कात्यायनी की दो कविताएँ
अपराजिता
(सृष्टिकर्ता ने नारी को रचते समय बिस्तर, घर, ज़ेवर, अपवित्र इच्छाएँ, ईर्ष्या, बेईमानी और दुर्व्यवहार दिया। – मनु)
हाँ
उन्होंने यही
सिर्फ़ यही दिया हमें
अपनी वहशी वासनाओं की तृप्ति के लिए
दिया एक बिस्तर,
जीवन घिसने के लिए, राख होते रहने के लिए
चौका-बरतन करने के लिए बस एक घर,
समय-समय पर
नुमाइश के लिए गहने पहनाये,
और हमारी आत्मा को पराजित करने के लिए
लाद दिया उस पर तमाम अपवित्र इच्छाओं
और दुष्कर्मों का भार।
पर नहीं कर सके पराजित वे
हमारी अजेय आत्मा को
उनके उत्तराधिकारी
और फिर उनके उत्तराधिकारियों के उत्तराधिकारी भी
नहीं पराजित कर सके जिस तरह
मानवता की अमर-अजेय आत्मा को,
उसी तरह नहीं पराजित कर सके वे
हमारी अजेय आत्मा को
आज भी वह संघर्षरत है
नित-निरन्तर
उनके साथ
जिनके पास खोने को सिर्फ़ ज़ंजीरें ही हैं
बिल्कुल हमारी ही तरह!
वह रचती है जीवन और…..
(नारी की रचना इसलिए हुई है कि पुरुष अपने पुत्रों, देवताओं से वंश चला सके। – ऋग्वेद संहिता)
नारी की रचना हुई मात्र वंश चलाने के लिए,
जीवन को रचने के लिए
– उन्होंने कहा चार हज़ार वर्षों पहले
नये समाज-विधान की रचना करते हुए।
पर वे भूल गये कि
नहीं रचा जा सकता कुछ भी
बिना कुछ सोचे हुए।
जो भी कुछ रचता है – वह सोचता है।
वह रचती है
जीवन
और जीवन के बारे में सोचती है लगातार।
सोचती है –
जीवन का केन्द्रबिन्दु क्या है
सोचती है –
जीवन का सौन्दर्य क्या है
सोचती है –
वह कौन-सी चीज़ है
जिसके बिना सब कुछ अधूरा है
प्यार भी, सौन्दर्य भी, मातृत्व भी…
सोचती है वह
और पूछती है चीख़-चीख़कर।
प्रतिध्वनि गूँजती है
घाटियों में मैदानों में
पहाड़ों से, समुद्र की ऊँची लहरों से टकराकर
आज़ादी! आज़ादी!! आज़ादी!!!
बिगुल, मार्च 2009