सद्दाम को फाँसी : बर्बरों का न्याय

आलोक रंजन

saddam_hanged-780201इराक के पूर्व राष्‍ट्रपति सद्दाम हुसैन को मुकदमे की एक लंबी नौटंकी के बाद फाँसी की सज़ा सुनाई गयी और फिर 30 दिसम्बर की सुबह उसे अमली जामा भी पहना दिया गया । सद्दाम के साथ ही उनके सौतेले भाई बरजन इब्राहीम अल तिकरिती और इराकी क्रान्तिकारी न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश अवाद हामिद अल वांतर को भी फाँसी की सज़ा सुनाई गई है पर उन्हें कुछ दिन बाद फाँसी दी जायेगी ।

न्याय का यह अमेरिकी स्वाँग बर्बर हत्या को न्यायसंगत ठहराने की एक असफल और बेशर्म कोशिश मात्र था । सद्दाम को जिस समय फाँसी दी गयी, उस समय अमेरिकी साम्राज्यवादी युद्ध सरदार जार्ज बुश सो रहा था । लेकिन सच यह है कि अरब धरती से लेकर ऐन पिछवाड़े लातिन अमेरिका तक से उठ रही जनाक्रोश की लहरों ने अमेरिकी साम्राज्यवादियों की पहले से ही नींद हराम कर रखी है । अब सद्दाम की फाँसी के बाद, अरब धरती पर अपनी चौधराहट जमाकर वहाँ की अकूत तेल सम्पत्ति को हड़पने के अमेरिकी मंसूबे मात्र दु:स्वप्न बनकर रह जायेंगे । अरब के जलते रेगिस्तान में अमेरिकी साम्राज्यवादी मंसूबों का जल कर राख हो जाना तय है । देखना सिर्फ यह है कि इसमें कितना समय लगता है!

सद्दाम हुसैन को “न्यायिक रास्ते से” मौत के घाट उतारने के लिए उन पर कुर्दों और शिया मुसलमानों के नरसंहार का आरोप लगाया गया । लेकिन जिस दौर में सद्दाम की सत्ता इराक में कुर्दों और बाथ पार्टी के विरोधी शियाओं का दमन कर रही थी, उस समय अमेरिकी साम्राज्यवादी पूरी तरह से उसकी पीठ पर खड़े थे । अस्सी के दशक में जब अमेरिका ईरान को सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देख रहा था, उस समय, ईरान–इराक युद्ध के दौरान, तीसरी दुनिया के दो देशों के बुर्जुआ शासक वर्गों की क्षेत्रीय विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं एवं हितों के आपसी टकराव का लाभ उठाकर अपना उल्लू सीधा करने के लिए अमेरिका ने इराक को अपने मोहरे की तरह इस्तेमाल किया और ईरान–इराक युद्ध में इराक की भरपूर मदद की । लेकिन युद्ध के बाद, अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता–सम्प्रभुता का इजहार करते हुए, सद्दाम ने जब अपनी ध्वस्त अर्थव्यवस्था को ठीक करने के लिए तेल की कीमतों में वृद्धि की घोषणा की तथा फिलिस्तीनी जनता की मुक्ति के प्रति अपने खुले समर्थन के साथ ही व्यापक अरब एकता की बात की, तो फिर तुरन्त वह अमेरिकी आँखों में शूल की तरह चुभने लगा । कुवैत पर इराकी हमले ने अमेरिका को यह अवसर दे दिया कि वह सद्दाम हुसैन को सबक सिखाये और पहले खाड़ी युद्ध के दौरान मौजूदा राष्‍ट्रपति के बाप, बुश सीनियर की सत्ता ने ऐसा ही किया । कुवैत पर हमला निश्‍चय ही सद्दाम की क्षेत्रीय विस्तारवादी महत्वाकांक्षा का परिणाम था, लेकिन इस बात को भी याद रखना होगा कि कुवैत के शेखों–शाहों की घोर जनविरोधी सत्ता हमेशा से अमेरिकी साम्राज्यवादियों की पिट्ठू रही है और सीमावर्ती तेल–कूपों के जरिए इराकी तेल चुराकर, लगातार एक लम्बे समय से वह इराक के विरुद्ध उकसावे की कार्रवाई में लगी हुई थी । दरअसल, अमेरिका किसी भी तरह से इराक को सबक सिखाने की फिराक में था और कुवैती उकसावे की कार्रवाइयाँ उसी की राह पर हो रही थीं ।

आज यह सच्चाई दिन के उजाले की तरह साफ है कि अरब धरती शुरू से ही अपनी अकूत तेल–सम्पदा के चलते ही साम्राज्यवादी दखलंदाजियों का शिकार रही है । साम्राज्यवादी षड्यंत्रों की मुख्य सूत्रधार पहले ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय शक्तियाँ थी । द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद, इसकी बागडोर मुख्यत: अमेरिका के हाथों में रही है । चाहे फिलिस्तीन और लेबनान का सवाल हो या ईरान और इराक का, अमेरिका का असली मकसद हमेशा से ही अरब देशों में बुर्जुआ शासक वर्गों के आपसी अन्तरविरोधों को उकसाकर, उनमें से कुछ (शेखों–शाहों की निरंकुश सत्ताओं को) को अपना पिट्ठू बनाकर तथा शेष को आर्थिक–राजनीतिक– सामरिक दबावों–घेरेबंदियों के बल पर झुकाकर, अकूत तेल सम्पदा पर अमेरिकी कम्पनियों का एकाधिकार कायम करना रहा है । इराक पर अमेरिकी हमले और वहाँ एक कठपुतली सत्ता की स्थापना का मूल उद्देश्‍य भी यही था ।

सद्दाम को फाँसी की सज़ा एक भेड़िये के न्याय से अधिक कुछ भी नहीं है । यदि कुछ हज़ार लोगों को मौत के घाट उतारने के कथित आरोप में सद्दाम को फाँसी की सज़ा दी गयी तो दस लाख इराकियों के नरसंहार के लिए जिम्मेदार जार्ज बुश को तो कई बार फाँसी के फन्दे से झुलाना चाहिए! दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद पूरी दुनिया में बतिस्ता, मार्कोस, पिनोशे, दुवालियर, सुहार्तो जैसे जितने भी सैनिक तानाशाहों ने अपने देशों में कई नरसंहार और बर्बर अत्याचार किये, वे सभी अमेरिकी कठपुतली थे । इस्रायल फिलिस्तीनी जनता पर आधी सदी से जो कहर बरपा कर रहा है, वह  अमेरिकी मदद से ही सम्भव हो सकता है । खुद अमेरिका के भीतर अश्‍वेतों, आप्रवासियों और सत्ता–विरोधियों पर जो अत्याचार होते रहे हैं, उनके लिए अमेरिकी शासक वर्ग को सज़ा कौन सुनायेगा ?

सद्दाम हुसैन पर मुकद्दमा पूरी दुनिया के इतिहास में न्याय का मख़ौल उड़ाने वाली सबसे बड़ी घटनाओं में से एक था । यह मुकदमा किसी अन्तरराष्‍ट्रीय ट्रिब्यूनल ने नहीं बल्कि कठपुतली जजों के एक बेंच ने सुनाया । इन जजों की नियुक्ति एक ऐसी सरकार ने की थी जिसे एक ऐसे चुनावी प्रहसन के बाद चुना गया था जिसमें देश की बहुसंख्यक आबादी ने हिस्सा नहीं लिया । इस सरकार के हाथ में आन्तरिक प्रशासन का भी कोई अधिकार नहीं है । पूरा प्रशासन वस्तुत: अमेरिकी सेना के हाथों में है । जजों की बेंच के जिन दो जजों से फाँसी की सज़ा पर मुहर लगाने की उम्मीद नहीं थी, उन्हें बदल दिया गया । सद्दाम के एक वकील को गोली मार दी गयी और कई कानूनी सलाहकारों को इराक जाने का वीज़ा तक नहीं दिया गया । गौरतबल यह भी है कि इराक की कठपुतली सरकार के (कुर्द मूल के) राष्‍ट्रपति ने फाँसी के हुक़्मनामे पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया । इन सबके बावजूद, आनन–फानन सद्दाम को फाँसी दे दी गयी ।

इराक पर हमले के पीछे अमेरिका का सबसे बड़ा तर्क यह था कि सद्दाम की सत्ता के पास सामूहिक विनाश के रासायनिक हथियारों का जखीरा है और वह नाभिकीय शस्त्रास्त्रों के विकास में लगी हुई है । लेकिन अन्तरराष्‍ट्रीय टीमों से लेकर अमेरिका सेना तक, तमाम कोशिशों के बावजूद, आज तक अपने इन दावों के पक्ष में एक भी प्रमाण नहीं जुटा सकीं हैं । संयुक्त राष्‍ट्रसंघ द्वारा अमेरिकी हमले के बार–बार विरोध के बावजूद, अमेरिका ने इराक पर हमला किया । इससे यह सच्चाई एक बार फिर उजागर हो गयी कि साम्राज्यवादी वर्चस्व वाली आज की दुनिया में विश्‍व जनमत का वास्तव में कोई मतलब नहीं रह गया है और रस्मी विरोध की तमाम कवायदों के बाद, सभी अन्तरराष्‍ट्रीय मंच वास्तव में साम्राज्यवादी हितों की सेवा करने वाले मंचों की ही भूमिका निभाते हैं ।

saddam2सद्दाम हुसैन निश्‍चय ही एक पूँजीवादी शासक था और कुर्दों और शियाओं पर अस्सी और नब्बे के दशक में उसकी सत्ता ने जु़ल्म भी किये थे । पर उसके विरुद्ध संघर्ष इराकी जनता का काम था । अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने मात्र इन अन्तरविरोधों का लाभ उठाया और इस बहाने इराक की तेल सम्पदा पर कब्जा जमाने की कोशिश की । सद्दाम को “सजा” अपनी जनता पर दमन की नहीं, बल्कि इस बात की मिली कि उसने अमेरिकी साम्राज्यवादी वर्चस्व के मंसूबों को चुनौती दी ।

साथ ही, हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सद्दाम की बाथ पार्टी एक समय में एक ऐसी राष्‍ट्रीय जनवादी चरित्र वाली पार्टी के रूप में उभरी थी जो साम्राज्यवाद और उसके पिट्ठू शेखों–शाहों की निरंकुश सत्ता के विरुद्ध आम जनता की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती थी । बाथ पार्टी के शासन के दौरान, इराक में जनता को बहुतेरे जनवादी अधिकार मिले, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में काफी प्रगति हुई तथा कला–साहित्य–संस्कृति का भी विकास हुआ । इराक तब एक धर्मनिरपेक्ष अरब देश था । उसके बाद, सद्दाम की सत्ता के चरित्र–परिवर्तन के पीछे उसी मूल तर्क ने अपनी भूमिका निभाई, जो तीसरी दुनिया के नवस्वाधीन देशों के तमाम बुर्जुआ शासकों के चरित्र–परिवर्तन का मूल कारण था । साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों की विजय के बाद, तीसरी दुनिया के बहुतेरे बुर्जुआ शासकों ने पूँजीवादी विकास के पहले चरण में बहुत सारे लोक कल्याणकारी काम किये । फिर धीरे–धीरे उनके चरित्र का प्रतिक्रियावादी पहलू प्रधान बनता चला गया और वे पूँजीवादी विश्‍व–व्यवस्स्था में व्यवस्थित होते चले गये । सद्दाम के साथ भी यही हुआ । अपनी क्षेत्रीय विस्तारवादी महत्वाकांक्षा और अन्य अरब देशों एवं ईरान के बुर्जुआ शासक वर्गों से प्रतिस्पर्द्धा के चलते ही उसने ईरान के विरुद्ध अमेरिकी शह पर युद्ध छेड़ा । इन आपसी अन्तरविरोधों का, स्वाभाविक तौर पर अमेरिका ने लाभ उठाया । यही दौर था जब सद्दाम की सत्ता जनता से कटकर दमनकारी होती चली गयी । साथ ही, इराकी जनता की साम्राज्यवाद विरोधी एकता भी विघटित होती चली गयी तथा शियाओं–कुर्दों– सुन्नियों के बीच अन्तरविरोध तीखे होने लगे । इसी दौरान, सद्दाम ने शियाओं–कुर्दों का दमन किया और बाथ पार्टी का सेक्यूलरिज़्म भी क्षरित–विघटित होता चला गया । साम्राज्यवादियों ने इन अन्तरविरोधियों का पूरा लाभ उठाया । अमेरिका आज भी अपने असली मकसद पर पर्दा डालने  के लिए शियाओं और कुर्दों के हितों की दुहाई देता है और अब उसकी पूरी कोशिश यही है कि इन अन्तरविरोधों को खूब हवा देकर इराक को ही विघटित कर दिया जाये ताकि उसकी तेल सम्पदा पर कब्जा जमाना आसान हो जाये ।

फौरी तौर पर ऐसा लग रहा है कि अमेरिका को अपने इस मकसद में कामयाबी मिल रही है । लेकिन, दूरगामी तौर पर, इसके विपरीत होने वाला है । कमल पाने के लोभ में हाथी दलदल में और भीतर धँसता जा रहा है । सद्दाम की हत्या के बाद, तत्काल भले ही सुन्नी–शिया और कुर्द आबादी के आपसी संघर्ष सतह पर बढ़ते हुए दिख रहे हैं, लेकिन दूरगामी तौर पर, अमेरिकी साम्राज्यवाद–विरोधी इराकी जनता की, और न केवल इराकी जनता बल्कि समूची अरब जनता की, संग्रामी एकजुटता की मजबूत जमीन तैयार हो रही है । संकट सिर्फ़ अमेरिका के लिए ही नहीं, बल्कि उन तमाम अरब शासकों के लिए भी गम्भीर होता जा रहा है जो अमेरिका के पक्षधर या उसके प्रति नरम या मध्यमार्गी हैं तथा जो फिलिस्तीनी जनता के हितों की सौदेबाजी और उसके प्रति विश्‍वासघात करते रहे हैं । साथ ही, साम्राज्यवादी ताकतों के आपसी अन्तरविरोध भी बढ़ते जा रहे हैं । अरब भूमि पर अमेरिकी साम्राज्यवाद के लगातार ज्यादा से ज्यादा फँसते जाने के साथ ही, न केवल पूरी दुनिया के अलग–अलग हिस्सों में उसके विरोध के स्वर ज़्यादा से ज़्यादा मुखर होते जा रहे हैं बल्कि अन्य साम्राज्यवादी देश भी निकट भविष्‍य में अमेरिकी चैधराहट को फैसलाकुन चुनौती देने की कोशिशों में जुट गये हैं । यही नहीं अमेरिकी शासक वर्ग के भीतर के अन्तरविरोध भी गहराते जा रहे हैं । अरब क्षेत्र आज के पूँजीवादी विश्‍व के समस्त अन्तरविरोधों की एक ऐसी गाँठ बना हुआ है, जहाँ से, काफी हद तक भविष्‍य के नये समीकरण तय होने हैं और पूँजीवाद विरोधी विश्‍वव्यापी संघर्ष की दिशा तय होनी है ।

सद्दाम को फाँसी देकर अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने न केवल बर्बर हमलावरों के इन्साफ की एक और मिसाल पेश की है, बल्कि एक ऐसी आग में घी डालने का काम किया है जिसमें खु़द उन्हीं के हाथ जलने हैं और उन्हीं के मंसूबों को झुलसना और जलकर राख होना है ।

 

बिगुल, दिसम्‍बर 2006-जनवरी 2007

 


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments