माइकल ब्राउन हत्याकाण्ड: एक शोकगीत जिसका अन्त निश्चित है

श्वेता

माइकल ब्राउन

माइकल ब्राउन

दुनिया का महानतम “लोकतन्त्र” होने का दावा करने वाले अमेरिका के मिसौरी राज्य स्थित फ़र्ग्यूसन शहर में बीती 9 अगस्त को एक श्वेत पुलिस अधिकारी ने दिनदहाड़े माइकल ब्राउन नामक 18 वर्षीय निहत्थे अश्वेत किशोर की निर्मम हत्या कर दी। ब्राउन का मृत शरीर कई घंटों तक सड़क पर पड़ा रहा। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक़ ब्राउन के शरीर पर छः गोलियाँ दागी गयी थीं। इस जघन्य अपराध को अंजाम देने वाले पुलिस अधिकारी पर कार्रवाई करने के बजाय फ़र्ग्यूसन की पुलिस ने उसका नाम कई दिनों तक गुप्त रखा। अन्ततः इस हत्याकाण्ड के खि़लाफ़ बढ़ते विरोध प्रदर्शनों के दबाव में अमेरिकी पुलिस ने 15 अगस्त को दोषी पुलिस अधिकारी का नाम उजागर किया। इसके बाद भी अमेरिकी पुलिस ने दोषी अधिकारी पर कोई कार्रवाई नहीं की। वह पुलिस अधिकारी का बचाव करने के लिए अलग-अलग हथकण्डे अपनाती रही। हद तो तब हो गयी जब अमेरिकी पुलिस ने बेशर्मी की सारी सीमाएँ पार करते हुए माइकल ब्राउन पर ही मनगढ़न्त आरोप लगाने शुरू कर दिए।

इस हत्याकाण्ड से आक्रोशित लोगों ने फ़र्ग्यूसन में 10 अगस्त से ही विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू कर दिया। जल्द ही ये विरोध प्रदर्शन लॉस एंजेल्स, न्यूयार्क, वाशिंगटन डीसी समेत 37 शहरों में फैल गए। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों के खि़लाफ़ गैस के गोलों, रबर बुलेटों, धुँआ बमों, साउण्ड कैननों (जिसके प्रभाव से सुनने की शक्ति हमेशा के लिए जा सकती है) जैसे सैन्य उपकरणों का जमकर इस्तेमाल किया। निस्सन्देह इससे अमेरिकी पुलिस के बढ़ते सैन्यीकरण का स्पष्ट अन्दाजा लगाया जा सकता है। यह बात इस तथ्य से और अधिक पुष्ट होती है कि 1997 में अमेरिकी सरकार ने राष्ट्रीय रक्षा प्राधिकरण अधिनियम के तहत अमेरिकी पुलिस विभाग को सस्ती दरों पर सैन्य उपकरण मुहैया कराए। 9/11 के हमले के बाद तो अमेरिकी पुलिस को सैन्य युद्धास्त्र ख़रीदने के लिए 4.3 अरब रुपयों की मदद दी गयी।

brown-vigil 1विरोध प्रदर्शनों के जुझारू चरित्र से घबराकर अमेरिकी शासकों ने फ़र्ग्यूसन को एक युद्ध क्षेत्र में तब़्दील कर दिया। शहर में जगह-जगह नाकेबन्दियाँ की गयीं। प्रदर्शनकारियों के दिलों में ख़ौफ़ पैदा करने के लिए अमेरिकी पुलिस ने सैन्य वाहनों के ज़रिये गश्त बढ़ा दी। 16 अगस्त को मिसौरी के गवर्नर ने राज्य में आपातकाल घोषित करते हुए कर्फ्यू का निर्देश दिया। हत्याकाण्ड के दस दिनों के भीतर पुलिस ने 150 प्रदर्शनकारियों के अलावा कई पत्रकारों को भी गिरफ्तार किया। इस सबके बावजूद प्रदर्शनकारियों ने विरोध जारी रखा। विश्लेषकों के मुताबिक़ 1960 के नागरिक अधिकार आन्दोलन के बाद पहली बार इतने बड़े पैमाने के जुझारू आन्दोलन का उभार देखा गया है। यहाँ ग़ौर करने लायक बात यह है कि राष्ट्रपति ओबामा ने भी इस पूरे घटनाक्रम पर घड़ियाली आँसू बहाने से अधिक कुछ नहीं किया।

बहरहाल, अमेरिकी पुलिस द्वारा अश्वेतों की नृशंस हत्या का न तो यह पहला मामला है न आखिरी। ब्राउन की हत्या के दस दिनों बाद ही अमेरिकी पुलिस ने मानसिक रूप से कमज़ोर काजि़म पॉवल नाम के एक 25 वर्षीय अश्वेत युवक की हत्या कर दी। इसके अलावा अगस्त के महीने में ही अमेरिकी पुलिस ने तीन अश्वेत युवकों को अलग-अलग शहरों में मौत के घाट उतार दिया। एक रिपोर्ट के अनुसार तो 2005-12 के बीच अमेरिकी पुलिस द्वारा हर हफ्ते औसतन दो अश्वेतों की हत्या की गयी। मारे गए अश्वेतों में से 18 प्रतिशत की उम्र 21 वर्ष से कम थी। ध्यान रखें कि अधूरे होने के कारण ये आँकड़े सही तस्वीर बयान करने में असमर्थ हैं। अमेरिकी सरकार इन आँकड़ों का कोई व्यवस्थित ब्यौरा नहीं रखती। वास्तविक हत्याओं के आँकड़े तो इससे कहीं अधिक हैं।

अमेरिकी पुलिस द्वारा इतने बड़े पैमाने पर अश्वेत आबादी की नृशंस हत्या को अंजाम दिए जाने का एक कारण तो श्वेत आबादी के दिलों में बरसों से अश्वेतों के प्रति पैठी गहरी घृणा भावना है। दूसरा, अमेरिका में अश्वेत आबादी के सामाजिक-आर्थिक हालात ने उनके बीच जिस असुरक्षा की भावना को बढ़ावा दिया है उससे उनके दिलों में असंतोष की चिंगारी सुलग रही है। इस असंतोष की बारीक से बारीक अभिव्यक्ति को अमेरिकी शासकों द्वारा बन्दूक की नोक से शांत किया जाता रहा है। अगर अकेले फ़र्ग्यूसन शहर की बात करें तो 21,000 की आबादी वाले इस शहर में 67 प्रतिशत अश्वेत आबादी रहती है। इनमें बेरोज़गारी की दर 13 प्रतिशत है और यहाँ हर चार में से एक अश्वेत ग़रीब है।

brown-vigilआइये, ज़रा पूरे अमेरिकी समाज में अश्वेत आबादी के सामाजिक-आर्थिक हालात पर एक सरसरी नज़र डालें। अमेरिका में अश्वेत कुल आबादी का 14.2 प्रतिशत हैं। अश्वेत आबादी का 12.6 प्रतिशत हिस्सा बेरोज़गार है जो श्वेत आबादी की तुलना में दुगुना है। वर्ष 2012 में अमेरिका में 28.1 प्रतिशत अश्वेत ग़रीब थे जबकि 2005 में यह आँकड़ा 25.5 प्रतिशत था। अश्वेतों में श्वेतों की तुलना में शि‍शु मृत्यु दर कई गुना ज़्यादा है। अश्वेत आबादी की रिहाइश के इलाके मुख्य आबादी के इलाकों से अलग-थलग बनाए गए हैं। इन इलाकों में ज़्यादातर ग़रीब अश्वेत रहते हैं जिन्हें बुनियादी सुविधाओं तक से महरूम रखा गया है। याद हो कि 2005 में अमेरिका में आए कैट्रीना तूफ़ान से ज़्यादातर ग़रीब अश्वेत आबादी के रिहाइशी इलाके ही प्रभावित हुए थे। इसका प्रमुख कारण इन इलाकों में मौजूद तटबंधों की ख़स्ता हालत थी। इन्हें वर्षों से यूँ ही छोड़ दिया गया था और मरम्मत तक नहीं करवाई गयी थी। तूफ़ान के दौरान यहाँ रहने वाली ग़रीब आबादी को हर प्रकार की सरकारी मदद से वंचित रखा गया। लोगों के पास इन इलाकों से सुरक्षित निकलने तक के साधन न थे। इस आपदा पर प्रतिक्रिया देते हुए वहाँ के एक “जनप्रतिनिधि” ने कहा था – “हम तो न्यू ऑरलियंस की काली गंदगी को पहले ही साफ़ करना चाहते थे। यह हम न कर सके, ईश्वर ने इसे कर दिया।” यह कथन अमेरिकी संस्कृति की “श्रेष्ठता” तथा “महान” लोकतांत्रिक परम्पराओं का डंका बजाने वालों के मुँह पर क़रारा तमाचा है। अमेरिका में अश्वेत आबादी के बच्चों तक के लिए अलग विद्यालय बनाये गये हैं जो अकसर ही संसाधनों की कमी से जूझते रहते हैं। यहाँ बच्चों को मैटल डिटेक्टर से होकर गुजरना पड़ता है और अकसर ही वहाँ की पुलिस विद्यालय परिसरों में घुसकर इन बच्चों की तलाशी लेती है। अमेरिकी समाज में अश्वेत आबादी के प्रति मौजूद घृणा भावना ने पार्थक्य की गहरी प्रवृत्तियों को जन्म दिया। इस पार्थक्य को ‘जिम क्रो’ क़ानूनों के ज़रिये वर्ष 1870-1965 के बीच संस्थागत रूप दिया गया था। इस घृणा भावना का मूल अमेरिकी इतिहास में निहित है जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे।

