कोयला ख़ान मज़दूरों के साथ केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की घृणित ग़द्दारी
पाँच दिवसीय हड़ताल के आह्वान को शर्मनाक तरीक़े से दूसरे दिन ही ख़त्म कर दिया

शिवानी

6 जनवरी, 2015 से शुरू होनेवाली कोयला ख़ान के मज़दूरों की पाँच दिवसीय हड़ताल कई कारणों से चर्चा में रही। हड़ताल जब शुरू भी नहीं हुई थी तब इस बात की चर्चा हो रही थी कि इस हड़ताल से औद्योगिक उत्पादन और भारतीय अर्थव्यवस्था को कितना नुक़सान होगा, और जब हड़ताल शुरू हुई तो चर्चा इस बात की होने लगी कि शायद यह कोयला ख़ान मज़दूरों का आनेवाले दिनों के लिए सबसे बड़ा हड़ताली क़दम बने। लेकिन इस हड़ताल का चर्चा में रहने का वास्तविक कारण तो महज़ एक होना चाहिए – और वह है एक दफ़ा फिर केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा मज़दूरों के साथ ग़द्दारी करना और पूँजीपतियों एवं कारपोरेट घरानों की चाकरी करनेवाली मोदी सरकार के आगे घुटने टेक देना।

coal minersअगर एक बार फिर याद करें तो देश की पाँच केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों – एचएमएस, बीएमएस, इंटक, एटक, सीटू ने 6 जनवरी से कोयला ख़ान मज़दूरों की पाँच दिवसीय हड़ताल का आह्वान किया था। इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा हड़ताल का प्रमुख कारण मोदी सरकार द्वारा कोल इण्डिया लिमिटेड के निजीकरण और विराष्ट्रीकरण का विरोध करना था। साथ ही इन ट्रेड यूनियनों का यह कहना था कि इस हड़ताल के एजेण्डा पर कोल इण्डिया लिमिटेड में श्रम के ठेकाकरण की व्यवस्था को पूर्ण रूप से ख़त्म कर देना भी शामिल था। सुनने में यह सब काफ़ी अच्छा लग रहा है, लेकिन वास्तव में हुआ कुछ और ही। 6 जनवरी को शुरू हुई हड़ताल अगले ही दिन शाम को अचानक तोड़ दी गयी। और क्यों? क्योंकि कोयला मन्त्री पीयूष गोयल द्वारा इन पाँच यूनियनों के नेताओं को यह आश्वासन दिलाया गया कि सरकार की कोल इण्डिया लिमिटेड के विराष्ट्रीकरण की कोई योजना नहीं है, इन नेताओं को सरकार की विनिवेश योजनाओं से भी अवगत कराया गया, इन्हें यह भी समझाया गया कि विनिवेश का मतलब निजीकरण थोड़े ही है और अन्त में इन्हें इस बात का भी भरोसा दिलाया गया कि मोदी सरकार कोयला ख़ान के मज़दूरों के हितों की रक्षा करेगी। और फिर अच्छे, तमीज़दार, आज्ञाकारी बालकों के समान इन ट्रेड यूनियनों को यह बात समझ में आ गयी! और जैसाकि अक्सर होता है इस बार भी हुआ – एक उच्च स्तरीय समिति के गठन का झुनझुना इन “आज्ञाकारी बालकों” के हाथों में थमा दिया गया। मज़दूरों के बीच अपना धन्धा-पानी चलाने के लिए अपनी गिरती साख बचाने के लिए इन यूनियनों को कुछ तो दिखाना ही था, सो कोयला मन्त्री के साथ हुई वार्ता को ये लोग बड़ी जीत के तौर पर प्रचारित कर रहे हैं। यह नहीं बता रहे कि कोयला मन्त्री को बड़ी ही बेशर्मी के साथ इन लोगों ने यह आश्वासन दिया कि डेढ़ दिन की हड़ताल के दौरान जो नुक़सान हुआ है, उसकी भरपाई मज़दूरों के द्वारा कर दी जायेगी। वास्तव में इन ट्रेड यूनियनों ने मौक़ापरस्ती की एक और मिसाल क़ायम की है। पूँजी की ताक़तों के आगे घुटने टेक देने को ये यूनियनें अपनी जीत बता रही हैं। एक बार फिर मज़दूरों के हितों की दलाली करने को अपनी जीत का नाम दे रही हैं।

इस तरह की हड़तालों का आह्वान इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के लिए कोइे नयी बात नहीं है। बीच-बीच में इन्हें मज़दूरों के दबाव के चलते ऐसा करना पड़ता है ताकि आम मज़दूरों में इनकी असलियत की कलई न खुल जाये। मज़दूर आन्दोलन के अन्दर ‘सेफ्टी-वॉल्व’ की भूमिका अदा करनेवाली ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें वास्तव में मज़दूरों के किसी भी संघर्ष को किसी मुक़ाम तक पहुँचाने के लिए लड़ती ही नहीं हैं क्योंकि इनका ऐसा करने का कोई इरादा ही नहीं है। इसलिए कोयला ख़ान मज़दूरों की हड़ताल का भी यही हश्र हुआ।

लेकिन इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की बातबहादुरी देखिये। हड़ताल शुरू होने के कुछ दिन पहले से ही इन यूनियनों के बड़े-बड़े नेताओं के तेवर भरे बयान अख़बारों और टीवी चैनलों पर आ रहे थे। कोई कह रहा था कि यह कोयला ख़ान मज़दूरों के इतिहास की सबसे बड़ी हड़ताल होगी तो कोई कह रहा था कि यह मज़दूरों के लिए ‘करो या मरो’ की स्थिति वाली हड़ताल होगी। लेकिन हड़ताल असलियत में क्या हुई, यह सबने देख ही लिया। वास्तव में इन ट्रेड यूनियनों पर मज़दूरों की तरफ़ से ही हड़ताल करने का दबाव बनाया जा रहा था। पिछले साल 24 नवम्बर को भी हड़ताल का आह्वान किया गया लेकिन बाद में वापस ले लिया गया। इससे देश के कोयला ख़ान मज़दूरों में ख़ासा गुस्सा और असन्तोष था।

और गुस्सा हो भी क्यों ना? एक तरफ़, तो इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की मौक़ापरस्ती कोयला ख़ान मज़दूरों से संघर्ष का हथियार छीन रही है, वहीं दूसरी तरफ़ मोदी सरकार की खुली पूँजीपरस्त नीतियाँ मेहनत और क़ुदरत की लूट को पूँजीपतियों के लिए और आसान बना रही है। कोयला ख़ान (विशेष प्रावधान) अध्यादेश, 2014 इसी दिशा में एक नया क़दम है। इस अध्यादेश के मुताबिक़ देश के कोयला भण्डार को निजी पूँजी द्वारा दोहन के लिए खुला छोड़ दिया जायेगा। यह अध्यादेश निजी कम्पनियों को व्यावसायिक उपयोग के लिए कोयला ब्लॉकों की ई-नीलामी की आज्ञा देता है, इसका मतलब यह है कि कोल इण्डिया लिमिटेड, जोकि इस समय देश की सबसे बड़ी सार्वजनिक/राष्ट्रीयकृत कोयला खनन कम्पनी है और कुल कोयला उत्पादन का 80 प्रतिशत हिस्सा पैदा करती है, के दरवाज़े अब निजी पूँजी के लिए खोल दिये जायेंगे। ज़ाहिरा तौर पर यह निजीकरण की प्रक्रिया में ही एक बड़ा क़दम है। इसके बाद कोयला ख़ान मज़दूरों की स्थिति और कमज़ोर हो जायेगी। अभी भी जहाँ-जहाँ निजी कम्पनियाँ कोयला खनन में लगी हैं, वहाँ मज़दूरों के हालात काफ़ी ख़राब हैं। उन कोयला ख़ान मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी तक नसीब नहीं हो रही है। समझा जा सकता है कि यही प्रक्रिया जब कोल इण्डिया लिमिटेड में लागू होगी तो 3.50 लाख कोयला ख़ान मज़दूरों की स्थिति का क्या अंजाम होगा?

चाहे कोयला अध्यादेश हो या भूमि अधिग्रहण क़ानून, या फिर श्रम क़ानूनों के सुधार का ही सवाल क्यों न हो – मोदी सरकार की मंशा एकदम साफ़ है – पूँजीपतियों को पूजो, आबाद करो; मेहनतकशों को लूटो, बर्बाद करो। जहाँ एक तरफ़ देश की भूमि, खनिज और प्राकृतिक संसाधनों को पूँजी के निर्बाध दोहन के लिए खुला छोड़ दिया जा रहा है वहीं दूसरी ओर श्रम की लूट को और अधिक क़ानूनी तथा संस्थाबद्ध रूप दिया जा रहा है। यही तो है मोदी सरकार के “अच्छे दिनों” की सच्चाई। देश के मेहनतकशों को इस बात से जल्द-से-जल्द रू-ब-रू होना होगा और इस बात को वे समझ भी रहे हैं। साथ ही अपने असली दोस्तों की शिनाख़्त भी करनी होगी। केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों का चरित्र बीतते हर मिनट के साथ साफ़ हो रहा है इसलिए उनके भरोसे बैठे रहना अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मारना होगा। मज़दूर आन्दोलन को एक क्रान्तिकारी शुरुआत की ज़रूरत है जो उस पर होनेवाले हमलों का ठोस, कारगर और माकूल जवाब दे सके।

 

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2015

 


 

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