कोरबा के मजदूरों की मौत हादसा नहीं, हत्या है!!

शिवानी

India Power Plantगत 23 सितम्बर, बुधवार के दिन छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में स्थित भारत एल्यूमीनियम कम्पनी लिमिटेड (बालको) के निर्माणाधीन विद्युत संयन्त्र की चिमनी ढह जाने के कारण कम से कम 41 मजदूरों की मौत हो गयी। जबकि कई अन्य मजदूरों के भी मलबे में दबे होने की आशंका जतायी जा रही थी। प्लाण्ट पर निर्माण कार्य के दौरान मजदूर जब चिमनी में काम कर रहे थे तभी चिमनी अचानक ढह गयी और मजदूर इसके नीचे दब गये। जिस वक्त यह दुर्घटना हुई, उस समय चिमनी के पास लगभग 300 मजदूर काम कर रहे थे, इसलिए कहना मुश्किल है कि कितने ही बेगुनाह मजदूरों की लाशें अभी मलबे के इस ढेर के नीचे दफ्न है। बालको के 1200 मेगावॉट के विद्युत संयन्त्र में ठेका कम्पनी सेफको चिमनी निर्माण का काम देख रही थी और सेफको ने यह काम एक अन्य ठेका कम्पनी जी.डी.सी.एल. को सौंप रखा था। दुर्घटना के समय इन दोनों ही कम्पनियों और बालको के अधिकारी घटना-स्थल पर मौजूद थे जो हादसा होते ही वहाँ से फरार हो गये। खानापूर्ति के लिए पुलिस ने बालको प्रबन्धन और ठेका कम्पनियों के ख़िलाफ ग़ैर-इरादतन हत्या का मामला तो दर्ज कर दिया है, हालाँकि अभी तक किसी भी अधिकारी की गिरफ्तारी नहीं हुई है। बताने की जरूरत नहीं कि इस मामले का भी वही हश्र होना है जो ऐसे सब मामलों का होता रहा है।

कोरबा की घटना कोई इकलौती घटना नहीं है। मजदूर जिन अमानवीय नारकीय परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर होते हैं, उनमें आये दिन ऐसी दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। साथ ही, मजदूरों को कई स्वास्थ्य सम्बन्धी बीमारियों का भी शिकार होना पड़ता है। अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में हर साल काम के दौरान होने वाली औद्योगिक दुर्घटनाओं में लगभग 24 लाख मजदूर मर जाते हैं। अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ है दिल्ली मेट्रो रेल के जमरूदपुर स्थित निर्माण स्थल की घटना को जिसमें एक पिलर के गिर जाने से 6 मजदूरों को अपनी जान गँवानी पड़ी। राजधानी के बादली औद्योगिक क्षेत्र की फैक्ट्रियाँ तो मजदूरों के लिए मौत के कारख़ाने ही बन चुकी हैं। पिछले चन्द महीनों में इस क्षेत्र में दुर्घटना में हुई मौतों की संख्या ही 6 के आसपास है। क्या इन सभी दुर्घटनाओं को हादसा कहना सही होगा? क्या ये महज लापरवाही के कारण होने वाली मौतें हैं? नहीं! ये हादसे नहीं हत्याएँ हैं! यह सोचने वाली बात है कि हमेशा मजदूर जहाँ रहते और काम करते हैं, वहीं सब हादसे होते हैं! बड़ी-बड़ी कम्पनियों के मालिकों और ठेकेदारों के आलीशान बंगले और एयर-कण्डीशण्ड चैम्बर तो कभी नहीं गिरते, कभी किसी हादसे का शिकार नहीं होते!

साफ-साफ शब्दों में कहें तो इन तमाम दुर्घटनाओं के पीछे की असल वजह मालिकों की मुनाफे की अन्धी हवस है। मुनाफे की इसी अन्धी हवस के चलते मालिक सारे श्रम कानूनों और सुरक्षा मानदण्डों को ताक पर रखते हैं। अपनी तिजोरियाँ वे मजदूरों का ख़ून-पसीना निचोड़कर और हड्डियाँ गलाकर भरते हैं। दरअसल ऐशो-आराम के तमाम साधन, बड़े-बड़े चमकदार मॉल-मल्टीप्लेक्स और जगमगाती उँफची-उँफची इमारतें खड़ी ही मजदूरों की लाशों पर की जाती हैं। मुनाफे के इस तन्त्र में सब वुफछ महँगा होता है, सिवाय मजदूरों की मेहनत और उनकी जिन्दगी के। कोरबा के मजदूरों की मौत ने इसी बात को सच साबित किया है।

जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि हर उस मामले की तरह जो मजदूरों की जिन्दगी और उनकी मौत से जुड़ा होता है, इस मामले को भी प्रशासन जल्द से जल्द रफा-दफा कराने की फिराक में है।

चूँकि इस व्यवस्था के खाने के दाँत और हैं और दिखाने के वुफछ और, नौटंकी के तौर पर राज्य सरकार एवं श्रम मन्त्रालय मजदूरों की मौत पर काफी घडियाली ऑंसू बहा रहे हैं और मजदूरों की हिफाजत का दम भर रहे हैं। बालको प्रबन्धन भी मारे गये मजदूरों के परिवारों को मुआवजा देने की बात कर रहा है। हममें से शायद ही ऐसा कोई हो जो पूँजीपति-प्रशासन-ठेकेदार के अपवित्र गँठजोड़ की इन घिनौनी चालों और चालाकियों की असलियत से वाकिफ न हो। इस व्यवस्था और इसके चौकीदारों की पक्षधरता इसी बात से पता चल जाती है कि जब इस देश के किसी राज्य के मुख्यमन्त्री की दुर्घटना में मौत हो जाती है तो इस व्यवस्था का हरेक स्तम्भ शोक के सागर में डूब जाता है। अख़बार और मीडिया कई-कई दिनों तक इससे जुड़ी ख़बरों को छापते हैं, वह भी पहले पन्ने पर। वहीं जब इतने सारे बेगुनाह मजदूर अपनी जान गँवा देते है, तो यही मीडिया, बड़ी बेशर्मी के साथ पूरे मामले पर चुप्पी साधो बैठ जाती है। साफ है कि यह व्यवस्था, यह समाज, यह दुनिया हमारी नहीं है और जो हमारा होगा उसे हासिल करने के लिए हमें आज से ही अपनी कमर कसनी होगी। एक इन्सान के काबिल जिन्दगी जीने के अपने बुनियादी हक को हासिल करने के लिए हमें आज से ही अपनी लड़ाई छेड़ देनी होगी और इसके लिए एकजुट और संगठित होना होगा।

बिगुल, अक्‍टूबर 2009


 

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