राष्‍ट्रीय राजधानी में ग़रीबों के गुमशुदा बच्चों और पुलिस-प्रशासन के ग़रीब-विरोधी रवैये पर बिगुल मज़दूर दस्ता और नौजवान भारत सभा की रिपोर्ट

Gumshuda Bachpan‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ और ‘नौजवान भारत सभा’ ने पिछले वर्ष मई से राष्‍ट्रीय राजधानी क्षेत्र में बड़ी संख्या में ग़रीबों के बच्चों के गुम होने और इस मामले में पुलिस-प्रशासन के वर्गीय पूर्वाग्रहों से काम करने का सवाल उठाते हुए अभियान शुरू किया था।

ग़ाज़ियाबाद और नोएडा से ग़ायब हो रहे बच्चों पर पिछले वर्ष ‘कहाँ गये वे बच्चे’ शीर्षक से रिपोर्ट जारी होने के बाद से राजधानी के मीडिया के साथ ही कई संस्थाओं का ध्यान इस ओर गया लेकिन पुलिस या सरकार किसी ओर से कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है। निठारी की घटना के बाद भी राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने विशेष समिति गठित की थी जिसने बच्चों के ग़ायब होने को लेकर कई सिफारिशें की थीं। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस सम्बन्ध में दिशानिर्देश जारी किये हैं। लेकिन ग़रीबों के गुमशुदा बच्चों के एक भी मामले में किसी भी आदेश-निर्देश का पालन नहीं किया जाता है। चूँकि ये ग़रीबों-मज़दूरों के बच्चे हैं इसलिए इन पर किसी का ध्यान नहीं है। बच्चों की गुमशुदगी का मसला महज़ क़ानून-व्यवस्था का मसला नहीं है। यह राजधानी की आधी से अधिक ग़रीब आबादी के बुनियादी मानवाधिकार का सवाल है।

‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ और ‘नौजवान भारत सभा’ ने कई महीनों तक दो दर्जन से अधिक मज़दूर बस्तियों में सघन जाँच-पड़ताल और दिल्ली पुलिस से आरटीआई के तहत जानकारियाँ जुटाकर दिल्ली में भी इसी तरीके से ग़ायब हो रहे बच्चों के बारे में एक व्यापक रिपोर्ट जारी की है। हम यहाँ इस रिपोर्ट का मुख्य आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं। ये संगठन इस मुद्दे को लेकर ग़ाज़ियाबाद, नोएडा और दिल्ली में मेहनतकशों के बीच जनअभियान भी चला रहे हैं। साथ ही अदालती लड़ाई भी लड़ रहे हैं।

लेकिन इस बारे में हमें कोई भ्रम नहीं होना चाहिए कि यह सवाल किसी अदालती निर्देश या प्रशासनिक कदम से हल हो जायेगा। मुनाफ़े की हवस में पगलाया यह समाज इंसानी ख़ून का प्यासा है! औरतों और बच्चों के सस्ते श्रम को निचोड़ने से भी उसे जब सन्‍तोष नहीं होता तो वह उन्हें बेचने, उनके शरीर को नोचने-खसोटने और उनके अंगों को निकालकर, उनका ख़ून निकालकर बेच देने की हद तक गिर जाता है। अपने बच्चों को पूँजीवादी समाज के राक्षस से बचाने के लिए कदम-कदम पर लड़ते हुए हमें यह याद रखना होगा कि इस नरभक्षी समाज-व्यवस्था को तबाह किये बिना हमारे बच्चे सुरक्षित नहीं होंगे।  – सम्पादक।

पिछले वर्ष मई में नौजवान भारत सभा और बिगुल मज़दूर दस्ता की ओर से नोएडा व ग़ाज़ियाबाद में ग़रीबों के गुमशुदा बच्चों पर जारी रिपोर्ट ‘कहाँ गये वे बच्चे’ की मीडिया के ज़रिये काफ़ी चर्चा हुई। यह अलग बात है कि विभिन्न संस्थाओं और केन्द्रीय बाल कल्याण मन्त्री के बयानों आदि के बावजूद इस रिपोर्ट में उठाये गये मुद्दों पर कोई भी ठोस कार्रवाई आज तक नहीं हुई है। इसी कड़ी में नौजवान भारत सभा और बिगुल मज़दूर दस्ता की टीम ने दिल्ली में ग़रीबों के बच्चों के बड़ी संख्या में ग़ायब होने पर अपनी जाँच पिछले वर्ष जून-जुलाई में शुरू की थी। विभिन्न बस्तियों/कालोनियों में घर-घर जाकर किये गये सर्वेक्षण के साथ ही हमने आरटीआई के तहत दिल्ली पुलिस से भी गुमशुदा बच्चों के बारे में जानकारी माँगी। अक्टूबर के तीसरे सप्ताह तक दिल्ली पुलिस से जवाब आने का सिलसिला चलता रहा और उसके बाद रिपोर्ट तैयार करने वाली टीम की कुछ अप्रत्याशित व्यस्तताओं के कारण इसकी प्रस्तुति में देर हुई है लेकिन इससे इस रिपोर्ट में उठाये गये मुद्दों की प्रासंगिकता ज़रा भी कम नहीं हुई है।

दिल्ली आज भी गुमशुदा बच्चों के मामले में देश में पहले स्थान पर है, जिनमें 80 प्रतिशत से ज़्यादा संख्या ग़रीबों के बच्चों की होती है। शायद इसीलिए पुलिस से लेकर सरकार तक कोई इस मुद्दे पर गम्भीर नहीं है। पिछले वर्ष सितम्बर तक दिल्ली में 11,825 बच्चे गुमशुदा थे। राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार हर साल दिल्ली से क़रीब 7,000 बच्चे गुम हो जाते हैं, लेकिन यह संख्या दिल्ली पुलिस के आँकड़ों पर आधारित है। हालाँकि विभिन्न संस्थाओं का अनुमान है कि वास्तविक संख्या इससे कई गुना अधिक हो सकती है क्योंकि ज़्यादातर लोग अपनी शिकायत लेकर पुलिस के पास जाते ही नहीं। पुलिस के पास गुमशुदगी की जो सूचनाएँ पहुँचती भी हैं, उनमें से भी बमुश्किल 10 प्रतिशत मामलों में एफ़आईआर दर्ज की जाती है। ज़्यादातर मामलों को पुलिस रोज़नामचे में दर्ज करके काग़ज़ी ख़ानापूर्ति कर लेती है।

हमारी पिछली रिपोर्ट जारी होने के बाद दिल्ली और उसके आसपास बच्चों के ग़ायब होने के मुद्दे की मीडिया में व्यापक चर्चा हुई थी। राष्‍ट्रीय बाल अधिकार आयोग और केन्द्रीय बाल कल्याण मन्त्री ने भी इन मुद्दों पर बयान जारी किये। कई और संस्थाओं ने भी राजधानी में बड़ी तादाद में बच्चों की गुमशुदगी के सवाल को उठाया। लेकिन स्थिति में आज भी कोई बदलाव नहीं आया है। इन मामलों में पुलिसिया रवैये पर कोई असर नहीं पड़ा है। विभिन्न संगठनों की माँग के बावजूद पुलिस ने आज तक न तो गुमशुदा बच्चों के बारे में कोई वस्तुपरक रिपोर्ट तैयार की है और न ही उसके पास गुमशुदा बच्चों की ठीक-ठीक जानकारी है। इन मामलों में कोई कारगर क़दम उठाना तो दूर, पुलिस ने इस नज़रिये से कोई जाँच करने की ज़रूरत ही नहीं समझी है कि क्या कुछ संगठित गिरोह बच्चों को उठा रहे हैं। हालाँकि इस बीच कई ऐसी घटनाएँ सामने आयी हैं जो बच्चों के ग़ायब होने के पीछे आपराधिक गिरोहों का हाथ होने के स्पष्‍ट संकेत देती हैं। पिछले वर्ष जुलाई में गोरखपुर में पुलिस ने एक महिला को गिरफ्तार किया जिसने बताया कि वह दिल्ली सहित कई शहरों से बच्चे उठाती थी और ग़ाज़ियाबाद उसकी गतिविधियों का केन्द्र था। इससे पहले भी ग़ाज़ियाबाद के पास के एक इलाक़े से पकड़ी गयी एक महिला ने ऐसा ही बयान दिया था और 7 जुलाई, 2008 को लखनऊ में बच्चे उठाने वाले एक और गिरोह का पर्दाफ़ाश हुआ जिसके तार दिल्ली सहित पूरे देश में फैले हुए थे। कई अन्य प्रेस रिपोर्टों में भी बच्चों के ग़ायब होने के पीछे आपराधिक साज़िश की आशंका व्यक्त की जा चुकी है। लेकिन जैसाकि आरटीआई के तहत पूछे गये हमारे सवाल पर पुलिस के जवाब से ज़ाहिर है, उसने इस दृष्टिकोण से बच्चों की गुमशुदगी की जाँच-पड़ताल की ज़रूरत ही नहीं महसूस की है।

सवाल उठता है कि अगर ग़ायब होने वाले इन बच्चों के माँ-बाप ग़रीब और निम्न मध्यवर्गीय लोग नहीं बल्कि समृद्ध तबक़ों के लोग होते तब भी क्या पुलिस इतनी ही निष्क्रिय और संवेदनहीन बनी रहती? नोएडा में एक बहुराष्‍ट्रीय कम्पनी के सीईओ का बच्चा गुम हुआ था तो पूरी प्रदेश सरकार और सारे राष्‍ट्रीय मीडिया ने उसकी खोज में रात-दिन एक कर दिया था।

आँकड़ों के पीछे का सच

बच्चों की गुमशुदगी के आँकड़े तो भयावह हैं ही, इनके पीछे की ज़मीनी सच्चाई और भी डरावनी है। ज़्यादातर मामलों में पुलिस का रवैया घोर उपेक्षा, लापरवाही और वर्गीय पूर्वाग्रहों से भरा होता है। आरटीआई के तहत पूछे सवालों के जवाब में दिल्ली पुलिस ने उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों का पालन करने का बढ़चढ़कर दावा किया है लेकिन जाँच टीम अपने सर्वेक्षण के दौरान खोये हुए बच्चों के जिन परिवारों से मिली उनके अनुभव अलग ही कहानी बयाँ करते हैं।

यह स्पष्‍ट रहे कि इस रिपोर्ट में किया गया सर्वेक्षण महज़ एक नमूना सर्वेक्षण है जिसका मकसद इस समस्या की गम्भीरता की ओर सरकार, मीडिया और जागरूक नागरिकों का ध्यान खींचना है। इसका उद्देश्‍य महज़ यह बताना नहीं है कि दिल्ली में बड़ी संख्या में बच्चे ग़ायब हो रहे हैं। यह तथ्य अनेक सरकारी और ग़ैर-सरकारी संस्थाओं और मीडिया द्वारा आँकड़ों सहित सामने लाया जा चुका है।

इस रिपोर्ट के ज़रिये हम इस बात को रेखांकित करना चाहते हैं कि चूँकि गुमशुदा बच्चों में से भारी बहुमत समाज के ग़रीब, मेहनतकश और वंचित तबक़ों के बच्चों का होता है, इसलिए इस समस्या के प्रति आपराधिक क़िस्म की लापरवाही और उपेक्षा का रवैया अपनाया जाता है। ज़्यादातर मामलों में पुलिस एफ़आईआर ही दर्ज नहीं करती, क़रीब दस प्रतिशत मामलों में अगर दर्ज कर भी लेती है तो यह महज़ ख़ानापूर्ती होती है और बच्चों की तलाश के लिए कोई प्रयास नहीं किया जाता। यहाँ तक कि बच्चे के खो जाने से ग़मज़दा ग़रीब माँ-बाप को पुलिस थानों में अक्सर अपमानित होना पड़ता है। “बच्चे पैदा किये हैं तो सँभालकर रखना भी सीख लो,” “एक ग़ायब हो गया तो क्या हुआ, दूसरा पैदा कर लो,” जैसे फ़िकरों से लेकर गाली-गलौज और पैसों की माँग तक का उन्हें सामना करना पड़ता है। अधिकांश मामलों में माँ-बाप ख़ुद ही पैसे जुटाकर अख़बारों में इश्‍तहार या पर्चे-पोस्टर छपवाते हैं – अदालत के दिशा-निर्देर्शों के पालन का दावा करने वाली पुलिस कुछ नहीं करती। दिल्ली और इसके आसपास बच्चे उठाने वालों के गिरोहों की ख़बरें बार-बार मिलने के बावजूद, एक ही इलाक़े से थोड़े समय में अनेक बच्चों के गुम हो जाने जैसी घटनाओं और कई बच्चों के परिजनों द्वारा ऐसी आशंका व्यक्त करने के बावजूद पुलिस ने गुमशुदगी के मामलों की इस नज़रिये से जाँच करने की ज़रूरत ही नहीं समझी है। नोएडा के निठारी काण्ड, गुड़गाँव के किडनी रैकेट के अलावा बच्चों की अवैध तस्करी या ज़बरन भिखारी बनाने के लिए उनका अपहरण करने वाले अपराधियों की ख़बरें इस आशंका को बलवती करती हैं कि कतिपय अपराधी गिरोहों द्वारा साज़िशाना तरीक़े से ग़रीबों के बच्चों को निशाना बनाया जा रहा है। लेकिन दिल्ली पुलिस ने इस पहलू से मामले की कभी जाँच ही नहीं की है। अगर देश की राजधानी में यह हालत है तो दूसरे राज्यों की स्थिति की तो कल्पना ही की जा सकती है।

पुलिस का यह रवैया बार-बार निठारी काण्ड की याद दिलाता है। याद कीजिये उस वक़्त भी ग़ायब होने वाले बच्चों के ग़रीब माँ-बाप अपनी शिकायत लेकर पुलिस के पास जाते थे और बार-बार पुलिस उन्हें अपमानित करके भगा देती थी। अगर उस समय पुलिस ने इन शिकायतों पर कार्रवाई की होती तो कितने मासूम बच्चों को उन हैवानों का शिकार होने से बचाया जा सकता था।

ऐसे में हम यह रिपोर्ट सरकार और समाज के सामने प्रस्तुत करते हुए उम्मीद करते हैं कि इस मुहिम में हमें तमाम जागरूक, संवेदनशील नागरिकों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और प्रबुद्धजनों का सहयोग मिलेगा।

रिपोर्ट के लिए तथ्य-संग्रह का तरीक़ा

इस रिपोर्ट के लिए तथ्य-संग्रह मुख्यतः दो स्रोतों से किया गया है। नौजवान भारत सभा और बिगुल मज़दूर दस्ता की जाँच टीमों ने गत वर्ष जून-जुलाई में पूर्वी दिल्ली के करावल नगर, उत्तर-पश्चिमी दिल्ली के तहत जे.जे. पुनर्वास कालोनी टीकरी खुर्द, भोरगढ़, कुरैनी, जे.जे., पुनर्वास कालोनी बवाना, जे.जे. पुनर्वास कालोनी मेट्रो विहार, होलम्बी कलाँ, होलम्बी खुर्द, सावदा, शाहबाद डेरी, शाहबाद-दौलतपुर, जे.जे. कालोनी सेक्टर 26-27 रोहिणी, दाना विहार, सूरज पार्क, समयपुर बादली, हैदरपुर, संजय कालोनी, जे.जे. कालोनी भलस्वा, जहाँगीरपुरी, आजादपुर, वजीरपुर, जखीरा पुल के नीचे की झुग्गी-बस्ती, आनन्द पर्वत, पटेलनगर, कीर्तिनगर, कर्म पुरा, नारायणा, मायापुरी, कैण्ट क्षेत्र, दक्षिण दिल्ली के भूमिहीन कैम्प, कालकाजी, नेहरू कैम्प, गोविन्दपुरी, संगम विहार, तिगड़ी संजय कैम्प, सुभाष कैम्प, दक्षिणपुरी, अम्बेडकरनगर आदि में गली-गली घूमकर जाँच-पड़ताल की। इन सभी इलाक़ों में जिन खोये हुए बच्चों के बारे में पता चला उनके परिवारों से मिल कर बच्चे के ग़ायब होने की परिस्थितियों, पुलिस की कार्रवाई और रवैये आदि के बारे में जानकारी इकट्ठा की गयी।

इसी के साथ इन संगठनों की ओर से सूचना का अधिकार क़ानून के तहत दिल्ली पुलिस से गुमशुदा बच्चों के बारे में जानकारी माँगी गयी। हमने दिल्ली पुलिस मुख्यालय में 17 जून 2008 को दिये पत्र के ज़रिये दिल्ली में ग़ायब होने वाले बच्चों की ज़िलावार जानकारी माँगी तथा साथ ही सभी ज़िलों के सूचना अधिकारियों को अलग-अलग पत्र देकर उनसे उनके ज़िले में गुमशुदा बच्चों के बारे में थानावार जानकारी माँगी गयी। अपने जवाब में सभी ज़िलों की पुलिस ने बताया कि बच्चों की गुमशुदगी के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्देशों का पालन किया गया। लेकिन सर्वेक्षण के दौरान जाँच टीम को ज़्यादातर ऐसे परिवार मिले थे जिन्होंने बताया कि पुलिस ने बच्चों की तलाश के लिए किसी भी दिशा-निर्देश का पालन नहीं किया। इसीलिए 11 अगस्त 2008 को दोबारा आरटीआई के तहत याचिका दायर करके पुलिस से पूछा गया कि उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों का पालन किस रूप में किया गया। सभी ज़िलों की पुलिस ने अपने उत्तर में महज़ यह कहकर इतिश्री कर ली कि सभी दिशा-निर्देशों का पालन किया गया है।

दिल्ली पुलिस के जवाब अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि इतने संवेदनशील मुद्दे को वह कितनी कम गम्भीरता से लेती है। सन्देहास्पद आँकड़े पेश करने से लेकर, ख़ुद जाकर थानों से आँकड़े जुटा लेने की सलाह देने और अदालती दिशा-निर्देशों के पालन के सम्बन्ध में ग़लतबयानी करने तक से पुलिस बाज़ नहीं आयी है।

नब्बे प्रतिशत मामलों में एफ़आईआर दर्ज नहीं

स्वयं दिल्ली पुलिस द्वारा दिये गये आँकड़ों से यह चौंकाने वाला तथ्य सामने आता है कि बच्चों की गुमशुदगी के दस प्रतिशत से भी कम मामलों में पुलिस एफ़आईआर दर्ज करती है। आरटीआई के तहत नौजवान भारत सभा और बिगुल मज़दूर दस्ता को दी गयी जानकारी के अनुसार वर्ष 2007 में दिल्ली से कुल 5600 बच्चे ग़ायब हुए और 2008 में 13 जून तक 2264 बच्चे ग़ायब हुए थे यानी क़रीब डेढ़ वर्ष में कुल 7864 बच्चों के गुम होने की सूचना दिल्ली पुलिस को मिली। इनमें से सिर्फ़ 753 मामलों में पुलिस ने एफ़आईआर दर्ज की जोकि कुल मामलों का केवल 9.5 प्रतिशत है। पुलिस के अनुसार डेढ़ वर्ष की इस अवधि में कुल 6180 बच्चों का पता लगा लिया गया या वे घर लौट आये। यानी इस दौरान लापता कम से कम 1684 बच्चों का पता नहीं चला। सितम्बर 2008 में दिल्ली पुलिस के एक वरिज्ठ अधिकारी द्वारा एक प्रमुख राष्‍ट्रीय दैनिक को दी गयी जानकारी के अनुसार, शहर में अब तक कुल 11,825 बच्चे लापता हैं।

जाँच टीम ने अपने सर्वेक्षण के दौरान 82 गुमशुदा बच्चों के परिवारों से मुलाक़ात की। ये सभी बेहद ग़रीब परिवारों के बच्चे थे। सर्वेक्षण के समय इनमें से सात बच्चों को छोड़कर शेष सभी को लापता हुए दो माह से लेकर कई वर्ष तक का समय बीत चुका था। इनमें से 16 लड़कियाँ हैं और अधिकांश बच्चे 14 वर्ष से कम उम्र के हैं। इनके अलावा, जाँच टीम को क़रीब 25 और ऐसे परिवारों का पता चला जिनके बच्चे गुम हुए थे लेकिन उनके घरवालों के कहीं और चले जाने के कारण उनसे सम्पर्क नहीं हो सका।

इन सभी पीड़ित परिवारों की कहानी एक जैसी ही है। बच्चे के खो जाने की रिपोर्ट लेकर थाने में जाने पर या तो उसे दर्ज ही नहीं किया गया या फिर महज़ रोज़नामचे में सूचना चढ़ाकर उन्हें चलता कर दिया गया। कई बच्चों के माँ-बाप ने तो पुलिस के डर से बच्चा ग़ायब होने की सूचना ही नहीं दी। पुलिस के रवैये को लेकर लोग इस कदर हताश हो चुके हैं कि दिल्ली की पूर्व डिप्टी पुलिस कमिश्‍नर किरण बेदी का कहना है कि बच्चों की गुमशुदगी के मामले अब पुलिस से ज़्यादा चाइल्ड हेल्पलाइन के पास दर्ज कराये जाते हैं।

बच्चा ग़ायब हो गया तो क्या हुआ, और पैदा कर लो!”

जे.जे. पुनर्वास कालोनी, बवाना का मोहम्मद हमीदुल 1 अप्रैल, 2008 से गुमशुदा था। घरवालों ने तीन दिन बाद नरेला थाने में गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखायी। दो महीने बाद जब उसकी माँ बच्चे के बारे में पूछने बवाना पुलिस चौकी में गयी तो एक सिपाही ने जवाब दिया – “बच्चा ग़ायब हो गया तो क्या हुआ, और पैदा कर लो!”

उत्तर-पश्चिम दिल्ली में शाहबाद- दौलतपुर के सत्यवान का बेटा प्रदीप जून 2008 में अचानक ग़ायब हो गया। पिता ने पुलिस के सामने जब यह सन्देह व्यक्त किया कि शायद किसी ने बच्चे को उठा लिया है तो पुलिस अधिकारी ने कहा, “तू क्या इतना पैसे वाला है कि कोई तेरे बच्चे को उठायेगा?” प्रदीप के घरवाले पुलिस से इतना डरे हुए थे कि उन्होंने आगे कुछ पूछताछ ही नहीं की।

जे.जे. कालोनी बवाना के रिक्शा चालक बाबूलाल का बेटा शाकिर क़रीब एक साल से ग़ायब है। पुलिसवालों ने बच्चे को खोजने के एवज में दो हज़ार रुपये माँगे। उसके बाद से लोग पुलिस के पास गये ही नहीं। इसी बस्ती के छोटेलाल जब अपने बच्चे राजू की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने नरेला थाने पहुँचे तो उनसे पाँच हज़ार रुपये की माँग की गयी।

नरेला में बेलदारी करने वाले अमित मण्डल का साढ़े पाँच वर्ष का बच्चा ग़ायब हुआ तो तीन दिन की दौड़धूप के बाद डाबरी थाने में सूचना तो दर्ज की गयी लेकिन बच्चे को खोजने के लिए पुलिस ने कुछ नहीं किया। बार-बार पूछने पर एक ही जवाब मिलता – “गुम किया है, तो जाकर खोजो भी!”

जे.जे. पुनर्वास कालोनी, बवाना में रहने वाले निर्माण मज़दूर कैलाश राम का 7 वर्ष का बेटा पृथ्वी जून 2006 से गुमशुदा है। नरेला थाने के कई चक्कर लगाने के बाद भी पुलिस ने रिपोर्ट नहीं दर्ज की। छह महीने बाद वकील की मदद से इनकी रिपोर्ट तो लिख ली गयी लेकिन और कोई कार्रवाई नहीं हुई।

जहाँगीरपुरी के राज कुमार (पिता रोहताश), इसी बस्ती के अहादुल्ला (पिता सरफुद्दौला), इलियास (पिता रियासत), सुरेश (पिता हंसराज), शहीद सुखदेव नगर, वजीरपुर के पोपल (पिता कुंवरसेन) सहित कई बच्चों के परिजनों को पुलिस ने ज़ुबानी बता दिया कि उनकी रिपोर्ट लिख ली गयी है लेकिन इनमें से किसी को एफ़आईआर की प्रतिलिपि नहीं दी गयी।

कर्मपुरा इलाक़े की सरोज जब अपने बच्चे के ग़ायब होने की रिपोर्ट लिखाने मोतीनगर थाने में गयी तो पुलिस का जवाब था, “हमें क्या यही काम है। बच्चे पैदा किये हैं तो तुम्हीं जाकर ढूँढ़ो।”

ग़रीब बच्चों के घरवालों से पुलिस के अपमानजनक व्यवहार के ये तो चन्द एक उदाहरण हैं। एक तो बच्चे के खो जाने का दुख, ऊपर से क़दम-क़दम पर पुलिस और प्रशासन का संवेदनहीन और अपमानजनक सुलूक। थक-हारकर ज़्यादातर लोग कलेजे पर पत्थर रखकर मान लेते हैं कि उनका बच्चा अब उन्हें नहीं मिलेगा।

पुलिस की संवेदनहीनता और आपराधिक लापरवाही

समाज में ऊँची हैसियत वाले परिवारों या यहाँ तक कि मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चे भी जब ग़ायब होते हैं तो पुलिस बड़ी तत्परता से उन्हें ढूँढ़ने में जुट जाती है। देश के दूर-दराज़ के शहरों तक में पुलिस की टीमें बच्चों की तलाश में दौड़ाई जाती हैं। लेकिन ग़रीब लोगों के बच्चों को तलाशने की बात तो दूर, बहुत से मामलों में स्पष्‍ट सुराग़ के बाद भी पुलिस कुछ नहीं करती।

जहाँगीरपुरी के धानाराम की 5 वर्षीय बेटी आरती कई वर्ष पहले ग़ायब हो गई थी। पुलिस की संवेदनहीनता से तंग आ चुके धानाराम ने जाँच टीम को बताया कि आरती के ग़ायब होने से कुछ ही दिन पहले उनका एक मूक-बधिर लड़का गुम हो गया था। वह एक महिला को मिला जो उसे अपने घर ले गयी थी और रोज जहाँगीरपुरी थाने में लेकर जाती थी। लेकिन उसी थाने में रिपोर्ट दर्ज होने के बावजूद पुलिस उस लड़के को घर नहीं पहुँचा सकी। संयोगवश धानाराम को उसका पता चल गया। जब वह रिक्‍शे पर अपने बच्चे के ग़ायब होने का प्रचार कर रहे थे तभी वह महिला थाने से उसे लेकर लौट रही थी।

शाहबाद डेरी की पानकुमारी ने अपने 3 माह के बच्चे को ग़ायब करने की रिपोर्ट में स्पष्‍ट कहा कि रोहिणी की एक कोठी की महिला उसे ले गई लेकिन बार-बार कहने पर भी पुलिस ने कोठीवालों से पूछताछ तक नहीं की।

पुलिस की उपेक्षा और लापरवाही की शिकायत ज़्यादातर परिवारों ने की। पुलिसिया उदासीनता का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि बच्चों को उठाने वाले अपराधियों की संलिप्तता का सन्देह पैदा करने वाले अनेक साक्ष्यों तथा परिजनों के आरोपों के बावजूद पुलिस ने आज तक इस नज़रिये से जाँच करने की कोई ज़रूरत ही नहीं समझी है। बार-बार पुलिस अधिकारी यही दोहराते रहते हैं कि बच्चे “प्रेम-प्रसंग” के कारण घर से भाग जाते हैं या फिर इम्तिहान के डर से।

उच्चतम न्यायालय के निर्देशों की स्पष्‍ट अनदेखी

आरटीआई के तहत दिये गये जवाब में दिल्ली पुलिस ने दावा किया है कि खोये हुए बच्चों के मामले में उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देशों का पालन किया गया है। लेकिन हमारे सर्वेक्षण में यह ज़मीनी हक़ीक़त सामने आयी कि ज़्यादातर मामले में पुलिस किसी भी दिशानिर्देश का पालन नहीं करती।

बहुत से मामलों में तो पुलिस ने 24 घण्टे के अन्दर बच्चे के परिजन, पड़ोसियों आदि से पूछताछ करने तक की ज़िम्मेदारी नहीं निभायी। अख़बारों में इश्‍तहार देने और महत्त्वपूर्ण स्थानों पर पोस्टर लगवाने के स्पष्‍ट दिशानिर्देशों के बावजूद इक्का- दुक्का मामलों में ही पुलिस ऐसा करती है। ज़्यादातर मामलों में बच्चों के परिवार वाले ख़ुद ही पर्चे-पोस्टर छपवाकर लगाते हैं।

ये तमाम स्थितियाँ बताती हैं कि राजधानी में ग़रीबों-मेहनतकशों के बच्चे सुरक्षित नहीं हैं। इससे भी चिन्ताजनक तथ्य यह है कि पूरा प्रशासनिक तन्त्र इस समस्या को लेकर कतई गम्भीर नहीं है। ग़रीबों- मज़दूरों के बच्चों के प्रति तो पुलिस-प्रशासन का रवैया सीधे-सीधे वर्गीय पूर्वाग्रहों से ग्रस्त दिखता है। खोये बच्चों की रिपोर्ट दर्ज करने और उनकी तलाश के लिए स्पष्‍ट क़ानूनी प्रावधान नहीं होने के कारण स्थिति और भी गम्भीर हो जाती है।

इसलिए, नौजवान भारत सभा और बिगुल मज़दूर दस्ता सरकार से यह माँग करते हैं:

1.  राजधानी और इसके आसपास से लगातार बड़ी संख्या में बच्चों के ग़ायब होने के पीछे अपराधी गिरोहों की साज़िश के पहलू की सीबीआई से जाँच करायी जाये।

2. बच्चों की गुमशुदगी के मामलों में एफ़आईआर दर्ज करना पूरे देश में अनिवार्य बनाया जाये।

3. बच्चियों की गुमशुदगी के मामलों में उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देशों को सभी बच्चों के लिए लागू किया जाये और इनका पालन अनिवार्य बनाया जाये।

4. बच्चों की गुमशुदगी के सम्बन्ध में राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सिफ़ारिशों का सभी राज्यों द्वारा अनुपालन सुनिश्चित कराया जाये।

5. बच्चों की गुमशुदगी के मामलों में पुलिस-प्रशासन द्वारा वर्गीय पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर कार्य करने या लापरवाही बरतने की घटनाओं पर सख्त दण्डात्मक कार्रवाई की जाये।

6. मज़दूरों के बच्चों के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकार की तरफ़ से क्रेच की व्यवस्था की जाये ताकि माँ-बाप उन्हें सुरक्षित माहौल में छोड़कर काम पर जा सकें।

 

 

बिगुल, मार्च 2009

 


 

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