चाय बेचने की दुहाई देकर देश बेचने के मंसूबे

कविता कृष्णपल्लवी

modi and teaजब लोकरंजकता की लहर चलती है तो तार्किकता का कोई पूछनहार नहीं होता। आजकल मोदी और भाजपाई इस बात को खूब भुना रहे हैं कि मोदी कभी चाय बेचते थे। वे कांग्रेस और मणिशंकर अय्यर पर हमले कर रहे हैं कि उन्होंने मोदी की पृष्ठभूमि की खिल्ली उड़ाई। कुछ सेक्युलर और प्रगतिशील लोग भी कहते मिल रहे हैं कि मोदी की चाय बेचने की पृष्ठभूमि का मज़ाक नहीं उड़ाया जाना चाहिए।

मेरा ख़्याल कुछ जुदा है। यदि कोई चाय बेचने की पृष्ठभूमि को भुनाता है तो उसका मज़ाक जरूर उड़ाया जाना चाहिए। चाय बेचने वाले के प्रधानमंत्री बन जाने से देश में चाय बेचने वालों और तमाम उन जैसों का भला होगा या नहीं, यह इस बात से तय होगा कि राज्यसत्ता का चरित्र क्या है, चाय  बेचने वाले की पार्टी की नीतियाँ क्या हैं! जैसे तमाम पिछड़ी चेतना के मजदूरों को यदि सत्ता सौंप दी जाये, तो समाजवाद नहीं आ जायेगा! समाजवाद वह हरावल पार्टी ही ला सकती है जो क्रान्ति के विज्ञान को, समाजवाद की अर्थनीति और राजनीति को समझती हो!

केवल किसी की व्यक्तिगत पृष्ठभूमि ग़रीब या मेहनतकश का होने से कुछ नहीं होता। बाबरी मस्जिद ध्वंस करने वाली उन्मादी भीड़ में और गुजरात के दंगाइयों में बहुत सारी लम्पट और धर्मान्ध सर्वहारा-अर्धसर्वहारा आबादी भी शामिल थी। दिल्ली गैंगरेप के सभी आरोपी मेहनतकश पृष्ठभूमि के थे। भारत की और दुनिया की बुर्जुआ राजनीति में पहले भी बहुतेरे नेता एकदम सड़क से उठकर आगे बढ़े थे, पर घोर घाघ बुर्जुआ थे। कई कांग्रेसी नेता भी ऐसे थे। चाय बेचने वाला यदि प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी है और इतिहास-भूगोल-दर्शन-सामान्य ज्ञान – सबकी टाँग तोड़ता है तो एक बुर्जुआ नागरिक समाज का सदस्य भी उसका मज़ाक उड़ाते हुए कह सकता है कि वह चाय ही बेचे, राजनीति न करे। चाय बेचने वाला यदि एक फासिस्ट राजनीति का अगुआ है तो कम्युनिस्ट तो और अधिक घृणा से उसका मज़ाक उड़ायेगा। यह सभी चाय बेचने वालों का मज़ाक नहीं है, बल्कि उनके हितों से विश्वासघात करने वाले लोकरंजक नौटंकीबाज़ का मज़ाक है।

हिटलर ने भी सेना में जाने के पहले कैज़ुअल मज़दूरी करते हुए रंगसाज़ी का काम किया था और बेर्टोल्ट ब्रेष्ट ने अपनी कई कविताओं में ‘रंगसाज़ हिटलर’ को एक रूपक बनाते हुए उसका खूब मज़ाक उड़ाया है। चाय बेचने वाले मोदी पर, मैं सोचती हूँ, काफी अच्छी व्यंग्यात्मक कविताएँ लिखी जा सकती हैं।

और अन्त में एक किस्सा। एक मुलाक़ात के दौरान ख़्रुश्चेव ने चाऊ एन-लाई से कहा कि ‘हम लोगों में एक बुनियादी फर्क यह है कि मैं मेहनतकश वर्ग से आता हूँ, जबकि आप कुलीन वर्ग से।’ चाऊ एन-लाई ने कहा, ‘लेकिन एक बुनियादी समानता भी है। हम दोनों ने अपने-अपने वर्ग से ग़द्दारी की है।’ नरेन्द्र मोदी चाय बेचता था, यह रट्टा लगाना वह बन्द कर देगा, यदि उसे पता चलेगा कि मुसोलिनी एक लुहार का बेटा था, जो बचपन में लुहारी के काम में अपने पिता की मदद करता था और हिटलर पहले घरों में रँगाई-पुताई का काम करता था। चाय बेचने की पृष्ठभूमि वाले नरेन्द्र मोदी, अरे, तुम्हारी तो पृष्ठभूमि भी तुम्हारे नायकों जैसी ही है! ये तो पोपट हो गया!

चाय वालों के कुछ किस्से और ख़ूनी चाय की तासीर

मेरे बचपन में, गोरखपुर की एक पुरानी बस्ती में एक चाय वाला चाय बेचता था। उसकी चाय में कुछ अलग ही स्वाद था। वह चाय बनाकर भी बेचता था और बुरादा चाय के पैकेट भी। एक दिन मुहल्ले के लोगों ने उसे पकड़कर खूब पीटा। पता चला कि वह चाय में गधे की लीद सुखाकर मिलाता था।

कुछ वर्षों पहले सुल्तानपुर कचहरी के बाहर चाय बेचने वाले एक ‘राजनीतिक प्राणी’ से सम्पर्क हुआ था। उसके ठीहे पर दिन भर चाय पीकर जो लोग कुल्हड़ फेंकते थे, उन्हें वह रात में बटोर लेता था और अगले दिन फिर उन्हीं में ग्राहकों को चाय देता था।

गोरखपुर में हिन्दू-मुसलमानों की मिली-जुली आबादी वाली एक बस्ती में तीन चाय की दुकानें इत्तफाक से मुसलमानों की थी। एक हिन्दू चाय वाले ने वहाँ दुकान खोली और हफ्ते भर के सघन मुँहामुँही प्रचार से उसने ‘हिन्दू चाय’ और ‘मुस्लिम चाय’ के आधार पर ग्राहकों का ध्रुवीकरण कर दिया।

जयपुर में सामाजिक कामों के दौरान एक चाय वाले का पता चला जो छोटे-छोटे बच्चों से (मुख्यतया नेपाली) पास के बैंकों, बीमा दफ्तर और दुकानों में चाय भिजवाता था, फिर जब महीने की पगार देने की बात आती थी तो उनपर चोरी का इलज़ाम लगाकर मार-पीटकर भगा देता था।

बहुत पहले, गोरखपुर से लखनऊ जाते समय जाड़े की एक रात में, किसी छोटे स्टेशन पर चाय की तलब लगी। खिड़की से चाय का कुल्हड़ पकड़ ही रही थी कि ट्रेन चल दी। चाय वाला चाय देना छोड़कर फट मेरे हाथ से घड़ी नोचकर भाग गया। मैं देखती ही रह गयी। तो साधो, इन सभी किस्सों का लुब्बोलुआब यह कि सभी चाय वाले बड़े ईमानदार और भलेमानस होते हों, यह ज़रूरी नहीं। और राजनीति में आकर वे चाय वालों जैसे सभी आम लोगों के शुभेच्छु बन जायें, लोकहित की राजनीति करने लगें, यह तो एकदम ज़रूरी नहीं।

ज़रूरी नहीं कि कोई चाय वाला होने के नाते जनता का भला ही सोचे! उनकी मानसिकता छोटे मालिक की भी हो सकती है। यह छोटा मालिक बड़ा बेरहम और गैर जनतांत्रिक होता है। हर छोटा व्यवसायी बड़ा होटल मालिक बनने का ख़्वाब पालता है। लाल किले तक नहीं पहुँच पाता तो मंच पर ही लाल किला बना देता है। चायवाले से इतनी हमदर्दी भी ठीक नहीं कि उससे इतिहास-भूगोल सीखना शुरू कर दिया जाये। यह कैसे मान लिया जाये कि कोई आदमी महज़ चाय बेचने के चलते देश का प्रधानमंत्री बनने योग्य है! हर चायवाला सभी चायवालों के हितों का प्रतिनिधि हो, यह भी जरूरी नहीं। एक रँगाई-पुताई करने वाले (हिटलर) ने और एक लुहार के बेटे (मुसोलिनी) ने अभी 70-75 वर्षों पहले ही अपने देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में गज़ब की तबाही और कत्लो-गारत का कहर बरपा किया था। यह आर्यावर्त का चायवाला उतनी बड़ी औक़ात तो नहीं रखता, पर 2002 में पूरे गुजरात में इसने ख़ूनी चाय के जो हण्डे चढ़वाये थे, उनको याद किया जाये और आज के मुज़फ्ऱफ़रनगर को देखा जाये तो इतना साफ हो जाता है कि यह पूरे हिन्दुस्तान को ख़ून की चाय पिला देना चाहता है। ख़ूनी चाय की तासीर से राष्ट्रीय गौरव की भावना पैदा होती है और देश “गौरवशाली अतीत” की ओर तेज़ी से भागता हुआ अनहोनी रफ्तार से तरक्‍़क़ी कर जाता है, ऐसा इस चायवाले का दावा है।

 

मज़दूर बिगुल, जनवरी-फरवरी 2014

 


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments