श्रम क़ानूनों में मोदी सरकार के “सुधारों” पर संसदीय वामपन्थियों की चुप्पी
मज़दूर वर्ग के साथ घृणित ग़द्दारी और मौकापरस्ती के अनन्त सिलसिले की नयी मिसाल

सुनील

मोदी सरकार के शुरुआती दौर में ही “अच्छे दिनों” की असलियत जनता के सामने नंगी होनी शुरू हो गयी है। वर्तमान आर्थिक संकट के दौर में गिरते मुनाफे, पूँजीवादी अति-उत्पादन के संकट, निवेश के गिरते स्तर और परिणामस्वरूप होने वाली तालाबन्दी, बेरोज़गारी और महँगाई के कारण बेकाबू होते सामाजिक हालात के दौर में पूँजीपति वर्ग को एक ऐसी सरकार की ज़रूरत थी जो नवउदारीकरण की नीतियों को डण्डे के जोर पर लागू करे और हर ‘स्पीड ब्रेकर’ को सपाट कर मुनाफ़े के घोड़े को द्रुत गति से दौड़ने के लिए हर बाधा को दूर करे।

मोदी सरकार के इस डण्डातन्त्र का कोपभाजन समूची जनता में भी जो वर्ग सबसे अधिक बनने वाला है वह है मज़दूर वर्ग। क्योंकि मोदी ने पूंजीपतियों से वायदा किया था कि वह पूरे देश को विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज़) बना देगा यानी मज़दूर वर्ग के लिए एक यातना शिविर। यातना शिविर की तैयारियों को क़ानूनी जामा पहनाने के लिए मोदी सरकार ने श्रम क़ानूनों में व्यापक संशोधन भी शुरू कर दिये हैं। 31 जुलाई से कारख़ाना अधिनियम 1948, ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1948, ठेका मज़दूरी (नियमन व उन्मूलन) अधिनियम 1971, प्रशिक्षु अधिनियम (एप्रेंटिस एक्ट) 1961 से लेकर तमाम अन्य श्रम-क़ानूनों को कमजोर और ढीला करने की कवायद शुरू हो चुकी है। जहाँ पहले कारख़ाना अधिनियम 10 या ज़्यादा मज़दूरों (जहाँ बिजली का इस्तेमाल होता हो) तथा 20 या ज़्यादा मज़दूरों (जहाँ बिजली का इस्तेमाल नहीं होता है) वाली फ़ैक्टरियों पर लागू होता था, अब क्रमशः 20 और 40 मज़दूरों पर लागू होगा। एक माह में ओवरटाइम की सीमा 50 घण्टे से बढ़ाकर 100 घण्टे करने की भी तैयारी की जा रही है। यूनियन बनाने का अधिकार पहले जहाँ 10 प्रतिशत या 100 मज़दूरों की सहमति पर हासिल था उसे बढाकर 30 प्रतिशत किया जायेगा। ठेका मज़दूरी क़ानून 1971 भी अब 20 या इससे अधिक की जगह 50 या उससे अधिक मज़दूरों वाली फ़ैक्टरी पर लागू होगा। औद्योगिक विवाद अधिनियम में बदलाव करके 300 से कम मज़दूरों वाली फ़ैक्टरी को मालिक कभी भी बन्द कर सकता है। सरकार या कोर्ट से पूछने की भी कोई ज़रूरत नहीं है। साथ ही फ़ैक्टरी से जुड़े किसी विवाद को श्रम अदालत में ले जाने के लिए पहले कोई समय-सीमा नहीं थी, अब इसके लिए भी 3 साल की समय सीमा तय कर दी गयी है। प्रस्तावित संशोधनों में कारख़ानों में महिलाओं की रात की ड्यूटी पर पाबन्दियों को ढीला करना भी शामिल है। अप्रेंटिस एक्ट (प्रशिक्षु क़ानून) में संशोधन कर सरकार ने बडी संख्या में स्थायी मज़दूरों की जगह ट्रेनी मज़दूरों को भरती करने का क़दम उठाया है। वास्तव में, इन ट्रेनी मज़दूरों को वे अधिकार भी नहीं प्राप्त होंगे जो कि ठेका मज़दूरों को हासिल थे! किसी भी विवाद में मालिकों पर किसी भी किस्म की क़ानूनी कार्रवाई का प्रावधान भी हटा दिया गया है।

ग़ौरतलब है कि जब मोदी सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों में संशोधन करके फ़ैक्टरियों को मज़दूरों के लिए यातना शिविर और बन्दीगृह में तब्दील करने के प्रावधान किये जा रहे थे तो सभी संसदीय वामपन्थी पार्टियों की ट्रेड यूनियनों जैसे सीटू, एटक, एक्टू से लेकर अन्य चुनावी पार्टियों की ट्रेड यूनियनें जैसे इंटक, बीएमएस, एचएमएस एकदम मौन थीं! काफी लम्बे समय बाद इन ट्रेड यूनियनों ने अपनी चुप्पी तोड़कर जुबानी जमाख़र्च करते हुए शिकायत की कि संशोधनों के प्रावधानों के बारे में उनसे कोई सलाह नहीं ली गयी! यानी कि इन ट्रेड यूनियनों की मुख्य शिकायत यह नहीं थी कि पहले से ढीले श्रम क़ानूनों को और ढीला क्यों बनाया जा रहा है, बल्कि यह थी कि यह काम पहले उनसे राय-मशविरा करके क्यों नहीं किया गया! यह वक्तव्य अपने-आप में सरकार की नीतियों को मौन समर्थन है। यानी इन तमाम ग़द्दार ट्रेड यूनियनों की संशोधनों में पूर्ण सहमति है। मज़दूर आन्दोलन के नाम पर इन चुनावी पार्टियों के ट्रेड यूनियन संघ हर साल फरवरी माह में प्रतीक और रस्म अदायगी के रूप में दो दिन के अवकाश (हड़ताल!) की घोषणा करता है जिसे तमाम सरकारों ने भी राष्ट्रीय अवकाश के रूप में सहयोजित कर लिया है। इसी कड़ी में इन्होंने जन्तर-मन्तर पर सरकार की नीतियों के “ख़िलाफ़” झुनझुना प्रदर्शन करने का आह्वान किया है। विगत कई दशकों से ये संगठित मज़दूरों के अच्छे-ख़ासे हिस्से को बरगलाने तथा फुसलाने में कामयाब रहे हैं। ग़ौरतलब है कि तमाम संसदीय वामपन्थी ट्रेड यूनियनें देश के कुल मज़दूरों के केवल 7 प्रतिशत संगठित हिस्से का ही प्रतिनिधित्व करती हैं और उनकी दुकानदारी यथावत चलती रहती है। 93 प्रतिशत ठेका व दिहाडी मज़दूरों के सवालों को वे कभी नहीं उठाते या फिर उठाते भी हैं तो ऐसे कि न ही उठाते तो अच्छा था। वैसे अगर देखा जाये तो इन 7 प्रतिशत संगठित क्षेत्र के मज़दूरों के भी एक हिस्से के मुँह में पर्याप्त घूस ठूँसी जा चुकी है और इन ‘व्हाइट कॉलर’ मज़दूरों का मज़दूर वर्ग से कुछ सरोकार रह नहीं गया है। वास्तव में, मौजूदा केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें मुख्य तौर पर इसी कुलीन मज़दूर वर्ग की नुमाइन्दगी करती हैं, जो कि अपने आपको मज़दूर नहीं बल्कि ‘कर्मचारी’ कहलाना पसन्द करते हैं। मज़दूरों का नाम लेने वाले इन आस्तीन के साँपों की ग़द्दारियों के अनेको–अनेक संस्करण इतिहास में भी दर्ज हैं जिसका एक प्रातिनिधिक उदाहरण बंगाल में सीपीएम की सरकार द्वारा सिंगूर और नन्दीग्राम में किया गया किसानों का क़त्लेआम व स्त्रियों का बलात्कार है। सभी संसदीय वामपन्थियों की मज़दूर वर्ग के साथ कुत्सित और घृणित ग़द्दारी और मौकापरस्त चरित्र एकदम निपट नंगा हो गया है। असल में तो ये सारे संसदीय वामपन्थी इस व्यवस्था की सुरक्षा पंक्ति का ही काम करते हैं। कुछ गरमागरम नारों और जुमलों का इस्तेमाल करके मज़दूर वर्ग के एक अच्छे ख़ासे हिस्से की क्रान्तिकारी क्षमताओं को कुन्द करने का काम करते हैं तथा राज्य के साथ मिलकर जनविरोधी नीतियाँ बनाने में इनके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर शिरकत करते हैं। जिन भी राज्यों में इनकी सरकारें रही हैं, वहाँ इन्होंने भी पूँजीपतियों के साथ मिलकर जनता को बदस्तूर लूटा है। फ़िलहाल, मोदी सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों में संशोधन करके मज़दूर वर्ग के हितों पर ख़तरनाक हमले पर इनकी मौन सहमति या फिर दिखावटी मरगिल्ले विरोध ने एक बार फिर से साबित कर दिया है कि जब कि मज़दूर आन्दोलन और विशेष तौर पर ट्रेड यूनियन आन्दोलन सीटू, एटक, इण्टक, एक्टू, एचएमएस व बीएमएस जैसे मज़दूर वर्ग की ग़द्दार ट्रेड यूनियनों से छुटकारा नहीं पाता और अपनी क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनों का निर्माण करके एक नये ट्रेड यूनियन आन्दोलन की शुरुआत नहीं करता, तो फिर आने वाले समय में उसके प्रतिरोध की सारी सम्भावनाएँ समाप्त हो जायेंगी। एक नया क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन जो कि चुनावी पार्टियों से पूरी तरह से स्वतन्त्र हो, आने वाले समय में हमारे अस्तित्व की शर्त है और हमें अभी से इस दिशा में काम शुरू कर देना चाहिए।

 

मज़दूर बिगुल, सितम्‍बर 2014

 


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments