“महान अमेरिकी जनतन्‍त्र” के “निष्पक्ष चुनाव” की असली तस्वीर
अप्टन सिंक्लेयर के विश्वप्रसिद्ध उपन्यास ‘जंगल’ के कुछ अंश

यूर्गिस को ब्राउन कम्पनी में काम करते हुए तीन हफ़्ते हुए थे, जब एक दोपहर उसके पास रात की पाली में चौकीदारी का काम करने वाला एक आदमी आया और पूछा कि क्या वह नागरिकता के काग़ज़ात लेना चाहता है? यूर्गिस को इसका मतलब नहीं मालूम था, लेकिन उस आदमी ने इसके फ़ायदे समझाये। पहली बात तो यह कि उसका कुछ ख़र्च नहीं होगा और उसे बिना पैसा कटे आधे दिन की छुट्टी मिल जायेगी। और फिर चुनाव के समय वह वोट दे सकेगा – और यह कोई मामूली बात नहीं है। यूर्गिस ने ख़ुशी-ख़ुशी मंजूरी दे दी और चौकीदार ने फ़ोरमैन से बात कर उसे छुट्टी दिलवा दी। हालाँकि बाद में वह जब शादी के लिए छुट्टी माँग रहा था तो उसे इंकार कर दिया गया। लेकिन यहाँ मज़दूरी सहित छुट्टी मिल रही थी – न जाने किस चमत्कार से। वह उस आदमी के साथ गया जिसने कई और नये-नये आये विदेशी मज़दूरों को इकट्ठा किया था। इनमें पोलिश, लिथुआनियाई और स्लोवाक थे। बाहर चार घोड़ों वाली बड़ी-सी गाड़ी खड़ी थी, जिसमें पन्द्रह-बीस आदमी पहले से थे। यह शहर के नज़ारे देखने का अच्छा मौक़ा था और मुफ़्त बियर भी मिल रही थी; पूरी मण्डली को ख़ूब मज़ा आया। शहर के बीच में पहुँचकर गाड़ी एक बड़ी-सी पत्थर की इमारत के सामने रुकी जहाँ एक अफ़सर ने उनका इण्टरव्यू लिया। उसके पास सारे काग़ज़ात तैयार थे, सिर्फ़ नाम भरे जाने थे। हर आदमी ने बारी-बारी से शपथ ली, जिसका एक शब्द भी उसकी समझ में नहीं आया और फिर उसे मोटे काग़ज़ पर छपा एक सुन्दर दस्तावेज़ थमाया गया, जिस पर संयुक्त राज्य अमेरिका का राज्यचिह्न और बड़ी-सी लाल मुहर लगी हुई थी। उसे बताया गया कि वह गणतन्त्र का नागरिक बन चुका है और अब वह ख़ुद राष्ट्रपति के बराबर है।

The-Jungle-by-Upton-Sinclairएक-दो महीने बाद यूर्गिस की इस आदमी से फिर मुलाक़ात हुई, जिसने उसे बताया कि मतदाता सूची में नाम कहाँ लिखाना है। और फिर जब चुनाव का दिन आया तो पैकिंग हाउसों में एक नोटिस लगा दी गयी कि जो लोग वोट डालना चाहते हों, वह सुबह नौ बजे तक छुट्टी ले सकते हैं और उसी रात चौकीदार यूर्गिस और बाक़ी नये लोगों को एक सैलून के पीछे वाले कमरे में ले गया और उन्हें दिखाया कि मतपत्र पर कैसे और कहाँ ठप्पा लगाना है। सुबह उसने हरेक को दो-दो डॉलर दिये और उन्हें मतदान-स्थल पर ले गया, जहाँ एक पुलिसवाला सिर्फ़ यह देखने के लिए तैनात था कि वे अपना काम ठीक से कर लें। यूर्गिस को इस ख़ुशनसीबी पर बड़ा गर्व अनुभव हो रहा था, लेकिन घर पहुँचने पर उसे योनास ने बताया कि उसने तो चार डॉलर के बदले तीन बार वोट डाले हैं।

और अब यूनियन में यूर्गिस को ऐसे लोग मिले, जिन्होंने इस रहस्य का मतलब उसे समझाया। अब उसे पता चला कि रूस और अमेरिका में यह अन्तर है कि यहाँ लोकतान्त्रिक सरकार है। यहाँ राज करने और जमकर कमाई करने वाले अफ़सरों के लिए ज़रूरी होता है कि पहले वे जनता द्वारा चुने जायें और इसलिए बेईमानों के दो प्रतिद्वन्द्वी गुट थे, जिन्हें राजनीतिक पार्टियाँ कहा जाता था और जो सबसे ज़्यादा वोट ख़रीदता था, वही सरकार बनाता था। बीच-बीच में चुनाव में मुकाबला बहुत काँटे का हो जाता था और ऐसे ही समय में ग़रीब आदमी की क़ीमत थोड़ी बढ़ जाती थी। स्टाकयार्ड में ऐसा सिर्फ़ राष्ट्रीय और प्रान्तीय चुनावों के समय होता था, क्योंकि स्थानीय चुनावों में डेमोक्रेटिक पार्टी हमेशा हावी रहती थी। इसलिए इस इलाक़े का असली शासक डेमोक्रेटिक पार्टी का स्थानीय अध्यक्ष था। छोटे कद के इस आयरिश आदमी का नाम माइक स्कली था। स्कली प्रान्तीय पार्टी में भी एक महत्त्वपूर्ण पद पर था और कहा जाता था कि शहर का मेयर भी उससे दबता था। वह कहता था कि सारा स्टाकयार्ड उसकी जेब में है। वह बहुत अमीर आदमी था – पूरे इलाक़े के हर ग़लत धन्धे में उसका हाथ था। यहाँ आने के पहले दिन यूर्गिस और ओना ने कूड़े से भरा जा रहा जो विशाल गड्ढा देखा था, उसका मालिक स्कली ही था। गड्ढा ही नहीं, ईंट का भट्ठा भी उसी का था। पहले उसने मिट्टी निकालकर उनसे ईंटें बनाकर बेचीं और अब सारे शहर का कचरा उस गड्ढे में भरवा रहा था, ताकि वहाँ मकान बनाकर वह लोगों को बेच सके। ईंटें भी वह नगरपालिका को अपने दाम पर बेचता था और नगरपालिका अपनी गाड़ियों में भरकर उन्हें ले जाती थी। सड़ते हुए पानी से भरा पास का दूसरा गड्ढा भी उसी का था और वही उस पर से बर्फ़ निकालकर बिकवाता था। इतना ही नहीं उसे अपने भट्ठे के लिए पानी का टैक्स भी नहीं चुकाना पड़ता था और उसने बर्फ़ख़ाना नगरपालिका की लकड़ी से बनवाया था, जिसके लिए उसने एक भी पैसा नहीं दिया था। अख़बारों में यह ख़बर छप गयी थी और काफ़ी हंगामा मचा था, लेकिन स्कली ने पैसे देकर एक आदमी से सारा गुनाह कबूल करवा लिया था और बाद में उसे देश से बाहर भेज दिया था। कहा