उथल-पथल से गुज़रता दक्षिण अफ्रीका का मज़दूर आन्दोलन

तपीश

दक्षिण अफ्रीका का मज़दूर आन्दोलन भीषण ठहराव और टूट-फूट के दौर से गुज़र रहा है। पिछले वर्ष नवम्बर में कोसाटू (दक्षिण अफ्रीकी ट्रेड यूनियनों का महासंघ) से नुमसा (धातु कामगारों का राष्ट्रीय संघ) के निकाले जाने की घटना के बाद हाल में नुमसा द्वारा मई 2015 में संयुक्त मोर्चे के गठन और मज़दूरों की एक अलग समाजवादी पार्टी के निर्माण की कोशिशों की ख़बरें आ रही हैं।

पाठकों को बता दें कि दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष में और रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष में दक्षिण अफ्रीकी मज़दूरों के जुझारू संगठित प्रतिरोध का शानदार इतिहास रहा है। ख़ासतौर पर 1970 और 1980 के दशक में मज़दूर प्रतिरोध का व्यापक उभार हुआ। इस दौरान मज़दूरों ने बड़े पैमाने पर संगठन बनाये और छात्रों, युवाओं, बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर राजनीतिक संघर्षों में बड़े पैमाने पर शिरकत की। 1980 के उत्तरार्द्ध में राजनीतिक संघर्षों का उफान इतना तेज़़ था कि 1986 में आपातकाल की घोषणा कर दी गयी और विद्रोह के केन्द्रों में हज़ारों लोगों को क़त्ल कर दिया गया, जिनमें बहुत बड़ी संख्या मज़दूरों की थी। 1990 में साम्राज्यवादी शासकों को मजबूर होकर एएनसी (अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस) से समझौता करना पड़ा और इस तरह दक्षिण अफ्रीकी बुर्जुआ जनतान्त्रिक गणराज्य अस्तित्व में आया। 1994 में पहली बार अश्वेत आबादी को मताधिकार हासिल हुआ और उसने आम चुनाव में नेल्सन मण्डेला को अपना पहला अश्वेत राष्ट्रपति चुना।

जनता को नये निज़ाम से बहुतेरी उम्मीदें थीं। 1990 में नेल्सन मण्डेला ने 1955 के फ़्रीडम चार्टर को लागू करने की बात कही। इस चार्टर के अनुसार खदानों और उद्योग-धन्धों के राष्ट्रीयकरण एवं ज़मीनों का पुनर्वितरण होना था। लेकिन सत्ता सँभालने के बाद एएनसी ने इसे लागू करने से साफ़ इनकार कर दिया। यहाँ यह ध्यान में रखना होगा कि 1990 तक पूरी दुनिया की तस्वीर बदल चुकी थी, चीन और रूस में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो चुकी थी तथा निजीकरण व उदारीकरण की हवा ज़ोरों पर थी। दक्षिण अफ्रीकी समाज के भीतर भी बहुतेरे बुनियादी परिवर्तन हो रहे थे। 1994 में वहाँ 18 लाख की एक छोटी सी आबादी वाला अश्वेत मध्यवर्ग अस्तित्व में आ चुका था जिसके हित पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के साथ नत्थी हो चुके थे। आज इस मध्यवर्ग की संख्या 60 लाख से भी अधिक है और इसमें अश्वेत पूँजीपतियों की संख्या भी अच्छी-ख़ासी है।

अगर इन आम हालातों के सन्दर्भ में देखा जाये तो अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस द्वारा अफ्रीकी जनता को ठेंगा दिखाकर पूँजीपति वर्ग के पक्ष में नंगई के साथ खड़े होकर मज़दूर विरोधी नीतियों को लागू करने की मुहिम में कुछ भी हैरानी की बात नहीं है। मज़ेदार बात यह है कि दक्षिण अफ्रीका की कम्युनिस्ट पार्टी (एसएसीपी) और वहाँ के सबसे बड़े मज़दूर संघ कोसाटू ने भी इन पूँजीपरस्त नीतियों को खुला समर्थन दिया।

SAFRICA - METAL - WORKERS -STRIKEदक्षिण अफ्रीका के मज़दूरों को एएनसी, एसएसीपी और कोसाटू के गन्दे त्रिगुट द्वारा पूँजी की विनाशकारी सत्ता के समक्ष असहाय छोड़ दिया गया। जल्द ही इन पूँजीपरस्त नीतियों के परिणाम भी सामने आगे लगे। दक्षिण अफ्रीका के अलग-अलग हिस्सों में बेरोज़गारी की दर 30 से 50 प्रतिशत तक बढ़ गयी। मज़दूरियों में भारी गिरावट आयी और मज़दूरों की काम की परिस्थितियाँ बहुत ख़राब हो गयीं। मज़दूरों के वेतनों में ज़बरदस्त कटौतियाँ की जाने लगीं। वॉक्सवैगन (कार बनाने वाली कम्पनी) जैसी कम्पनियों ने काम के दिन सप्ताह में 5 दिन से बढ़ाकर 6 दिन कर दिये। एक कार्यदिवस के दौरान मिलने वाले 2 इंटरवल तथा 2 चायब्रेक को घटाकर एक कर दिया गया। विरोध करने वाले मज़दूरों और उनके नेताओं को काम से निकाला जाने लगा। सन 2012 में मरिकाना प्लेटिनम खदान मज़दूरों के आन्दोलन को राज्यसत्ता के हाथों जघन्य हत्याकाण्ड का सामना करना पड़ा जिसमें 34 खदान मज़दूरों को पुलिस ने गोलियों से भून दिया। केवल 2009 से 2012 के बीच दक्षिण अफ्रीकी जनता ने 3000 विरोध प्रदर्शन किये जिनमें लाखों लोगों ने हिस्सा लिया।

पूँजीपति वर्ग की इन कट्टर आर्थिक नीतियों और उन्हें लागू करने में दमनकारी तौर-तरीक़ों के विरुद्ध मज़दूरों की प्रतिक्रिया अवश्यम्भावी थी। कोसाटू के भीतर मौजूद नुमसा (धातु मज़दूरों की राष्ट्रीय यूनियन) इन नीतियों का विरोध कर रही थी। इस यूनियन ने सन 2013 के आम चुनावों से ठीक पहले स्वयं को एएनसी से अलग कर लिया था और मज़दूरों से अपील की थी कि वे एएनसी को वोट न दें। इसके परिणामस्वरूप नवम्बर 2014 में नुमसा को कोसाटू से अलग कर दिया गया। इस तानाशाही कार्रवाई के विरोध में 9 अन्य यूनियनों ने भी स्वयं को कोसाटू से अलग होने की घोषणा कर दी।

हाल ही में नुमसा द्वारा मई 2015 में संयुक्त मोर्चे के गठन का प्रस्ताव किया गया है और मज़दूरों की एक स्वतन्त्र समाजवादी पार्टी बनाने की घोषणा भी की गयी है। नुमसा के क्रान्तिकारी नेतृत्व की तमाम नेकनीयत के बावजूद यह सम्भव नहीं लगता कि वे अपने इरादों में सफल हो पायेंगे। इसके मूल में राजनीतिक कारक काम कर रहे हैं। नुमसा का नेतृत्व आज भी नवजनवादी क्रान्ति की बात करता है और दक्षिण अफ्रीका में पूँजीवादी विकास और अन्तरराष्ट्रीय हालातों में हुए महत्वपूर्ण बदलावों को या तो नज़रअन्दाज़ करता है या फिर उन्हें चीन की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा 1963 में दी गयी नवजनवादी क्रान्ति की जनरल लाइन के अनुरूप काट-छाँट कर देखने का आदी है।

दक्षिण अफ्रीका का मज़दूर आन्दोलन तभी आगे की ओर डग भर सकता है जब वह दक्षिण अफ्रीका में हुए पूँजीवादी विकास और उसके तदनुरूप वर्ग शक्ति सन्तुलन में आये बदलावों का समुचित मूल्यांकन करे और चीनी क्रान्ति से सीखते हुए भी उसकी महानता की छत्रछाया से स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करे।

मज़दूर बिगुल, मई 2015


 

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