इधर अमेरिका में अश्वेतों को बड़े पैमाने पर जेलों में ठूँस दिए जाने की घटनाओं में अप्रत्याशित वृद्धि देखी गयी है। ग़ौरतलब है कि 1970 से 2005 के बीच जेल में बन्द अश्वेतों की संख्या में 700 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है। जेल आबादी में अश्वेतों की बढ़ती संख्या के पीछे मुख्यतः आर्थिक कारण मौजूद हैं। जेल में मौजूद अश्वेत आबादी अमेरिकी पूँजीपतियों को करीब-करीब मुफ्त श्रम उपलब्ध कराने का एक बड़ा ज़रिया है। इस प्रकार अमेरिकी जेलों से वहाँ के पूँजीपति अकूत मुनाफ़ा तो पीट ही रहे हैं, साथ ही उन पर श्रम क़ानूनों को लागू कराने का कोई दबाव नहीं रह जाता है। वे हड़तालों की चिन्ता से पूरी तरह मुक्त होते हैं और उन्हें सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराने के झंझट से भी मुक्ति मिल जाती है। पाठकों की जानकारी के लिए बता दें कि जेल अर्थव्यवस्था की यह परिघटना अब हमारे देश में भी शुरू हो चुकी है। बहरहाल, अमेरिकी जेलों का आलम यह है कि अगर कोई अश्वेत कैदी काम करने से मना करता है तो उसे कै़द-ए-तनहाई में डाल दिया जाता है। अमेरिकी अदालतें भी इस मामले में पूँजीपतियों के साथ खड़ी हैं, उनके भीतर भी नस्ली नफ़रत की भावना गहराई में पैठी हुई है। छोटे-छोटे अहिंसक अपराधों के लिए भी वहाँ की अदालतें अश्वेत आबादी को लम्बी-लम्बी सज़ाएँ देती हैं जिनकी अवधि अमूमन 10-20 साल तक हो सकती है। इसका मक़सद पूँजीपतियों को अबाध गति से सस्ता श्रम मुहैया कराना है। यह अनायास नहीं है कि अमेरिका में निजी जेलों की संख्या तेजी से बढ़ी है। आज से 10 साल पहले इनकी संख्या केवल 5 थी और अब यह 100 तक पहुँच गयी है।

