विधानसभा चुनाव के बाद हरियाणा में भी “अच्छे दिनों” की शुरुआत

manohar_lal_khattar_Facebooकेन्द्र के बाद अब हरियाणा प्रदेश में भी “अच्छे दिनों” की शुरुआत हो ही गयी। क्योंकि देश के बाद अब राज्य में भी भाजपा की सरकार बन चुकी है। भाजपा के “पुराने दिग्गज” हाथ मलते रह गये जब ‘आर.एस.एस.’ के लाड़ले मनोहर लाल खट्टर अपनी 33 साल तक की संघ की सेवा का मेवा मुख्यमन्त्री पद के रूप में ले उड़े। कुर्सी-सत्ता की चूहा-दौड़ में तमाम पार्टियों और उनके “बाग़ी नेताओं” ने बढ़-चढ़कर चुनावी खेल खेला। चुनावी नौटंकी में सोनिया गाँधी की पालकी ढोने वाले विरेन्द्र सिंह जैसे लोग अपने झाँझ-मंजीरे लेकर भाजपा खेमे की तरफ़ कूद गये। पूँजीवादी राजनीति की गटर-गंगा के कई घाटों का पानी पी चुके और गीतिका शर्मा यौन-शोषण के आरोपी गोपाल काण्डा भी ‘हरियाणा लोकहित पार्टी’ बनाकर अपनी गोटियाँ सैट करने के चक्कर में थे। अब पता नहीं हरियाणा के लोगों का ये महोदय कौन सा हित करने वाले थे। ख़ूब पैसा बहाकर भी इन्हें निराशा ही हाथ लगी। हरियाणा में कभी बंसीलाल की ‘हरियाणा विकास पार्टी’ की पूँछ पकड़कर चलने वाली भाजपा ने कुलदीप बिश्नोई की ‘हजका’ का भी बैसाखी के समान इस्तेमाल किया और अभी हाल में हुए विधानसभा चुनाव में कुल डाले गये वोटों का करीब 33 प्रतिशत हासिल करके स्पष्ट बहुमत के साथ सरकार बना ली। हर चुनाव की तरह इस बार भी धनबल-बाहुबल का ख़ूब इस्तेमाल किया गया, लोगों के सामने विकास के झूठे नारों और वायदों का पिटारा खोल दिया गया, जाति-धर्म-क्षेत्र के नाम पर होने वाली राजनीति में जनता के बुनियादी मसले हवा होते नज़र आये। कुर्सी और पद के लालच में नेता लोग बरसाती मेढकों की तरह कभी इस तो कभी उस पार्टी में उछलते दिखायी दिये। चुने गये विधायकों में से 83 प्रतिशत करोड़पति हैं तथा 10 प्रतिशत पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। करोड़पति और आपराधिक पृष्ठभूमि वाले विधायकों के प्रतिशत में “राष्ट्रवाद, देशभक्ति और सादगी-सदाचार” का ढोल पीटने वाली भाजपा सबसे आगे है।

Election_Exhibition_2-grayहरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव से यह स्पष्ट हो गया है कि लोगों के दिलो-दिमाग़ से मोदी का खुमार अभी नहीं उतर पाया है। इस चुनावी बुखार के लिए एक तरफ़ जहाँ कांग्रेस नीत यूपीए सरकार की लुटेरी नीतियाँ ज़िम्मेदार थीं, वहीं देश के तथाकथित लोकतन्त्र के चौथे खम्बे मीडिया ने भी अपनी भूमिका बख़ूबी निभायी। तमाम समाचार चैनलों के संवाददाता और अख़बारों के पत्रकार देखने में भाजपा कार्यकर्ता अधिक नज़र आये। डेरों और बाबाओं का वैसे ही भाजपा के साथ साम्य बैठता है किन्तु कहीं-कहीं पर बाँह मरोड़ने का काम भी हुआ ताकि इन धार्मिक डेरों का वोट बैंक हथियाया जा सके, उदाहरण के लिए डेरा सच्चा सौदा जिसके “गुरु” से अमित शाह ने चुनाव के अन्तिम समय में “मुलाक़ात” की और इन्हें “सहमत” किया। हो सकता है, बाबा भी आसाराम बनने से घबरा रहे हों। अच्छे दिनों का तुमार तो बाँधा ही गया, साथ ही हरियाणा की जाट बैल्ट में साम्प्रदायिकता के मुद्दे को लगातार उभारने की कोशिश की गयी। मेवात में पहले ही दंगा हो चुका था। चुनावी वायदे करके पलटने में वैसे तो सभी दल एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं लेकिन भाजपा अपनी नंगई तुरन्त बेपर्द कर देती है। केन्द्र में चाहे काले धन को लाना हो, एफ़डीआई को न लाना हो या फिर जनता के बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी जैसे मुद्दे हों, या फिर हरियाणा में रोज़गार, पेंशन और नये वेतनाम के मुद्दे हों; बड़ी ही बेशर्मी से इन सभी से मुँह चुराकर भाजपा सरकार हवा-हवाई योजनाओं की आड़ में जन-विरोधी नीतियाँ लागू करने में पूरी तरह मग्न है।

अच्छे दिन यदि किसी के लिए आये हैं तो वह है देश का पूँजीपति वर्ग। जनता से जुड़े मसलों पर कोई ठोस काम किये बिना ‘स्वच्छ भारत अभियान’, ‘जन-धन योजना’, ‘आदर्श ग्राम योजना’ आदि जैसी लोकरंजक और हवा-हवाई योजनाओं के साथ-साथ साम्प्रदायिक आधार पर जनता को बाँटने के फ़ार्मूले पर भी ख़ूब काम हो रहा है। सत्ता में आते ही पहले आम बजट में पूँजीपतियों को 5.32 लाख करोड़ की प्रत्यक्ष छूट और कर माफ़ी मिली है। स्वदेशी का नगाड़ा बजाने वाली और ‘प्रत्यक्ष विदेशी निवेश’ (एफ़डीआई) के मुद्दे पर रुदालियों की तरह छाती पीटने वाली भाजपा विदेशी पूँजीपतियों के लिए रेलवे, बीमा और रक्षा जैसे नाजुक क्षेत्रों में 49 से 100 फ़ीसदी तक एफ़डीआई लेकर आयी है। अपनी चुनावी रैलियों में भाजपा के ‘दिग्गज’ 100 दिनों के अन्दर काला धन वापस लाकर देश के हर परिवार को 15 लाख रुपये देने की बात करते नहीं थकते थे, लेकिन अब 150 दिन बाद भी काले धन के मसले पर वही पुराना स्वांग हो रहा है। रेलवे के किराये में 14 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी कर दी गयी। पैट्रोल और डीजल से बड़े ही शातिराने ढंग से सरकारी सब्सिडी हटाकर इन्हें बाज़ार की अन्धी ताक़तों के हवाले कर दिया गया। सितम्बर 2014 में जीवनरक्षक दवाओं को मूल्य नियन्त्रण के दायरे में लाने वाले फ़ैसले पर रोक लगा दी है जिससे इनके दामों में भरी बढ़ोत्तरी हुई है। ‘श्रमेव जयते’ का शिगूफा उछालने वाली भाजपा सरकार मज़दूर आबादी के रहे-सहे श्रम क़ानून छीनने पर आमादा है। 31 जुलाई को फ़ैक्टरी एक्ट 1948, ट्रेड यूनियन एक्ट 1926, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1948, ठेका मज़दूरी क़ानून 1971, एप्रेण्टिस एक्ट 1961 जैसे तमाम श्रम क़ानूनों को “लचीला” बनाने के नाम पर कमजोर करने की कवायद शुरू कर दी है। मतलब अब क़ानूनी तौर पर भी मज़दूरों की लूट पर कोई रोक नहीं होगी। चाहे करनाल का लिबर्टी फ़ैक्टरी का मसला हो, एनसीआर में होने वाले होण्डा, रिको और मारुति सुजुकी मज़दूरों के आन्दोलनों को कुचलने की बात हो कांग्रेस ने  मालिकों का पक्ष लिया। हरियाणा की मज़दूर आबादी के हक़-अधिकारों को कुचलने के मामले में भाजपा हर तरह से कांग्रेस से इक्कीस ही पड़ने वाली है। जापान यात्रा में मोदी की मालिक भक्ति जग-ज़ाहिर हो गयी जब जापानी पूँजीपतियों की सेवा में ‘जापानी प्लस’ नाम से एक नया प्रकोष्ठ खोलने का ऐलान हुआ। जापानी प्रबन्धन जिस तरह से मज़दूरों का ख़ून निचोड़ता है इसे ऑटो-मोबाइल उद्योग के मज़दूर भली प्रकार से जानते हैं।

वैसे तो पूँजीवादी व्यवस्था में हर चुनावी पार्टी पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी बनने के लिए तैयार रहती है, किन्तु आज मन्दी के दौर में भाजपा जैसी पार्टी पूँजीपतियों की पहली पसन्द होती है जो लोगों को असली मुद्दों से भटकाकर धर्म-नस्ल के आधार पर बाँट सके और डण्डे के दम पर जनान्दोलनों को कुचल सके। लेकिन यह भी ऐतिहासिक सच्चाई है कि जब-जब जुल्म बढ़ा है तब-तब उसका प्रतिरोध भी मुखर हुआ है। आने वाले समय में देश की जनता के सामने यह अधिकाधिक साफ़ होता जायेगा कि साँपनाथ के जाने और नागनाथ के आने से समस्याओं का कोई समाधान नहीं होने वाला। देश के मज़दूरों, ग़रीब किसानों और आम कर्मचारियों को अपनी कमर कस लेनी होगी। संगठित प्रतिरोध ही किसी भी सरकार, चाहे वह केन्द्र या राज्य कहीं भी हो, की जनविरोधी नीतियों का एकमात्र माकूल जवाब हो सकता है। इसी से अपने हक़-अधिकारों पर हमले करने वाली सरकार के क़दम पीछे हटाये जा सकते हैं।

 

मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर 2014


 

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