नारकीय हालात में रहते और काम करते हैं दिल्ली मेट्रो के निर्माण कार्यों में लगे हज़ारों मज़दूर

बिगुल संवाददाता

दिल्ली मेट्रो में कार्यरत मज़दूरों की जीवन-स्थिति यह सोचने के लिए मजबूर कर रही है कि आज़ादी के 63 साल बाद भी क्या सचमुच देश की मेहनतकश आबादी आज़ाद है? और आज़ादी का उसके लिए क्या बस यही मतलब है भी कि हर रोज़ 10-12 घण्टे मौत के कुएँ में ऐसा खेल खेले, जहाँ ज़िन्दा बचे तो पगार मिल जायेगी, और अगर मर गये तो न इन्साफ मिलेगा न परिवार को रोटी। 12 जुलाई 2009 को दिल्ली के जमरूदपुर मेट्रो हादसे की घटना इसी का एक और प्रमाण है जिसमें 6 मज़दूरों की मौत हो गयी और 20 से 25 मज़दूर गम्भीर रूप से घायल हो गये। इस घटना के बाद डीएमआरसी और सरकार द्वारा खेले गये ड्रामे और किए गए वादों और दावों के बाद भी काम पुराने ढंग-ढर्रे पर ही हो रहा है। हज़ारों मज़दूरों की ज़िन्दगियों को दाँव पर लगाकर दिल्ली मेट्रो का निर्माणकार्य बदस्तूर चल रहा है। वैसे देश में रोज़ाना तकरीबन 1,000 मज़दूरों की मौत काम के दौरान हो जाती है। इन मौतों के ज़िम्मेदार दोषियों को न तो सज़ा मिलती है, न गिरफ्तारी होती है और न ही मज़दूरों को कभी इन्साफ मिल पाता है।

मेट्रो मज़दूरों की जीवन-स्थिति

Metro workersमज़दूरों के काम की परिस्थितियां दिल दहला देने वाली हैं। मेट्रो के दूसरे चरण में 125 कि.मी. लाइन के निर्माण के दौरान 20 हज़ार से 30 हज़ार मज़दूर दिन-रात काम करते हैं। श्रम कानूनों को ताक पर रखकर मज़दूरों से 12 से 15 घण्टे काम करवाया जा रहा है। इन्हें न्यूनतम मज़दूरी नहीं दी जाती है और कई बार साप्ताहिक छुट्टी तक नहीं दी जाती है, ई.एस.आई. और पी.एफ. तो बहुत दूर की बात है। सरकार और मेट्रो प्रशासन ने कॉमनवेल्थ गेम्स से पहले दिल्ली का चेहरा चमकाने और निर्माण-कार्य को पूरा करने के लिए कम्पनियों के मज़दूरों को जानवरों की तरह काम में झोंक देने की पूरी छूट दे दी है। मज़दूरों से अमानवीय स्थितियों में हाड़तोड़ काम कराया जा रहा है। उनके लिए आवश्यक सुरक्षा उपाय लागू करने पर कोई ध्‍यान नहीं दिया जाता है। इन्हें जो सेफ्टी हेलमेट दिया गया है वह पत्थर तक की चोट नहीं रोक सकता। इतना ख़तरनाक काम करने के बावजूद एक हेलमेट के अतिरिक्त उन्हें और कोई सुरक्षा सम्बन्‍धी उपकरण नहीं दिया जाता है। मज़दूर ठेकेदारों के रहमोकरम पर हद से ज्यादा निर्भर हैं। उन्हें कम्पनी द्वारा किसी ठेकेदार के नीचे के ठेकेदार द्वारा या उससे भी नीचे के उप-ठेकेदार द्वारा काम पर रखा जाता है। इन उप-ठेकेदारों को जॉबर भी कहा जाता है। ये जॉबर मुख्यत: मुख्य ठेकेदार कम्पनी और मज़दूरों के बीच बिचौलिये या दलाल की भूमिका निभाते हैं। ये अपने गाँव के लोगों, परिचितों को व्यक्तिगत सम्बन्‍धों के बूते शहर के निर्माण-स्थलों पर ले आते हैं और उनकी ग़रीबी और कमज़ोर आर्थिक स्थिति का जमकर फायदा उठाते हैं। इन जॉबरों द्वारा रखे जाने वाले मज़दूरों की संख्या 10 से 100 तक की भी होती है। वह ख़ुद उनके रहने का इन्तज़ाम करता है। एक-एक कमरे में 10 से 15 मज़दूर होते हैं जहाँ पर साफ हवा, पानी, बिजली, शौचालय आदि की बुनियादी सुविधाएँ तक मयस्सर नहीं होती हैं। ये कमरे जिन्हें दड़बे कहना ज्यादा उपयुक्त होगा, प्राचीन रोम में गुलामों के लिए बनायी गयी उन छोटी कोठरियों की याद दिलाते हैं जहाँ धूप-पानी और ताजी हवा तक गुलामों को नसीब नहीं होती थी। दिल्ली मेट्रो में कुछ जॉबरों ने तो इस भीषण गर्मी में मज़दूरों के रहने के लिए टीन की चादरों के छोटे-छोटे शैड बना दिये हैं।
ये मज़दूर सुबह भोर से देर शाम तक 14-16 घण्टे काम करते हैं और यह दिनचर्या लगातार चलती रहती है। ये जॉबर किसी कानूनी दायरे के अन्तर्गत नहीं आते हैं। ये न तो किसी समझौते से बँधे होते हैं न ही कोई नियम-कानून मानने के लिए बाध्‍य होते हैं। जब कोई मज़दूर अपने हक के लिए बात करता है यानी श्रम कानूनों व सुरक्षा उपायों को लागू करने के लिए तो तुरन्त डीएमआरसी और ठेका कम्पनी उस जॉबर को बुलवाकर मज़दूरों को डरा-धमका देती है या सीधे काम से निकलवा दिया जाता है। ऐसे में जॉबर तुरन्त मज़दूरों से जगह खाली करवा लेता है। ऐसे में मज़दूर एकदम सड़क पर आ जाते हैं। उनके सामने सीधा अस्तित्व का सवाल खड़ा हो जाता है कि या तो वह इसका सामना करने के लिए खड़े हों या फिर समझौता कर लें। ऐसी परिस्थिति ज्यादातर तो मज़दूरों को झुकने के लिए तथा सब कुछ सहन करने के लिए मजबूर कर देती है। मेट्रो प्रशासन तथा ठेका कम्पनी साफ बच निकलती हैं। मज़दूरों की अपनी कोई यूनियन न होने की वजह से वे सीधे ठेकेदार से हक माँगना तो दूर कोई सवाल तक नहीं कर पाते।

मज़दूरों की मज़दूरी का भुगतान और पहचान का सवाल

ठेकेदारों द्वारा काम पर रखे गए मज़दूरों में से किसी को भी कानूनी रूप से तयशुदा न्यूनतम मज़दूरी और अन्य कानूनी अधिकार और निर्धारित सुविधाएँ नहीं दी जाती हैं। मज़दूरों को मिलने वाली मज़दूरी में काफी अन्तर है क्योंकि ये मज़दूरी मनमाने ढंग से ठेकेदारों द्वारा तय की गयी है। दिल्ली मेट्रो में अकुशल मज़दूरों को 12 घण्टे के काम के लिए 100 से 140 रुपये प्रतिदिन तक दिये जाते हैं जबकि न्यूनतम वेतन के अनुसार कानूनन एक अकुशल मज़दूर को 12 घण्टे के काम के 284 रुपये मिलने चाहिए। इससे साफ है कि मज़दूरों को उनकी न्यूनतम मज़दूरी से 150 रुपये कम मिल रहे हैं। मज़दूरों को कोई वेतन पर्ची या भुगतान रसीद भी नहीं दी जाती है। इस तरह उनके पास अपने रोज़गार या उसकी अवधि का कोई सबूत नहीं होता है। पहचान के नाम पर मज़दूरों के पास हेलमेट और जैकेट होती है। वैसे नाम के लिए ठेका कम्पनियाँ कुछ मज़दूरों को पहचान पत्र देती भी हैं जो सिर्फ खानापूर्ति होती है, क्योंकि इस कार्ड पर न तो मज़दूरों का जॉब नम्बर होता है न ही काम पर नियुक्ति की तिथि होती है। दूसरी तरफ मेट्रो के लिए काम करने वाले इन निर्माण मज़दूरों को डीएमआरसी ने कोई पहचान पत्र नहीं दिया है और वह उन्हें अपना मज़दूर भी नहीं मानती है। जबकि कानूनन मेट्रो के निर्माण से लेकर प्रचालन तक में लगे सभी ठेका मज़दूरों का प्रमुख नियोक्ता डीएमआरसी है।
अपनी पारदर्शिता का दावा ठोकने वाली दिल्ली मेट्रो के पहियों और खम्भों में न जाने कितने मज़दूरों की लाशें दफ्न हैं। इसका खुलासा अब धीरे-धीरे हो रहा है कि मेट्रो का चमकदार दिखने वाला चेहरा अन्दर से कितना क्रूर है। इसकी तस्वीर एक दैनिक अख़बार की रिपोर्ट बताती है जिसके अनुसार मेट्रो के दस साल के निर्माण कार्य में 200 से ज्यादा मज़दूर मारे गये हैं। अब तक हुए मेट्रो हादसे में जब भी एक से अधिक मज़दूरों, कर्मचारियों और लोगों की मौत हुई है तो उस पर हल्ला मचा है। इस हल्ले के शोर को कम करने के लिए मेट्रो ने मुआवज़े की घोषणा की है। लेकिन दूसरी तरफ जब भी किसी अकेले मज़दूर, कर्मचारी या राहगीर की मौत हुई है तो मेट्रो उससे पल्ला झाड़ने में जुट गया। और इन इक्का-दुक्का मौत पर मुआवज़ा भी नहीं दिया। नांगलोई में मज़दूरों के मरने की बात हो या मन्दिर मार्ग हादसे की घटना, कहीं भी मेट्रो ने मुआवज़ा नहीं दिया। यही नहीं 22 जुलाई को इन्द्रलोक-मुण्डका लाइन पर मारे गये मज़दूर विक्की की मौत पर भी मेट्रो पल्ला झाड़ता नज़र आया।

ठेका कम्पनियों के प्रति डीएमआरसी की वफादारी

दिल्ली मेट्रो के दूसरे चरण के निर्माण एवं अन्य कार्यों में करीब 215 कम्पनियाँ शामिल हैं, जिसमें एलिवेटेड लाइन के निर्माण में गेमन इण्डिया, एल एण्ड टी, एफकॉन, आईडीईबी, सिम्प्लेक्स कम्पनी लगी हुई है जबकि भूमिगत लाइनों के निर्माण में एफकॉन, आईटीसीएल, आईटीडी, सेनबो इंजीनियरिग कम्पनियाँ लगी हुई हैं। इन कम्पनियों का उद्देश्य सिर्फ लाभ कमाना है, सामाजिक ज़िम्मेदारी से इनका कोई सरोकार नहीं हैं। यही वजह है कि मेट्रो की कार्य-संस्कृति भी सामाजिक सरोकारों से बहुत दूर है। तभी तो मज़दूर के शरीर पर लांचर गिरे, पुल टूटकर मज़दूर को दफ्ना दे या मज़दूर ज़िन्दा ही मिट्टी में दफ्न हो जाये, मेट्रो निर्माण में लगी कम्पनियों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। इसका एक उदाहरण लक्ष्मीनगर हादसे की दोषी एफकॉन कम्पनी का है क्योंकि लक्ष्मीनगर हादसे के बाद डीएमआरसी ने एफकॉन कम्पनी पर 10 लाख का ज़ुर्माना लगाने के साथ ही उसे काली सूची में डाल दिया था। लेकिन फिर भी एफकॉन कम्पनी को दूसरे चरण के किसी निर्माण कार्य से अलग नहीं किया गया है।
कैग रपट – भारत के नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में दिल्ली मेट्रो में चल रही कई धाँधलियों पर से पर्दा उठा है। ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए तरह-तरह के हथकण्डे अपनाये जा रहे हैं जिसका ख़ामियाज़ा आख़िरकार मज़दूर की ज़िन्दगियों को ही उठाना पड़ रहा है। इस रपट के मुख्य बिन्दु निम्न थे :
1. मेट्रो रेल पुल और लाइन बनाने में प्रयुक्त सामानों की गुणवत्ता की जाँच ग़ैर-मान्यताप्राप्त प्रयोगशालाओं में होती है। जाँच के समय डीएमआरसी के अधिकारी भी मौजूद नहीं रहते। 2. रपट में कहा गया कि डीएमआरसी की सीधी जबावदेही न तो केन्द्र सरकार के शहरी विकास मन्त्रालय के प्रति है और न ही साफ तौर पर दिल्ली सरकार के प्रति। 3. कैग ने चार ठेकों में घोटाले की आशंका के बावजूद डीएमआरसी की ओर से कोई जाँच न होने पर हैरानी जताई है और कई मामलों में रिकार्ड के रखरखाव की कमी पायी गयी है। 4. लक्ष्मीनगर हादसे की दोषी एफकॉन इण्डिया को 10 लाख का ज़ुर्माना लगाने के साथ ही काली सूची में डाल दिया गया था लेकिन दूसरे चरण के काम में एफकॉन लगातार काम कर रहा है। 5. मेट्रो ने सरकार से 14 से 354 फीसद अधिक ज़मीन ली थी लाइन बिछाने के लिए, लेकिन वहाँ बना दिये शॉपिंग मॉल और शोरूम ताकि मुनाफा पीटा जा सके।
एक और आरटीआई के जवाब में मेट्रो ने बताया है कि डीएमआरसी का एक माह का शुद्ध मुनाफा 17 करोड़ है। ज़ाहिर है कि दिल्ली मेट्रो स्तरीय परिवहन सुविधा देने के नाम पर अच्छी-ख़ासी कमाई का ज़रिया भी बन गया है। मज़दूरों का ख़ून-पसीना निचोड़कर बटोरी जा रही इस कमाई में मज़दूरों का कोई हिस्सा नहीं है – इस कमाई से मेट्रो के अफसर मौज कर रहे हैं।
दिल्ली मेट्रो की चमकती इमारतों की नींव में मज़दूरों की हड्डियाँ दफन हैं। आज मेट्रो के निर्माण कार्यों और अन्य कामों में लगे मज़दूर नारकीय परिस्थितियों में काम कर रहे हैं। लेकिन यह ऐसे ही नहीं चलता रहेगा। मज़दूरों ने आवाज़ उठाना शुरू कर दिया है और उसे लाख कोशिश करके भी दबाया नहीं जा सकता। इतिहास का चक्का कभी थमता नहीं है। आज अगर श्रम पर पूँजी की ताकतें हावी हैं तो यह संसार का अन्तिम सच कतई नहीं है। मेहनतकश आबादी यूँ ही ख़ून के ऑंसू पीते हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहेगी। मज़दूर वर्ग का नये सिरे से संगठित होना और अपने अधिकारों के लिए फिर से कमर कस लेना तय ही है।

 

बिगुल, अगस्‍त 2009

 


 

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