इबोला – महामारी या महाक़त्ल?

डा. अमृत

141010-ebola-deathपिछले कई महीनों से पश्चिमी अफ़्रीका में ‘इबोला’ नाम की बीमारी फैली हुई है जिसके इक्का-दुक्का मामले और देशों में भी सामने आ रहे हैं। पश्चिमी अफ़्रीका में इससे सब से ज़्यादा प्रभावित होने वाले देश लाइबेरिया, गिनी तथा सिएरा लिओन हैं, यहाँ 1 अक्टूबर, 2014 तक 7500 लोग इस बीमारी की चपेट में आ चुके हैं जिनमें से 3338 लोग मौत के मुँह में जा चुके हैं, मरने वालों में डॉक्टरों तथा नर्सों के सहित 220 स्वास्थ्यकर्मी भी हैं। अक्टूबर के अन्त तक इबोला से होने वाली मौतों की संख्या 5000 तक पहुँचने का अंदेशा है। फ़ि‍लहाल इस महामारी के रुकने की कोई सम्भावना नहीं दिख रही है, उल्टा सम्भावना ये बनी हुई है कि यह और भी भयानक रूप लेते हुए कुछ सप्ताह तक अफ्रीका महाद्वीप से निकलकर दूसरे महाद्वीपों तक फैल सकती है। हमेशा की तरह समूचा मीडिया ‘शिकार’ हुए लोगों की मदद करने के लिए चीत्कार तथा ‘हमदर्दी’ के घड़ियाली आँसुओं से भरा पड़ा है, सरकारों की तरफ़ से ‘सख़्त क़दम’ उठाने की अपीलें जारी हो रही हैं, बराक ओबामा से लेकर नरेन्द्र मोदी तक, सब ‘बड़े’ नेता फ़ि‍क्र जता चुके हैं लेकिन जो असल बात ग़ायब है वह है महामारी फैलने के असल कारणों की निशानदेही।

इबोला एक क़िस्म का बुखार है जो इबोला नाम के वायरस से होता है और यह जानवरों से इंसानों में फैलता है। यह वायरस पश्चिमी अफ़्रीका के कई देशों के जंगलों में रहने वाले एक किस्म के चमगादड़ों तथा गुरिल्लों में पाया जाता है, यही जानवर प्रकृति में इस वायरस के ज़िन्दा रहने में मुख्य कड़ी माने जा रहे हैं। जब मनुष्य इन जानवरों के ख़ून या किसी और शारीरिक द्रव के सम्पर्क में आता है तो यह वायरस जानवरों से मनुष्य में फैलता है। इस बीमारी का पहला मामला कांगो (तब ज़ैरे) में 1976 में सामने आया था, तब से लेकर अब तक, यह बीमारी 20 से ज़्यादा बार फैल चुकी है। इससे पहले यह एक स्थानीय बीमारी समझी जाती थी जो ज़्यादा से ज़्यादा कुछ सौ मरीज़ों तक सीमित रहती थी, लेकिन पहली बार इसने इतना भयंकर रूप धारण किया है। पिछले साल दिसम्बर में इसका पहला मरीज़ सामने आया और तब से इबोला लगातार फैल रहा है और अफ़्रीका के देशों के लिए एक बड़ी चुनौती बन चुका है। परन्तु इस बीमारी को सिर्फ़ एक स्वास्थ्य-वैज्ञानिक समस्या बनाकर पेश किया जा रहा है जबकि इस बीमारी का फैलना एक ऐसा उदाहरण है जो यह स्पष्ट करता है कि कैसे बीमारियाँ सामाजिक- आर्थिक ढाँचे से जुडी हुई हैं, और बीमारियाँ सिर्फ़ एक स्वास्थ्य-वैज्ञानिक मसला न होकर एक सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक मसला है।