अमेरिकी समाज में अश्वेत आबादी के प्रति मौजूद घृणाभाव और उनकी दोयम दर्जे की नागरिकता के मूल वहाँ के इतिहास में छिपे हैं। आइए, इस इतिहास की संक्षिप्त पड़ताल करें। कम ही लोग जानते हैं कि आज के अमेरिकी समाज की समृद्धि और चमक-दमक की नींव में अमेरिकी महाद्वीप की मूल आबादी की लाशों और अफ्रीकी गुलामों (अश्वेत आबादी) की हड्डियों को कूट-कूटकर भरा गया है। सन् 1600 के बाद अमेरिकी महाद्वीप के यूरोपीय शक्तियों द्वारा औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया शुरू हो गयी थी। अकेले ब्रिटेन ने यहाँ 13 उपनिवेश स्थापित किए। उस समय इसे न्यू इंग्लैंड के नाम से पुकारा जाता था। विश्व मण्डी की तलाश ही वह प्रेरक शक्ति थी जिसने यूरोपीय मुल्कों को अमेरिका सहित पूरी दुनिया में उपनिवेशों की स्थापना के लिए विवश किया। उस समय पूरा यूरोप गुलामों के व्यापार से अकूत मुनाफ़ा कमा रहा था। लन्दन और लिवरपूल से चलने वाले यूरोपीय मालों से लदे जहाज़ अफ्रीका के तटीय इलाकों तक माल पहुँचाते और वहाँ अपने खाली जहाज़ों को गुलामों से भरकर अमेरिका के बग़ान मालिकों को उँचे दामों पर बेच देते थे। बीहड़ समुद्री यात्रओं के दौरान गुलाम बड़ी संख्या में रास्ते में ही काल के मुँह में समा जाते थे। एक आकलन के अनुसार इन यात्रओं में 20 लाख से अधिक गुलाम रास्ते में ही ख़त्म हो गए। 16वीं से 19वीं शताब्दी के बीच 1-1.5 करोड़ अफ्रीकी गुलामों को अमेरिका के दक्षिणी हिस्से के बाग़ान मालिकों के हाथों बेचा गया। इन गुलामों की बदौलत यूरोपीय व्यापारियों और दक्षिण के बाग़ान मालिकों ने अकूत मुनाफ़े कमाए। ये यूरोपीय व्यापारी बागान मालिकों से कपास खरीदकर इंग्लैंड की सूती मिलों को बेच दिया करते थे। सभी मुख्य यूरोपीय शक्तियाँ गुलाम व्यापार में संलिप्त थीं।

इस घिनौने व्यापार को जायज़ ठहराने के लिए यूरोप के पूँजीपतियों और अमेरिका के बाग़ान मालिकों ने ईसाई धर्म का जमकर इस्तेमाल किया। इसके लिए उन्होनें बाइबल की कसमें खाईं। उन्होनें अफ्रीकी गुलामों को निकृष्ट कोटि का प्राणी घोषित किया और इसके समर्थन में नस्लवाद की झूठी अवधारणा का बड़े पैमाने पर प्रचार किया। इस प्रचार ने यूरोप से बड़ी भारी संख्या में अमेरिका आकर बसने वाले सभी प्रवासियों को भी प्रभावित किया। इनका एक बड़ा हिस्सा मेहनतकश वर्ग से आता था। 1850 का दशक आते-आते अमेरिका के उत्तरी हिस्सों में पूँजीवाद मज़बूती से जड़ जमा चुका था जबकि दक्षिणी हिस्से वाले बग़ान मालिक अभी भी गुलाम व्यवस्था को कायम रखे हुए थे। सभी महत्वपूर्ण आर्थिक मसलों पर इनके आपसी हितों की टकराहट होने लगी थी। समय संकेत कर रहा था कि एक ही मुल्क के भीतर दो विपरीत उत्पादन प्रणालियों का अस्तित्व लंबे समय तक क़ायम नहीं रहने वाला था। जल्द ही वह समय आया जब सन् 1861 में अमेरिकी गृहयुद्ध की शुरुआत हुई। इस गृहयुद्ध ने अमेरिका के उत्तरी हिस्सों की श्रेष्ठता को साबित किया और अमेरिकी पूँजीवाद के अग्रगामी विकास की राह का रोड़ा बनी गुलाम व्यवस्था को इतिहास की कचरापेटी में डाल दिया। उस समय अफ्रीकी गुलामों ने अमेरिका के उत्तरी हिस्सों की ओर से बहुत बड़ी संख्या में गृहयुद्ध में हिस्सा लिया था। उनसे वायदा किया गया था कि गुलामी से मुक्ति के बाद उन्हें जमीन के साथ ही राजनीतिक अधिकार भी हासिल होंगे। हालांकि युद्ध समाप्ति के बाद यह वायदे भुला दिये गये और इससे उपजे अश्वेत असंतोष को सेना द्वारा कुचल दिया गया। यही नहीं ‘कू क्लक्स क्लैन’ नामक संगठित आतंकी गिरोह ने बड़े पैमाने पर अश्वेत आबादी की हत्याएँ कीं। कुल मिलाकर कहा जाए तो गुलामी की प्रथा का कागज़ी तौर पर तो ख़ात्मा हो गया था लेकिन अमेरिकी जनजीवन में गुलामी मौजूद रही। गुलामी की कथित समाप्ति के बाद भी आलम यह था कि अश्वेतों को मामूली आरोपों में गिरफ्तार कर दक्षिण के श्रम शिविरों में बेच दिया जाता था। उनके श्रम से ही अमेरिका के दक्षिणी भाग में पूँजीवाद परवान चढ़ा। इन श्रम शिविरों के हालातों की तुलना केवल और केवल नाज़ी बन्दी शिविरों से ही की जा सकती है।

इस तरह बरसों-बरस अमानवीय हालातों में जीने को मजबूर अश्वेत आबादी के भीतर असंतोष धीमे-धीमे सुलगता रहा। इसकी सबसे मुखर अभिव्यक्ति 1954-68 के दौरान नागरिक अधिकार आन्दोलन के रूप में फूट पड़ी। इस आन्दोलन के तहत अश्वेत आबादी वोट देने के अधिकार, समान शिक्षा के अवसर, सामाजिक पार्थक्य की समाप्ति आदि मुद्दों को लेकर बेहद जुझारूपन के साथ अमेरिका की सड़कों पर उतर पड़ी। इस आन्दोलन की पूरी अवधि के दौरान अमेरिकी शासक वर्ग ने अनेकों बार अश्वेत आबादी पर कायराना हमले करवाए। करीब 25 नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या करवाई गयी। इस सबके बावजूद आन्दोलनकारी एक इंच भी नहीं डिगे। आन्दोलन की प्रचण्ड तीव्रता और अन्तरराष्ट्रीय हालातों के मद्देनज़र यह मुमकिन न था कि अमेरिकी शासक इस आन्दोलन को फ़ौज की संगीनों से कुचल पाता। यह वही दौर था जब तीसरी दुनिया के मुल्कों में राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध उभार पर थे, चीन में समाजवाद का झण्डा बुलन्दी से लहरा रहा था। अमेरिकी साम्राज्यवाद के अंतर्विरोध सोवियत संघ (जिसका खोल तो उस समय समाजवादी ही था परन्तु अंतर्वस्तु साम्राज्यावादी थी), फ्रांस, ब्रिटेन जैसे अन्य साम्राज्यवादी ताकतों के साथ बढ़ रहे थे। इन्हीं राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय हालातों के दबाव में अमेरिकी शासक वर्ग अश्वेत आबादी को कुछ रियायतें देने पर मजबूर हुआ। इसके चलते अश्वेत आबादी के एक छोटे से हिस्से को विश्वविद्यालयों, व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में दाखिले के अवसर मिले। सामाजिक कल्याण की योजनाओं जैसे – सामुदायिक चिकित्सालय, प्रारंभिक शैक्षिक कार्यक्रमों आदि का विस्तार भी अश्वेत आबादी के अत्यंत सीमित हिस्सों तक ही किया गया। कुल मिलाकर देखा जाए तो इन रियायतों से अश्वेत आबादी के जिस छोटे से हिस्से को लाभ पहुँचा, सिर्फ़ उन्हीं में से कुछ लोग सामाजिक पायदान की ऊपरी सीड़ियों तक पहुँच पाए जबकि बहुसंख्यक आबादी के हालात वैसे ही बने रहे। सामाज में अश्वेत आबादी के पार्थक्यीकरण की परिघटना आज भी हूबहू मौजूद है।

अमेरिका में अश्वेत आबादी के दमन-उत्पीड़न का सिलसिला अमेरिकी पूँजीवाद के उद्भव और विकास के साथ गहराई से जुड़ा है। इस आबादी के श्रम की बर्बर लूट ही अमेरिकी “सभ्य” समाज का मूलाधार है। इनके वास्तविक आज़ाद जीवन की शुरुआत तो अमेरिकी पूँजीवाद की मौत के बाद ही मुमकिन है।

 

मज़दूर बिगुल, सितम्‍बर 2014

 


 

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