सर्वहारा वर्ग में व्याप्त ढुलमुलयक़ीनी, फूट, व्यक्तिवादिता आदि का मुक़ाबला करने के लिए उसकी राजनीतिक पार्टी के अन्दर कठोर केन्द्रीयता और अनुशासन होना ज़रूरी है

 

लेनिन

… पुरानी प्रतिबद्धता तथा पार्टी अनुशासन का त्याग – यह है विरोध पक्ष की कुल प्राप्ति। इसका मतलब है बुर्जुआ वर्ग के हित में कुल सर्वहारा वर्ग का पूर्ण निःशस्त्रीकरण। इसका मतलब है वह टुटपुँजिया बिखराव, अस्थिरता और डटकर, एक होकर, संगठित होकर काम करने की अयोग्यता, जो ज़रा भी छूट मिलने पर किसी भी सर्वहारा क्रान्तिकारी आन्दोलन को अनिवार्यतः ख़त्म कर देगा। कम्युनिज़्म के दृष्टिकोण से पार्टी प्रतिबद्धता के त्याग का अर्थ होता है पूँजीवाद के पतन की पूर्ववेला से (जर्मनी में) कम्युनिज़्म की शुरुआती या बीच की नहीं, बल्कि एकदम सबसे ऊँची मंज़िल की ओर छलाँग मारना। रूस में (बुर्जुआ वर्ग का तख़्ता उलटने के बाद तीसरे वर्ष में) हम पूँजीवाद से समाजवाद में, अर्थात कम्युनिज़्म की निचली अवस्था में संक्रमण के पहले क़दमों से गुजर रहे हैं। वर्ग अभी क़ायम हैं और सत्ता पर सर्वहारा वर्ग का अधिकार होने के बाद बरसों तक सभी जगह क़ायम रहेंगे। हो सकता है कि इंगलैंड में, जहाँ किसान नहीं है (लेकिन फिर भी छोटे मालिक हैं!), यह काल और देशों से कुछ छोटा हो। वर्गों को समाप्त करने का मतलब सिर्फ़ ज़मींदारों और पूँजीपतियों को मिटाना ही नहीं है – वह काम तो हमने अपेक्षाकृत आसानी से पूरा कर लिया – उसका मतलब छोटे पैमाने पर माल पैदा करने वालों को भी मिटाना है और उन्हें ज़बर्दस्ती हटाया नहीं जा सकता, उन्हें कुचला नहीं जा सकता, हमें उनके साथ मिल-जुलकर रहना है, सिर्फ़ एक लम्बे समय तक, बहुत धीरे-धीरे सतर्कतापूर्ण संगठनात्मक काम करके ही इन लोगों को फिर से शिक्षित-दीक्षित किया जा सकता है और नये साँचे में ढाला जा सकता है (और यह किया जाना चाहिए)। ये लोग सर्वहारा वर्ग के चारों ओर एक टुटपुँजिया परिवेश पैदा कर देते हैं, जो सर्वहारा वर्ग में भी घर कर जाता है और उसे भ्रष्ट कर देता है, जिसके कारण सर्वहारा वर्ग लगातार टुटपुँजिया ढुलमुलयक़ीनी; फूट, व्यक्तिवादिता और हर्षातिरेक तथा घोर निराशा के बारी-बारी से आने वाले दौरों का शिकार रहता है। इन चीज़ों का मुक़ाबला करने के लिए आवश्यक है कि सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक पार्टी के अन्दर कड़ी से कड़ी केन्द्रीयता और अनुशासन रहे ताकि ‘सर्वहारा वर्ग की संगठनात्मक भूमिका (और वही उसकी मुख्य भूमिका है) सही तौर से, सफलता-पूर्वक और विजय के साथ पूरी की जा सके। सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व पुराने समाज की शक्तियों और परम्पराओं के खिलाफ़ अनवरत संघर्ष है – ख़ूनी और रक्तहीन, हिंसापूर्ण और शान्तिमय, सैनिक और आर्थिक, शैक्षिक और प्रशासनात्मक। लाखों और करोड़ों इन्सानों की आदत की ताक़त एक बहुत भयंकर ताक़त होती है। संघर्ष में तपी हुई एक लौह पार्टी के बग़ैर, एक ऐसी पार्टी के बग़ैर, जिसमें जनता की भावनाओं पर नज़र डालने और उन पर प्रभाव डालने की क्षमता हो, इस संघर्ष को सफलता-पूर्वक चलाना असम्भव है। करोड़ों छोटे मालिकों  को “हराने” की अपेक्षा केन्द्रीभूत बड़े बुर्जुआ वर्ग को हराना हज़ार गुना आसान है; पर ये छोटे मालिक अपनी रोज़मर्रा की साधारण, अदृश्य, अननुभूत, हतोत्साहित सरगर्मियों से वही परिणाम पैदा कर देते हैं, जिनकी बुज़ुर्आ वर्ग को ज़रूरत है और जो बुज़ुर्आ वर्ग को फिर से बहाल करते हैं। जो कोई भी सर्वहारा वर्ग की पार्टी के लौह अनुशासन को ज़रा भी कमज़ोर करता है (ख़ास तौर से उसके अधिनायकत्व के समय), वह वास्तव में सर्वहारा वर्ग के ख़िलाफ़ बुर्जुआ वर्ग का साथ देता है।

नेता-पार्टी-वर्ग-जनसाधारण के प्रश्न के साथ-साथ “प्रतिक्रियावादी” ट्रेड यूनियनों के प्रश्न को भी पेश किया जाना चाहिए। परन्तु पहले मैं अपनी पार्टी के अनुभव पर आधारित कुछ उपसंहारात्मक टिप्पणियाँ करूँगा। हमारी पार्टी में “नेताओं के अधिनायकत्व” पर हमले हमेशा से होते चले आये हैं:  ऐसे हमले, मुझे याद आता है, सबसे पहले 1895 में किये गये थे, जब बाक़ायदा पार्टी अभी तो नहीं बनी थी, पर पीटर्सबर्ग में एक केन्द्रीय ग्रुप बनने लगा था, जो आगे चलकर ज़िलों के ग्रुपों का नेतृत्व अपने हाथ में लेने वाला था। हमारी पार्टी की नौवीं कांग्रेस (अप्रैल, 1920) में एक छोटा-सा विरोध पक्ष था, जो “नेताओं के अधिनायकत्व”, “अल्पतंत्र” आदि के ख़िलाफ़ बोलता था। अतः जर्मनों के “वामपंथी कम्युनिज़्म” के इस “बचकाने मर्ज़” में कोई आश्चर्यजनक, नयी या भयंकर बात नहीं है। इस बीमारी से कोई ख़तरा नहीं होता और कभी-कभी तो उसके बाद शरीर पहले से भी मज़बूत होता है। दूसरी ओर, क़ानूनी  और ग़ैर-क़ानूनी  काम की जल्दी अदला-बदली के कारण, जो संचालन केन्द्र को ही, नेताओं को ही ख़ास तौर से “छिपाकर” गुप्त रूप से रखने की ज़रूरत से सम्बन्धित थी, हमारी पार्टी में कभी-कभी बहुत ही ख़तरनाक घटनाएँ पैदा हो जाती थीं। सबसे बुरी घटना 1912 में हुई थी, जब मालिनोव्स्की नामक एक खुफ़िया एजेण्ट बोल्शेविकों की केन्द्रीय समिति में शामिल हो गया था। उसने हमारे बीसियों सबसे अच्छे और सबसे वफ़ादार साथियों के साथ ग़द्दारी की और उन्हें जेलखाने तथा निर्वासन में भिजवाया और उनमें से अनेकों के जीवन को जल्दी समाप्त करने में योग दिया। वह यदि और अधिक नुक़सान नहीं कर पाया, तो इसका कारण यही था कि क़ानूनी तथा ग़ैर-क़ानूनी काम के बीच हमने बहुत उचित सम्बन्ध स्थापित कर रखा था। पार्टी की केन्द्रीय समिति के सदस्य और दूमा में हमारे प्रतिनिधि मालिनोव्स्की को हमारा विश्वास प्राप्त करने के लिए हमारे क़ानूनी दैनिक अखबारों की स्थापना में हमारी मदद करनी पड़ी, जो ज़ारशाही के राज में भी मेन्शेविकों के अवसरवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष चलाते रहे तथा समुचित ढंग से प्रच्छन्न रूप में बोल्शेविक सिद्धान्तों का प्रचार भी करते रहे। एक हाथ से मालिनोव्स्की बीसियों सर्वोत्तम बोल्शेविक कार्यकर्ताओं को जेलखानों और फाँसीघरों में भिजवाता था, दूसरे हाथ से उसे क़ानूनी अख़बारों के ज़रिए हज़ारों नये बोल्शेविकों को शिक्षित और तैयार करने में मदद देनी पड़ती थी। जिन जर्मन (और अंग्रेज़ तथा अमरीकी, फ्रांसीसी तथा इतालवी) साथियों के सामने इस वक़्त प्रतिक्रियावादी ट्र्रेड-यूनियनों के अन्दर क्रान्तिकारी काम करने का ढंग सीखने का सवाल है, उन्हें इस बात की ओर ग़म्भीरता से ध्यान देना चाहिए।

इसमें शक नहीं है कि बहुत से देशों में, अधिकतर उन्नत देशों में भी कम्युनिस्ट पार्टियों के भीतर बुर्जुआ वर्ग खुफ़िया एजेण्टों को भेजता है और आगे भी भेजता रहेगा। इस ख़तरे से लड़ने का एक तरीक़ा यह है कि ग़ैर-क़ानूनी और क़ानूनी काम को होशियारी के साथ मिलाकर चलाया जाये।

(वामपंथी कम्युनिज़्म एक बचकाना मर्ज़ के अंश)

 

मज़दूर बिगुलजून  2013

 


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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