आखि़र आपके गुप्तांगों की तस्वीर और डीएनए मैपिंग क्यों चाहती है सरकार?

तपिश

शासक वर्ग जनमानस में राज्य और कानून की पवित्रता के मिथक को सुनियोजित ढ़ंग से स्थापित करता है। जनता को यह सोचने की आदत डाली जाती है कि हर कानूनसम्मत कार्रवाई हमेशा ही न्यायपूर्ण होती है। इस तरह राज्य और कानून, जो वास्तव में शोषक वर्ग द्वारा शोषितों को बलपूर्वक नियंत्रित करने का औज़ार होता है, को आलोचना और तर्क से परे घोषित कर दिया जाता है। जनता यह नहीं समझ पाती कि कानून विभिन्न वर्गों और सामाजिक संस्तरों के बीच कायम वास्तविक संबंधों का प्रतिबिम्ब होते हैं और हमेशा ही शोषकों के हितों के अनुरूप ढ़ाले जाते हैं। मज़ेदार बात यह है कि यह सारा खेल लोकतंत्र और जनता तथा देश हित के नाम पर खेला जाता है। बहुत बार तो ऐसा भी होता है कि संसदीय राजनीति की जूतम-पैजार के शोर में महत्वपूर्ण विधेयकों के बारे में जनता को पता तक नहीं चल पाता है। इसका हालिया उदाहरण संसद के मानसून सत्र में प्रस्तुत डी एन ए प्रोफाइलिंग विधेयक है।

 

The-surveillance-stateज़्यादातर भारतीय इस बात से अनजान हैं कि सरकार डी एन ए प्रोफाइलिंग विधेयक 2015 लेकर आ चुकी है। इस विधेयक को पास कराने की जल्दबाज़ मानसिकता को इसी से समझा जा सकता है कि सरकार ने इस महत्वपूर्ण विधेयक पर जनता की प्रतिक्रिया के लिए पंद्रह दिनों का समय देना भी उचित नहीं समझा। इस किस्म के विधेयक को लाने का विचार सबसे पहले वर्ष 2003 में अटल बिहारी की सरकार के समय रखा गया था। वर्ष 2007 में इसका पहला मसविदा बनकर तैयार हुआ। इस विधेयक के मसविदे में ज़िन्दा लोगों के शरीर से जाँच के लिए नमूने लेने का प्रावधान है। इसमें गुप्तांग, कुल्हे, स्तन आदि शारीरिक अंग शामिल हैं। नमूने लेने के साथ-साथ शरीर के इन हिस्सों की फोटोग्रापफ़ी और वीडियो रिकार्डिंग करने का भी प्रावधान है। अपने वर्तमान स्वरूप में यह विधेयक न सिर्फ जनता की निजता के अधिकार पर हमला करता है बल्कि इसके कई अन्य प्रावधान इसे एक अनियंत्रित निरंकुश शक्ति प्रदान करते हैं। इस विधेयक की समीक्षा के लिए बनी उच्च स्तरीय विशेषज्ञ कमेटी के दो सदस्यों उषा रामनाथन (कानून विशेषज्ञ) और एक वैज्ञानिक की महत्वपूर्ण आपत्तियों पर सरकार द्वारा षड्यन्त्रकारी चुप्पी साध ली गई है। विशेषज्ञ कमेटी के इन दो सदस्यों ने विधेयक पर आपत्तियाँ दर्ज करते हुए 34 बिन्दुओं का असहमति नोट लिखा था लेकिन हैरानी की बात है कि उनकी इन लिखित आपत्तियों को न सिर्फ मसौदे से हटा दिया गया बल्कि उसकी कहीं पर चर्चा भी नहीं की गई। इससे सापफ़ हो जाता है कि सरकार हर कीमत पर इस काले कानून को अपने वर्तमान रूप में पारित करने के लिए कमर कस चुकी है। यह कानून फौजदारी और दीवानी दोनों मामलों पर लागू होगा। इस कानून के तहत डी एन ए प्रोफाइलिंग बोर्ड का गठन किया जाएगा जिसे असीमित शक्तियाँ दी गई हैं और वह सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से भी लगभग अछूता रहेगा। यह निकाय जनता की डी एन ए संबंधी सूचनाओं को किसी के भी साथ साझा करने के लिए आज़ाद होगा। चूँकि विधेयक फॉरेनसिक जाँच के बजाय डी एन ए जाँच करने की बात करता है इसलिए इसके दुरुपयोग की सम्भावनाएँ बहुत अधिक बढ़ जाती है। इसका अंदाज़ा इसी बात से लग जाता है कि देशी-विदेशी कम्पनियाँ जाँच के लिए इकट्ठा किये गए नमूनों को जेनेटिक प्रयोगों के लिए भी इस्तेमाल कर सकती हैं।

सरकार का दावा है कि कानून बन जाने के बाद मुकदमों का निपटारा तेज़ी के साथ हो सकेगा।  हम सब जानते हैं कि भारतीय अदालतों में देरी की वजहें पुलिस और न्यायिक प्रणाली में मौजूद हैं। मुकदमों में देरी सबूतों के अभाव की वजह से कभी भी नहीं होती है।  इसके अलावा एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि डी एन ए जाँच लागू हो जाने के बाद कोई भी अपराधी बच नहीं पायेगा। जिन मुल्कों में यह पद्धति लागू है वहाँ के विशेषज्ञों की माने तो यह एक सफेद झूठ है। सच्चाई यह है कि घटनास्थल पर डी एन ए के सैम्पल इकट्ठा करने से लेकर जाँच की प्रक्रिया और नतीजों के विश्लेषण तक गलतियाँ होने की न सिर्फ कई सम्भावनाएँ मौजूद रहती है बल्कि वास्तव में गलतियाँ होती भी हैं। इसके भी सैंकड़ों उदाहरण मौजूद हैं जहाँ जानबूझकर किसी अन्य व्यक्ति का डी एन ए घटनास्थल पर रोप दिया गया हो। दूसरा इस कानून के दमनकारी होने का नतीजा इससे भी लगाया जा सकता है कि इसकी ज़द में केवल अपराधी ही नहीं आयेंगें बल्कि वे सारे लोग भी आएंगें जिनका घटना से किसी भी रूप में संबंध जोड़ा जा सकता हो। ब्रिटेन में तो एक ऐसा मामला दर्ज है जहाँ एक बुजुर्ग महिला को इसलिए अपनी डी एन ए प्रोफाइलिंग करवानी पड़ी चूँकि उसने अपने बागीचे में आकर गिरी हुई पड़ोसियों की फुटबाल देने से मना कर दिया था।

इस दमनकारी विधेयक के पक्ष में सरकार के लचर तर्क बतातें हैं कि मामला जनता को इंसाफ़ दिलाने का नहीं बल्कि कुछ और ही है। सरकार के असली इरादों को समझने के लिए जरूरी है कि हम राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों के संदर्भ में इसे समझने का प्रयास करें। उम्मीद है कि अमेरिकी नागरिक एडवर्ड स्नोडेन के मामले को पाठक अभी भूले नहीं होंगे। यह बात जगज़ाहिर हो चुकी है कि अमेरिकी राज्यसत्ता अपने हर एक नागरिक की जासूसी करती है और यह बात दुनिया की करीब-करीब सभी सरकारों पर लागू होती है। 1970 के दशक से तीख़ा होता विश्व पूँजीवाद का ढाँचागत संकट कमोबेश हर राज्य व्यवस्था को संभावित जन-असंतोषों के विस्फोट से भयाक्रांत किये हुए है। एक बात साफ़ है कि जनता पूँजीवादी शासन व्यवस्था की मार को चुपचाप नहीं सहेगी, वह इस व्यवस्था का विकल्प खड़ा करने के लिए आगे आएगी। इस ख़तरे के मद्देनज़र राज्य स्वयं को जनता के विरुद्ध हर किस्म की शक्ति से लैस कर लेना चाहता है। वह चाहता है कि उसके पास अपने नागरिकों के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा सूचनाएँ हों ताकि क्रांतिकारी बदलाव की घड़ियों में इन सूचनाओं का इस्तेमाल अपने विरोधियों यानी संघर्षरत जनता के सफ़ाये के लिये किया जा सके। भारतीय शासन सत्ता भी इसका अपवाद नहीं है। कम ही लोगों को पता है कि भारत सरकार की सी एम एस (सेन्ट्रल मॉनिटरिंग सिस्टम) योजना नागरिकों की जासूसी करने के मामले में अमेरिका को पछाड़ चुकी है। भारत सरकार ने तो कई राज्यों में पुस्तक और पत्र-पत्रिकाओं के विक्रेताओं तक को पाठकों की जासूसी करने के निर्देश दे रखे हैं। आधार कार्ड के ज़रिये अँगूठे के निशान और आँखों की पुतलियों का रिकार्ड भारत सरकार पहले ही जमा कर चुकी है, रही सही कसर डी एन ए प्रोफाइलिंग और गुप्तांगों की तस्वीर लेकर पूरी करने की तैयारी है।

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त-सितम्‍बर 2015


 

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