प्रधानमन्त्री जन-धन योजना से मेहतनकशों को क्या मिलेगा?

आनन्द सिंह

jandhanनरेन्द्र मोदी ने अपने चुनावी प्रचार के दौरान जनता को महँगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने के लम्बे-चौड़े वायदे किये थे। लेकिन मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के तीन महीने बीतने के बाद हालत यह है कि आम मेहनकश जनता की समस्याएँ कम होना तो दूर बढ़ती ही जा रही हैं। इस बीच जनता में बढ़ते असन्तोष को थोड़ा काबू में लाने के लिए मोदी ने ग़रीबों के लिए बैंक खाते खुलवाने का लुकमा फ़ेंका है। 28 अगस्त को मोदी ने ताम-झाम के साथ ‘प्रधानमन्त्री जन-धन योजना’ नामक एक नयी योजना की औपचारिक शुरुआत की जिसके तहत अगले साल 26 जनवरी तक पूरे देश में 7.5 करोड़ नये बैंक खाते खुलवाने का लक्ष्य रखा गया है। इस योजना के लागू होने से मोदी के शब्दों में ‘वित्तीय छुआछूत’ दूर होगा और ‘वित्तीय समावेशन’ को बढ़ावा मिलेगा। इस योजना के तहत खुलने वाले बैंक खाते ज़ीरो बैलेंस खाते होंगे एवं उनमें 30,000 रुपये का जीवन बीमा, 1 लाख रुपये का दुर्घटना बीमा मुफ्त में मिलेगा और 5,000 रुपये की ओवरड्राफ्ट सुविधा भी होगी।

इस योजना की मीडिया में जिस तरीके से हवा बनायी गयी उससे तो ऐसा लगता है मानो इसके लागू होते ही ग़रीबों और मेहनतकशों की ज़ि‍न्दगी का कायाकल्प हो जायेगा। लेकिन मीडिया की हवाबाज़ी से ध्यान हटाकर आइये इस प्रश्न पर संजीदगी से विचार करते हैं कि इस योजना के लागू होने से मेहतनकशों की ज़ि‍न्दगी में क्या बेहतरी आयेगी और क्या वास्तव में इससे वित्तीय समावेशन हो पायेगा?

इस योजना के पैरोकार तथाकथित वित्तीय छुआछूत की समस्या यानी ग़रीबों और मेहतनकशों तक वित्त की पहुँच न होने का मुख्य कारण यह बताते हैं कि ग़रीबों के पास बैंक खाते नहीं होते। अतः उनके हिसाब से यदि ग़रीबों और मेहतनकशों के बैंक खाते खुलवा दिये जायें तो यह समस्या दूर हो जायेगी और वित्तीय समावेशन हो जायेगा। इस तरह के हवाई समाधान वही बता सकता है या ऐसे सरलीकृत समाधान पर वही लट्टू हो सकता है जिसका ग़रीबों और मेहनतकशों की ज़ि‍न्दगी से दूर-दूर तक कोई वास्ता न हो और जिसका ग़रीबों की समस्याओं के बारे में ज्ञान बस मीडिया की ख़बरों पर आधारित हो। ग़रीबों और मेहनतकशों की ज़ि‍न्दगी से सरोकार रखने वाला कोई भी व्यक्ति यह जानता है कि उनकी असली समस्या तो यह है कि उनकी आमदनी ही इतनी कम होती है कि यदि उनके बैंक खाते खुल भी जायें तो उसका कोई ख़ास मतलब ही नहीं होता। उनकी आमदनी तो बस उनके परिवार का बमुश्किल पेट भरने में ही ख़त्म हो जाती है। 2004 में भारत सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट में यह बताया गया था कि देश की 77 फ़ीसदी आबादी रोज़ाना बीस रुपये या उससे भी कम पर गुज़ारा करती है। इस पूरी आबादी के यदि बैंक खाते खुलवा भी दिये जायें तो इससे उनकी मूल समस्या यानी आमदनी की कमी तो हल नहीं होने वाली।

यह बात सच है कि आज़ादी के 67 साल बीतने के बावजूद देश के 40 फ़ीसदी परिवार और 60 फ़ीसदी से ज़्यादा लोग बैंकिंग की सुविधा से महरूम हैं जो अपनेआप में इस देश में विकृत पूँजीवादी विकास को दर्शाता है। रिज़र्व बैंक के आँकड़े के अनुसार इस देश में कुल 90 करोड़ बैंक खाते हैं। लेकिन 2011 की जनगणना के अनुसार इस देश में बैंकिंग सुविधा की पहुँच महज़ 30 करोड़ लोगों तक है। यानी कि कुछ लोगों के कई बैंक खाते हैं और तमाम लोगों के पास एक भी खाता नहीं है। यह भी सच है कि गाँवों के ग़रीब किसान, कारीगर और खेतिहर मज़दूर स्थानीय महाजनों या माइक्रो फ़ाइनेंस कम्पनियों के भारी सूद वाले कर्ज़ों तले पिसकर तबाह हो जाते हैं। भारतीय पूँजीपति वर्ग के दूरन्देश विचारक और बुद्धिजीवी लम्बे अरसे से इस आबादी को मुख्यधारा की बैंकिंग प्रणाली से जोड़ने की बात करते रहे हैं ताकि उनकी थोड़ी-बहुत बचत जो अभी स्थानीय महाजन या माइक्रो फाइनेंस कम्पनियाँ हड़प लेती हैं उसे राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग की पूँजी की ज़रूरतों को पूरा करने में लगाया जाये।

मोदी सरकार जन-धन योजना को कुछ इस तरह से प्रचारित कर रही है मानो यह उनके दिमाग की उपज है। सच तो यह है कि वित्तीय समावेशन की क़वायदें कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के जमाने से ही की जा रही हैं। इसी क़वायद के तहत अभी पिछले वित्तीय वर्ष में ही 6 करोड़ बैंक खाते खोले गये। लेकिन उनमें से अधिकांश खाते कुछ समय बाद निष्क्रिय पाये गये। ज़ाहिर है कि बैंक खाते खुलवाना अपने आपमें कोई जादू की छड़ी नहीं है जिससे ग़रीबों की समस्याएँ छूमन्तर हो जायेंगी। एक ऐसे दौर में जब महँगाई दिन-ब-दिन नयी ऊँचाइयों को छूती जा रही है, यह समझना मुश्किल नहीं है कि क्यों ये खाते निष्क्रिय हो जाते हैं। मोदी सरकार अन्य नीतियों की ही तरह यूपीए सरकार की इस नीति को भी बस लेबल बदलकर अपने नाम से प्रचारित कर रही है। जिस प्रकार एक कुशल सेल्समैन पुराने माल को ही नयी पैकेजिंग करके और उसके साथ कुछ डिसकाउंट आदि जोड़कर बेचता है, ठीक उसी प्रकार मोदी सरकार भी इस योजना पर नया लेबल चस्पां कर और इसके साथ कुछ नये प्रावधान मसलन बीमा कवर, ओवरड्राफ्ट, डेबिट कार्ड आदि की सुविधाएँ जोड़कर इसको नयी योजना की तरह प्रचारित कर रही है। इस योजना में बीमा और ओवरड्राफ्रट की जिन सुविधाओं का ज़ोर-शोर से प्रचार किया गया उनके बारे में स्पष्टता के अभाव में बैंकों एवं भारतीय जीवन बीमा निगम में उहापोह की स्थिति बनी हुई है कि इसका बोझ कौन उठायेगा।

मोदी ने इस योजना को लांच करते हुए कहा कि अब मेरे ग़रीब के पास भी डेबिट कार्ड होगा जो उसमें मानसिक परिवर्तन लायेगा। ग़रीबों की मोदी तक पहुँच नहीं है, नहीं तो वे उनसे ज़रूर पूछते कि डेबिट कार्ड होने मात्र से उनका क्या भला होने वाला है? शहरों में फैक्टरी में काम करने वाले बहुत से मज़दूरों के पास इन दिनों डेबिट कार्ड पाया जाता है, लेकिन इससे उनकी नारकीय जीवन परिस्थिति में तो कोई परिवर्तन नहीं आता। रही बात गाँवों की तो वहाँ जब अधिकांश समय बिजली ही नहीं रहती तो ऐसे में वहाँ के ग़रीबों को डेबिट कार्ड देने की हाँकना क्या एक भद्दा मज़ाक़ नहीं है?

जन-धन योजना के तहत गाँवों में नये खाते खुलवाने के लिए बैंकिंग करेस्पांडेंट मॉडल को लागू करने की बात की जा रही है जिसके तहत सुदूरवर्ती क्षेत्रों में बैंक अपनी शाखाएँ खोलने की बजाय खाता खोलने और उसके प्रबन्धन का काम कुछ निजी कम्पनियों को ठेके पर दे देते हैं जिन्हें बैंकिंग करेस्पांडेंट कहा जाता है। आन्ध्र प्रदेश, झारखण्ड और हरियाणा जैसे प्रदेशों में यह मॉडल पहले से काम कर रहा है। आन्ध्र प्रदेश में फिनो और मनीपाल जैसी निजी कम्पनियाँ बैंकिंग करेस्पांडेंट के काम में लगी हुई हैं। लेकिन हालिया रिपोर्टों में यह पता चला है कि ऐसी कम्पनियाँ इस काम को कराने के लिए बेहद कम तनख़्वाह (1000-1500 रुपये) पर लड़के-लड़कियों को ठेके पर रखते हैं जिन्हें कोई औपचारिक प्रशिक्षण भी नहीं प्रदान किया जाता है। लिहाजा ग़रीबों की समस्या घटने की बजाय बढ़ जाती है। एक हालिया सर्वे के मुताबिक़ पिछले कुछ वर्षों में देश भर में खुली बैंकिंग करेस्पांडेंट कम्पनियों में से लगभग आधी का कोई अता-पता ही नहीं है। जिनका अता-पता मिला उनमें से भी 16 फीसदी कम्पनियों ने हाल में कोई गतिविधि नहीं की। इसके अलावा कुछ बैंकिंग करेस्पांडेंट कम्पनियों पर फर्जीवाड़े के आरोप भी लगे हैं। ऐसे में यह मॉडल ग़रीबों के लिए खाते खुलवाने के सीमित लक्ष्य पर भी कितना खरा उतरेगा इस पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लग जाता है।

मोदी सरकार द्वारा इस योजना को ज़ोर-शोर से लागू करने के पीछे एक अन्य अहम वजह यह भी है कि इसके ज़रिये खाद्य पदार्थों, ईंधन और फर्टिलाइज़र आदि की सब्सिडी को सीधे नक़दी देने की नव-उदारवादी परियोजना को भी लागू किया जा सकेगा। ग़ौरतलब है कि ‘डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर’ या ‘डायरेक्ट कैश ट्रांसफर’ की यह नव-उदारवादी योजना भी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार की योजना को ही आगे बढ़ाती है। नव-उदारवादी अर्थशास्त्री और इस योजना के पैरोकार यह दावा करते हैं कि इससे सब्सिडी को बेहतर तरीके से निर्देशित किया जा सकेगा ताकि इसका लाभ ज़रूरतमन्दों को ही मिल सके। लेकिन इसका असली मक़सद सार्वजनिक वितरण प्रणाली को तहस-नहस करके हर क़िस्म की सब्सिडी को नक़दी में देना है ताकि ग़रीबों को दी जाने वाली सब्सिडी का बोझ कम किया जा सके।

ग़ौरतलब है कि नक़दी में सब्सिडी देने के जो प्रयोग अब तक हुए हैं उनमें यह साफ़ उभरकर आया है कि इससे ज़रूरतमन्दों की एक बड़ी आबादी सब्सिडी से वंचित हो जाती है। मसलन राजस्थान के अलवर जिले के कोटकासिम गाँव में किरासन वितरण में नक़दी सब्सिडी देने के प्रयोग में यह देखने में आया कि इस योजना को लागू करने के बाद ग़रीबों की एक बड़ी आबादी में किरासन की माँग में ही कमी आ गयी क्योंकि उनको सालों तक सब्सिडी का पैसा नहीं मिलता था। अपनी दिहाड़ी तोड़कर तमाम लोगों द्वारा बैंक शाखाओं तक मीलों चलके जाने के बावजूद उनको सब्सिडी का पैसा न मिलने से उनमें इस स्कीम पर से भरोसा ही उठ गया। इसी तरह दिल्ली में इसी तरह की एक स्कीम लागू होने के बाद किये गये सर्वे के बाद 95 फीसदी लोगों का मानना था कि नक़दी सब्सिडी देने की बजाय पहले की तरह राशन की दुकानों से चीज़ों के वितरण की व्यवस्था ही अपनी तमाम खामियों के बावजूद बेहतर थी। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करने की बजाय उसकी तिलांजलि देकर नक़दी सब्सिडी की बात करना नव-उदारवादी एजेंडा है जो विश्व बैंक, आईएमएफ, यूएनडीपी जैसी तमाम संस्थाओं द्वारा पूरी दुनिया में फैलाया जा रहा है। इस तरह की स्कीमों के पायलट प्रोजेक्टों में विफलता और जनअसन्तोष को पूरी तरह दरकिनार करते हुए अब मोदी सरकार इसे प्रधानमन्त्री जन-धन योजना के तहत तेज़ी से लागू करने की फ़िराक में है। पूँजीपतियों की विलासिता के लिए हर साल अरबों रुपये की कॉरपोरेट सब्सिडी झोंकने वाली पूँजीवादी सरकारों को ग़रीबों के मुँह में जाने वाला निवाला भी फूटी आँख नहीं सुहा रहा है और वे सब्सिडी में कटौती कर उसको भी नियंत्रित करने की योजनाएँ बना रहे हैं। इस प्रकार जन-धन योजना को ग़रीबों-मेहनतकशों के अधिकारों पर नव-उदारवादी हमलों की कड़ी में ही समझा जा सकता है।

 

मज़दूर बिगुल, सितम्‍बर 2014

 


 

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