भारत सरकार द्वारा एक महीने में हथियार ख़रीद के दो बड़े फ़ैसले
जनता को तोपें और बमवर्षक नहीं बल्कि रोटी, रोज़गार, सेहत व शिक्षा जैसी बुनियादी ज़रूरतें चाहिए

रौशन

भारत की 130 करोड़ आबादी में से 70 प्रतिशत से अधिक आबादी ग़रीबी में जी रही है। मानवीय विकास सूचकांक में भारत का 135वाँ स्थान है। यहाँ रोज़ाना लगभग 9000 बच्चे भूख और इससे पैदा हुई बीमारियों के कारण मारे जाते हैं। 60 प्रतिशत बच्चे और महिलाएँ कुपोषण का शिकार हैं। संसार के कुल बँधुआ मज़दूरों में से आधे भारत में हैं। लगभग 30 करोड़ लोगों के पास रहने के लिए कोई पक्का ठिकाना नहीं है। 60 प्रतिशत लोगों को पीने का साफ़ पानी उपलब्ध नहीं है। बहुसंख्यक लोगों की शिक्षा और सेहत जैसी बुनियादी सुविधाओं तक पहुँच नहीं है। बाल मज़दूरों, अनपढ़ों, बेरोज़गारों की कोई गिनती ही नहीं है। इस बहुसंख्यक आबादी को रोटी, पानी, मकान, सेहत व शिक्षा जैसी बुनियादी ज़रूरतों की दरकार है। भारत सरकार ने इन्हीं लोगों का “खयाल रखते हुए” विगत 25 अक्टूबर और फिर 22 नवम्बर को एक-के-बाद-एक 80,000 करोड़ और 15,750 करोड़ के हथियार व अन्य फ़ौजी साजो-सामान ख़रीदने के अहम फ़ैसले लिये हैं। जी हाँ, ग़रीबी-बदहाली से जूझते लोगों के लिए भारत सरकार हथियार ख़रीद रही है क्योंकि सरकार के मुताबिक़ तो देश के नागरिकों को सबसे बड़ा ख़तरा “विदेशी दुश्मनों” से है!

Weapons25 अक्टूबर को रक्षामन्त्री अरुण जेटली के नेतृत्व में हुए 80 हज़ार करोड़ के पहले फ़ैसले में सबसे बड़ा फ़ैसला भारत में ही 50,000 करोड़ की लागत से 6 पनडुब्बियाँ तैयार करने का है। इज़रायल के साथ भी 8,356 एण्टी टैंक गाइडेड मिसाइलें ख़रीदने व मिसाइलों के लिए 321 लांचर ख़रीदने का समझौता हुआ है। इसके अलावा हिन्दोस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटड से 1,850 करोड़ के 12 आधुनिक सेंसर के साथ लैस डारनियर रखवाला जहाज़ ख़रीदने, पैदल सेना के लिए 662 करोड़ लागत के 362 युद्ध करनेवाले वाहन ख़रीदने और 662 करोड़ की लागत के साथ रेडियो रिलेय कन्टेनर ख़रीदने के समेत कई सौदों को हरी झण्डी दी गयी है। इसी तरह 22 नवम्बर को फिर नये बने रक्षामन्त्री मनोहर परिकर के नेतृत्व में 15,750 करोड़ की लागत के साथ 814 तोपें ख़रीदने का फ़ैसला लिया है।

इन सौदों के पीछे दोनों रक्षामन्त्रियों और भारत सरकार का तर्क था कि चीन और पाकिस्तान जैसे विदेशी दुश्मनों के आगे वह भारत को “लाचार नहीं होने देंगे” और उनका “मुकाबला करने के लिए” भारतीय सेना का आधुनिकीकरण करना तथा फ़ौज के हथियारों व साधनों को और उन्नत करना लाजिमी है। यह भी उल्लेखनीय है कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली पुरानी सरकार ने भी आखि़री छह महीनों में 1 लाख करोड़ से भी अधिक राशि के रक्षा सौदों को मंजूरी दी थी और अब मोदी सरकार के एक महीने में ही लगभग 1 लाख करोड़ के सौदों की मेहरबानी के साथ भारत पिछले कुछ महीनों में ही हथियारों और सेना की अन्य सामग्री पर 2 लाख करोड़ से भी ज़्यादा राशि ख़र्चने की योजना बना चुका है। इतना ही नहीं नये रक्षामन्त्री मनोहर परिकर ने तो मोदी के मन्त्रालय में आते ही अपने इरादे स्पष्ट कर दिये थे और कहा था कि “हमें अगले तीन सालों के दौरान अपनी सामर्थ्य में विस्तार करने की ज़रूरत है। हथियारबन्द दस्तों को साजो-सामान मुहैया कराने की ज़रूरत है। प्रधानमन्त्रीजी ने मुझे ज़िम्मा सौंपा है कि रक्षा दस्तों को हर तरह की मदद मुहैया करवायी जाये। इसके लिए ख़रीदो-फ़रोख़्त में तेज़ी लायी जायेगी।” इसी का नतीजा है कि मन्त्री बनने के दो हफ्तों के अन्दर ही 15,000 करोड़ तोप पर बहाने की तैयारी कर दी, और यहीं पर बस नहीं होने दी। 22 नवम्बर को हुई बैठक में हवाई जहाज़ और निगरानी जहाज़ ख़रीदने का फ़ैसला टाल दिया गया है जो नजदीक भविष्य में ही अमल में लाया जायेगा और कई अन्य बड़े सौदे होंगे, क्योंकि मोदी सरकार ने “तीन सालों के दौरान अपनी सामर्थ्य में विस्तार” करना है।

Repressionइन हथियारों की ख़रीद के पीछे दिया जाता तर्क “विदेशी दुश्मनों से सुरक्षा” कोरी बकवास है। वास्तव में भारत सरकार देश के लोगों से डरती है और उन पर दमन बढ़ाने, उनके हक़ और गुस्से की हर आवाज़ को दबाने के लिए ही फ़ौजी मशीनरी को और ज़्यादा आधुनिक, और ज़्यादा दैत्याकार तथा और ज़्यादा मज़बूत कर रही है। कारण भी साफ़ है कि संसार पूँजीवादी ढाँचे के आर्थिक संकट की लपेट में आये भारतीय अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए भारत का पूँजीपति वर्ग मेहनतकश आबादी की लूट बढ़ाकर, उनको दी जाती जन-सुविधाएँ छीनकर अपनी तिजोरियों में डालना चाहती है। इसी लिए उन्होंने गुज़रात दंगों के नायक मोदी को अपना प्रतिनिधि बनाया है, क्योंकि लोगों को और ज़्यादा लूटने-पीटने के लिए उनको राहुल (और कांग्रेस) जैसा नाजुक-कोमल-सा प्रतिनिधि नहीं चाहिए, बल्कि ज़्यादा अत्याचारी, बदमाश और बेरहम प्रतिनिधि चाहिए जोकि मोदी है। मोदी ने आते ही लोगों के मुँह से निवाले छीनकर पूँजीपति वर्ग को परोसने शुरू कर दिये हैं, विदेशी निवेशकों को बुलाना शुरू कर दिया है, लोगों को दी जाती सहूलियतें और अधिकारों को छीनना शुरू कर दिया है और ज़रूरत पड़ने पर लोगों पर डण्डा चलाना भी शुरू कर दिया है। लोगों के बढ़ते गुस्से और बेचैनी के लिए मोदी अपना डण्डा और मज़बूत करना चाहता है। इतना ही नहीं, मोदी भारतीय हिन्दू कट्टरपन्थी ताक़त ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का प्रतिनिधि भी है जो भारत को एक हिन्दुत्वी साँचे में ढालना चाहती है। यह हिन्दुओं के बिना सभी राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों (ख़ासतौर पर मुसलमानों और इसाईयों को) को ग़ैर-भारतीय और अपना दुश्मन मानते हैं और उनको देश के अन्दर दूसरे दर्जे के नागरिक बनाकर रखने में विश्वास रखते हैं। अपने इस हिन्दुत्वी एजेण्डे और देसी-विदेशी पूँजीपतियों के हितों की सेवा के लिए इसको अत्याचारी और ताक़तवर राज मशीनरी (फ़ौज, अदालतें, क़ानून, पुलिस आदि) की ज़रूरत है। इसी ज़रूरत को पूरा करने के लिए हथियारों के ये बड़े सौदे किये जा रहे हैं। हथियारों और फ़ौजी मशीनरी की इस ख़रीद को जायज़ ठहराने के लिए दूसरी तरफ़ सरहदों पर नक़ली तनाव पेश करके अन्धराष्ट्रवाद की भावना को भी ख़ूब प्रोत्साहन दिया जाता है। इस काम में मोदी के चमचों और भारतीय पूँजीपतियों के टीवी चैनल, अख़बार बढ़-चढ़कर लगे हुए हैं। फ़ौज के आधुनिकीकरण और उसे मज़बूत बनाने की यह प्रक्रिया तो काफ़ी पहले तब से शुरू हो चुकी है जब भारतीय फ़ौज के प्रमुख के ये बयान आने शुरू हुए थे कि “फ़ौज कमजोर हो रही है, इसको नये हथियारों की ज़रूरत है।” यह तथ्य भी सबके सामने ही है कि पिछले कई सालों में भारतीय हथियार “विदेशी दुश्मनों” के खि़लाफ़ उतने नहीं इस्तेमाल किये गये जितने कश्मीर, मणिपुर और पूर्वी भारत के दूसरे हिस्सों में लोगों की आवाज़ को दबाये रखने के लिए, मध्य भारत में आदिवासियों को कुचलने के लिए और समय-समय पर देश के अन्दर लोगों के व्यापक संघर्षों को कुचलने के लिए इस्तेमाल किये गये हैं। इसलिए देश के बहुगिनती मेहनतकश आबादी के असली दुश्मन सरहदों के पार नहीं बल्कि देश के भीतर ही हैं। वह देश के पूरे आर्थिक और राजनीतिक ताने-बाने समेत अपनी मूल्य-मान्यताओं, संस्कृति और विचारों के द्वारा समाज के हर रेशे में अपनी मज़बूत पकड़ बनाये बैठे हैं।

यह सब इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि ‘विश्व बैंक’ के मुताबिक़ भारत सरकार शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पादन का सिर्फ़ 3.4 प्रतिशत और सेहत पर सिर्फ़ 1.3 प्रतिशत ही ख़र्च करती है। मतलब दोनों क्षेत्रों पर साल का 1 लाख करोड़ से भी कम। इसमें से भी बड़ा हिस्सा नौकरशाहों, अफ़सरों की तनख़्वाहें आदि में चला जाता है, लोगों को सहूलियतें देने के लिए बहुत कम राशि ही पहुँचती है। तस्वीर का दूसरा पहलू हम ऊपर पहले ही साफ़ कर चुके हैं कि लोगों को पीटने के लिए कुछ महीनों के अन्दर ही 2 लाख करोड़ से भी ज़्यादा राशि ख़र्ची जा चुकी है।

उपरोक्त प्रमुख कारणों के अलावा इन फ़ैसलों के कुछ और पहलू भी हैं। इन दोनों फ़ैसलों में यह बात ख़ास रही कि इनमें से काफ़ी सामग्री भारत में ही बनाने की तज़वीज रखी गयी है और इस तरह 15 अगस्त को मोदी के दिये भाषण के ‘मेक इन इण्डिया’ नारे पर फूल चढ़ाये जा रहे हैं। यह बात भी सहज ही समझी जा सकती है। इसका कारण है कि भारतीय पूँजीपति वर्ग को संकट में से निकलने के लिए विदेशी पूँजी की भी काफ़ी सख्त ज़रूरत है। भारत का हाल यह है कि इसके पास अपने विदेशी क़र्ज़े की किश्तों का भुगतान करने के लिए विदेशी मुद्रा भी बड़ी मुश्किल से ही है। इसीलिए विदेशी निवेशकों के लिए भारत में रास्ता सपाट किया जा रहा है। हथियारों के मामलों में इसकी शुरुआत तो मोदी के 15 अगस्त के भाषण से पहले ही मोदी सरकार का बजट आते समय हो चुकी थी, जब बजट में रक्षा क्षेत्र में 49 प्रतिशत विदेशी पूँजी के निवेश को छूट दी गयी थी। इस क्षेत्र में विदेशी पूँजी के निवेश को व्यावहारिक रूप देने के लिए भी यह ज़रूरी था कि हथियारों व अन्य साजो-सामान की माँग पैदा की जाये, जिससे विदेशी पूँजी आकर भारतीय पूँजीपति वर्ग को संकट में से निकलने में कुछ राहत दिलाये। इसलिए भी “तीन सालों के अन्दर अपनी सामर्थ्य में विस्तार की ज़रूरत” और “विदेशी दुश्मनों से ख़तरा” जैसे बहाने बनाये जा रहे हैं।

जनता की अपने अधिकारों के लिए उठायी आवाज़ को कुचलने की मोदी की कोशिशें सिर्फ़ सेना के मज़बूतीकरण तक ही सीमित नहीं है। भारतीय सत्ता के बाक़ी अंग जैसे अदालतें, क़ानून व्यवस्था और पुलिस भी इसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। एक तो मज़दूरों, मेहनतकशों को मिले मामूली अधिकारों, श्रम क़ानूनों में मोदी बड़े स्तर पर संशोधन करके इनको अमीरों, पूँजीपतियों के हक़ में बदल रहा है और साथ ही पंजाब, छत्तीसगढ़ समेत देश के अन्य कई हिस्सों में काले क़ानून बनाकर उनके अपने हक़ों के लिए आवाज़ उठाने को ही ग़ैर-क़ानूनी बनाया जा रहा है। पुलिस द्वारा अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करके बेरोज़गारों, छात्रों, कर्मचारियों आदि को बेरहमी के साथ पीटना तो काफ़ी पहले से ही चल रहा है और इस साल तो इसमें और तेज़ी व बेरहमी आती दिखायी दे रही है। इस दमन में औरतों को भी नहीं छोड़ा जाता। यह पूरी स्थिति यह साफ़ करती है कि सरकार के पास लोगों को देने के लिए धक्के, मार-पीट और दमन ही है। इसके लिए वह लोगों से ही टैक्सों के रूप में इकट्ठा की अरबों की कमाई लोगों को रोटी, पानी, सेहत, शिक्षा जैसी बुनियादी सहूलियतें देने की जगह उनको और बेरहमी के साथ पीटने तथा और अधिक बदतर हालात में जीते रहने पर मजबूर करने के लिए ख़र्च कर रही है। आने वाले दिन भारत की मेहनतकश जनता के लिए और भी दुश्वारियों भरे होने वाले हैं। इसका सामना करने के लिए सभी बहादुर मज़दूरों, कामगारों, छात्रों, युवाओं और इन्साफ़पसन्द नागरिकों की एकजुटता आज के समय की माँग है।

 

 

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2014


 

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