अमीर और ग़रीब के बीच बढ़ती खाई से दुनिया भर के हुक़्मरान फ़ि‍क्रमन्द
आखि़र ये माजरा क्या है?

आनन्द सिंह

income inequality 22008 से जारी विश्वव्यापी मन्दी के पहले दुनिया भर के हुक़्मरान और उनके कलमघसीट बुद्धिजीवी पूँजीवाद की विजय के उन्मादपूर्ण जश्न में मशगूल थे। दुनिया भर में फैली भयंकर ग़रीबी, भुखमरी, कुपोषण एवं अमीर और ग़रीब के बीच बढ़ती खाई को अव्वलन तो वे मानने से ही इन्कार करते थे और यदि वे मानते थे तो इन समस्याओं के हल के रूप में वे ‘ट्रिकल डाउन थियरी’ की बात करते थे जिसके अनुसार समाज के शिखरों में समृद्धि आने से कालान्तार में यह समृद्धि रिसकर रसातल की ओर भी जायेगी और इसलिए आम जनता को अपनी खुशहाली के लिए थोड़ा सब्र करना चाहिए। परन्तु मौजूदा विश्वव्यापी मन्दी के बाद से इन हुक़्मरानों और उनके लग्गुओं-भग्गुओं के सुर बदले-बदले नज़र आ रहे हैं। ये सुर इतने बदल गये हैं कि विभिन्न देशों के शासकों और उनके भाड़े के टट्टू बुद्धिजीवियों और उपदेशक धर्मगुरुओं के हालिया बयानों को बिना आलोचनात्मक विवेक से पढ़ने पर कोई इस नतीजे पर भी पहुँच सकता है कि इन लुटेरों का हृदय परिवर्तन हो गया है और अब वे अपनी लूट में कमी लायेंगे और आम जनता का भला करेंगे।

कुछ समय पहले साम्राज्यवादियों के सरगना अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अमेरिकी समाज में तेज़ी से बढ़ती आर्थिक असमानता पर चिन्ता ज़ाहिर करते हुए कहा था कि यह असमानता अमेरिकी जनता में भयंकर निराशा और हताशा पैदा कर रही है क्योंकि उन्हें लगने लगा है कि वे कितनी भी मेहनत करें, आगे नहीं बढ़ सकते। इसाई धर्म गुरू पोप फ्रांसिस, जो स्वयं दुनिया के सबसे अधिक विलासितापूर्ण परिवेश वेटिकन में रहते हैं, ने तो ओबामा से भी अधिक उग्र होकर सीधे-सीधे पूँजीवाद पर हमला करते हुए कहा था कि ‘‘पैसे की पूजा’’ एक ‘‘नयी निरंकुशता’’ को जन्म देगी। इसी तरह से आलीशान महलनुमा आवास में रहने वाले तिब्बती बौद्ध धर्मगुरू दलाई लामा भी पूँजीवाद द्वारा फैलायी जा रही आर्थिक असमानता पर इतने चिन्तित हो उठे कि उन्होंने खुद को मार्क्सवाद का समर्थक तक बता दिया। उन्होंने कहा कि ग़रीब और बेसहारों को देखभाल की ज़रूरत है जबकि पूँजीवाद सिर्फ़ मुद्रा छापने में लगा हुआ है। अभी हाल ही में नरेन्द्र मोदी ने भी संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेंबली में दिये गये अपने भाषण में भी दुनिया में सैनिटेशन, बिजली, पानी आदि की सेवाओं में भयंकर असमानता पर चिन्ता ज़ाहिर की और दुनिया भर के हुक़्मरानों को इन मुद्दों को एजेण्डे पर लाने की बात की। इससे पहले मोदी ने प्रधानमंत्री जन-धन योजना को लांच करते हुए भी ग़रीबों के साथ होने वाले वित्तीय भेदभाव पर बहुत आँसू बहाये थे।

capitalistसिर्फ़ पूँजीवादी राजनेता और धर्मगुरू ही नहीं बल्कि बुर्जुआ बुद्धिजीवी और थिंकटैंक भी पिछले कुछ अरसे से दुनिया भर में बढ़ती असमानता पर खूब आँसू बहा रहे हैं। दुनिया भर के पूँजीपतियों के जमावड़े दावोस के विश्व आर्थिक मंच में इस साल का केन्द्रीय मुद्दा बढ़ती आर्थिक असमानता ही था। इस आयोजन के ठीक पहले साम्राज्यवादी दाता एजेंसी ऑक्सफैम ने ‘वर्किंग फॉर द फ्यू’ के नाम से एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें यह कहा गया था कि दुनिया के अधिकांश देशों में आर्थिक असमानता बढ़ रही है। इस रिपोर्ट का कहना था कि दुनिया की सम्पदा दो हिस्सों में विभाजित हैः लगभग आधा हिस्सा 1 फीसदी अमीर लोगों के पास है और बाकी आधा शेष 99 फीसदी लोगों के पास। इस रिपोर्ट में यह भी लिखा है कि दुनिया में सिर्फ 85 रईसों के पास इतनी सम्पत्ति है जितनी दुनिया के साढ़े तीन अरब ग़रीबों के पास है जोकि दुनिया की आबादी का आधा हिस्सा है। विश्व आर्थिक मंच ने भी ‘ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट’ में आर्थिक असमानता को आने वाले दिनों में सबसे प्रमुख चुनौतियों में से एक बताया था।

अभी हाल ही में अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एण्ड पूअर्स ने अपनी एक रिपोर्ट में यह दावा किया है कि आय का असमान वितरण अमेरिका को मन्दी से बाहर निकलने में काफी मुश्किलें पैदा कर रहा है। फ्रांस के अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी की बहुचर्चित पुस्तक ‘‘21 वीं सदी में पूँजी’’ में भी बढ़ती हुई आर्थिक असमानता को इस विश्वव्यापी मन्दी की मुख्य वजह बताया गया है। नोबेल पुरस्कार विजेता पॉल क्रुगमैन और अमर्त्य सेन जैसे लोग भी बढ़ती आर्थिक असमानता पर लिखने में काफी स्याही खर्च कर रहे हैं। ब्रिटिश वित्तीय पूँजी के मुखपत्र की हैसियत रखने वाली पत्रिका ‘द इकॉनोमिस्ट’ का हालिया अंक बढ़ती आर्थिक असमानता पर ही केन्द्रित है।

ऐसे में सवाल यह उठता है कि पूँजीवादी लुटेरों के ये नुमाइंदे भला क्यों ग़रीबों के ग़म में दुबले हुए जा रहे हैं? यदि आप राजनीतिक रूप से चेतनासम्पन्न नहीं हैं तो आप यह मानने की भूल कर सकते हैं कि वाकई इन लुटेरों का हृदय परिवर्तन हो रहा है। लेकिन थोड़ा गहराई से समझने पर इसकी वजह जानी जा सकती है। दुनिया भर में आम मेहनतकश जनता मंदी का दंश झेल रही है, रोज़गार के अवसर सीमित हुए हैं, नौकरी में अनिश्चितता बढ़ी है, तनख़्वाहों और सुविधाओं में भयंकर कटौती हुई है जिनकी वजह से दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में जनअसंतोष का ज्वार उठता दिखायी दे रहा है। ऐसे में दुनिया भर के हुक़्मरानों और उनके टुकड़खोर बुद्धिजीवियों और धर्मगरुओं को यह चिन्ता सताये जा रही है कि कहीं इन जनान्दोलनों के आगे बढ़ने के साथ ही साथ जनता में यह चेतना न आ जाये कि दरअसल इन तमाम समस्याओं की जड़ मुनाफ़े की अंधी हवस पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था है जिसको नेस्तनाबूत करके ही मेहनत-मशक्कत करने वाली आबादी की ज़िन्दगी में बेहतरी आ सकती है। इसलिए ऐसी चेतना फैलने से पहले ही शासक वर्ग जनता के बीच तमाम समस्याओं के विश्लेषण को एक ऐसा व्याख्यात्मक ढाँचा पहुँचाने की कोशिश में लगा है जिसके ज़रिये वे इस चेतना को फैला सकें कि दरअसल समस्या पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में नहीं है, बल्कि असमान वितरण में है। वे इस सच्चाई को अपनी व्याख्याओं के तले दबा देना चाहते हैं कि पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था अपनी स्वाभाविक गति से ही ऐसा समाज बनाती है जिसमें आँसुओं के समन्दर में विलासिता के महज़ चन्द टापू दिखायी पड़ते हैं। पूँजीवादी उत्पादन के दौरान पूँजी संचय की प्रक्रिया में असमानता अवश्यंभावी है। यानी असली समस्या वितरण के क्षेत्र की नहीं बल्कि उत्पादन के क्षेत्र की है।

एक बार समस्या के स्रोत को उत्पादन के क्षेत्र से वितरण के क्षेत्र में धकेल देने पर पूँजीवाद की चौहद्दी की हिफ़ाजत करते हुए उसके भीतर ही वितरण के क्षेत्र में कुछ असमानता कम करने की बातें करके भ्रम फैलाना आसान हो जाता है। इस प्रकार तमाम पढ़े-लिखे लोग और अपने आपको प्रगतिशील और वामपंथी कहने वाले लोग इस तरह की व्याख्या पर यकीन करते हुए पाये जाते हैं। वितरण के क्षेत्र में असमानता को कम करने के लिए सरकार को कुछ कड़े कदम उठाने की बातें करना आसान हो जाता है। तमाम थिंकटैंक इन दिनों सरकारों पर प्रगतिशील कर प्रणाली, रईसजादों पर कर, सरकार द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे जनकल्याणकारी कामों में निवेश करने एवं भ्रष्टाचार पर लगाम कसने की सलाह देते फिर रहे हैं।

वितरण के क्षेत्र में असमानता दूर करने के लिए एक अन्य नीमहकीमी नुस्ख़ा जिसको ज़ोरशोर से प्रचारित किया जाता है, वह है चैरिटी! दुनिया भर में ‘कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी’ के तहत ग़रीबों की ओर ख़ैरात के टुकड़े इसी मक़सद से फेंके जाते हैं। अभी कुछ दिनों पहले ही दुनिया के तमाम मुल्कों में आदिवासियों को उनके जल, जंगल और जमीन से उजाड़कर अकूत सम्पत्ति बनाने वाले वेदान्ता समूह के अनिल अग्रवाल ने अपनी संपत्ति का 75 फ़ीसदी हिस्सा चैरिटी में खर्च करने का फैसला किया है। इसी तरह इन दिनों सोशल मीडिया पर ‘आइस बकेट चैलेंज‘ और ‘राइस बकेट चैलेंज‘ जैसे प्रायोजित अभियान भी बुर्जुआ चैरिटी को ही बढ़ावा दे रहे हैं जो वास्तव में ग़रीबों के साथ भद्दे मज़ाक से अधिक कुछ नहीं हैं। सच्चाई ये है कि इन ख़ैरातों से आर्थिक असमानता में रत्ती भर भी कमी नहीं आने वाली क्योंकि जो पूँजीपति ख़ैरात बाँटने में दोस्ताना होड़ कर रहे हैं वही उत्पादन के क्षेत्र में श्रम को निचोड़कर मुनाफ़ा कमाने में गलाकाटू होड़ करते हैं जो दिन-ब-दिन, घण्टे-दर-घण्टे असमानता को जन्म देती है।

 

 

मज़दूर बिगुल, अक्‍टूबर 2014

 


 

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