दिल्ली के चुनाव में वोटों की फसल की कटाई से पहले दंगों की बुवाई

दिल्ली संवाददाता

दिल्‍ली के त्रिलोकपूरी में दंगों की एक तस्‍वीर

दिल्‍ली के त्रिलोकपूरी में दंगों की एक तस्‍वीर

दिल्ली में विधानसभा चुनाव की तारीख़ जल्द ही घोषित होने वाली है। ऐसे में दिल्ली की जनता को भी साम्प्रदायिक आधार पर बाँटने की तैयारियाँ शुरू हो चुकी हैं। इस तैयारी में भगवा गिरोह के नेता हर बार की तरह सबसे आगे रहे हैं। चाहे पूर्वी दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके को लिया जाये जहाँ दो शराबियों के झगड़े को साम्प्रदायिक दंगे में तब्दील कर दिया गया, चाहे उत्तर-पश्चिम दिल्ली के बवाना में हुई ‘‘महापंचायत’’ को लिया जाये जिसमें मोहर्रम के जुलूस को मुद्दा बनाकर साम्प्रदायिक टकराव की स्थिति पैदा की गयी, या फिर चाहे उत्तर-पूर्वी दिल्ली के नूर-ईलाही इलाके को लिया जाये जहाँ झूठी अफवाह फैलाकर साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने की कोशिश हुई; इन सभी घटनाओं में भाजपा व उसके मातृ संगठन आर.एस.एस. के लोगों की भूमिका साफ़ तौर पर थी। यही नहीं दिल्ली के अन्य इलाकों जैसे नन्दनगरी, खजूरी, मजनू का टीला, तीमारपुर आदि में भी साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़ने की कोशिशें हुई। भगवा गिरोह लोकसभा चुनाव के दौरान किये गये साम्प्रदायिक दंगों के सफल प्रयोग को दिल्ली में भी आज़माना चाहता है। अन्य चुनावी पार्टियाँ भी वोट बैंक को मद्देनजर रखते हुए केवल नरम साम्प्रदायिक नपुंसकता के कार्ड को चुनावी फायदे के लिए ही इस्तेमाल कर रही हैं।

उत्तर-पश्चिम दिल्ली के बवाना में हुई ‘‘महापंचायत’’

उत्तर-पश्चिम दिल्ली के बवाना में हुई ‘‘महापंचायत’’

यह अनायास नहीं है कि देश की राजधानी दिल्ली में साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने की कोशिशें हो रही हों। लोकसभा चुनाव से पहले हमने देखा कि किस तरह झूठी अफवाह फैलाकर मुज़फ़्फ़रनगर में दंगों का खूनी खेल खेला गया। उसके बाद तीन राज्यों के उपचुनाव से पहले भी दंगे कराये गये जिसमें अकेले उत्तर प्रदेश में ही 16 मई से 25 जुलाई के बीच 26 बड़े दंगों सहित 605 साम्प्रदायिक तनावों और झगड़ों की घटनाएँ हुई। हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों से पहले भी ‘लव-ज़िहाद’ के फर्जी मुद्दे को झूठे तथ्यों के सहारे खूब प्रचारित करके वोटों के ध्रुवीकरण की साज़िश रची गयी। बकौल भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह अगर साम्प्रदायिक तनाव बना रहता है तो भाजपा को सत्ता में आने से कोई नहीं रोक सकता। असल में चुनावी मदारियों के पास आज के समय जनता के बेरोजगारी, महँगाई, गरीबी व शिक्षा-चिकित्सा जैसे मुद्दों पर करने के लिए कोई बात नहीं रह गयी है। भाजपा की सरकार संघी गिरोह के सरगनों के लिए फलने-फ़ूलने का स्वर्णावसर लेकर आयी है। क्योंकि अब संघी गिरोह के लिए ‘घर की बही और लिखने वाला चाचा’ वाली कहावत एकदम फिट बैठ रही है। राम-मंदिर के मुद्दे के बाद संघ परिवार के लिए फिर से बसंत के दिन आ गये हैं।

अच्छे दिनों के ख्वाब दिखाकर भाजपा जैसे अच्छे दिन ला रही है ये अब किसी से छिपा नहीं है। 100 दिन में काला धन लाने और हरेक देशवासी को 3 लाख रुपये देने का दम भरने वाले दिग्गज अब काले धन के मुद्दे पर कांग्रेस की नौटंकी को भी पीछे छोड़ रहे हैं। एफ.डी.आई. के मुद्दे पर जिस भाजपा का राम वनवास के समय राजा दशरथ की तरह कलेजा फटा जाता था वह अब विदेशी पूँजीपतियों के लिए पलक-पाँवड़े बिछा चुकी है। केन्द्र सरकार ने ‘स्वच्छता अभियान’ की नौटंकी में और कुछ नहीं तो तमाम चुनावी वायदे बुहारकर कचरा पेटी के हवाले जरूर कर दिये हैं। असल में अच्छे दिन केवल पूँजीपतियों के लिए आये हैं, आम जनता को तो वही अमावस का अँधेरा नसीब हुआ है। ‘श्रमेव जयते’ की नामलेवा सरकार श्रम कानूनों को पूँजीपतियों के हित में संशोधित करने का विधेयक पहले ही पेश कर चुकी है। यानी अब श्रम कानूनों को ‘‘लचीला’’ बनाकर मज़दूरों के श्रम की लूट को कानूनी जामा पहनाने की तैयारी हो रही है। जनता के असली मुद्दों को नजरों से ओझल करके ‘स्वच्छ भारत अभियान’, ‘आदर्श ग्राम योजना’, ‘जन-धन योजना’ आदि जैसी लोकरंजक योजनाओं के साथ-साथ साम्प्रदायिक आधार पर लोगों को बाँटने की कोशिश भरपूर जारी है। इतिहास गवाह है कि जब-जब पूँजीवादी व्यवस्था मन्दी का शिकार होती है तो अलग-अलग रंगों के फ़ासीवादी तारणहार बनकर सामने आते हैं। पूँजीपति अपने मुनाफ़े को बचाने के लिए इन्हीं फासीवादियों का सहारा लेते हैं। व्यवस्था का ढाँचागत संकट कहीं व्यवस्था का अन्तकारी संकट न बन जाये, मेहनतकश आबादी अपनी समस्याओं का कारण कहीं पूँजीवादी व्यवस्था में तलाश कर इसका अन्त करके सही विकल्प की तरफ न बढ़ जाये, इससे बचने के लिए शासक वर्ग फासीवादियों का जंजीर में बंधे कुत्ते की तरह इस्तेमाल करता है। देश के पूँजीपतियों ने अपने प्रधान सेवक के तौर पर मोदी को वैसे ही नहीं चुना है। हर हमेशा की तरह साम्प्रदायिक उभार के दौर में महँगाई, बेरोजगारी, ग़रीबी, शिक्षा और चिकित्सा जैसे मुद्दे कहीं पीछे छूट जाते हैं। यहीं पर जनता को धैर्य के साथ अपने विवेक से काम लेना होता है। देश के मज़दूर वर्ग को अपनी वर्गीय एकता को तोड़ने की किसी भी साज़िश का शिकार नहीं होना चाहिए। आज के समय हमें मज़हबी पहचानों से ऊपर उठकर जुझारू वर्गीय एकजुटता कायम करनी होगी वरना हममें और भेड़ों के रेवड़ में कोई फर्क नहीं रह जायेगा। जब तक इस सड़ी हुई पूँजीवादी व्यवस्था का कारगर विकल्प नहीं खड़ा होगा तब तक कभी उदार मुखौटा लगाकर तो कभी फासीवाद के अपने नंगे रूप में यह व्यवस्था जनता को शिकार बनाती रहेगी। राजधानी में हो रही साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की साज़िश कोई नयी बात नहीं है बल्कि यह देश में पहले हो चुके दंगों में अगली कड़ी जोड़ने का प्रयास है साथ ही इससे पूँजीवादी व्यवस्था का नरभक्षी चरित्र भी बेपर्द हो जाता है।

 

मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर 2014


 

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