जनतंत्र नहीं धनतंत्र है यह

अजय

‘‘दुनिया के सबसे बड़े जनतन्त्र’’ की सुरक्षा का भारी बोझ जनता पर पड़ता है। इसका छोटा सा उदाहरण  मन्त्रियों की सुरक्षा के बेहिसाब खर्च में देखा जा सकता हैं जो अनुमानतः 130 करोड़ सालाना बैठता है। इसमें जेड प्लस श्रेणी की सुरक्षा में 36, जेड श्रेणी की सुरक्षा में 22, वाई श्रेणी की सुरक्षा में 11 और एक्स श्रेणी की सुरक्षा में दो सुरक्षाकर्मी लगाये जाते हैं। सुरक्षा के इस भारी तामझाम के चलते गाड़ियों और पेट्रोल का खर्च काफी बढ़ जाता हैं। केन्द्र और राज्यों के मन्त्री प्रायः 50-50 कारों तक के काफिले के साथ सफर करते हुए देखे जा सकते हैं। जयललिता जैसी सरीखे नेता तो सौ कारों के काफिले के साथ चलती हैं। आज सड़कों पर दौड़ने वाली कारों में 33 प्रतिशत सरकारी सम्पति हैं जो आम लोगों की गाढी कमाई से धुआँ उड़ाती हैं। पिछले साल सभी राजनीतिक दलों के दो सौ से ज्यादा सांसदों ने बाकायदा हस्ताक्षर अभियान चलाकर लालबत्ती वाली गाड़ी की माँग की। साफ है कि कारों का ये काफिला व सुरक्षा-कवच जनता में भय पैदा करने के साथ ही साथ उनको राजाओ-महाराजाओं के जीवन का अहसास देता है।

All party delegation in Jammuएक गैर-सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक ‘‘अतिविशिष्ट’’ तीस फीसदी लोग ऐसे हैं जिन्हें इस स्तर की सुरक्षा की कोई ज़रूरत नहीं। लगभग पचास फीसदी ‘‘अतिविशष्ट’’ लोग ऐसे हैं जिन्हें हल्की सुरक्षा पर्याप्त होगी। अभी हाल में जिस चर्चित हेलिकॉप्टर घोटाले की बात हो रही वह हेलिकॉप्टर भी अतिविशिष्ट लोगों के लिए मंगाये जा रहे थे जिनकी कीमत 3600 करोड़ थी। अगर जनता और ‘‘जनसेवकों’’ की सुरक्षा की बात करें तो जहां 761 आम नागरिकों पर एक पुलिसकर्मी तैनात है वहीं 14,842 ‘‘खास’’ आदमियों की हिफाजत के लिए 47,557 पुलिसकर्मी तैनात हैं यानी एक ‘‘खास’’ आदमी के लिए तीन पुलिस वाले।

यदि हम राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और संसद के बेहिसाब खर्च के आंकड़े देखें तब हमें इस धनतंत्र का बोझ जनता की छाती पर पहाड़ के समान दिखता है। सबसे पहले हम 340 भव्य कक्षों वाले और कई एकड़ के बागों-पार्को वाले राष्ट्रपति भवन की चर्चा करते हैं जिसके रखरखाव पर सालाना करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। 2007 में प्राप्त जानकारी के अनुसार राष्ट्रपति भवन की पांच साल की बिजली का बिल साढ़े 16 करोड़ था। भारत के खर्चीले और विलासी जनतंत्र और औपनिवेशिक विरासत के प्रति लगाव का एक जीवन्त प्रतीक चिन्ह है राष्ट्रपति भवन, जो कभी वायसराय का आवास स्थल हुआ करता था। इसके बाद प्रधानमंत्री कार्यालय पर नज़र डालें तो यहाँ का सालाना खर्च 21 करोड़ बैठता है और उनकी स्पेशल प्रोटेक्टशन ग्रुप के कमाण्डो द्वारा सुरक्षा व्यय करीब 270 करोड़ रुपये सालाना है। वहीं 2008-09 के दौरान केन्द्रीय मंत्रालय का कुल खर्च करीब 69 खरब रुपये आँका गया है जिसका एक कारण ये भी है कि मनमोहन सिंह 50 कैबिनेट मंत्रालय सहित कुल 104 मंत्रालयों का भारी भरकम काफिला चलाते हैं जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका कुल 15 मन्त्रालयों से अपना वैश्विक साम्राज्य सँभालता है।

इसके बाद संसद (जहाँ असल में बहसबाजी, उछलकूद, नारेबाज़ी और सोने-ऊँघने से अधिक कुछ नहीं होता) की फ़िज़ूलखर्ची पर आते हैं जिसकी एक घण्टे की कार्यवाही पर 20 लाख रुपये खर्च होते हैं। संसद की कैण्टीन इतनी सब्सिडाइज्ड होती हैं कि लगभग 10 प्रतिशत मूल्य का ही भुगतान करना पड़ता हैं। संसद सदस्यों के वेतन-भत्तों का पांच सालाना व्यय देखे तो ये 10 अरब करीब बैठता है।

साफ तौर पर ये चन्द आंकड़े दुनिया के सबसे बड़े और मंहगे ‘‘जनतंत्र’’ की असलियत को बताते हैं। ऐसे में हम प्रंसगवश गांधी के एक पत्र का जिक्र करना चाहेंगे। उन्होंने 2 मार्च 1930 को तत्कालीन अंग्रेज वायसराय को लिखे गये अपने लम्बे पत्र में ब्रिटिश शासन को सबसे मँहगी व्यवस्था बताते हुए उसे जनविरोधी और अन्यायी करार दिया था। उन्होंने लिखा थाः ‘‘जिस अन्याय का उल्लेख किया गया है, वह उस विदेशी शासन को चलने के लिए किया जाता है, जो स्पष्टतः संसार का सबसे मंहगा शासन है। अपने वेतन को ही लीजिए। यह प्रतिमाह 21,000 रुपये से अधिक पड़ता है, भत्ते आदि अलग से। आपको 700 रुपये प्रतिदिन से अधिक मिलता है, जबकि भारत में प्रतिव्यक्ति दैनिक औसत आमदनी दो आने है। इस प्रकार आप भारत की औसत आमदनी से 5 हजार गुने से भी अधिक ले रहे हैं। वायसराय के बारे में जो सच है, वह सारे आम शासन के बारे में है।’’ गाँधी द्वारा उठाये गये इस सवाल की कसौटी पर जब हम आज के भारत की संसदीय शासन प्रणाली को कसते हैं तो पाते हैं कि ये औपनिवेशिक शासन से भी कई गुना अधिक महँगी है।

ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा लाल बत्ती हटाने के फैसले के बाद भी हमें समझने की जरूरत हैं कि पूँजीवादी संसदीय जनवाद अपनी इस खर्चीली धोखाधड़ी और लूटतन्त्र की प्रणाली में बदलाव नहीं लाने वाला है और वैसे भी लोकतंत्र का मतलब सिर्फ वोट देने का अधिकार नहीं होता। असल में भारतीय राज्य व्यापक मेहनतकश जनता का राज्य नहीं बल्कि मुट्ठी भर पूँजीपतियों की तानाशाही वाला राज्य है। समाजवाद ही जनता की असली मुक्ति और जनवाद को कायम कर सकता है जहाँ उत्पादन, राजकाज और समाज के पूरे ढाँचे पर उत्पादन करने वाले सामाजिक वर्ग काबिज हों, फैसले की पूरी ताकत वास्तव में उन्हीं के हाथों में हो। इसलिए अब हमें तय करना हैं कि हमें क्या चुनाना हैं समाजवाद या पूँजीवाद!

 

 

मज़दूर बिगुल, जनवरी-फरवरी 2014

 


 

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