“अच्छे दिनों” में थैलीशाहों की हुई चाँदी
मोदी सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों को औने-पौने दामों में निजी पूँजीपतियों को बेचने के लिए कमर कसी

आनन्द सिंह

मोदी सरकार के सत्ता में क़ाबिज़ होने के बाद से ही इस देश के पूँजीपतियों, सेठ-व्यापारियों, ठेकेदारों, दलालों और सट्टेबाजों के अच्छे दिन आ गये हैं और उनकी बाँछें खिली-खिली नज़र आ रही हैं। वैसे तो आज़ादी के बाद से हर सरकार ने अपने-अपने तरीक़े से पूँजीपति वर्ग की चाकरी की है, लेकिन अपने कार्यकाल के शुरुआती छह महीनों में ही मोदी सरकार ने इस बात के पर्याप्त संकेत दिये हैं कि उसने चाकरी के पुराने सारे कीर्तिमान ध्वस्त करने का बीड़ा उठा लिया है। देशी-विदेशी पूँजीपतियों को लूट के नये-नवेले ऑफ़र दिये जा रहे हैं। एक ओर यह सरकार विदेशी पूँजी को रिझाने के लिए मुख़्तलिफ़ क्षेत्रों में विदेशी पूँजी के सामने लाल कालीनें बिछा रही है, वहीं दूसरी ओर देशी पूँजी को भी लूट का पूरा मौक़ा दिया जा रहा है। पूँजी को रिझाने के इसी मक़सद से अब मोदी सरकार आज़ादी के छह दशकों में जनता की हाड़-तोड़ मेहनत से खड़े किये गये सार्वजनिक उद्यमों को औने-पौने पर बेचने के लिए कमर कस ली है।

1361972385_Mukesh-Ambaniवित्तमन्त्री अरुण जेटली ने अपने पहले बजट में ही विनिवेश और निजीकरण की प्रक्रिया को गति देने की सरकार की मंशा ज़ाहिर कर दी थी। सितम्बर के महीने में कैबिनेट ने इस प्रक्रिया के पहले चरण को हरी झण्डी दे दी जिसके तहत लाभ कमाने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी कम्पनियों जैसे ऑयल एण्ड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन (ओएनजीसी), कोल इण्डिया लिमिटेड (सीआईएल), नेशनल हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर कॉरपोरेशन (एनएचपीसी) और स्टील अॅथारिटी ऑफ़ इण्डिया लिमिटेड (सेल) में सरकार के शेयर बेचकर लगभग 45,000 करोड़ रुपये इकट्ठे करने की योजना है। दिसम्बर के पहले सप्ताह में सरकार ने सेल के 5 प्रतिशत शेयर निजी खिलन्दड़ों के हवाले करते हुए इस बम्पर सेल का आग़ाज़ किया।

विनिवेश की इस प्रक्रिया को जायज़ ठहराने के लिए सरकार यह तर्क दे रही है कि इससे राजकोषीय घाटे को पाटने में मदद मिलेगी और यह प्रक्रिया राजकोषीय घाटे को पाटने की दूसरी प्रक्रिया यानी बॉण्ड या सिक्योरिटीज़ जारी करने से बेहतर है क्योंकि इस रास्ते से सरकार पर क़र्ज़़ का बोझ नहीं पड़ेगा। इस किस्म का तर्क देने वाले यह नहीं बताते कि इन उद्यमों के शेयर बेचने से क़र्ज़़ का बोझ भले ही न बढ़े लेकिन एक बार बेच देने के बाद वह फिर स्थायी रूप से उसका मालिकाना हक़ खो देगी। दूसरे यदि सरकार का लक्ष्य सिर्फ़ राजकोषीय घाटे को कम करना होता तो उसके लिए सबसे बेहतर और न्यायसंगत रास्ता तो यह होता कि वह अमीरों और देशी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों से ज़्यादा कर वसूल करके अपनी आय बढ़ा सकती है। परन्तु कॉरपोरेट्स के करों में बढ़ोतरी तो दूर, इस साल के बजट दस्तावेज़ के अनुसार भारत सरकार ने अकेले वित्तीय वर्ष 2013-14 के दौरान कॉरपोरेट्स को कुल 5.32 लाख करोड़ रुपये की करों में छूट दी। प्रसिद्ध पत्रकार पी. साईनाथ ने दिखाया है कि वर्ष 2005 से लेकर अब तक भारत सरकार ने कॉरपोरेट्स के करों 36.5 खरब रुपये की छूट दी है। इसे उन्होंने उचित ही कॉरपोरेट क़र्ज़़ा माफ़ी का नाम दिया है। यदि वर्तमान सरकार का मुख्य उद्देश्य वाकई राजकोषीय घाटे को कम करना ही होता तो यह इस क़र्ज़़ा माफ़ी को वापस लेते हुए कॉरपोरेट घरानों पर करों को बोझ बढ़ाकर बहुत आसानी से किया जा सकता था। परन्तु न सिर्फ़ इस सरकार ने इस कॉरपोरेट क़र्ज़़ा माफ़ी को जारी रखा बल्कि, वोडाफ़ोन और अमेज़न जैसी बहुराष्ट्रीय विदेशी कम्पनियों को हज़ारों करोड़ रुपये के करों से मुक्त करने की कवायदें कर रही है।

दरअसल राजकोषीय घाटा तो एक बहाना है, सरकार का असली मक़सद तो नव-उदारवाद के मूल-स्तम्भ यानी निजीकरण की प्रक्रिया को गति देना है ताकि आने वाले दिनों में सार्वजनिक उपक्रमों को पूरी तरह से देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हवाले कर दिया जाये। अब सरकार खुलकर तो इस मंशा को ज़ाहिर नहीं कर सकती, इसलिए वह राजकोषीय घाटे को पाटने अथवा सार्वजनिक उपक्रमों की कार्यकुशलता बढ़ाने के तर्क को आगे करती है।

पूँजीवाद में हर चीज़ का एक बिकाऊ माल में तब्दील होना तय है।

अभी हाल ही में मोदी ने रेलवे स्टेशनों पर यात्री सुविधाओं में भी निजीकरण की प्रक्रिया शुरू करने की बात की। इस सरकार के विभिन्न मन्त्री सीआईआई और फिक्की जैसे पूँजीपतियों के संगठनों में जाकर उन्हें लुटेरी नव-उदारवादी नीतियों पर तेज़ी से अमल करने की अपनी प्रतिबद्धताओं के बारे में आश्वासन देते हैं और आगे का रोडमैप बताते हैं कि किस-किस क्षेत्र में विदेशी निवेश की अनुमति देने वाले हैं और किस क्षेत्र में निजीकरण को बढ़ावा देने की योजना है। कॉरपोरेट घरानों के टुकड़ों पर पलने वाले तमाम ख़बरिया चैनल इन्हीं रोडमैपों के लिए जनमत तैयार करने के लिए फ़ि‍जूल की बहस आयोजित करते हैं, जिनमें वे बहस का चौखटा इसी बात तक सीमित रखते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों एवं सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में सौंपने का सबसे बेहतर तरीक़ा कौन सा है। वे कभी भी इस मूल मुद्दे को नहीं उठाते कि देश की अकूत सम्पदा और सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों को बेचना अपने-आपमें एक महा घोटाला है, भले ही यह ख़रीद-फ़रोख़्त पारदर्शी तरीक़े से की गयी हो और भले ही इस प्रक्रिया में सरकार को अपेक्षा के मुताबिक़ राशि मिल गयी हो। यहाँ तक कि न्याय की हिफ़ाज़त करने का दावा करने वाले न्यायालय भी इस मूल घोटाले पर चुप्पी साध लेते हैं। अभी हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने कोयला घोटाले में अपना फ़ैसला सुनाया, जिसमें उसने पिछली सरकार द्वारा आवँटित कोयला ब्लॉकों के आवँटन को रद्द कर दिया। परन्तु उच्चतम न्यायालय ने भी इस देश की अपार खनिज सम्पदा को निजी हाथों में सौंपना अपने-आपमें कोई घोटाला नहीं माना, उसकी आपत्ति बस इसे सौंपने की प्रक्रिया को लेकर थी। संक्षेप में कहें तो मीडिया और न्यायालय को भी लूट से कोई दिक़्कत नहीं है, बस उसका तरीक़ा पारदर्शी होना चाहिए ताकि सभी लुटेरों को बराबर का मौक़ा मिले और किसी भी लुटेरे के साथ भेदभाव न हो।

