दिल्ली के ग़रीब बच्चों की नहीं मॉल वालों की चिन्ता है नगर निगम को

कपिल

पिछले दिनों मीडिया ने यह भण्डाफोड़ किया कि दिल्ली नगर निगम ने 60 स्कूलों की जमीन मॉल, मल्टीप्लेक्सों और होटलों को बेच देने का प्रस्ताव कर रखा है! हालाँकि बाद में थुक्का-फजीहत से घबराकर फिलहाल इस प्रस्ताव को वापस ले लिया गया है। लेकिन यह निचले स्तर से लेकर ऊपर तक सरकारों की मंशा को तो जाहिर कर ही देता है।

यह प्रस्ताव ऐसे समय में लाया गया है जबकि सरकारी आँकड़ों के मुताबिक नगर निगम दिल्ली के लगभग नौ लाख बच्चों को मुश्किल से प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध करवा पा रहा है और 3.4 लाख बच्चों को शिक्षा देने में असमर्थ साबित हो चुका है। एक अन्य अध्ययन के मुताबिक केवल दिल्ली में कभी स्कूल न जाने वाले और स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या लगभग 10 लाख से ज़्यादा है।

दिल्ली के 65 प्रतिशत प्राथमिक स्कूल दिल्ली नगर निगम यानी एमसीडी द्वारा संचालित किये जाते हैं। देश भर से रोज़ी-रोटी की तलाश में आने वाली बहुत बड़ी आबादी यहाँ रहकर किसी तरह अपना गुजर-बसर करती है। इस तबके के ज़्यादातर लोग या तो फ़ैक्ट्रियों, दुकानों में छोटी-मोटी नौकरी करते हैं या अपना कोई छोटा-मोटा काम जैसे रिक्शा चलाना, ठेली खींचना, रेहड़ी-पटरी लगाना आदि करते हैं। असंगठित क्षेत्र की इस आबादी के लिए जब शाम की रोटी का जुगाड़ ही मुश्कि़ल होता है तो बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए ख़र्च करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। इसीलिए अपनी ख़राब हालत के बावजूद अभी भी नगर निगम द्वारा संचालित ये स्कूल ग़रीब परिवारों के बच्चों की बड़ी संख्या के लिए शिक्षा पाने का एकमात्र जरिया हैं।

यह ग़ौर करने वाली बात है कि नगर निगम द्वारा जिन इलाक़ों के स्कूलों की ज़मीन बेची जा रही है वहाँ अब खाली जगह बची ही नहीं है। ज़ाहिर है कि दिल्ली नगर निगम का इरादा बच्चों के स्कूल की ज़मीन बिल्डरों को बेचकर मोटी रकम उगाहने के साथ-साथ उन इलाक़ों से सरकारी स्कूलों को हमेशा के लिए बन्द कर देने का भी है। इसका तर्क भी यह दिया जा रहा है कि इन स्कूलों में बच्चे नहीं आते। पहली बात तो यह कि दिल्ली के कई इलाक़ों से झुग्गी-झोपड़ियों को उजाड़कर दूर-दराज के इलाकों में जबरन बसा दिया गया है। जिन इलाकों में इन लोगों को बसाया गया है वहाँ कई और बुनियादी सुविधाओं के साथ-साथ स्कूल वगैरह भी नहीं हैं। क्या दिल्ली नगर निगम उन नये बसाये गये इलाकों में स्कूल खोलने का इरादा रखती है? ज़ाहिरा तौर पर उसकी रूचि उन इलाक़ों में स्कूल खोलने की कतई नहीं है। यह बात भी गले से उतरने लायक नहीं है कि किसी इलाके से सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे बिल्कुल ही खत्म हो जायें। इसका मतलब तो यह होगा कि उस इलाके में गरीब आबादी ही नहीं रहती है। जबकि ऐसा हो नहीं सकता। यह हो सकता है कि पहले नियम-क़ानूनों का बहाना करके बच्चों को दाखिला नहीं दिया गया होगा और अब बच्चे न आने का बहाना बनाया जा रहा हो।

दिल्ली नगर निगम द्वारा लगभग 1820 स्कूल संचालित किए जाते हैं। इनमें पढ़ाई की बदहाल स्थिति का इसी से अन्दाज़ा लग सकता है कि कक्षा 1 से 5 तक स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों का प्रतिशत 25 से 30 के बीच है। स्कूलों में बुनियादी सुविधओं तक का अकाल है। इनकी खराब हालत में पीने वाले पानी की व्यवस्था न होना, शौचालय न होना, बिल्डिंग न होना, बिजली न होना आदि हैं। अध्यापकों और जरूरी अध्ययन सामग्री की कमी तो आम बात है। बहुत सारे स्कूल अभी भी टेण्ट में चल रहे हैं।

दिल्ली नगर निगम के स्कूलों में बच्चों को क़िताबें देने के लिए भारी भरकम बजट आवण्टित होता है। परन्तु किताबें देने में पहले एक तो अध्यापक ही सौ आनाकानियाँ करते हैं और फिर देते भी हैं तो पहली तिमाही परीक्षा के आसपास जाकर। नतीज़तन ज़्यादातर बच्चों को पहले ही किताबें ख़रीदनी पड़ती हैं। इसी तरह गर्मी में पैण्ट-कमीज़ का कपड़ा और सर्दी में एक स्वेटर देने का भी प्रावधान कागज़ों में है। लेकिन अक्सर स्वेटर तब मिलता है जब सर्दियाँ ख़त्म हो चुकी होती है।

2002 की कैग रिपोर्ट के मुताबिक़ दिल्ली नगर निगम का शिक्षा के मद का 56.60 करोड़ रूपये बिना प्रयोग किये रह गये थे। इसी तरह उस अवधि में 230 नये स्कूल खोलने की योजना थी जिसमें से सिर्फ 92 खोले गये थे। ये आँकड़े सिर्फ एक नमूना है कि आम आदमी के बच्चों की शिक्षा के साथ कितना सौतेला व्यवहार किया जाता है।

तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि प्राईवेट स्कूल दिन-दूनी रात-चौगुनी तरक्की कर रहे हैं। बड़ी आलीशान बिल्डिंगों, ए.सी. क्लासरूम, घास के हरे-भरे मैदानों, स्वीमिंग पूलों, वॉलीबॉल और टेनिस कोर्टो, थियेटरनुमा हॉलों, खेल के बड़े मैदानों, विशाल लाइब्रेरियों समेत कई तरह की सुविधओं वाले स्कूलों की बाढ़ भी इसी दिल्ली में मौजूद है। इन स्कूलों को सरकार कई तरह के प्रोत्साहन भी देती है। मसलन इन्हें मिलने वाली ज़मीन अक्सर कौड़ियों के भाव दे दी जाती है। इसके बदले में कहने के लिए इन स्कूलों में 10 प्रतिशत गरीब बच्चों को दाखिला देने का प्रावधान भी मौजूद है। लेकिन यह सिर्फ कागज़ों की शोभा बढ़ाता है। दिल्ली उच्च न्यायालय के इस सम्बन्ध में दिये गये आदेश को ठेंगा दिखाते हुए स्कूल मालिक इस नियम को रद्दी की टोकरी के हवाले कर रहे हैं। दिखाने के लिए सरकार भी इसे लागू करने की नक़ली कवायद करती दिखाई पड़ती है लेकिन सच्चाई यह है कि कई स्कूल राजनीतिक नेताओं के प्रत्यक्ष निर्देशन या संरक्षण में चलते हैं, जबकि अधिकांश स्कूल मालिकों ने किसी न किसी प्रमुख राजनीतिक पार्टी से साँठगाँठ कर रखी है ताकि उन्हें किसी तरह की दिक़्क़त न आये।

दरअसल सरकारी स्कूलों के साथ अपेक्षा का भाव महज़ सरकारी उदासीनता या लापरवाही नहीं है। मौजूदा लागू आर्थिक नीतियाँ तमाम कल्याणकारी कामों को धीरे-धीरे सरकार से बाज़ार के हवाले कर देने की पैरवी करती हैं। इन नीतियों को लागू करने में कांग्रेस, बीजेपी से लेकर सपा-बसपा और पश्चिम बंगाल-केरल के कथित मार्क्सवादी भी बढ़-चढ़ कर आगे रहते हैं। इसलिए एक धीमी प्रक्रिया में सरकारी शिक्षा की हालत को ख़राब किया जा रहा है और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। गली-गली में खुलती जा रही शिक्षा की दुकानें (प्राईवेट स्कूल) इसका उदाहरण हैं। शिक्षा को निजी क्षेत्र के लिए पैसा कमाने की दुकानों में तब्दील करके इसे आम आदमी के बच्चों की पहुँच से लगातार बाहर धकेला जा रहा है। दिल्ली नगर निगम द्वारा स्कूलों की ज़मीन मॉल, मल्टीप्लेक्सों, होटलों को बेचना इसी प्रक्रिया की एक कड़ी है।

पूँजीवादी व्यवस्था का कुप्रचार अक्सर ‘सबको शिक्षा, सबको रोज़गार’ सबको ये, सबको वो वगैरह का बेसुरा राग अलापता रहता है। लेकिन इसका असली चेहरा एकदम उलट है। एक तरफ पंचसितारा होटलों जैसी सुविधाओं वाले स्कूल हैं तो दूसरी तरफ दिल्ली नगर निगम जैसे बुनियादी सुविधाओं से कोसों दूर रहने वाले स्कूल हैं। एक तरफ कुछ प्रतिशत आबादी के बच्चों के लिए शिक्षा के भारी सरंजाम खड़े किये गये हैं तो दूसरी ओर बहुत बड़ी आबादी के बच्चों से शिक्षा छीनी जा रही है। पूँजीवादी भोंपू चाहे कितना चीख-चीख कर झूठ बताते रहें लेकिन सच्चाई बार-बार सामने आती रहेगी।

 

बिगुल, जनवरी 2009

 


 

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