तर्कवादी चिन्तक कलबुर्गी की हत्या – धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों की एक और कायरतापूर्ण हरकत

पावेल पराशर

30 अगस्त, 2015 की सुबह प्रसिद्ध कन्नड़ साहित्यकार, तर्कवादी चिन्तक, शोधकर्ता और लेखक, अस्सी वर्षीय प्रोफेसर एम.एम. कलबुर्गी की कट्टरपंथी हिन्दुत्ववादी फासिस्टों द्वारा हत्या कर दी गई। कर्नाटक सहित देश भर में सामाजिक कार्यकर्ताओं, छात्रों, शिक्षकों, बुद्धिजीवियों और व कई सामाजिक व जनवादी संगठनों से भारी संख्या में लोगों ने हिन्दुत्ववादी फासिस्टों के इस कायरतापूर्ण कुकृत्य के विरुद्ध रोष और विरोध प्रदर्शन किया। बेंगलुरु में प्रसिद्ध कलाकार गिरीश कर्नाड सहित कला एवं संस्कृति जगत के कई जाने माने व्यक्तियों ने इस घटना के विरोध मार्च में हिस्सा लिया। धारवाड़ व हम्पी विश्वविद्यालय में छात्रों ने जबरदस्त रोष व्यक्त करते हुए हत्यारों को जल्द से जल्द पकड़ने की मांग की। मंगलुरु में भी इस हत्या से स्तब्ध शिक्षकों, छात्रों व अकादमिक तबके के लोगों ने कलबुर्गी को याद किया व श्रद्धांजलि दी। दिल्ली के जंतर मंतर में इस घटना के विरोध में सभा बुलाई गई जिसमें विभिन्न प्रगतिशील, वामपंथी व जनवादी संगठनों ने हिस्सा लिया। इसके अलावा मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद, इलाहाबाद, लखनऊ, गोरखपुर, पटना, वाराणसी, कोलकाता सहित विभिन्न जगहों पर इस कायरतापूर्ण कृत्य के विरोध में प्रदर्शन हुए।

kalburgiप्रसिद्ध साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हो चुके प्रोफेसर कलबुर्गी धारवाड़ स्थिति कर्नाटक विश्वविद्यालय में कन्नड़ विभाग के विभागाध्यक्ष रहे व बाद में हम्पी स्थित कन्नड़ विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। एक मुखर बुद्धिजीवी और तर्कवादी के रूप में कलबुर्गी का जीवन धार्मिक कुरीतियों, अन्धविश्वास, जाति-प्रथा, आडम्बरों और सड़ी-गली पुरानी मान्यताओं और परम्पराओं के विरुद्ध बहादुराना संघर्ष की मिसाल रहा। इस दौरान कट्टरपंथी संगठनों की तरफ से उन्हें लगातार धमकियों और हमलों का सामना करना पड़ा पर इन धमकियों और हमलों को मुंह चिढ़ाते हुए कलबुर्गी अपने शोध-कार्य और उसके प्रचार-प्रसार में सदा मग्न रहे। प्रोफेसर कलबुर्गी एक ऐसे शोधकर्ता और इतिहासकार थे जिनकी इतिहास के अध्ययन, शोध और उद्देश्य को लेकर समझ यथास्थितिवाद के विरुद्ध निरंतर संघर्ष करती थी। साथ ही कलबुर्गी अपने शोध कार्यों को अकादमिक गलियारों से बाहर नाटक, कहानियों, बहस-मुहाबसों के रूप में व्यवहार में लाने को हमेशा तत्पर रहते थे और यथास्थितिवाद के संरक्षकों, धार्मिक कट्टरपंथियों को उनकी यही बात सबसे ज्यादा असहज करती थी और इसीलिए उनकी कायरतापूर्ण हत्या कर दी गई। खुद कलबुर्गी के शब्दों में:

“ऐतिहासिक तथ्यों पर दो तरह के शोध-कार्य होते हैं। एक वह होता है जो सत्य की खोज पर समाप्त हो जाता है, दूसरा उसके आगे जाकर वर्तमान का पथ-प्रदर्शक बनता है… जहाँ पहले किस्म का शोध कार्य महज अकादमिक होता है, वहीं दूसरे वाले में वर्तमान का मार्ग-दर्शन होता है। वक्त का तकाजा है कि इन दूसरे किस्म के शोध कार्यों पर ज़ोर दिया जाए जो इतिहास से मिलने वाली सीख की रौशनी में वर्तमान के सवालों से रूबरू होते हैं।”

प्रोफेसर कलबुर्गी ने पुरातत्व विभाग की खुदाई में मिली प्राचीन कन्नड़ सूक्तियों, पुरालेखों और शिलालेखों के अनुवाद और विवेचन में अद्वितीय योगदान दिया। ग्यारहवीं और बारहवीं सदी में विकसित ‘वाचन साहित्य’ का उन्होंने गहन अध्ययन किया और अनेक शोधपत्र प्रस्तुत करते हुए तत्कालीन पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य के दौर की सामाजिक और आर्थिक परिस्थियों की भी व्याख्या की। उस दौर के प्रसिद्ध तर्कवादी संत बसव द्वारा रचित सूक्तियों को उन्होंने अपने शोध की धुरी बनाया और उसी के आधार पर खुदाई में पाये गये शिलालेखों का आधुनिक कन्नड़ में अनुवाद किया और फिर 22 अन्य भाषाओं में अनुवाद कराया। कलबुर्गी ने अपने जीवनकाल में 103 पुस्तकें लिखीं और 400 से अधिक शोधपत्र प्रस्तुत किये। कलबुर्गी को उनकी ‘मार्ग’ पुस्तक श्रृंखला के लिए जाना जाता है और मार्ग-4 के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया। 12वीं सदी के तर्कवादी संत बसवेश्वर ने कलबुर्गी के शोधकार्यों को तो प्रभावित किया ही, साथ ही उनके द्वारा रचित कई नाटकों का केंद्रबिंदु भी रहे जिनके माध्यम से कलबुर्गी ने मूर्तिपूजा, जातिवाद, काल्पनिक ईश्वर की अवधारणा, पुरानी सड़ी-गली परम्पराओं, धर्म और उसके पाखंडी एजेंटों पर जमकर प्रहार किया और स्त्री उत्पीड़न, दलित उत्पीड़न और साम्प्रदायिकता के प्रतिरोध में नाटकों की एक लम्बी कड़ी का सृजन किया।

हिन्दुत्ववादी संगठनों और खासकर दबंग लिंगायत समुदाय के निशाने पर वे मार्ग श्रृंखला की पहली पुस्तक की वजह से आये जब उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि लिंगायत समुदाय व शैव पंथ के संस्थापक संत चन्नाबसव का जन्म दरअसल बसव की बहन नागलम्बिका और एक दलित जाति के कवि दोहारा कक्कया के विवाह से हुआ था। इस निष्कर्ष को  लिंगायत समुदाय ने अपने कथित ‘उच्च जाति रक्त’ को बदनाम करने की साज़िश के रूप में लिया। ज्ञात हो कि लिंगायत जाति कर्नाटक में बड़े किसानों, ज़मीन्दारों की जाति रही है। इसके अतिरिक्त धार्मिक कट्टरपंथियों द्वारा बहिष्कृत व धार्मिक आडम्बरों पर प्रहार करती यू.आर. अनंतमूर्ति की पुस्तक ‘क्यों गलत है नग्न पूजा’ की प्रशंसा करने और अपने व्याख्यानों व शोधपत्रों में उस पुस्तक में लिखे हुए तथ्यों का उद्धरण देने की वजह से भी उन्हें विश्व हिन्दू परिषद, राम सेने और बजरंग दल जैसे फासीवादी संगठनों के हमलों का सामना करना पड़ा।

एक शोधकर्ता, अकादमिशियन, शिक्षाविद, तर्कवादी साहित्यकार व बुद्धिजीवी के रूप में उनका जीवन संघर्ष और फासीवादियों द्वारा की गयी उनकी हत्या यह गवाही देती है कि फासीवादी किस चीज़ से सबसे ज़्यादा ख़ौफ़ खाते हैं। वे डरते हैं तर्क से, विज्ञान से, शोध से, सत्य के अन्वेषण से और अन्ततोगत्वा ज्ञान से। यह हत्या तर्कवादियों की हो रही सिलसिलेवार हत्याओं की कड़ी है जिसके शिकार महाराष्ट्र में नरेंद्र दाभोलकर और कॉमरेड गोविन्द पानसरे भी हो चुके हैं। फासीवादियों ने सत्ता में आने के बाद बेखौफ़ होकर अब हत्याओं का सिलसिला शुरु कर दिया है। उनकी निर्भयता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कलबुर्गी की हत्या के दिन ही बजरंग दल मंगलुरु इकाई के संयोजक भुवित शेट्टी ने खुलेआम ट्विटर पर इस हत्या का स्वागत करते हुए लगे हाथ एक और तर्कवादी साहित्यकार के.एस. भगवान को भी जान से मारने की धमकी दे डाली। खुद को संसद-विधानसभा में भगवा गिरोह का विपक्ष कहने वाली कांग्रेस ने न सिर्फ हिंदुत्व की नई प्रयोगशाला कर्नाटक में धार्मिक फासीवादियों के प्रति नरम रुख अपनाया है बल्कि उन्हें संरक्षण भी दिया है। आज के दौर में जब जनता की ज़ुबान पर ताला लगाने के षडयंत्र पूरे देश में चल रहे हैं उस दौर में अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाना और उसकी आज़ादी के लिए जुझारू संघर्ष करना आज के समय की एक मूलभूत मांग है।

 

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त-सितम्‍बर 2015


 

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