं दिहाड़ी भी मार ली जाती है। कोई-कोई मालिक तो जबरन पूरा काम करवाकर (ज़मींदारी समय के समान) ही पैसे देते हैं और अधिक समय तक काम करने पर उसका अलग से मज़दूरी भी नहीं देते हैं। कई जगह मालिक पैसे के लिए इतना दौड़ाते हैं कि हमें लाचार होकर अपनी दिहाड़ी ही छोड़नी पड़ती है। यहाँ करावल नगर में लेबर चौक भी लगता है। जहाँ न बैठने की जगह है न पानी पीने की। चौक से जबरन कुछ मालिक काम पर ले जाते हैं नहीं जाने पर पिटाई भी कर देते हैं। दूसरी तरफ दिहाड़ी मज़दूरों की बदतर हालात सिर्फ काम की जगह नहीं बल्कि उनकी रहने की जगह पर भी है जहाँ हम तंग कमरे में रहते हैं। हमारे बच्चे मुश्किल से ही पढ़ने-लिखने जा पाते हैं। अगर हमारे परिवार में कोई बीमार हो जाता हैं तो हमारे सामने सस्ते इलाज के लिए झोलाछाप डाक्टर के सिवा कोई नहीं है और हमारी बीमार का भी कारण पीने का गन्दा पानी और नालियों में बजबजाते मच्छर हैं। हमें पेट काटकर ही जीना पड़ता है और आसपास भी दिहाड़ी मज़दूरों की ऐसी ही स्थिति दिखती है।
मज़दूर बिगुल, अगस्त-सितम्बर 2012