महाराष्ट्र में मज़दूरों के हितों पर बड़ा हमला
श्रम क़ानूनों में “सुधार” के बहाने रहे-सहे अधिकार छीनने की तैयारी

सत्यनारायण

राजस्थान और मध्यप्रदेश की भाजपा सरकारों के नक़्शे-क़दम पर चलते हुए अब महाराष्ट्र सरकार ने भी श्रम क़ानूनों में सुधार का बहाना बना कर मज़दूरों के अधिकारों पर बड़ा हमला बोल दिया है। ‘मेक इन इण्डिया’ की नरेन्द्र मोदी की नीति की तर्ज पर ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस ने ‘मेक इन महाराष्ट्र’ को अपना आदर्श वाक्य बनाया है व इसके लिए पूँजीपतियों को पर्यावरण सम्बन्धी छूटें देने, सस्ती या मुफ्त ज़मीन देने, करों में छूट देने व श्रम क़ानून खत्म कर देने की ओर कदम बढ़ा दिया है।

महाराष्ट्र के श्रम विभाग ने तीन क़ानूनों फ़ैक्टरी एक्ट 1948, इण्डस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट 1947 और ठेका क़ानून 1971 में वही संशोधन प्रस्तावित किये हैं जो राजस्थान सरकार ने लागु किये हैं। चूँकि केन्द्र सरकार भी इन क़ानूनों को लागु करने में कोई अड़चन पैदा नहीं करने वाली, इसलिए ये संशोधन बिना किसी कठिनाई के क़ानून बन जायेंगे।

exploitation1अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए हर पूँजीपति ये चाहता है कि उसे मज़दूरों को काम से निकालने, फैक्टरी बन्द करने आदि की असीमित छूट मिले। इसी को ध्यान में रखते हुए महाराष्ट्र सरकार ने इण्डस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट 1947 के उस प्रावधान को बदलने की तैयारी कर ली है जिसमें किसी भी ऐसी फ़ैक्टरी, जिसमें 100 से ज्यादा मज़दूर काम करते हों, को बन्द करने या मज़दूरों को काम से निकालने के लिए सरकार की अनुमति की जरूरत पड़ती थी। अब इस सीमा को बढ़ाकर 300 मज़दूर तक किया जा रहा है। गौरतलब है कि पूरे महाराष्ट्र में लगभग 41000 औद्योगिक इकाइयाँ हैं जिसमें से 39000 में 300 से कम मज़दूर काम करते हैं यानि इस क़ानून के लागु होने की सूरत में यहाँ के 95 फीसदी मालिकों को छंटनी करने की छूट मिल जायेगी। बेशर्मी की इन्तेहा ये है कि ऐसे कदमों को सरकार, मीडिया से लेकर बड़े बड़े धन्नासेठ जायज़ ठहरा रहे हैं (आखिर उनके फायदे का जो है!)। इण्डियन मर्चेण्टस चैम्बर के अध्यक्ष प्रबोध ठक्कर ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा “आदिम श्रम क़ानूनों की वजह से उत्पादन दर बुरी तरह प्रभावित होती है। उद्योगपति उन देशों में निवेश करना पसन्द करते हैं, जहाँ के श्रम क़ानून लचीले हों। बिना नौकरी के श्रम सुरक्षा का भी क्या मतलब है?”

इसी तरह श्रम विभाग ने फ़ैक्टरी एक्ट 1948 में भी संशोधन प्रस्तावित किया है। फ़ैक्टरी एक्ट के लागू होने की शर्त के रूप में अब मज़दूरों की संख्या को दोगुना कर दिया है। अब फ़ैक्टरी एक्ट 20 या इससे ज़्यादा मज़दूरों (जहाँ बिजली का इस्तेमाल होता हो) तथा 40 या इससे ज़्यादा मज़दूरों (जहाँ बिजली का इस्तेमाल न होता हो) वाली फ़ैक्टरियों पर ही लागू होगा। इस तरह सीधे-सीधे बड़ी संख्या में छोटे फ़ैक्टरी मालिकों को फ़ैक्टरी एक्ट से बाहर कर दिया गया है। वैश्विक असैम्बली लाइन के इस दौर में ज्यादातर मालिक अलग अलग जगहों (जहाँ जो चीज सस्ती मिले व श्रम सस्ता मिले के फॉर्मूले के हिसाब से) पर अपने उत्पादों का एक एक हिस्सा बनवाते हैं व बाद में किसी एक जगह उसे असेम्बल किया जाता है। इससे ना सिर्फ फैक्टरी का आकार छोटा हो जाता है बल्कि संगठित श्रम उभार से भी बचने में मदद मिलती है। साथ ही बहुत सारा काम लोगों से घरों में या फिर छोटी छोटी वर्कशॉपों में करवा लिया जाता है। फ़ैक्टरी एक्ट के ऊपर वर्णित संशोधन से देश में बड़ी तादाद में मौजूद छोटी फ़ैक्टरियों के मालिकों को मज़दूरों को लूटने की खुली छूट मिल जायेगी।

ठेका एक्ट, 1970 भी अब 20 या इससे ज़्यादा मज़दूरों वाली फ़ैक्टरी पर लागू होने की जगह 50 या इससे ज़्यादा मज़दूरों वाली फ़ैक्टरी पर लागू होगा। गौरतलब है कि आज देश की मज़दूर आबादी का 92 फीसदी हिस्सा असंगठित है जिसके लिए पहले से ही बहुत कम श्रम क़ानून हैं व जो हैं वो भी लागु नहीं होते हैं। ठेके, दिहाड़ी, कॉण्ट्रेक्ट आदि हथकण्डों से मज़दूरों की गहन लूट को सम्भव बनाया जाता है। ऐसे में ओर ज्यादा मज़दूरों को क़ानूनी रूप से अरक्षित करने में इस संशोधन की बड़ी भूमिका रहेगी व राज्य के ठेका मज़दूरों की लूट को विस्तार देने के लिए देश के धन्नासेठ देवेन्द्र फड़नवीस की भाजपा सरकार के आभारी रहेंगे।

मई 2014 में देशभर की जनता के बीच ‘अच्छे दिन’ का शिगुफा उछालकर सत्ता में आयी भाजपा ने गद्दी सम्भालते ही अपना असली रंग दिखाना चालु कर दिया था। केन्द्र में नरेन्द्र मोदी नीत भाजपा सरकार नित ऐसी नीतियाँ लागु कर रही है जो देशभर की मेहनतकश जनता के बुरे दिन लेकर आएंगी व उन्ही के पद-चिह्नों पर चलते हुए देवेन्द्र फड़नवीस भी महाराष्ट्र की मेहनतकश जनता के हितों को ताक पर रख अमीरजादों के अच्छे दिन लाने में जुटे हुए हैं। मज़दूरों को इन “अच्छे दिनों” का असली अर्थ अब अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2015

 


 

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