बिहार में मोदी और संघ परिवार की नीतियों की करारी हार
यह निश्चिन्‍त होने का नहीं बल्कि फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई को और व्‍यापक व धारदार बनाने का समय है

तीन महीनों से जारी भाजपा के धुआँधार प्रचार, नरेन्द्र मोदी की ढाई दर्जन रैलियों और 3000 करोड़ के चुनावी खर्च के बावजूद बिहार विधानसभा चुनाव में जद (यू), राजद और कांग्रेस के महागठबन्धन ने भाजपा गठबन्धन को चारों खाने चित्त कर दिया। सारा हाईटेक प्रचार और मीडिया प्रबन्धन धरा का धरा रह गया। सवा करोड़ रुपये के पैकेज और ‘विकास’ के दावों से शुरू हुआ मोदी का प्रचार दादरी के बर्बर हत्याकाण्ड और गोहत्या को मुद्दा बनाने से लेकर ख़ुद प्रधानमन्त्री द्वारा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की घटिया कोशिशों तक जा पहुँचा। नीतीश और लालू के जातीय जनाधार की काट के लिए जोड़ी गयी मांझी-कुशवाहा-पासवान की तिकड़ी भी किसी काम नहीं आयी।

Modi-Biharइस चुनाव में महागठबन्धन की विजय के साथ ही बुद्धिजीवियों और तमाम प्रगतिशील लोगों का एक बड़ा हिस्सा इस बात को लेकर बेहद खुश है कि भारतीय जनता पार्टी के रूप में साम्प्रदायिक फासीवाद की पराजय हुई है और फासीवादी संगठनों के देशभर में बढ़ते उत्पात पर लगाम लग गयी है। इसमें कोई शक नहीं कि इस हार से भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ा है और भाजपा में आंतरिक कलह का एक दौर शुरू हो गया है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने तमाम पुराने और बिहार के स्थानीय नेताओं को किनारे करके जिस तरह से सारा प्रचार अभियान अपने को आगे करके चलाया उसके बाद हार की गाज भी उन पर गिरनी ही थी। अब शत्रुघ्न सिन्हा और अरुण शौरी से लेकर आडवाणी-जोशी-यशवन्त सिन्हा जैसे किनारे लगा दिये नेता और बिहार के कई सांसद भी खुलकर कह रहे हैं कि हार की ज़िम्मेदारी नरेन्द्र मोदी की है। लोकसभा चुनाव में जीत के बाद दिल्ली और फिर बिहार में मिली करारी हार से वोट बटोरने वाले नेता के रूप में मोदी की छवि की हवा निकल गयी है। भाजपा में यह कलह और उठापटक अभी और बढ़ेगी। लेकिन क्या इसे देश में फासीवादी ताक़तों की पराजय या उसकी उल्टी गिनती की शुरुआत कहा जा सकता है? क्या फासीवाद, धार्मिक उन्माद और दकियानूसी कट्टरपन की शक्तियों के ख़ि‍लाफ़ लड़ाई में हम थोड़ा भी निश्चिन्त हो सकते हैं? इन सवालों के जवाब में पुरज़ोर ढंग से ‘नहीं’ कहा जाना चाहिए।

यह सही है कि जनप्रतिनिधियों के चुनाव की मौजूदा पूँजीवादी प्रणाली में चुनाव नतीजे वास्तविक जनभावनाओं को उजागर नहीं करते लेकिन फिर भी एक हद तक तो ये उजागर करते ही हैं। चुनाव नतीजों के आधार पर इतना तो बेहिचक कहा जा सकता है कि मतदाताओं की बहुसंख्या ने भाजपा गठबन्धन के खिलाफ अपनी नाराज़गी जाहिर की है। कुल 243 सीटों में से 178 यानी दो तिहाई से भी अधिक सीटें महागठबन्धन में शामिल दलों को मिली हैं। यह साफ है कि लोगों ने मोदी सरकार की घोर पूँजीपरस्त आर्थिक नीतियों और हिन्दुत्ववादी फासिस्ट राजनीति और सामाजिक-सांस्कृतिक नीतियों के खिलाफ अपना मत दिया है। ‘विकास’ के लम्बे-चौड़े दावों में से कोई भी पूरा होना तो दूर की बात है, पिछले डेढ़ साल में खाने-पीने, दवा-इलाज और शिक्षा जैसी बुनियादी चीज़ों में बेतहाशा महँगाई, मनरेगा और विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं में भारी कटौती से आम लोग बुरी तरह तंग हैं। बिहार के करोड़ों मज़दूर देश भर में जाकर कारख़ानों-खदानों-बन्दरगाहों पर मज़दूरी करते हैं और वे अपने अनुभव से जान रहे हैं कि मोदी सरकार आने के बाद से मज़दूरों के काम करने और जीने की परिस्थितियाँ किस कदर कठिन हो गयी हैं। यह भी एक मानी हुई सच्चाई है कि समाज का ऊपरी सम्पन्न तबका लोकतंत्र के इस तमाशे में कम दिलचस्पी रखता है और अधिकांशतः वह वोट डालने जाता ही नहीं। आम ग़रीब मेहनतकश व मध्यवर्गीय लोग ही वोट डालने के प्रति ज़्यादा उत्साह दिखाते हैं। इसका यही संकेत है कि बिहार में आम मेहनतकश मतदाताओं की बहुसंख्या ने मोदी सरकार और संघ परिवार की नीतियों को खारिज कर दिया।

यह दलील दी जा सकती है और यह बेबुनियाद भी नहीं है कि आम मतदाता किसी पार्टी की नीतियों की अच्छाई-बुराई जाँचकर वोट नहीं देता। जातिगत और धार्मिक आधार पर होने वाले ध्रुवीकरण के अलावा पैसे और ताक़त का जोर भी वोट डलवाने में अहम भूमिका निभाता है। लेकिन इसके बावजूद यह ध्रुवीकरण भाजपा गठबन्धन के पक्ष में क्यों नहीं हो सका, जबकि भाजपा के चुनाव प्रबन्धकों ने हर हथकण्डा आजमाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। पैसे की ताक़त के साथ ही समाज के दबंग और प्रभुत्वशाली तबकों का भी अधिक समर्थन उसीके साथ था।

इन आधारों पर बिहार चुनाव के नतीजों के बाद यह कहना ग़लत नहीं होगा कि मतदाताओं की बहुसंख्या ने भाजपा गठबन्धन को नकार दिया है। तो क्या उसने महागठबन्धन के दलों को वास्तविक समर्थन दिया है और उनसे उसे अपने जीवन में बदलाव आ जाने की उम्मीद है? नहीं, यह सोचना भी ग़लत होगा। दरअसल, यह विकल्पहीनता का चुनाव था। मतदाता इस बारे में किसी भ्रम के शिकार नहीं हैं। आधी सदी से ज़्यादा समय के तजुर्बों ने उनके सामने यह बिल्कुल साफ कर दिया है कि कोई भी पूँजीवादी चुनावी पार्टी उनकी आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरती।  लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के ढाई दशक के शासन को भी लोग अच्छी तरह से जानते हैं। लेकिन फिर भी चुनाव के समय मतदाताओं की सोच यह होती है कि जब कोई ऐसा विकल्प सामने नहीं है जो उनकी आकांक्षाओं को सही मायने में पूरा करे तो क्यों न दो बुराइयों में से कम बुराई वाले को चुन लिया जाये। महागठबन्धन का चुनाव इसी तरह कम बुराई का चुनाव था। यह लालू-नीतीश-काँग्रेस में आस्था जताना या उनकी नीतियों का समर्थन नहीं है।

बिहार चुनाव में मोदी की हार से संघी संगठन अपनी हरकतों से बाज़ आ जायेंगे यह ख़ुशफ़हमी कर्नाटक में टीपू सुल्तान की जयन्ती के विरोध में किये गये उनके उत्पात और गिरीश कर्नाड जैसे सम्मानित लेखक और कलाकार को जान से मारने की धमकियों के बाद दूर हो जानी चाहिए। मोदी सरकार की जनविरोधी आर्थिक नीतियों में बदलाव की उम्मीद करने का भी कोई आधार नहीं है। चुनाव के ठीक बाद भाजपा सरकार ने खेती, पशुपालन, रक्षा, बैंकिंग, खुदरा व्यापार और निर्माण उद्योग सहित 15 महत्वपूर्ण क्षेत्रों को 49 से लेकर 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोलकर इनमें साम्राज्यवादी पूँजी की घुसपैठ का रास्ता साफ़ कर दिया। कहने की ज़रूरत नहीं कि विदेशी पूँजी के आने से मज़दूरों, कर्मचारियों, छोटे किसानों और छोटे दुकानदारों की हालत और बदतर ही होगी। नरेन्द्र मोदी और संघ परिवार का सत्ता में आना जिस गहराते पूँजीवादी संकट का परिणाम है उसमें  कोई कमी नहीं आयी है और पूँजीपतियों के जिस एजेण्डा को लागू करने के लिए उन्हें सत्ता में लाया गया है उस पर और भी ज़ोर-शोर से अमल करने के सिवा उनके पास कोई रास्ता नहीं है। इन नीतियों के कारण पैदा होने वाले जनता के विरोध को बेअसर करने और उसे आपस में बाँटने के लिए यह भी ज़रूरी है कि संघ परिवार के घनघोर दकियानूसी और बर्बर कार्यक्रमों को लागू करने और समाज में ज़हर फैलाने की उनकी हरकतों को भी खुली छूट दी जाये।

इसके साथ ही यह भी ज़रूरी है कि बिहार में विजयी महागठबंधन के ”महानायक” के ”महान” अतीत पर एक नज़र डाल ली जाये। यह याद दिलाना ज़रूरी है कि कुछ ही समय पहले तक नीतीश कुमार की नरेन्‍द्र मोदी के साथ गलबहियाँ मीडिया की सुर्खियों में रहती थी। जिन नीतीश कुमार से बहुत से लोग सामाजिक न्‍याय की आस लगा रहे हैं उन्‍होंने नवउदारवादी नीतियों को बिहार में इतनी कुशलता से लागू किया कि पूँजीवादी बुद्धिजीवियों से लेकर कॉरपोरेट मीडिया तक उन पर फ़ि‍दा रहते थे। यह भी हमें समझना होगा नवउदारवाद ने ही फासीवाद के लिए उर्वर ज़मीन तैयार की है। फासीवाद और साम्‍प्रदायिकता के ख़िलाफ़ लड़ाई वह नीतीश कुमार भला क्‍या लड़ेंगे जो गुजरात नरसंहार के दौरान वाजपेयी सरकार की कैबिनेट में मंत्री थे। गुजरात के मासूमों की लाशों पर सवारी करके जब 2003 में मोदी गुजरात के मुख्‍यमंत्री बने तो नीतीश कुमार ने बधाई देते हुए कहा था, “मैं उम्‍मीद करता हूँ कि नरेन्‍द्र मोदी गुजरात तक ही सीमित नहीं रहेंगे। उनकी सेवाओं की ज़रूरत तो पूरे देश को है”। नीतीश के ”सुशासन” के दौरान बिहार में अल्‍पसंख्‍यकों ख़ि‍लाफ़ फ़ार्बिसगंज में हुई बर्बर घटना को भी याद रखना होगा। रणवीर सेना द्वारा अंजाम दिये गये दलितों के हत्‍याकाण्‍डों की जाँच के लिए गठित अमीरदास आयोग का क्‍या हश्र ‘सुशासन बाबू’ के राज में हुआ इसे भी नहीं भूलना चाहिए।

मगर फिर भी, चुनाव नतीजों ने भगवा बिग्रेड के मंसूबों पर एक करारी चोट तो की ही है। राज्यसभा में बहुमत हासिल करके जीएसटी और आर्थिक ‘‘सुधार’’ के अन्य क़ानूनों को संसद से पारित करा लेने की उनकी उम्मीद फिलहाल टूट गयी है। कई रिपोर्टों के अनुसार संघ परिवार के रणनीतिकारों ने यह पहले ही भाँप लिया था कि बिहार में उनकी राह कठिन है लेकिन वे मतदाताओं का मूड भाँपने में बुरी तरह नाकाम रहे। दुनिया में फासिस्टों के अति-आत्मविश्वास का गुब्बारा अतीत में भी इसी तरह फुस्स होता रहा है। शिखर से वे धड़ाम से नीचे गिरते रहे हैं और भरमुँह माटी लेते रहे हैं। संघ परिवार के रणनीतिकार इस बार बुरी तरह गच्चा खा गये। अर्थव्यवस्था की तरक्की के बारे में झूठे आँकड़े देकर, दुनिया भर में देश का नाम ऊँचा करने के देशभक्तिपूर्ण दावे करके और सुनहरे भविष्य के हवाई वादे करके आम जनता को हमेशा बहकाया नहीं जा सकता। रोज़ी-रोटी के मसले आम जनता के बुनियादी मसले हैं। जज़्बाती मसले उभाड़कर कुछ समय के लिये चाहे इन बुनियादी मसलों को दबा दिया जाये लेकिन यह लम्बे समय तक दबे नहीं रह सकते। हर किस्म की फासिस्ट राजनीति की इमारत भावनात्मक मुद्दों की बुनियाद पर खड़ी होती है और इस पोपली बुनियाद के धसकते देर नहीं लगती। इस चुनाव में भी यही हुआ।

लगातार दो चुनावों में बुरी तरह हारने के बाद संघ परिवार को बेशक थोड़े समय के लिए अपने उत्पाती तत्वों  को कुछ पीछे खींचना पड़ेगा। लेकिन यह मानने का कोई कारण नहीं है कि देश के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को भगवा रंग में रंगने के संघ परिवार के एजेण्डे में कोई बदलाव आयेगा। केन्द्र की सत्ता में बैठकर शिक्षा और संस्कृति के विभिन्न क्षेत्रों में जिस तेजी के साथ संघ परिवार अपना एजेण्डा आगे बढ़ा रहा था, उसकी रणनीति में कोई बदलाव भले ही आ जाये, लेकिन वह रुकने वाला नहीं है। दूसरे, जिस हद तक सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने में उनकी घुसपैठ हो चुकी है वहाँ से ये अपने आप पीछे हटने वाले नहीं हैं। इसलिए चुनावी ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ ताकतों की चुनावी सफलताओं से निश्चिन्त होकर नहीं बैठा जा सकता। यह आत्मघाती होगा। हमें मेहनतकश अवाम की गोलबन्दी का काम पहले की तरह ही जारी रखना होगा। हिन्दुत्ववादी फासिस्ट ताकतों को भारतीय पूँजीवाद और विश्व पूँजीवाद के जिन संकटों ने खाद-पानी दिया था वे संकट न केवल मौजूद हैं वरन आने वाले दिनों में और गहरायेंगे। फासिस्ट ताकतों को देश का शासक पूँजीपति वर्ग ज़ंजीर में बँधे शिकारी कुत्ते की तरह न केवल पालता-पोसता रहेगा वरन जब भी जरूरत होगी ज़ंजीर खोल देने में हिचकिचायेगा नहीं। इसलिए फासीवाद से मुकाबले की तैयारियाँ जारी रखनी होंगी और उनमें तेज़ी लानी होगी।

नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा-नीत राजग की सरकार बनने के पहले देश की जनता को तमाम गुलाबी सपने दिखाये गये थे। यह दावा किया गया था कि महँगाई और बेरोज़गारी की मार को ख़त्म किया जायेगा; पेट्रोल-डीज़ल से लेकर रसोई गैस की कीमतें घटा दी जायेंगी; रेलवे भाड़ा नहीं बढ़ाया जायेगाऋ  भ्रष्टाचार पर लगाम कसी जायेगी और स्विस बैंकों से काला धन वापस लाया जायेगा और ‘‘अच्छे दिन आयेंगे!’’ लेकिन सरकार बनने के डेढ़ साल में देश की आम मेहनतकश जनता को समझ आने लगा है कि किसके ‘‘अच्छे दिन’’ आये हैं! एक तरफ़ फ़र्ज़ी आँकड़ों के ज़रिये अर्थव्‍यवस्‍था की तरक्की के झूठे दावे किये जा रहे हैं और मुद्रास्फीति घटने के आँकड़े चमकाये जा रहे हैं, दूसरी तरफ़ आम लोग दाल और तेल से लेकर जीने की हर ज़रूरी चीज़ की बेलगाम महँगाई से तबाह हैं। रसोई गैस से लेकर रेल भाड़ा तक महँगा हो चुका है, दवाओं की कीमतें बेतहाशा बढ़ी हैं। श्रम क़ानूनों के तहत मज़दूरों को मिली मामूली सुरक्षा को भी छीन लिया गया है और मज़दूरों के अधिकारों में और कटौती के क़ानून बनाने की तैयारी जारी है। पब्लिक सेक्टर की मुनाफ़ा कमाने वाली कम्पनियों का निजीकरण किया जा रहा है, जिसका अर्थ होगा बड़े पैमाने पर सरकारी कर्मचारियों की छँटनी; ठेका प्रथा को ‘अप्रेण्टिस’ आदि जैसे नये नामों से बढ़ावा दिया जा रहा है; नयी भर्तियाँ हो नहीं रही हैं और अगर कहीं हो भी रही हैं, तो स्थायी कर्मचारी के तौर पर नहीं बल्कि ठेके पर। तमाम कम्पनियों को अब पूरी क़ानूनी छूट दे दी गयी है कि वे मज़दूरों व कर्मचारियों से खुलकर ओवरटाइम करायें और जब जी चाहे उन्हें लात मारकर बाहर कर दें। विश्व बाज़ार में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में भारी गिरावट के बावजूद मोदी सरकार ने उस पर तमाम टैक्स और शुल्क बढ़ाकर उनकी कीमतें जस-की-तस रखी हैं।  विदेशों से काला धन वापस लाने के वादे को तो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पहले ही चुनावी जुमला घोषित कर चुके हैं। रुपये को मज़बूत करना तो दूर रुपये की कीमत में रिकार्ड गिरावट से महँगाई और ज़्यादा बढ़ रही है। सत्ता में आते ही केन्द्र और राज्य स्तर पर मोदी सरकार के मन्त्रियों ने भ्रष्टाचार और गुण्डागर्दी के पुराने रिकार्ड तोड़ने शुरू कर दिये हैं। दंगों और बलात्कार के आरोपी नेता-मन्त्री मोदी सरकार में बैठे हुए हैं!

दूसरी तरफ़, अम्बानी, अडानी, बिड़ला, टाटा जैसे देश के सबसे बड़े धन्नासेठों को एक से बढ़कर एक तोहफ़े दिये जा रहे हैं। उन्हें तमाम करों से छूट दे दी गयी है; लगभग मुफ़्त बिजली, पानी, ज़मीन, ब्याजरहित कर्ज़, श्रम क़ानूनों से छूट दी जा रही है। देश की प्राकृतिक सम्पदा जो कि वास्तव में देश की जनता की सामूहिक सम्पत्ति है, उसे औने-पौने दामों पर उन्हें सौंपा जा रहा है, और प्राकृतिक संसाधनों के अन्धाधुन्ध शोषण के लिए पर्यावरण की रक्षा सम्बन्धी नियमों में मनमाने बदलाव किये जा रहे हैं या उनके उल्लंघन की छूट दी जा रही है। ‘‘स्वदेशी’’, ‘‘देशभक्ति’’, ‘‘राष्ट्रवाद’’ का ढोल बजाते हुए सत्ता में आये मोदी ने अपनी सरकार बनने के साथ ही बीमा, रक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों समेत तमाम क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को इजाज़त दी थी। अब इस सिलसिले को और तेज़ कर दिया गया है। ‘व्यापार करने में आसानी’ के नाम पर सरकार ने पूँजीपतियों की मनमानी पर अंकुश लगाने वाले सभी नियमों को ढीला कर दिया है ताकि वे बेरोकटोक इस देश के लोगों की मेहनत और संसाधनों को लूटकर मुनाफ़ा पीट सकें और उसमें से कुछ टुकड़े इन हरामख़ोरों को भी दे सकें। देशी-विदेशी कम्पनियों को देश की प्रकृति और जनता को लूटने की खुली छूट को ही ‘मेक इन इण्डिया’ अभियान का नाम दिया गया है! देश के ऊपरी 15 फ़ीसदी अमीरों के लिए सारी सुविधाएँ, टैक्स से छूट और रियायतें दी जा रही हैं! उनके लिए चमकते-दमकते शॉपिंग मॉल, मल्टीप्लेक्स, एम्यूज़मेण्ट पार्क हैं! और देश की 85 फ़ीसदी आम जनता को बताया जा रहा है कि उन्हें ‘‘विकास’’  के लिए बिना आवाज़ उठाये फैक्ट्रियों, दुकानों, होटलों, ऑफिसों में खटना होगा! देश के अमीरज़ादों के विकास के लिए मेहनतकश जनता को पेट पर पट्टी बाँधकर ‘‘हिन्दू राष्ट्र’’ का निर्माण करना होगा! और अगर कोई अमीरज़ादों के ‘‘अच्छे दिनों’’ पर सवाल खड़ा करता है, तो उसे राष्ट्र-विरोधी और देशद्रोही क़रार दे दिया जायेगा!

किसी चुनावी जीत-हार से फासीवाद के ख़ि‍लाफ़ लड़ाई में कोई निर्णायक अन्तर आयेगा इस भ्रम को दूर करने के लिए इस तथ्य को ध्यान में रखना ज़रूरी है कि जिस दौर में भारत में नवउदारवादी नीतियों का वर्चस्व क़ायम हुआ, वही हिन्दुत्ववादी फासीवाद के प्रभाव-विस्तार का भी दौर रहा है। बाबरी मस्जिद में राम जन्मभूमि का ताला खुलवाना, आडवाणी की रथयात्रा, गुजरात 2002, पूरे देश में साम्प्रदायिक दंगों, तनाव और अल्पसंख्यक आबादी के लगातार बढ़ते अलगाव का सिलसिला और फिर मोदी का सत्ता में आना — इस पूरे राजनीतिक घटनाक्रम को नवउदारवादी नीतियों के निर्णायक वर्चस्व की स्थापना की प्रक्रिया से जोड़कर आसानी से देखा जा सकता है। नवउदारवादी नीतियों को लागू करने से और ‘‘नरम हिन्दुत्व’’ की लाइन लागू करने से कांग्रेस को भी कोई परहेज़ नहीं रहा है। छोटे पूँजीपतियों और पूँजीवादी भूस्वामियों की क्षेत्रीय पार्टियों को भी इन नीतियों से या भाजपा से गाँठ जोड़ने से कोई परहेज़ नहीं रहा है, लेकिन इन दलों के पीछे न तो कोई धुर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है न ही कोई कैडर आधारित ढाँचा है। इसलिए, ज़मीनी स्तर पर जाकर साम्प्रदायिक आधार पर जनसमुदाय को बाँटने और मज़दूरों की संगठित शक्ति या उनके संगठित होने की  सम्भावनाओं पर चोट करने के मामले में ये पार्टियाँ भाजपा और संघ परिवार जितनी प्रभावी कभी नहीं हो सकतीं। ये सत्ता में आ भी जायें तो नवउदारवाद की नीतियों पर अमल में तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन समाज में नीचे तक जनता को बाँटने के लिए और मेहनतकश जनता की एकजुटता पर चोट करने के लिए हिन्दुत्ववादी फासिस्ट तब भी उसी व्यापकता और बर्बरता के साथ काम करते रहेंगे। किसी भी सूरत में भाजपा की किसी चुनावी शिकस्‍त का मतलब फासिस्ट ताकतों का पीछे हटना मानना एक खतरनाक मुग़ालते का शिकार होना होगा। दूसरी ओर,  यह भी याद रखना होगा कि संसदीय वामपंथी दलों ने मज़दूर वर्ग को अर्थवाद व संसदीय विभ्रमों में उलझाकर अराजनीतिक और निश्शस्त्र बनाने में एकदम वही भूमिका निभायी है जो 1920 और 1930 के दशक में यूरोपीय सामाजिक जनवादी पार्टियों ने निभायी थी। जर्मनी में हिटलर और इटली में मुसोलिनी के ने़तृत्व में फासीवाद के सत्ता में आने में इन पार्टियों की भी भूमिका थी। भारत में संसदीय वामपंथियों ने हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथ विरोधी संघर्ष को मात्र चुनावी हार-जीत का और कुछ रस्मी प्रतीकात्मक विरोध का मुद्दा बना दिया है। और अब ये तृणमूल स्तर पर मेहनतकशों को साथ लेकर फासिस्ट कैडरों की सरगर्मियों की प्रभावी काट कर सकने की क्षमता खो चुके हैं। जहाँ तक क्रान्तिकारी वाम की बिखरी शक्तियों का सवाल है, अपनी विचारधारात्मक कमज़ोरियों के कारण और लम्बे समय से जारी बिखराव-ठहराव के कारण फिलहाल वे प्रभावी हस्तक्षेप की स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में फासिज़्म विरोधी नयी लामबन्दी की एकदम नये सिरे से ही शुरुआत करने की कठिन चुनौती हमारे सामने है। पूँजी की शक्तियों ने राज्य के उपकरणों के ज़रिए अपना वर्चस्व स्थापित करने के साथ ही, वर्गों के युद्ध में अपने फासिस्ट गुर्गों के ज़रिए समाज में कई रूप में अपनी खन्दकें खोद  रखी हैं और बंकर बना रखे हैं। इनसे मुकाबले के लिए हमें वैकल्पिक शिक्षा, प्रचार और संस्कृति के अपने तंत्र के ज़रिए प्रति-वर्चस्व के लिए जूझना होगा, मज़दूर वर्ग को राजनीतिक स्तर पर शिक्षित-संगठित करना होगा और मध्य वर्ग के रैडिकल तत्वों को उनके साथ खड़ा करना होगा। संगठित क्रान्तिकारी कैडर शक्ति की मदद से हमें भी अपनी खन्दकें खोदकर और बंकर बनाकर पूँजी और श्रम की ताक़तों के बीच मोर्चा बाँधकर चलने वाले लम्बे  वर्गयुद्ध में पूँजी के भाड़े के गुण्डे फासिस्टों से मोर्चा लेना होगा। यह रणनीति राजनीति के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि समाज और संस्कृति के हर मोर्चे पर हमें लागू करनी होगी।

मोदी सरकार के कारनामों से मोहभंग के कारण देश भर में मेहनतकश लोग और छात्र-नौजवान सड़कों पर उतरकर अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं। संघ परिवार द्वारा फैलाये जा रहे नफ़रत के ज़हर के ख़ि‍लाफ़ भी बुद्धिजीवियों-लेखकों-कलाकारों से लेकर आम नागरिक भी लगातार आवाज़ उठा रहे हैं। इस विरोध में भी छात्र-नौजवान अगली कतारों में हैं। नरेन्द्र मोदी का पाखण्डी मुखौटा तार-तार हो चुका है। देश ही नहीं, विदेशों में भी उसकी थू-थू हो रही है और देश में संघ परिवार द्वारा फैलाये जा रहे घृणा के वातावरण की कड़ी आलोचना हो रही है। लेकिन महज़ इतने से ही साम्प्रदायिक फासीवाद अपने दड़बे में नहीं सिमट जायेगा।

बिहार में नीतीश और लालू के नेतृत्व में नयी सरकार बनने के बाद किसी भी रूप में यह मानना भोलापन होगा कि देश भर में लागू हो रही घोर जनविरोधी आर्थिक नीतियों से अलग नीतियाँ वहाँ लागू होंगी। संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था में जितनी गुंजाइश हो उस हद तक कुछ प्रतीकात्मक कल्याणकारी कार्यक्रम लागू हो सकते हैं लेकिन सरकार बदलने से मेहनतकशों की ज़ि‍न्दगी पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। उनकी तबाही-बदहाली का सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा। छँटनी-बेकारी-महँगाई और सामाजिक उत्पीड़न का दानव उनका  पीछा करता रहेगा।

नयी सरकार का बनना मेहनतकश आबादी के लिये साँपनाथ की जगह नागनाथ का कुर्सी पर बैठना ही है। लुटेरों के एक गिरोह की जगह दूसरे गिरोह के लुटेरे उन्हें लूटेंगे। देशी-विदेशी पूँजीपतियों की लूट न केवल जारी रहेगी बल्कि वह और बढ़ती ही जायेगी। उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ न तो सरकारों की साज़ि‍श का नतीजा हैं न ही दुनिया के पूँजीपतियों की सनक। ये विश्व पूँजीवाद के विकास के आन्तरिक तर्क से पैदा हुई हैं। ये बाज़ार और मुनाफ़े की व्यवस्था की गतिकी के नियमों से संचालित हो रही हैं। मौजूदा पूँजीवादी ढाँचे के भीतर इनका कोई विकल्प नहीं है। इन नीतियों को केवल एक ही सूरत में उलटा जा सकता है। मौजूदा पूँजीवादी ढाँचे को तहस-नहस करके। बाज़ार और मुनाफ़े पर टिकी समूची पूँजीवादी व्यवस्था को ही नेस्तनाबूद करके। मज़दूरों को इसी राह पर आगे बढ़ने की तैयारी करनी है।

मज़दूर बिगुल, अक्‍टूबर-नवम्‍बर 2015


 

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