इबोला के फैलने का सबसे बड़ा कारण बड़े पैमाने पर हो रही जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई है। पश्चिमी अफ़्रीका के प्राचीन घने जंगलों में से 90 प्रतिशत जंगल काटे जा चुके हैं। सिएरा लिओन के तो सिर्फ़ 4 प्रतिशत जंगल बाक़ी बचे हैं जो अगर जंगल काटने की मौजूदा रफ्तार बनी रही तो 2018 तक पूरी तरह ख़त्म हो जायेंगे। इसी तरह लाइबेरिया के जंगलों का बड़ा हिस्सा काटा जा चुका है, लेकिन सरकारों ने कुछ नहीं सीखा है। यहाँ के लोगों द्वारा ‘चुनी’ हुई राष्ट्रपति ऐलन जॉनसन सिर्लीफ़ ने अभी कुछ ही महीने पहले पूरे देश के बाक़ी बचे जंगलों में से आधे को औद्योगिक ‘कामों’ के लिए बेच दिया है। वैसे यह हालात सिर्फ़ अफ़्रीका का ही नहीं है, एक अध्ययन के मुताबिक़ पिछले चालीस वर्षों में समूची धरती की जंगली वनस्पति तथा जीव-जन्तुओं का आधा हिस्सा ख़त्म हो चुका है। जंगलों की कटाई की वजह से जानवरों का प्राकृतिक रैनबसेरा खो जाता है और वह ठिकाना ढूँढ़ने के लिए इधर-उधर भटकने लगते हैं, इसी दौरान वह इंसानों की बस्तियों में आ घुसते हैं तथा मनुष्यों के सम्पर्क में आते हैं। इस ग़ैर-प्राकृतिक सम्पर्क के चलते जंगली जीवों में पाये जाने वाले वायरस तथा अन्य कीटाणुओं के मनुष्यों में फैलने का ख़तरा पैदा होता है। चूँकि मनुष्य के अन्दर इन नयी बीमारियों से लड़ने की रोग-प्रतिरोधी क्षमता विकसित नहीं हुई होती, इसलिए ऐसी बीमारियों के भयंकर रूप ले लेने के काफ़ी आसार होते हैं। बिल्कुल यही इबोला के मामले में हो रहा है। लेकिन असल मुद्दा यह है कि जंगलों की कटाई ही क्यों हो रही है?

कुछ ‘विशेषज्ञ’ लोगों का कहना है कि जंगलों की कटाई का कारण बढ़ रही आबादी है, लेकिन जब ग़ौर से देखा जाता है तो असल कहानी कुछ और निकलती है, जिससे ये सभी ‘विशेषज्ञ’ ऐसे दूर भागते हैं जैसे चोर चोरी की जगह से दौड़ता है। जंगलों की कटाई का सबसे पहला कारण खनिजों के लिए खनन का काम है, जिसे पूँजीपतियों के टुकड़ों पर पलने वाले ‘विशेषज्ञ’ बड़ी चालाकी से ‘मानवीय क्रियाकलाप’ का नाम देते हैं। मगर इस तथाकथित ‘मानवीय क्रियाकलाप’ का मानवता के हित से कुछ लेना-देना नहीं है, बल्कि यह कुछ गिनी-चुनी कम्पनियों के मुनाफ़े की अन्धी दौड़ है। लाइबेरिया तथा सिएरा लिओन कच्ची लौह धातु के बड़े भण्डार हैं, जबकि छोटा-सा देश गिनी एल्युमिनियम के स्रोत खनिज बाक्साइट का दुनिया का सबसे बड़ा भण्डार है। अमेरिकी, ब्रिटिश और अन्य साम्राज्यवादी देशों की खनन कम्पनियों के लिए यहाँ बेहिसाब मुनाफ़ा है। ये कम्पनियाँ खनिजों की लूट के लिए जंगलों को काटते हुए इनके बहुत अन्दर तक घुस चुकी हैं तथा किसी भी क़ीमत पर अपने पैर पीछे खींचने को तैयार नहीं हैं, चाहे उनके मुनाफ़े के लिए समूची मानवता को कितनी भी बड़ी महामारियों का सामना क्यों न करना पड़े। उल्टा वे तो रहे-सहे जंगल काटने पर आमादा हैं जिसमें वहाँ की ‘चुनी हुई’ सरकारें उनकी हर मदद करने के लिए तैयार हैं। जंगलों की कटाई का दूसरा कारण भी प्रकृतिक संसाधानों की पूँजीवादी लूट से ही जुड़ा हुआ है। इन जंगलों की क़ीमती लकड़ी का दुनिया भर में सजावट तथा ऐशोआराम का फ़र्नीचर बनाने में इस्तेमाल होता है, इस कारोबार में भी अकूत मुनाफ़ा है। यही है वह ‘मानवीय क्रियाकलाप’ जिसमें कम्पनियाँ मुनाफ़ा पीट रही हैं और इन देशों के प्राकृतिक संसाधनों से बनी चीज़़ें अमीर इस्तेमाल कर रहे हैं जबकि इसका नुक़सान स्थानीय ग़रीब आबादी को उठाना पड़ रहा है। इस बार अगर इबोला को क़ाबू में करने के लिए चौकसी के फ़रमान जारी हो रहे हैं और चीख़़-पुकार हो रही है तो सिर्फ़ इसलिए कि इस बार इस बीमारी ने स्थानीय ग़रीब आबादी से निकलकर अमेरिका तथा अन्य अमीर देशों में फैलने का ख़तरा खड़ा कर दिया है।

जंगलों के क्षेत्र में कमी आने की एक और वजह दुनिया भर में हो रही ‘ग्लोबल वार्मिंग’ तथा पर्यावरणीय बदलाव हैं। बढ़ रहे प्रदूषण (इसका कारण फिर से पूँजीवाद है) के कारण धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है, इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित हो रहे इलाक़ों में से एक पश्चिमी अफ़्रीका है। बार-बार आ रहे सूखे, भीषण गर्मी और इससे लगने वाली भयंकर आग, बाढ़ और तूफ़ान आदि भी जंगल तबाह होने का कारण बन रहे हैं। मौसम में हो रहे इन बदलावों के चलते जंगली जीव सुरक्षित जगहों की तलाश में प्रवास कर रहे हैं, जिस दौरान उनका मनुष्यों के सम्पर्क में आना तय है। वैज्ञानिकों के अनुसार यह मौसमी बदलाव आने वाले दिनों में और तीव्र ही होंगे। ग्लोबल वार्मिंग तथा पर्यावरणीय तबाही के पीछे भी मुठ्ठीभर पूँजीपतियों का मुनाफ़ा है, लेकिन दुनिया भर की बिकाऊ मीडिया तथा चाटुकार बुद्धिजीवी इस झूठ को प्रचारित करने में लगे रहते हैं कि ऐसा पूरी मानवता के लालच तथा बढ़ती आबादी के कारण हो रहा है।

एक और महत्वपूर्ण कारण भी है इबोला के फैलने का। इन देशों में बहुसंख्यक आबादी भयंकर ग़रीबी में रहती है। सदियों तक अफ़्रीका महाद्वीप के देश अमानवीय उपनिवेशवादी शोषण के शिकार रहे हैं। चार-पाँच दशक पहले अफ्रीका के अधिकांश देशों को ‘आज़ादी’ मिली, इसके बाद भी साम्राज्यवादियों के द्वारा इन देशों में अपनी लूट को जारी रखने के लिए सैन्य दख़लअन्दाज़ी, उनके द्वारा भड़काये जाने वाले लम्बे गृहयुद्ध तथा कठपुतली सरकारें क़ायम करने का सिलसिला बना रहा है। पश्चिमी अफ़्रीका के देश भी इसी कहानी को दुहराते हैं। लाइबेरिया में 1990 के दशक में और सिएरा लिओन में 2005 तक गृहयुद्ध चलता रहा है जिससे हज़ारों-लाखों लोग अपने घरों-ज़मीनों, जीवन निर्वाह के संसाधनों से विस्थापित हो गये तथा अपने ही देश में शरणार्थी बनकर जान बचाने तथा सिर छुपाने के लिए दूर-दराज के इलाक़ों और जंगलों में भटक रहे हैं। बड़ी आबादी ठिकाना बनाने, भोजन, ईंधन आदि के लिए जंगलों पर निर्भर है। भोजन के लिए लोग गुरिल्लों सहित दूसरे जंगली जानवरों का शिकार कर रहे हैं जिसके चलते इबोला वायरस मनुष्यों में दाखि़ल हो रहा है।

अब देखते हैं कि इन देशों की सहायता के नाम पर क्या हो रहा है। अमेरिका स्थिति को ‘क़ाबू’ करने के लिए 3200 सैनिकों की फ़ौज भेज रहा है जिसका असल उद्देश्य इस संकट की आड़ में लाइबेरिया में अपने पैर जमाना है। लाइबेरिया की राष्ट्रपति सिर्लीफ़ ने 2008 में ‘ऐफ्रीकोम’ को अपना मुख्यालय स्थापित करने के लिए जगह देने की पेशकश की थी लेकिन तब अमेरिका ऐसा कर न सका। ज्ञात रहे कि ऐफ्रीकोम अफ़्रीका के देशों में अमेरिका की सैन्य कारवाइयों की देखरेख करने वाली सैन्य इकाई है। अब अमेरिका के हाथ में ऐसा करने का मौक़ा लगा है। दूसरी तरफ़ स्वास्थ्य सुविधाएँ पहुँचाने के लिए सब बड़े देश हाथ पीछे खींच रहे हैं। यह तय है कि सिर्फ़ स्थानीय देशों की स्वास्थ्य-सुविधाओं के दम पर इबोला से निपटना सम्भव नहीं है क्योंकि यहाँ स्वास्थ्य-ढाँचा नाममात्र का ही है। ये देश दुनियाभर में सेहत पर सबसे कम ख़र्च करने वाले देशों में आते हैं, भले ही यहाँ बेहिसाब प्राकृतिक धन-सम्पदा है। लेकिन 200 से ज़्यादा स्वास्थ्यकर्मी भी इबोला की भेंट चढ़ चुके हैं, इसलिए ज़्यादातर स्वास्थ्यकर्मी यहाँ आना ही नहीं चाहते और जो यहाँ हैं वह भी भाग रहे हैं (जब मेडिकल विज्ञान की शिक्षा सिर्फ़ मोटी कमाई करने के लिए दी जायेगी तो इससे ज़्यादा उम्मीद ही क्या की जा सकती है!)। इसके अलावा जो इलाज केन्द्र बनाये गये हैं उनके पास इबोला का इलाज करने के लिए ज़रूरी साजोसामान भी नहीं है। एक अन्दाज़ के मुताबिक़ इबोला को कण्ट्रोल करने के लिए अगले छह महीनों में 100 करोड़ डॉलर की ज़रूरत है। अमेरिका ने सहायता के नाम पर अभी एक करोड़ डॉलर ही दिये हैं जबकि वह इराक-सीरिया में बम गिराने के लिए खरबों डॉलर ख़र्च कर चुका है और रोज़ कर रहा है। ‘ऐफ्रीकोम’ ने सिर्फ़ इलाज-केन्द्र बनाकर देने की पेशकश की है, इलाज के लिए डॉक्टर, नर्सिंग स्टाफ़ तथा अन्य कर्मी भेजने की अमेरिका की कोई योजना नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन हमेशा की तरह सहायता के लिए चिट्ठी-पत्र भेजने तथा चेतावनियाँ जारी करने की कवायद में जुटा है। वैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन की विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में क्या औक़ात है, इसके बारे में थोड़ा भी जानने-समझने वाले व्यक्ति को कोई भ्रम भी नहीं है।

यहाँ पर चिकित्सा अनुसन्धान कार्यों के बारे में भी कुछ बात कर लेना अनावश्यक नहीं होगा। मज़दूरों के महान शिक्षक फ्रेडरिक एंगेल्स ने 1844 में लिखी अपनी किताब ‘इंग्लैण्ड में मज़दूर वर्ग की हालत’ में लिखा है कि ग़रीबों की बस्तियों में सफ़ाई अभियान तब शुरू होता है जब वहाँ पर फैली गन्दगी से पैदा होने वाली बीमारियों का अमीरों के इलाक़ों में फैलने का ख़तरा खड़ा हो जाता है। यह बात आज के मेडिकल ‘अनुसन्धान’ पर अक्षरतः फिट बैठती है। 1976 में इबोला वायरस के पता चलने से लेकर अब तक, इस बीमारी के लिए वैक्सीन बनाने या दवा खोजने का काम कोल्ड-स्टोरेज में पड़ा रहा है क्योंकि इबोला अब तक ग़रीब अफ़्रीकी देशों की बीमारी थी! ग़रीबों को होने वाली बीमारियों के इलाज के लिए आज के मेडिकल अनुसन्धान को तब तक कोई दिलचस्पी नहीं होती है, जब तक कि वह अमीरों के लिए कोई ख़तरा नहीं बनतीं। आज का मेडिकल अनुसन्धान पूरी तरह दवा-कम्पनियों के कब्ज़े में है इसलिए अनुसन्‍धान उन बीमारियों के लिए होते हैं जिनके लिए दवा खोजने से बड़ा मुनाफ़ा होने की सम्भावना हो, यानी इसके ग्राहक अमीर तथा उच्च-मध्यवर्ग के लोग ही हैं। डायबिटीज़, उच्च रक्तचाप तथा दिल की बीमारियाँ जो मुख्यतः पूँजीपतियों और उनके टुकड़ों पर पलने वाले आरामपरस्त परजीवी लोगों को होती हैं, उनके लिए पहले ही अच्छी-खासी दवाएँ होने के बावजूद अरबों-खरबों डॉलर ‘अनुसन्धान’ पर लुटाये जा रहे हैं जबकि बहुसंख्यक मेहनतकश, मज़दूर आबादी के लिए नयी दवाएँ खोजना तो दूर, आधी सदी पहले से खोजे जा चुके इलाज तथा बीमारियों को रोकने के लिए जानकारी पहुँचाने के लिए फूटी-कौड़ी ख़र्च नहीं की जाती।

कुल मिलाकर कहा जाये तो इबोला कोई महामारी नहीं है, यह तो शोषण पर टिके पूँजीवादी ढाँचे द्वारा मुनाफ़े के लिए किया जा रहा एक और ठण्डा क़त्लेआम है। इस बीमारी के फैलने का असली कारण पूँजीवादी लूट है और ऊपर से इसी पूँजीवादी ढाँचे के कारण बीमारी की चपेट में आने वाले लोगों को बचाना सम्भव नहीं हो पा रहा, उल्टा यह ढाँचा इस बीमारी को फैलने में मदद कर रहा है। स्वास्थ्य विज्ञान का विकास बेशक बीमारियों को कण्ट्रोल करने में अहम है, लेकिन सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक बदलाव (यानी पूँजीवाद को उखाड़कर समाजवाद की स्थापना) उससे भी ज़्यादा अहम है तथा आज स्वास्थ्य विज्ञान के अब तक हो चुके विकास का फ़ायदा पूरी मानवता तक पहुँचाने तथा इस विज्ञान के आगे और विकास के लिए यह बदलाव एक पूर्व-शर्त बन चुका है। इबोला से जुड़ा पूरा घटनाक्रम एक बार फिर से इसको साफ़-साफ़ दिखा रहा है। आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान के एक बहुत बड़े नाम रॉबर्ट विर्चो ने 1847 में अपने एक शोध निबन्ध में लिखा है – ‘स्वास्थ्य विज्ञान एक समाज विज्ञान है और राजनीति बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य विज्ञान है।’ उस महान वैज्ञानिक ने डेढ़ सदी पहले यह देख लिया था कि अगर स्वास्थ्य विज्ञान का फ़ायदा समूची मानवता को पहुँचाना है तो इसका समाज के नियंत्रण में होना ज़रूरी है। उनके इन विचारों को रूस की अक्टूबर क्रान्ति तथा चीन की 1949 की क्रन्ति ने सच करके दिखाया तथा कितनी ही महामारियों को धरती से चलता कर दिया था। मज़दूर क्रान्तियों की इस गौरवशाली विरासत को न सिर्फ़ ख़ुद मज़दूरों तक लेकर जाना बल्कि जन-जन तक लेकर जाना और सबसे अहम स्वास्थ्य क्षेत्र के लोगों तक लेकर जाना आज आवश्यक हो गया है।

 

मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर 2014


 

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