जाता था कि उसने अपना ईंट भट्ठा भी इसी तरीक़े से बनाया था और उसे बनाने वाले मज़दूरों का भुगतान नगरपालिका ने किया था। लेकिन लोगों से ये बातें निकलवाने के लिए काफ़ी जोर लगाना पड़ता था, क्योंकि वे इस पचड़े में पड़ना नहीं चाहते थे और वैसे भी माइक स्कली का साथ देने में ही फ़ायदा था। वह अगर एक रुक्का लिख दे तो पैकिंग हाउसों में किसी को भी आसानी से काम मिल जाता था; वह ख़ुद भी बहुत सारे आदमी रखता था और उनसे सिर्फ़ आठ घण्टे काम लेता था और सबसे अच्छी मज़दूरी देता था। इसके चलते उसके बहुत से प्रशंसक थे, जिन्हें मिलाकर उसने “वार हूप लीग” बनायी थी। इसका क्लब हाउस यार्डों के ठीक बाहर बना हुआ था। यह शिकागो का सबसे बड़ा क्लब था और वहाँ अकसर ही इनामी मुक्केबाज़ी होती थी। कभी-कभी मुर्गों या कुत्तों की लड़ाई करवायी जाती थी, जिस पर जमकर जुआ चलता था। इलाक़े के सारे पुलिसवाले इस लीग के सदस्य थे और इन ग़ैरक़ानूनी लड़ाइयों को रोकने के बजाय इनके टिकट बेचते थे। इन लोगों को “इण्डियन” कहा जाता था। यूर्गिस को नागरिकता दिलाने के लिए ले जाने वाला आदमी भी इन्हीं में से था। चुनाव के दिन सैकड़ों की संख्या में ये आदमी जेब में नोटों की गड्डियाँ और इलाक़े के हर सैलून में मुफ़्त दारू की पर्चियाँ लेकर घूमते रहते थे। लोगों का कहना था कि सारे सैलून मालिकों के लिए भी “इण्डियन” होना ज़रूरी था वरना वे न तो इतवार के दिन धन्धा कर पाते और न ही अपने पीछे वाले कमरों में जुआ खिलवा पाते। इसी तरह दमकल विभाग की सारी नौकरियाँ स्कली के हाथ में थी और स्टाकयार्ड में चलने वाले बाक़ी सारे काले धन्धों में भी उसका हाथ था। वह ऐशलैण्ड एवेन्यू पर बहुत सारे फ़्लैट बनवा रहा था और वहाँ ओवरसियर का काम कर रहा आदमी नगरपालिका से सीवर इंस्पेक्टर की तनख़्वाह पा रहा था। पानी के पाइपों के इंस्पेक्टर को मरे और दफ़नाये हुए एक साल बीत चुका था, लेकिन कोई आदमी अब भी उसकी तनख़्वाह उठा रहा था। फुटपाथों का इंस्पेक्टर वार हूप कैफ़े में बार-कीपर का काम करता था – और  महकमे में उसका असली काम यह था कि स्कली का साथ न देने वाले हर दुकानदार का जीना हराम कर दे।

और इस तरह यूर्गिस को शिकागो की जरायम की दुनिया के ऊँचे तबकों की एक झलक मिली। इस शहर पर नाम के लिए जनता का शासन था, लेकिन इसके असली मालिक पूँजीपतियों का एक अल्पतन्त्र था। और सत्ता के इस हस्तान्तरण को जारी रखने के लिए अपराधियों की एक लम्बी-चौड़ी फ़ौज की ज़रूरत पड़ती थी। साल में दो बार, बसन्त और पतझड़ के समय होने वाले चुनावों में पूँजीपति लाखों डॉलर मुहैया कराते थे, जिन्हें यह फ़ौज ख़र्च करती थी – मीटिंगें आयोजित की जाती थीं और कुशल वक्ता भाड़े पर बुलाये जाते थे, बैण्ड बजते थे और आतिशबाजियाँ होती थीं, टनों पर्चे और हज़ारों लीटर शराब बाँटी जाती थी। और दसियों हज़ार वोट पैसे देकर ख़रीदे जाते थे और ज़ाहिर है अपराधियों की इस फ़ौज को साल भर टिकाये रहना पड़ता था। नेताओं और संगठनकर्ताओं का ख़र्चा पूँजीपतियों से सीधे मिलने वाले पैसे से चलता था – पार्षदों और विधायकों का रिश्वत के ज़रिये, पार्टी पदाधिकारियों का चुनाव-प्रचार के फ़ण्ड से, वकीलों का तनख़्वाह से, ठेकेदारों का ठेकों से, यूनियन नेताओं का चन्दे से और अख़बार मालिकों और सम्पादकों का विज्ञापनों से। लेकिन इस फ़ौज के आम सिपाहियों को या तो शहर के तमाम विभागों में घुसाया जाता था या फिर उन्हें सीधे शहरी आबादी से ही अपना ख़र्चा-पानी निकालना पड़ता था। इन लोगों को पुलिस महकमे, दमकल और जलकल के महकमे और शहर के तमाम दूसरे महकमों में चपरासी से लेकर महकमे के हेड तक के किसी भी पद पर भर्ती किया जा सकता था। और बाक़ी बचा जो हुजूम इनमें जगह नहीं पा सकता था, उसके लिए जरायम की दुनिया मौजूद थी, जहाँ उन्हें ठगने, लूटने, धोखा देने और लोगों को अपना शिकार बनाने का लाइसेंस मिला हुआ था। क़ानून के मुताबिक़ इतवार को शराब बेचने पर पाबन्दी थी और इसमें सैलून वालों को पुलिस की शरण में पहुँचा दिया था और उनके बीच साँठ-गाँठ ज़रूरी बना दी थी। क़ानून के मुताबिक़ वेश्यावृत्ति पर पाबन्दी थी और इसने “मैडमों” को भी इस गठबन्धन में शामिल कर लिया था। यही हाल जुआघर चलाने वालों का, और ऐसे हर औरत-मर्द का था जो किसी तरह की ग़ैरक़ानूनी कमाई करता था और उसका एक हिस्सा पुलिस को देने के लिए तैयार था। बटमार और राहजन, जेबकतरे और उठाईगिरे, चोरी का माल ख़रीदने वाले, मिलावटी दूध, सड़े हुए फल और बीमार जानवरों को माँस बेचने वाले, गन्दगी से भरे लॉज चलाने वाले, नक़ली डॉक्टर और सूदखोर, भीख मँगवाने वाले और कुश्तियों पर दाँव लगवाने वाले, घुड़दौड़ के दलाल, रण्डी खाने के दल्ले, गोरी चमड़ी वाले गुलामों के सौदागर और कमसिन लड़कियों को पटाने में माहिर लोग – ये तमाम अपराधी और भ्रष्टाचारी एक ही गठबन्धन में शामिल थे और राजनीतिज्ञों और पुलिस के साथ उनका ख़ून का रिश्ता था। अकसर ये सब एक ही आदमी होता था – पुलिस कप्तान उस वेश्यालय का मालिक होता था जिस पर छापा मारने का वह नाटक करता था, राजनीतिज्ञ अपने सैलून से अपनी पार्टी का असली दफ़्तर चलाता था। “हिंकीडिंक” या “बाथहाउस जॉन” या उस क़िस्म के दूसरे लोग शिकागो के सबसे बदनाम अड्डों के मालिक थे और वे ही नगर परिषद के सबसे धाकड़ सदस्य भी थे जो शहर की सड़कों को पूँजीपतियों के हाथों बेच डालते थे; और क़ानून को ठेंगे पर रखने वाले जुआड़ी और गुण्डे और सारे शहर को आतंकित किये रहने वाले चोर और लुटेरे उनके अड्डों के ख़ास मेहमान होते थे। चुनाव के दिन बुराई और अपराध की ये तमाम शक्तियाँ मिलकर एक हो जाती थीं। वे बता सकते थे कि उनके इलाक़े में कितने वोट किधर पड़ेंगे, इसमें एक-दो फ़ीसदी ही इधर-उधर होता था। और एक घण्टे की सूचना पर वे इसकी दिशा बदल भी सकते थे।

 

मज़दूर बिगुल, मार्च-अप्रैल 2014

 


 

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