मोदी सरकार द्वारा विनिवेश और निजीकरण की प्रक्रियाओं में तेज़ी लाने से ऐसे तमाम वामपन्थी इन दिनों बहुत मायूस हैं जो पब्लिक सेक्टर को ही समाजवाद का पर्याय मानते हैं। ये वही लोग हैं जो आज भारत के शासक वर्ग द्वारा नेहरू की तिलांजलि देने के बाद नेहरू को रूँधे गलों के साथ याद कर रहे हैं और नेहरूवादी समाजवाद के प्रति नॉस्टैल्जिक हो रहे हैं। यही लोग योजना आयोग के भंग होने पर भी छाती पीटकर मातम मना रहे हैं। ऐसे वामपन्थी यदि अपनी भावना के साथ थोड़ा विवेक एवं विज्ञान का सहारा लें तो पायेंगे कि जिस नेहरूवादी समाजवाद को वे अब तक समाजवाद समझते आये हैं, वह दरअसल राजकीय पूँजीवाद था। आज़ादी के समय भारत के उदीयमान पूँजीपति वर्ग के पास इतनी ताक़त ही नहीं थी कि वह निजी पूँजी के दम पर भारत के पूँजीवादी विकास की आधारशिला रख पाता। इसीलिए उसने पब्लिक सेक्टर के रास्ते पूँजीवाद की नींव तैयार करना तय किया जिसका अर्थ था जनता की हाड़तोड़ मेहनत से अर्जित बचत को बुनियादी और अवरचनागत उद्योगों में लगाया जाये। जनता के बीच समाजवाद की सहज स्वीकार्यता को देखते हुए जनता को झाँसा देने के लिए इसे समाजवाद का मॉडल कहा गया। परन्तु शासन-प्रशासन तथा उत्पादन के ढाँचे पर पूँजीपति वर्ग का नियन्त्रण बना रहा। 1980 के दशक तक आते-आते भारत का पूँजीपति वर्ग परिपक्व हो चुका था और पब्लिक सेक्टर का ढाँचा उसके लिए अप्रासंगिक हो चुका था। इसलिए 1990 के दशक की शुरुआत में उसने समाजवाद का चोला उतार फेंका और अपने असली रूप यानी पूँजीवादी रूप में सामने आया। उसी समय विनिवेश और निजीकरण की प्रक्रिया की भी शुरुआत हुई जो आज भी जारी है। इस प्रक्रिया पर कमोबेश सभी पार्टियों में आम सहमति है और नवउदारवाद के दौर में केन्द्र अथवा राज्य में सरकार में रही तमाम पार्टियों ने इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया है। मोदी सरकार अन्य सरकारों से बस इस मायने में अलग है कि वह इस प्रक्रिया में अभूतपूर्व तेज़ी ला रही है।

यह प्रक्रिया आने वाले दिनों में और भी गति पकड़ेगी। अभी तो इन “नवरत्नों” के कुछेक मणि बेचे जा रहे हैं, नवउदारवाद का तर्क यह कहता है कि आनेवाले दिनों में नवरत्नों की पूरी थैली ही थैलीशाहों के हवाले कर दी जायेगी। जो लोग यह समझते हैं कि इस प्रक्रिया को उलटकर वापस नेहरूवादी समाजवाद के युग में जाया जा सकता है, वे बहुत बड़े भ्रम में जी रहे हैं। नवउदारवाद की यह प्रक्रिया अपने अन्तरविरोधों से सर्वहारा क्रान्ति की दिशा में बढ़ेगी और सर्वहारा क्रान्ति के पश्चात सर्वहारा वर्ग की पार्टी के नेतृत्व में किया गया राष्ट्रीयकरण यानी वास्तविक समाजवाद इसकी तार्किक परिणति है। इसलिए अतीत के नॉस्टैल्जिया में जीने की बजाय भविष्य का रास्ता समझकर मज़दूर वर्ग को संगठित होकर लुटेरों से एक-दो मोतियों की फ़रियाद करने की बजाय पूरी दुनिया ही अपने क़ब्ज़े में करने की तैयारी करनी चाहिए।

 

 

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2014


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments