मालिकों के मुनाफे की हवस का शिकार – एक और मजदूर
रंजीत भी मालिकों के मुनाफे की भेंट चढ़ गया

गौरव

समस्तीपुर से काम की तलाश में दिल्ली आया रंजीत पिछले छह सालों से झिलमिल औद्योगिक क्षेत्र के बी-46 वी.के. कम्पनी में मशीन ऑपरेटर का काम कर रहा था। इस कम्पनी में कॉपर वायर बनाने का काम होता है। यहाँ 100 से ज्यादा मज़दूर काम करते हैं जिसमें स्थायी मज़दूरों की संख्या बहुत थोड़ी है। स्थायी मज़दूरों को छोड़ अन्य किसी भी मज़दूर को ई.एस.आई, पी.एफ, जॉबकार्ड से लेकर न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं मिलती है जिसके लिए वे कानूनी रूप से अधिकृत हैं। अन्य कारख़ानों की तरह यहाँ भी श्रम-कानूनों की सरेआम धज्जियाँ उड़ती हैं। कम्पनी में मज़दूरों से ज़बरदस्ती 12-14 घण्टे काम लिया जाता है, मशीन चलाने वालों से हेल्पर का काम भी लिया जाता है। जो मज़दूर थोड़ी भी आवाज़ उठाता है उसे कम्पनी बाहर का रास्ता दिखा देती है। कहीं कोई सुनवाई नहीं होती। श्रम विभाग व स्थानीय पुलिस तो वैसे भी मालिकों की चाकरी करते है और मज़दूरों पर भौंकते हैं इसलिए कम्पनी मालिक वी.के. मित्तल अन्य सभी मालिकों की तरह पूरी तौर पर आश्वस्त है।

फैक्ट्री में सुरक्षा उपायों पर, ज़ाहिर है, कोई ध्‍यान नहीं दिया जाता। जंग लगी पुरानी मशीनों और अन्य उपकरणों की सालों से कोई मरम्मत नहीं हुई है। कई बार शिकायत करने के बावजूद सुपरवाइज़र से लेकर कम्पनी प्रबन्धन तक सब चिकने घड़े बने रहते थे। मालिकों की नज़र में मज़दूरों की जान की वैसे भी कोई कीमत नहीं होती। जब तक वे जाँगर खटाते हैं, ज़िन्दगी चलती रहती है, फिर वे चाहे मरे या जियें मालिकों को इससे क्या, भले ही उनकी जान मालिकों के लिए मुनाफा कमाने में ही क्यों न चली जाये। इसी मुनाफे के चलते रंजीत को भी अपनी जान गँवानी पड़ी।

घटना वाले दिन रंजीत तथा तीन अन्य मज़दूरों को सुपरवाइज़र ने ज़बरदस्ती तार के बण्डलों के लोडिंग-अनलोडिंग के काम पर लगा दिया। उन चारों ने क्रेन की हालत देखकर सुपरवाइज़र को पहले ही चेताया था कि क्रेन की हुक व जंज़ीर बुरी तरह घिस चुके हैं जिससे कभी भी कोई अनहोनी घटना घट सकती है इसके बावजूद उन्हें काम करने के लिए मजबूर किया गया। ऐसे में वही हुआ जिसकी आशंका थी। चार टन का तारों का बण्डल रंजीत पर आ गिरा जिससे उसकी मौके पर ही मौत हो गयी। रंजीत की मौत कोई हादसा नहीं एक ठण्डी हत्या है।

अगले दिन पोस्टमार्टम के बाद जब रंजीत का शरीर जी.टी.बी. अस्पताल से अम्बेडकर कैम्प में उसके घर लाया गया तो उसके साथी मज़दूरों व बस्ती के लोगों का ग़ुस्सा फूट पड़ा। ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ तथा ‘मेहनतकश मज़दूर मोर्चा’ के आह्वान पर करीब 200 मज़दूर फैक्ट्री गेट पर जुट गये। वे रंजीत के परिवार के लिए मुआवज़े की माँग कर रहे थे। मज़दूरों ने मिल मालिक के खिलाफ एफ. आई. आर. भी दर्ज करायी थी और वे कानूनी कार्रवाई की माँग पर डटे हुए थे।

बस्ती की एकजुटता और उग्र तेवर देखकर कम्पनी प्रबन्धन ने पुलिस को बुला लिया। पुलिस ने पहले तो पुलिसिया अन्दाज़ दिखाने की कोशिश की। लेकिन मज़दूरों की फौलादी एकजुटता देखकर वे कायदा-कानून की दुहाई देने लगे। क्षेत्र के एस.एच.ओ ने वहाँ पहुँचकर मज़दूरों को कानूनी तरीके से लड़ने की नसीहत दी तथा मज़दूर प्रतिनिधियों की मालिक से वार्ता करायी। लेकिन मालिक अड़ा रहा और एफ. आई. आर. हटाने पर ही मुआवज़ा देने की शर्त रखी। उस दिन बातों का कोई नतीजा नहीं निकला और रंजीत के दाह संस्कार के लिए उसके घर और बस्ती के लोग तथा मज़दूर वापस आ गये। अगले दिन कम्पनी प्रबन्धन ने रंजीत के परिवारवालों को बुलाकर 20-25 हज़ार रुपये मुआवज़े के नाम पर थमा दिये। वह उनका मुंँह बन्द करना चाहता था या फिर यही कीमत ऑंकी थी उसने रंजीत की जान की।

इसी बीच बिगुल मज़दूर दस्ता ने रंजीत और उसके परिवार की हक और इंसाफ की लड़ाई संगठित करने के लिए बस्ती में एक परचा बाँटा जिसमें निम्न माँगें रखी गयीं :

1. रंजीत के परिवार को उचित मुआवज़ा दिया जाए।
2. परिवार के लिए पेंशन व ई. एस.आई. की सुविधा मुहैया करायी जाए।
3. फैक्ट्री इंस्पेक्टर को तुरन्त निलम्बित कर सख्त कानूनी कार्रवाई की जाए।
4. इस पूरे मामले की उच्चस्तरीय जाँच हो तथा मालिक व कम्पनी प्रबन्धन पर ग़ैर इरादतन हत्या का केस तत्काल दर्ज किया जाये।

रंजीत की मौत अपने पीछे कई सवाल छोड़ जाती है। यदि मज़दूर यूँ ही गुलामों की तरह सिर झुकाये खटते रहेंगे, मालिकों के हर अन्याय और ज़ुल्म को चुपचाप सहन करते रहेंगे तो वे इसी तरह मारे जायेंगे। उन्हें यह याद रखना होगा

अगर हम नहीं लड़ते,

अगर हम लड़ते नहीं जाते,

तो दुश्मन अपनी संगीनों से

हमें ख़त्म कर देगा,

और फिर हमारी हड्डियों की ओर इशारा करते हुए कहेगा,

देखो, ये ग़ुलामों की हड्डियाँ हैं, ग़ुलामों की!

बिगुल, दिसम्‍बर 2009


 

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