‘वज़ीरपुर मज़दूर’ अख़बारः लफ्फ़ाज़ी का नया नमूना

सनी

वजी़रपुर में पिछले साल हुई हड़ताल ने मालिकों की कमर तोड़ कर रख दी। मुख्यतः 8 घंटे काम के लिए छिड़ा यह संघर्ष वज़ीरपुर की ऐतिहासिक लड़ाई बन गया। फैक्टरी मालिक और श्रम विभाग को अपनी माँगों पर झुकाने के बावजूद हड़ताल भले ही आंशिक तौर पर ही सफल हुई हो पर इसने मज़दूरों को बेहद ज़रूरी सीखें दीं। हड़ताल के अन्दर से ही तपकर मज़दूरों की अपनी यूनियन दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन निकली। इस हड़ताल के दौरान मज़दूरों ने तमाम किस्म के आंदोलनकर्ताओं को देखा। रघुराज से लेकर इंकलाबी मज़दूर केन्द्र सरीखे गद्दारों को खदेड़कर भगा दिया गया। मज़दूरों ने सीखा कि संघर्ष के रूपों में क्रान्तिकारी तरीक़ा और सही दिशा लागू की जाये तो संघर्ष को जीता जा सकता है और अगर दिशा ठीक न हो और उसका पालन ठीक से न हो तो आन्दोलन बिखरते देर नहीं लगती है।

सिर्फ वज़ीरपुर ही नहीं मज़दूर आन्दोलन के पूरे इतिहास में तमाम किस्म की विचारधाराओं वाले समूह-संगठन सक्रिय हैं जिनसे संघर्ष कर ही सही क्रान्तिकारी लाइन मज़दूरों के बीच स्थापित होगी। वजी़रपुर में पिछले महीने से ख़ुद को “दिमागी मज़दूर” कहने वाले बुद्धिजीवियों का “वज़ीरपुर मज़दूर” नामक अखबार निकल रहा है। मज़दूर आंदोलन के प्रति इनकी प्रतिस्थापनाएँ गलत व बचकानी हैं जिनके खिलाफ़ डटकर संघर्ष करना होगा। हम इनकी मुख्य धारणाओं पर संक्षेप में अपनी बात रखकर इनके खिलाफ़ संघर्ष का बिगुल फूँकते हैं। यह अखबार मुख्यतः सिर्फ़ कारखानों की रिपोर्टों और मज़दूरों के द्वारा एक दूसरे से अनुभव साझा करने तक सीमित है। हर सम्पादकीय में इन्होंने मज़दूरों द्वारा खुद की मुक्ति की बात दुहराई है। यह बात सही है कि मज़दूर अपनी मुक्ति ख़ुद करता है परन्तु इस सवाल का जवाब ये नहीं देते कि यह कैसे होगा। इनके मुँह से ही इनकी बातें सुन लेते हैं। ये कहते हैं कि वे बातें अधिक ज़रूरी हैं जो “…मज़दूर रोज़़मर्रा की अपनी लड़ाइयों में बनाते रहते हैं। और इनकी खबर किसी को नहीं होती। कभी कभी तो ख़ुद काम करने वालों को भी नहीं। ‘वज़ीरपुर मज़दूर’ ऐसी ही खबरों से बनते नये आंदोलन का हिस्सा बनने की एक छोटी सी कोशिश है। मज़दूरी-काम-ठेका के इस पूरे घनचक्कर से मुक्ति पाने के लिए कोई मसीहा नहीं आएगा। इस घोर कलयुग का अंत करने कोई कल्कि अवतार नहीं लेगा – कि जिसे वोट देकर एक दिन हम चुन लेंगे! अपना राजा मान लेंगे! कामगारों के एक पुराने सिपाही ने बहुत सही कहा था – ‘मज़दूर अपनी मुक्ति ख़ुद रचेगा।’… इसलिए हमें अपना मसीहा ख़ुद होना होगा। अपने संघर्षों को संगठित करना होगा।” अख़बार के दूसरे अंक में केजरीवाल सरकार का घेराव कर हक़ अधिकार के लिए प्रचार करने के सम्बन्ध में ये कहते हैं “…हम लोग माइक लगाकर क्यों घूमें? और हम लोग सचिवालय का घेराव क्यों करें? तुम करो हम साथ में आयेंगे। हम लोग अपनी जगह के मज़दूरों को लायेंगे। तुम यहाँ के मज़दूरों को इकट्ठा करो। तुम ही तो कह रहे थे सरकार और यूनियन तुम्हारी प्रतिनिधि है। पर करती कुछ नहीं। हमारा तो कहना है कि नेताओं के भरोसे रहोगे तो कुछ नहीं पाओगे। ऐसा ही चलता रहेगा। ख़ुद कीजिएगा तो हम सब साथ हो जायेंगे।”

‘मज़दूर अपनी मुक्ति ख़ुद रचेगा’ – ये शब्द मज़दूरों के नेता व मज़दूर राज यानी समाजवाद के सिद्धांतकार मार्क्स के हैं। परन्तु मार्क्स इतना ही नहीं कहते। आगे वे कहते हैं कि मज़दूर वर्ग को मुक्त होने के लिए समाजवादी विचारधारा को अपनाना होता है जो मौजूदा ढाँचे में चल रहे वर्ग युद्ध में मज़दूर वर्ग का मार्ग दर्शन करती है। मज़दूर वर्ग का हिरावल दस्ता इस विचारधारा को अपनाता है यानी मज़दूरों की अपनी क्रान्तिकारी पार्टी समाजवादी विचारधारा के आधार पर मज़दूर मुक्ति का रास्ता तैयार करती है। परन्तु वज़ीरपुर मज़दूर अखबार के अनुसार यह चेतना तो स्वयं मज़दूर वर्ग में पैदा हो सकती है। यह स्वतःस्फूर्ततावाद है। ‘वज़ीरपुर मज़दूर’ अखबार मज़दूर आंदोलन स्वतःस्फूर्ततावाद की प्रवृत्ति का वाहक है जिसे इतिहास में मज़दूर नेताओं ने पहले भी नंगा किया है। स्वयं मज़दूर वर्ग द्वारा मज़दूर मुक्ति की बात करने वालों का जवाब देते हुए काउत्स्की (गद्दार होने से पहले) ने लिखा है “आधुनिक समाजवादी चेतना केवल गहन वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर ही उत्पन्न हो सकती है। सच तो यह है कि समाजवादी उत्पादन के लिए आधुनिक आर्थिक विज्ञान उतना ही ज़रूरी है, जितनी कि आधुनिक प्रौद्योगिकी…” तथा “समाजवादी चेतना एक ऐसी चीज़ है जो सर्वहारा के वर्ग संघर्ष में बाहर से लायी जाती है और वह कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो इस संघर्ष के अन्दर से स्वतःस्फू्र्त रूप से पैदा हो जाती है।” इस बात को पूरा करते तथा स्पष्ट करते हुए लेनिन कहते हैं कि “बेशक, इसका मतलब यह नहीं कि इस प्रकार की विचारधारा पैदा करने में मज़दूर कोई भाग नहीं लेते, पर वह उसमे मज़दूरों की हैसियत से नहीं, बल्कि समाजवादी सिद्धान्तकारों की हैसियत से, प्रूदों, वाइटलिंग जैसे लोगों की हैसियत से भाग लेते हैं। दूसरे शब्दों में, विचारधारा को उत्पन्न करने में मज़दूर केवल उसी समय और उसी हद तक भाग लेते हैं, जिस समय और जिस हद तक वे अपने युग के ज्ञान पर न्यूनाधिक रूप में अधिकार प्राप्त करने तथा उस ज्ञान को और विकसित करने में समर्थ होते हैं। और यदि हम चाहते है कि मज़दूरों में यह काम कर पाने की क्षमता बढ़े, तो हमें आम मज़दूरों की चेतना के स्तर को ऊपर उठाने की हर मुमकिन कोशिश करनी पड़ेगी; मज़दूरों को यह करना पड़ेगा कि वह अपने को “मज़दूरों के साहित्य” की बनावटी सीमाओं में बंद न रखें और आम साहित्य पर अधिकाधिक अधिकार प्राप्त करना सीखें। “अपने को बंद न रखें” की जगह “उन्हें बंद न रखा जाए” कहना ज्यादा सही होगा, क्योंकि मज़दूर ख़ुद वह साहित्य पढ़ते हैं और पढ़ना चाहते हैं, जो बुद्धि‍जीवियों के लिए लिखा जाता है और यह चंद (बुरे) बुद्धि‍जीवियों का ही विचार है कि कारखानों की हालत के बारे में दो-चार बातों को बता देना और पुरानी जानी हुई बातों को बार-बार दोहराते रहना ही “मज़दूरों के लिए” काफ़ी है।” ‘वज़ीरपुर मज़दूर’ अखबार लिखने वाले कितना ही अपने को दिमाग़ी मज़दूर बता लें, वास्तव में ये “चन्‍द (बुरे) बुद्धि‍जीवी” हैं जो मज़दूरों को “मज़दूरों के साहित्य” की बनावटी सीमाओं में बन्द रखना चाहते हैं। ये बुरे ही नहीं ख़तरनाक भी हैं क्योंकि ये मज़दूरों की पार्टी की बात किये बग़ैर ही मुक्ति शब्द दुहराते हैं, “सचेतन तत्व” के बरक्स वे स्वतःस्फूर्ततावाद का जश्न मनाते हैं। ये हमेशा मज़दूरों को नेतृत्व देने की जगह उनके पीछे चलने के हिमायती हैं। ये ख़तरनाक इसलिए हैं क्योंकि अपने आप में स्वतःस्फूर्ततावाद बुज़ुर्आ वर्ग की ही विचारधारा है। लेनिन के शब्दों में, “जो कोई भी मज़दूर आन्दोलन की स्वयं स्फूर्तता की पूजा करता है, जो कोई भी “सचेतन तत्व” की भूमिका को, सामाजिक जनवाद की भूमिका को, कम करके आँकता है, वह चाहे ऐसा करना चाहता हो या न चाहता हो, पर असल में वह मज़दूरों पर बुर्जुआ विचारधारा के असर को मज़बूत करता है।” लेनिन स्पष्ट करते हैं कि “स्‍वयं स्फूर्त आन्दोलन का, कम से कम विरोध के मार्ग पर विकसित होने वाले आन्दोलन का यह परिणाम क्यों होता है कि बुर्जुआ विचारधारा का प्रभुत्व हो जाता है? इसका कारण केवल यह है कि उत्पत्ति की दृष्टि से बुर्जुआ विचारधारा समाजवादी विचारधारा से बहुत पुरानी है, वह अधिक विकसित है और उसे फैलने की कई अधिक सुविधाएँ मिली हुई हैं।” हालाँकि यह बात ठीक है कि “…मज़दूर वर्ग स्वयंस्फूर्त ढंग समाजवाद की ओर खिंचता है, परन्तु फिर भी अधिक व्यापक रूप से फैली हुई बुज़ुर्आ विचारधारा (जो नाना रूपों में पुनर्जीवित की जाती रहती है) स्वयं स्फूर्त ढंग से अपने को मज़दूर वर्ग के ऊपर और भी ज़्यादा मात्र में लादती रहती है।”(लेनिन) ‘वज़ीरपुर मज़दूर’ अखबार में मज़दूरों के ‘रोज़मर्रे के संघर्षों’ के आधार पर खड़े होने वाले नये संघर्षों को सबसे ज़रूरी बताया गया है। स्वतःस्फूर्ततावाद का मूल यही है कि मज़दूर के रोज़़मर्रे के संघर्षों को चलाना न कि समाजवाद या सरकार का राजनीतिक भंडाफोड़ करना। मज़दूर आंदोलन का अर्थवादी भटकाव ही स्वतःस्फूर्तवाद के मूल में है। यानी कि मज़दूरों के वेतन भत्ते की लड़ाई लड़ते रहना। परन्तु जिसे ये मूर्ख नया बता रहे हैं वह मज़दूर आंदोलन के पैदा होने के समय से ही मौजूद है। पूँजीपति वर्ग की सरकार को भी मज़दूरों को आर्थिक रियायतें देने में कोई दिक्कत नहीं होती है। क्योंकि “आर्थिक रियायतें (या झूठी रियायतें), ज़ाहिर है, सरकार के दृष्टिकोण से सबसे सस्ती और सबसे अधिक लाभदायक होती हैं, क्योंकि उनके ज़रिये उसे आम मज़दूरों का विश्वास प्राप्त करने की आशा होती है।” (लेनिन) यानी ‘वज़ीरपुर मज़दूर’ अखबार मज़दूर अख़बार मज़दूरों को ख़ुद मुक्त करने के नाम पर अन्त में सिर्फ़ इस व्यवस्था के घनचक्कर में ही फँसाये रखना चाहता है। दरअसल ख़ुद को दिमाग़ी मज़दूर बताने वाले ये बुरे बुद्धिजीवी लफ्फ़ाज़ हैं और हमें लेनिन की यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि लफ्फ़ाज़ मज़दूर वर्ग के सबसे बुरे दुश्मन होते हैं क्योंकि ये मज़दूरों के अपने होने का दावा कर उनमें भीड़ वृत्ति को जागृत करते हैं और आन्दोलन को अंदर से खोखला करते हैं। अभी तक निकले ‘वज़ीरपुर मज़दूर’ के दो अंकों में इन्होंने जमकर लफ्फ़ाज़ी की है। मज़दूरों को इन लफ्फ़ाज़ों को आंदोलन से दूर कर देना चाहिए। आगे भी हम लगातार इनके द्वारा फैलाए भ्रम पर चोट करते रहेंगे परन्तु मूलतः उपरोक्त विश्लेषण को दिमाग़ में रखते हुए मज़दूरों को इनका भंड़ाफोड़ करना होगा।

 

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2015


 

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