राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के औद्योगिक इलाक़ों में सतह के नीचे आग धधक रही है!

Bhiwadi sriram piston and rings 1दिल्ली से करीब 60 किलोमीटर दूर भिवाड़ी के औद्योगिक क्षेत्र में ‘श्रीराम पिस्टन एण्ड रिंग्स’ के मज़दूरों का बर्बर दमन और मज़दूरों के आक्रोश का विस्फोट एक अकेली घटना नहीं बल्कि ऐसी अनेक घटनाओं के सिलसिले की एक कड़ी है। (इसकी पूरी रिपोर्ट यहां देखें ) राष्ट्रीय राजधानी के चारों ओर, सैकड़ों वर्ग किलोमीटर में फैले दर्जनों औद्योगिक क्षेत्रों के हज़ारों छोटे-बड़े कारख़ानों में काम करने वाले दसियों लाख मज़दूर भयंकर दमघोंटू माहौल में बेतरह शोषणकारी स्थितियों में काम कर रहे हैं। उनके लिए किसी भी श्रम क़ानून का कोई मतलब नहीं है, कोई सामाजिक सुरक्षा उनके हिस्से में नहीं आती। उनकी मेहनत को कौड़ियों के मोल ख़रीदा जाता है और उनके स्वास्थ्य तथा उनकी ज़िन्दगी की मानो कोई क़ीमत ही नहीं होती। मगर मज़दूर सबकुछ चुपचाप बर्दाश्त करते रहने के लिए अब तैयार नहीं हैं। आक्रोश सुलग रहा है और बीच-बीच में फूट पड़ता है, आने वाले दिनों का संकेत देता हुआ। मैनेजमेण्ट और पुलिस-प्रशासन द्वारा नग्न दमन-उत्पीड़न से कुछ समय के लिए इसे शान्त भले ही कर दिया जाये लेकिन इसकी लपटें सतह के नीचे फैलती जा रही हैं।

श्रीराम पिस्टन फ़ैक्टरी में भी श्रमिक-अशान्ति की स्थिति पिछले कई महीनों से बनी हुई है। यहाँ गुड़गाँव-मानेसर-बावल-खुशखेड़ा-भिवाड़ी औद्योगिक पट्टी की 1000 से भी अधिक आटोमोबाइल और आटो पार्ट्स बनाने वाली छोटी-बड़ी कम्पनियों की ही तरह ज़्यादा से ज़्यादा काम ठेका, कैज़ुअल और अप्रेण्टिस मज़दूरों से कराया जाता है। इन सभी कारख़ानों में मज़दूरों से निहायत दमनकारी परिस्थितियों में काम लिया जाता है और उनके क़ानूनी अधिकारों का भी वास्तव में कोई मतलब नहीं होता। प्रबन्धन बाउंसरों की मदद से खुली गुण्डागर्दी करता है और पुलिसिया तन्त्र भी वफ़ादार कुत्तों की तरह उनकी सेवा में सन्नद्ध रहता है। ज़्यादातर कारख़ानों में यूनियनें नहीं हैं या मालिकों के दलालों की कुछ यूनियनें हैं। यूनियन बनाने की हर कोशिश को प्रबन्धन सीधी बग़ावत मानता है और इस पूरी पट्टी में हर ऐसी कोशिश को प्रशासन की खुली मदद से बर्बरतापूर्वक कुचल देने का इतिहास एक दशक से भी अधिक पुराना रहा है। हीरो होण्डा, मारुति सुज़ुकी और ओरियण्ट क्राफ्ट के चर्चित उग्र मज़दूर संघर्ष इन्हीं दमनकारी परिस्थितियों के परिणाम थे। इनके अतिरिक्त छोटी-मोटी दर्जनों हड़तालें और आन्दोलन सिर्फ़ पिछले दस वर्षों के दौरान ही इस इलाक़े के आटोमोबाइल सेक्टर और गारमेण्ट उद्योग के कई कारख़ानों में हो चुके हैं, जिनका पूँजीपतियों के अख़बारों में कहीं ज़िक्र भी नहीं होता है। श्रीराम पिस्टन फ़ैक्टरी की घटना भी राष्ट्रीय अख़बारों में सुर्खियाँ बनना तो दूर, कोने-अँतरे में भी स्थान नहीं पा सकी।

maruti septश्रीराम पिस्टन में भी प्रबन्धन के उत्पीड़न से तंग आ चुके मज़दूरों ने जब यूनियन बनाने की कोशिश शुरू की तो प्रबन्धन ने तरह-तरह से धौंस-धमकी और भयादोहन का सिलसिला शुरू कर दिया। फ़र्ज़ी आरोप लगाकर 22 मज़दूरों को निलम्बित कर दिया। लेकिन मज़दूर झुके नहीं। पिछले एक महीने से निलम्बित मज़दूरों की बहाली और यूनियन पंजीकरण के लिए फ़ैक्टरी के कुल दो हज़ार मज़दूर आन्दोलन चला रहे थे। पिछले दिनों, महीने में दूसरी बार, सभी मज़दूरों ने काम बन्द कर दिया और 11 दिनों से जारी हड़ताल के दौरान प्लाण्ट में ही जमकर बैठ गये। फिर प्रबन्धन न्यायिक मजिस्ट्रेट से फ़ैक्टरी परिसर जबरन ख़ाली करने का आदेश लेकर आया और फिर आतंक फैलाकर सबक़ सिखाने की नीयत से भारी पुलिस बल और बाउंसरों ने मज़दूरों पर आधी रात के बाद एकदम से धावा बोल दिया। 79 साथियों के घायल होने के बावजूद निहत्थे मज़दूरों ने भरपूर प्रतिरोध किया। बर्बर हमले के विरोध में उपजे इस आक्रोश के विस्फोट को उस समय रोकना भी सम्भव नहीं था। प्लाण्ट के बाहर, प्रबन्धन की तमाम कोशिशों के बावजूद मज़दूरों का धरना अब भी जारी है।

श्रीराम पिस्टन फ़ैक्टरी की यह घटना न सिर्फ़ हीरो होण्डा, मारुति सुज़ुकी और ओरियण्ट क्राफ्रट के मज़दूर संघर्षों की अगली कड़ी है, बल्कि पूरे गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल-भिवाड़ी की विशाल औद्योगिक पट्टी में मज़दूर आबादी के भीतर, और विशेषकर आटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों के भीतर सुलग रहे गहरे असन्तोष का एक विस्फोट मात्र है। यह आग तो सतह के नीचे पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के औद्योगिक इलाक़ों में धधक रही है, जिसमें दिल्ली के भीतर के औद्योगिक क्षेत्रों के अतिरिक्त नोएडा, ग्रेटर नोएडा, साहिबाबाद, फ़रीदाबाद, बहादुरगढ़ और सोनीपत, पानीपत के औद्योगिक क्षेत्र भी आते हैं। राजधानी के महामहिमों के नन्दन कानन के चारों ओर आक्रोश का एक वलयाकार दावानल भड़क उठने की स्थिति में है।

मज़दूरों के ख़िलाफ़ पूँजीपतियों के पक्ष में सरकार, नेताशाही, अफ़सरशाही, न्यायपालिका से लेकर कारपोरेट घरानों का मीडिया तक सब एकजुट हैं। मारुति सुज़ुकी में 18 जुलाई 2012 को हुई हिंसा की घटना के बाद से संदिग्ध हालात में हुई एक मैनेजर की मौत के मामले में 147 मज़दूर आज भी जेल में हैं जबकि सैकड़ों मज़दूरों और कई स्वतंत्र जाँच टीमों के आरोपों के बावजूद मैनेजमेण्ट के ख़िलाफ़ जाँच का आदेश भी नहीं दिया गया है। इन मज़दूरों को ज़मानत देने से इंकार करते हुए जज का कहना था कि अगर ज़मानत दे दी गयी तो इससे भारत में “पूँजी निवेश करने वालों को ग़लत सन्देश जायेगा”। यानी जज महोदय साफ कह रहे थे कि इंसाफ़ जाये भाड़ में, पूँजीपतियों के हितों को कोई नुकसान नहीं पहुँचना चाहिए।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यहाँ-वहाँ स्वतःस्फूर्त ढंग से भड़क उठने वाले मज़दूर संघर्षों के विस्फोट यदि कुछ व्यापक भी हो जायें, तो भी नवउदारवाद के इस दौर में सत्ता उन्हें हर क़ीमत पर कुचलने के लिए तैयार बैठी है। इन संघर्षों को आनन-फानन में पहुँचकर, समर्थन देकर जो संगठन स्वतःस्फूर्तता की पूजा मात्र करके कुछ लाभ उठाने की कोशिश करते हैं, वे वस्तुगत तौर पर, आख़िरकार, मज़दूर आन्दोलन को नुकसान ही पहुँचाते हैं। सबसे पहले, ज़रूरी यह है कि एक सेक्टर विशेष के सभी कारख़ानों के मज़दूरों (जैसे समूचे आटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूर) को एक साथ संगठित करने की कोशिश की जाये ताकि वे एक साथ अपनी माँगें उठायें और यदि किसी एक कारख़ाने में मालिक उत्पीड़न करें या कोई आन्दोलन हो, तो एक साथ पूरे सेक्टर के सभी कारख़ानों को ठप्प कर देने की स्थिति हो। दूसरे, अलग-अलग सेक्टरों के मज़दूरों की आपसी एकता बनाने की कोशिश भी शुरू कर देनी होगी और उन्हें इलाक़ाई पैमाने पर संगठित करना होगा। इसका आज एक वस्तुगत आधार है, क्योंकि सभी सेक्टरों में मज़दूरों की बहुसंख्यक आबादी असंगठित है और उनकी ज़्यादातर माँगें एक समान हैं। बेशक यह काम लम्बा होगा। इसके लिए मज़दूरों के बीच राजनीतिक प्रचार एवं ‘एजिटेशन’ की लम्बी एवं सघन कार्रवाई चलानी होगी। इस काम में मालिकों और प्रशासन के अतिरिक्त चुनावी पार्टियों और संशोधनवादियों की दुकानदारी के रूप में चलने वाली यूनियनों के नौकरशाह और दल्ले भी काफ़ी अड़चनें पैदा करेंगे। लेकिन आज की परिस्थितियों में, मज़दूर संघर्ष को एकमात्र इसी रणनीति के द्वारा आगे बढ़ाया जा सकता है इसलिए हमें इसी दिशा में अपनी पूरी ताक़त लगानी चाहिए।

मारुति सुज़ुकी के मुकदमे के दौरान कम्पनी के एक अफ़सर ने मैनेजमेण्ट की ओर से की गयी कार्रवाइयों को सही ठहराते हुए कहा कि यह वास्तव में एक “वर्ग युद्ध” है। हमारे दुश्मनों के दिमाग़ में कोई भ्रम नहीं है। हमें भी तमाम भ्रमों से मुक्त होकर इस वर्ग युद्ध में सही रणनीति के साथ लड़ने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।

 

मज़दूर बिगुल, मई 2014

 


 

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