वे घबरा चुके हैं

सतीश छिम्पा

वे घबरा चुके हैं

हमारे सीने में उफनते तूफानों से

वे घबरा चुके हैं

हमारे सृजन सरोकारों से

वे घबरा चुके हैं

हमारी अध्ययन गति

और वैचारिक प्रतिबद्धता से

वे डर गये हैं

शिखरों को छूने के हमारे सपनों से

उन्हें भय है

कि हम नेरूदा, लोर्का, ब्रेष्ट और पाश के वंशज

उनकी ठहरी हुई

गुलाम मानसिकता

और

पूँजी के लिए घिसटते

उनके सामाजिक

साहित्यिक जीवन को

अपनी कलम की नोक पर टाँगकर

इतिहास के कूड़ेदान में न डाल दें

उनकी आलोचना

कुन्द पड़कर

घटिया लांछनों में बदल गयी है

उनकी जुबान पर झूठे आरोप है

हमारे हाथों में

नाज़िम हिकमत की किताब पर

मुस्कुराती है कोई एक कविता

हम

तूफानों पर सवार हो

रचते हैं

सत्ता के माथे पर

परिवर्तन के गीत

वे

डरे हुए

ईर्ष्या से

ख़ुद के दिलों के बंजरपन पर

झल्लाते

लगाते हैं

हमारे सृजन

और प्रतिबद्धता पर पहरे

क्योंकि

उनका जीवन

दरबार की घुड़साल में

पूँजी पद प्रतिष्ठा का

चारा चर रहा है

मज़दूर बिगुल, मई 2015


 

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