नववर्ष के अवसर पर
गुज़रे दिनों की नाउम्मीदियों और आने वाले दिनों की उम्मीदों के बारे में कुछ बातें
समस्याओं, चुनौतियों और ज़िम्मेदारियों के बारे में कुछ बातें

सम्‍पादक मण्‍डल

इक्कीसवीं शताब्दी का एक और वर्ष बीत चुका है और 2007 का वर्ष आ चुका है। पहले के वर्षों की ही तरह गुजरा हुआ वर्ष भी व्यापक मेहनतकश जनता के लिए लगातार बढ़ती बेचैनी और घुटन से भरा हुआ एक और वर्ष रहा है। शासक वर्गों के विभिन्न धड़े जनता से निचोड़े गये मुनाफ़े के बँटवारे के लिए आपस में लड़ते रहे हैं, जाति और धर्म के नाम पर जनता को बाँटने के लिए बुर्जुआ राजनीतिक पार्टियाँ नये–नये मुद्दे उछालकर बदस्तूर वोट बैंक की राजनीति करती रही हैं, संसदीय सुअरबाड़े में पूँजी के वफ़ादार चाकर फालतू की बहसबाज़ी करते रहे हैं या सोते ऊँघते रहे हैं तथा समूचे शासक वर्ग और उनकी सभी राजनीतिक पार्टियों की आम सहमति से नवउदारवादी आर्थिक नीतियाँ बेलगाम लागू होती रही हैं और आम लोगों पर कहर बरपा करती रही हैं। गाँवों में पूँजी की मार लगातार छोटे–मँझोले किसानों को उनकी जगह–ज़मीन से उजाड़कर सड़कों पर धकेलती रही है और उजरती गुलामों की कतारों में इजाफ़ा करती रही है और किसानों की आत्महत्याओं के आँकड़े लगातार बढ़ते रहे हैं। महानगरों की सड़कें पर उमड़ते सर्वहाराओं के हुजूम को काबू में रखने और बाहरी इलाकों में धकेलने के लिए पूँजीवादी सत्ता बर्बर हमलावरों की तरह उनकी झुग्गी–बस्तियों को उजाड़ती–जलाती और बुलडोजरों से ज़मींदोज़ करती रही है। कारख़ानों में पचास–साठ रुपये दिहाड़ी पर बारह से चौदह घण्टों तक खटने वाले दिहाड़ी, अस्थायी और ठेका मजदूरों का जीवन और अधिक नारकीय होता गया है। यहाँ–वहाँ उठ खड़े होने वाले मज़दूरों के स्वयंस्फूर्त संघर्ष अधिकांशत: या तो पराजित होते रहे हैं या फिर बर्बर दमन का शिकार होते रहे हैं। सरकार और बुर्जुआ नेता लगातार पड़ोसी “दुश्‍मन” देश और आतंकवाद के विरुद्ध जुनूनी अंधराष्‍ट्रवादी नारे देते रहे हैं और हथियारों और क़ानूनों के सहारे असली लड़ाई, पहले की ही तरह, देश के भीतर देश की जनता की खिलाफ़ लड़ी जाती रही है।

गुजरे हुए साल ने खाये–पिये, अघाये–मुटियाये ऊपरी मध्य वर्ग और विशेष सुविधा–सम्पन्न बुद्धिजीवी समुदाय के मेहनतकश अवाम एवं जन सरोकारों के प्रति ऐतिहासिक विश्‍वासघात को थोड़ा और नंगा कर दिया है। दूसरी ओर, दशा–दिशा के हिसाब से निम्न मध्य वर्ग सर्वहारा वर्ग के जीवन और स्वप्नों–आकांक्षाओं के कुछ और निकट जा पहुँचा है। शिक्षा और स्वास्थ्य को सरकार की ज़िम्मेदारी के बजाय बाज़ार का बिकाऊ माल बना देने के लिए मनमोहन सिंह की सरकार ने 2006 में कुछ और महत्वपूर्ण प्रभावी कदम उठाये, पर इनका कोई संगठित कारगर प्रतिरोध सामने नहीं आया। जिस संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने उदारीकरण– निजीकरण की नीतियों को कुशल और कुटिल ढंग से लागू किया है, उसमें संसदीय वामपंथी भी शामिल हैं। पूँजीवादी व्यवस्था की इस दूसरी सुरक्षा पंक्ति की अभी भी शासक वर्ग को ज़रूरत है। हुक्मरानों की फेंकी लाल मिर्ची खाकर संसदीय पिंजरे में फुदक–फुदककर नकली समाजवाद का गीत गाने वाले इन फरेबी तोतों की साख बचाने के लिए यह ज़रूरी था कि सरकार श्रमिकों के पक्ष में भी कुछ कदम उठाने का दिखावा करे। ग्रामीण रोजगार योजना का गुब्बारा इसीलिए फुलाया गया था। फिलहाल, दो सौ जिलों में ही इसे लागू किया गया, लेकिन इस ढकोसले की असलियत अभी ही उजागर हो चुकी है। ‘बिगुल’ के पन्नों पर इसके बारे में पहले लिखा जा चुका है। पिछले वर्ष असंगठित मज़दूरों को बुनियादी सामाजिक सुरक्षा (स्वास्थ्य, दुर्घटना, आकस्मिक मृत्यु आदि के लिए बीमा तथा वृद्धावस्था–पेंशन वगैरह) के नाम पर एक नया शगूफा उछाला गया। इसके लिए एक राष्‍ट्रीय आयोग बनाया गया, जिसकी सिफ़ारिशें अब सरकार के विचाराधीन हैं। सरकार इनपर कबतक विचार करेगी और इन्हें किस रूप में लागू करेगी, यह कहा नहीं जा सकता। हो सकता है कि तबतक इस सरकार का कार्यकाल ही समाप्त हो जाये। इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि उक्त आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर यदि कोई क़ानून बनेगा भी, तो सरकारी एजेंसियाँ उसे किस हद तक लागू करा पायेंगी! न्यूनतम मज़दूरी के बारे में, काम की स्थितियों एवं सुरक्षा–प्रबन्धों के बारे में, ठेका–प्रथा के बारे में, काम के घण्टों के बारे में, दुर्घटना के हरजाने के बारे में जो भी श्रम क़ानून आज देश में मौजूद हैं, वे कहीं भी लागू नहीं होते और उनसे सम्बन्धित शिक़ायतों की कहीं भी कोई सुनवाई नहीं है – इस नंगी सच्चाई को भला कौन नहीं जानता ? असली बात यह है कि यह शोशा मुख्यत: नकली वामपंथियों और ट्रेड यूनियनों के धंधेबाज़ों की गिरती साख और खिसकती ज़मीन को बचाने की एक कोशिश है। आखिर मनमोहन सरकार को बैसाखी का सहारा देने वाले तथा बंगाल और केरल में अनुकूलतम शर्तों पर मुनाफ़ा कूटने के लिए देशी–विदेशी पूँजीपतियों को सादर न्यौतने वाले संसदीय वामपंथियों को इज़्जत ढाँपने के लिए कम से कम एक चिथड़ा तो चाहिए था और एक चिथड़ा चाहिए था मज़दूरों के बीच जाकर दिखाने के लिए कि देखो, हम तुम्हारे लिए यह माँगकर लाये हैं और यदि तुम हंगामा खड़ा करने के बजाय सुशील और आज्ञाकारी बने रहोगे तो इसी तरह हम माँग–माँगकर और भी टुकड़े लाते रहेंगे जिनकी पैबन्दसाज़ी करके एक दिन समाजवाद का पूरा कोट तैयार हो जायेगा। पूँजीवादी व्यवस्था को आज भी वर्ग–संघर्ष की आँच पर सुधार के छींटे मारने के लिए संशोधनवादी राजनीति की ज़रूरत है, पर आज के पूँजीवाद की प्रकृति ही ऐसी है कि समाजवादी मुखौटे की असलियत छुपी नहीं रह पाती। मज़दूर वर्ग इन संसदीय वामपंथियों को सुधारवादी– उदारवादी बुर्जुआ पार्टियों से अधिक कुछ नहीं समझता।

इस स्थिति में वर्ग संघर्ष की आँच पर सुधार के छींटे मारने और तरह–तरह के दिग्भ्रम–विभ्रम–भटकाव पैदा करने के लिए विश्‍व पूँजीवाद के विश्‍वस्त सिद्धान्तकारों ने अपने चिन्तन–चातुर्य से एन.जी.ओ. राजनीति के रूप में पूँजीवादी व्यवस्था की एक और नयी सुरक्षा पंक्ति तैयार की है। इस राजनीति के प्रमुख कार्यक्षेत्र भारत सहित तीसरी दुनिया के वे सभी अग्रणी देश हैं जहाँ श्रम शक्ति और प्राकृतिक सम्पदा को निचोड़ने की प्रचुर सम्भावनाएँ हैं, जहाँ देशी–पूँजी के विस्तार के साथ ही साम्राज्यवादी वित्तीय पूँजी भी बड़े पैमाने पर आ रही है, जहाँ तीव्र गति से समाज का पूँजीवादी रूपान्तरण और वर्गीय ध्रुवीकरण हो रहा है तथा जहाँ नई सदी की नई सर्वहारा क्रान्तियों की ज़मीन तेज़ी से पक रही है। भारत के सुदूर कोनों तक विदेशी एजेंसियों और देशी पूँजीपतियों के ट्रस्टों के अनुदानों के सहारे काम करने वाले गैर–सरकारी संगठन (एन.जी.ओ.) अनेक रूपों में सक्रिय हैं। ये एन.जी.ओ. तरह–तरह की सुधार की कार्रवाइयाँ करते हैं, जनता की पहलकदमी से स्वास्थ्य–शिक्षा आदि का तंत्र संगठित करने की आड़ लेकर सरकार को उसकी ज़िम्मेदारियों से पीछे हटने का अवसर देते हैं, जनता की विभिन्न माँगों को लेकर इस व्यवस्था के दायरे के भीतर आन्दोलन संगठित करते हुए ‘सेफ़्टीवॉल्व’ की भूमिका निभाते हैं, जनता के विभिन्न वर्गों के एकजुट संघर्ष की धार व्यवस्था के विरुद्ध केन्द्रित होने से रोकने के लिए अलग–अलग आन्दोलनों का साझा मंच बनाते हैं, संघर्ष के बजाय विमर्श पर, वर्ग के बजाय राष्‍ट्रीय, जातीय, भाषाई, क्षेत्रीय, अल्पसंख्यक समुदायगत या लैंगिक पहचान की राजनीति (अस्मितावादी राजनीति) पर बल देते हैं तथा इन अस्मिताओं की सामाजिक वर्गीय संरचना में निहित आधारों को दृष्टिओझल या खारिज करने के लिए तरह–तरह के सिद्धान्त रचते हैं। इसमें आश्‍चर्य नहीं कि मुम्बई में ‘विश्‍व सामाजिक मंच’ के मेले के बाद 2006 में एन.जी.ओ. के धंधेबाजों ने एक बार फिर दिल्ली में ‘भारतीय सामाजिक मंच’ का तमाशा किया। यह भी कोई आश्‍चर्य की बात नहीं कि भारत के पुराने बुर्जुआ सुधारवादियों व सामाजिक जनवादियों -गाँधीवादियों, सर्वोदयियों, जयप्रकाश नारायण के चेले–चाटियों तथा भाकपा–माकपा  के संशोधनवादियों के साथ ही रिटायर्ड व पतित क्रान्तिकारी वामपंथियों की एक बड़ी संख्या भी एन.जी.ओ. नेटवर्क में सक्रिय है और प्राय: पर्दे के पीछे के विचार–कक्षों और कमान–कार्यालयों में अहम भूमिका निभा रही है। ये एन.जी.ओ. जनता की भलाई करते हुए जीवनयापन करने का छलावा करते हुए लाखों नेकदिल बेरोज़गार नौजवानों को अपने जाल में फँसाते हैं तथा उन्हें बहुत कम वेतन देकर शिक्षा और स्वास्थ्य आदि के उपक्रमों में लगाकर पूँजीवादी सरकार का “बोझ” हल्का करते हैं। यही नहीं, सहकारिता की आड़ में विभिन्न उत्पादक उपक्रम संगठित करके ये बहुत कम मज़दूरी पर काम करके अतिलाभ भी निचोड़ते हैं और पूँजीवादी उत्पादन तंत्र के एक पाये का काम करते हैं। ये अपनी कतारों में उन युवाओं को भरती करते हैं जो क्रान्तिकारी कतारों में शामिल होकर समाज का भविष्‍य बदल सकते हैं। ये ज्यादातर उन्हीं असंगठित मज़दूरों–ग़रीबों के बीच काम करते हैं, जिनके बीच क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं को काम करना है। इसतरह, आज एन.जी.ओ. संगठन पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा–पंक्ति और सेफ़्टीवॉल्व के रूप में सर्वाधिक प्रभावी भूमिका निभा रहे हैं। भारत में इनकी सक्रियता का दायरा और पैमाना लगातार विस्तारित हुआ है और यह सिलसिला पिछले वर्ष भी लगातार जारी रहा।

प्रतिक्रिया की विश्‍वव्यापी लहर के वस्तुगत और मनोगत कारण और इस गतिरोध से उबरने का रास्ता

गुजरे कई वर्षों की ही तरह पिछले वर्ष का भी बैलेन्सशीट इसी कड़वी–नंगी सच्चाई की तसदीक करता है कि शोषण–दमन और उत्पीड़न की ताकतें प्रतिरोध की ताकतों पर हावी रही हैं। पूँजीवादी शोषण–दमन का तंत्र और अधिक संगठित हुआ है, जबकि प्रतिरोध अभी भी असंगठित है, स्वयंस्फूर्त है तथा बिखरा हुआ है। गतिरोध और निराशा का माहौल है। तो फिर वे कोने कहाँ हैं, जहाँ से उम्मीद की किरणें फूटती हैं ? वे ऊँचाइयाँ कहाँ हैं, जहाँ से नये क्रान्तिकारी भविष्‍य के क्षितिज दिखते हैं ? निश्‍चय ही, यह इतिहास का अन्त नहीं है। सभ्यता की पूरी विकास यात्रा, सहस्राब्दियों से जारी वर्ग संघर्ष वर्तमान पूँजीवादी असभ्यता के अनाचार–अत्याचार में ही समाप्त होने नहीं जा रही है। विश्‍व ऐतिहासिक स्तर पर सर्वहारा वर्ग और समाजवादी क्रान्तियों की पराजय के बाद, विश्‍व–शक्ति–संतुलन विगत लगभग तीन दशकों से पूँजीवाद के पक्ष में बना हुआ है। क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर हावी बनी हुई है। पूँजी और श्रम के अन्तरविरोध के बीच पूँजी का पहलू प्रधान बना हुआ है। और विश्‍व पूँजीवाद के तमाम अन्दरूनी असाध्य अन्तरविरोधों और ढाँचागत संकट के बावजूद, सर्वहारा क्रान्ति की हरावल ताकतों की वर्तमान स्थिति को देखते हुए, यही कहा जा सकता है कि पूरी दुनिया में यहाँ–वहाँ हो  रहे और बढ़ते जा रहे जन संघर्षों के विस्फोटों के बावजूद, अभी एक लम्बे समय तक शायद यही स्थिति बनी रहे, क्योंकि स्वयंस्फूर्त संघर्ष यथास्थिति को नहीं बदल सकते। उसे केवल संगठित नेतृत्व वाली सचेतन क्रान्तियाँ ही बदल सकती हैं। साम्राज्यवाद के वर्तमान दौर में, श्रम और पूँजी के स्पष्‍टतम–तीव्रतम ध्रुवीकरण के वर्तमान दौर में, केवल मार्क्सवादी विज्ञान के मार्गदर्शन में काम करने वाली सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी के नेतृत्व में संगठित जन संघर्ष ही विश्‍व पैमाने के अन्तरविरोध के प्रधान पहलू को फैसलाकुन ढंग से बदल सकते हैं। वस्तुगत परिस्थितियों की दृष्टि से, साम्राज्यवाद–पूँजीवाद विरोधी नयी सर्वहारा क्रान्तियों की सर्वाधिक उर्वर और संभावनासम्पन्न ज़मीन एशिया, अफ्रीका, लातिन अमेरिका के उन पिछड़े पूँजीवादी देशों में है जहाँ प्राक्पूँजीवादी उत्पादन–सम्बन्ध मूलत: और मुख्यत: टूट चुके हैं और अवशेष–मात्र के रूप में मौजूद हैं, जहाँ पूँजीवादी उत्पादन–सम्बन्ध का वर्चस्व स्थापित हो चुका है, जहाँ की अर्थव्यवस्था विविधीकृत है, जहाँ बुनियादी एवं अवरचनागत उद्योगों सहित औद्योगिक उत्पादन का भारी विकास हुआ है तथा औद्योगिक सर्वहारा वर्ग की भारी आबादी अस्तित्व में आ चुकी है, जहाँ गाँवों में पूँजी की व्यापक पैठ के साथ ही ग्रामीण सर्वहारा–अर्द्धसर्वहारा आबादी की भी एक भारी संख्या पैदा हो चुकी है, जहाँ पूँजीवादी सामाजिक–सांस्कृतिक तंत्र के विकास के चलते सर्वहारा क्रान्ति के सहयोगी शिक्षित निम्न मध्यवर्ग और क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी समुदाय का प्रचुर विकास हुआ है तथा जहाँ कुशल मज़दूरों एवं तकनीशियनों–वैज्ञानिकों के साथ ही विज्ञान–तकनोलॉजी के स्वतंत्र विकास के लिए ज़रूरी मानव–उपादान मौजूद हैं। ऐसे अगली कतार के क्रान्तिकारी सम्भावनासम्पन्न देशों में ब्राज़ील, अर्जेण्टीना, मेक्सिको, चीले, द– अफ्रीका, नाइज़ीरिया, मिस्त्र, ईरान, तुर्की, इण्डोनेशिया, मलयेशिया, फिलीप्पींस आदि के साथ ही भारत भी शामिल है। (चीन, पूर्व सोवियत संघ के कुछ घटक देशों, और कुछ पूर्वी यूरोपीय देशों में भी नई क्रान्तियों की परिस्थितियाँ तेज़ी से तैयार हो रही हैं, जहाँ की जनता कभी समाजवादी क्रान्ति के प्रयोगों, परिणामों को देख चुकी है, पर इन देशों की स्थिति कुछ भिन्न है जो अलग से चर्चा का विषय है)।

समस्या यह है कि तीसरी दुनिया के जिन देशों में साम्राज्यवाद–पूँजीवाद विरोधी नयी क्रान्तियों की ज़मीन तैयार है या हो रही है, वहाँ क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियाँ बिखरी हुई हैं। वे देश स्तर की एक पार्टी के रूप में संगठित नहीं हैं और व्यापक जनता के बीच उनका आधार भी देशव्यापी नहीं है। इसका एक वस्तुगत कारण यह ज़रूर है कि सर्वहारा वर्ग और पूँजीपति वर्ग के बीच जारी विश्‍व ऐतिहासिक महासमर के पहले चक्र की समाप्ति और इसके दूसरे, निर्णायक चक्र की शुरुआत के बीच के अन्तराल में, प्रतिक्रिया की सभी शक्तियों ने क्रान्तिकारी शक्तियों को पीछे धकेलने–कुचलने के लिए अपनी सारी शक्ति झोंक दी है। अतीत की क्रान्तियों का शासक वर्गों ने भी समाहार किया है। हर देश की पूँजीवादी राज्यसत्ता अपने सामाजिक अवलम्बों के विकास के लिए पहले की अपेक्षा बहुत अधिक कुशलता से काम कर रही है और इसमें साम्राज्यवादी देशों और अन्तरराष्‍ट्रीय एजेन्सियों से भी भरपूर सहायता मिल रही है। साथ ही, आज सिनेमा, टी.वी., और प्रिण्ट मीडिया सहित समस्त संचार माध्यमों का अभूतपूर्व प्रभावी इस्तेमाल पूँजीवादी संस्कृति एवं विचारों के प्रचार–प्रसार के लिए, व्यापक जन समुदाय की दिमाग़ी गुलामी को लगातार खाद–पानी देने के लिए तथा कम्युनिज़्म, विगत सर्वहारा क्रान्तियों, उनके नेताओं और समाजवादी प्रयोगों के बारे में भाँति–भाँति के सफेद झूठों का प्रचार करके उन्हें कलंकित–लांछित करने के लिए, विश्‍व–स्तर पर किया जा रहा है। इस ऐतिहासिक अन्तराल की वस्तुगत स्थिति का एक अहम पहलू यह भी है कि इसी दौरान विश्‍व पूँजीवाद की संरचना एवं कार्य–प्रणाली में कुछ ऐसे महत्वपूर्ण बदलाव आये हैं, जिन्हें समझे बिना इक्कीसवीं शताब्दी की नयी सर्वहारा क्रान्तियों की रणनीति एवं आम रणकौशल की कोई समझ बनाई ही नहीं जा सकती। इन वैश्विक बदलावों को समझकर विश्‍व सर्वहारा क्रान्ति की नयी आम दिशा निर्धारित करने के लिए आज न तो विश्‍व सर्वहारा का मार्क्स–एंगेल्स–लेनिन–माओ जैसा कोई मान्य नेतृत्व है, न ही सोवियत संघ और चीन जैसा कोई समाजवादी देश और वहाँ की अनुभवी पार्टियों जैसी कोई पार्टी है और न ही इण्टरनेशनल जैसा दुनिया भर की पार्टियों का कोई अन्तरराष्‍ट्रीय मंच है। ऐसी स्थिति में विश्‍व पूँजीवाद की कार्यप्रणाली में, और साथ ही दुनिया के अधिकांश क्रान्तिकारी सम्भावनासम्पन्न देशों की राज्यसत्ताओं एवं सामाजिक–आर्थिक संरचनाओं में आये बदलावों को जान–समझकर क्रान्ति की मंज़िल और मार्ग को जानने–समझने का काम इन देशों के छोटे–छोटे ग्रुपों–संगठनों में बँटे–बिखरे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठनों को ही करना है। जो कम्युनिस्ट पार्टियाँ संशोधनवादी होकर संसद–मार्ग का राही बन चुकी हैं, वे क्रान्ति मार्ग पर कदापि वापस नहीं लौट सकतीं। वे पतित होकर बुर्जुआ पार्टियाँ बन चुकी हैं, जिनका काम समाजवाद का मुखौटा लगाकर मेहनतकश जनता को धोखा देना है और पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा–पंक्ति की भूमिका निभानी है। विपरीततम वस्तुगत स्थितियों से जूझकर अक्तूबर क्रान्तिकारी ताकतें ही कर सकती हैं जो शान्तिपूर्ण संक्रमण के हर सिद्धान्त का और संशोधनवाद के हर रूप का विरोध करती हैं, जो वर्ग–संघर्ष और सर्वहारा अधिनायकत्व के सिद्धान्त को, बुर्जुआ राज्यसत्ता को बलपूर्वक चकनाचूर करके सर्वहारा राज्यसत्ता की स्थापना के सिद्धान्त को तथा पूँजीवादी पुनर्स्थापना को रोकने के लिए समाजवादी समाज में सर्वहारा वर्ग को सर्वतोमुखी अधिनायकत्व के अन्तर्गत नये–पुराने बुर्जुआ तत्वों, बुर्जुआ अधिकारों और बुर्जुआ विचारों के विरुद्ध सतत् वर्ग संघर्ष चलाने के उस सिद्धान्त को स्वीकार करती हैं जो माओ के नेतृत्व में चीन में सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति (1966–76) के दौरान प्रतिपादित किया गया। लेकिन कम्युनिज़्म के इन क्रान्तिकारी सिद्धान्तों को स्वीकारने वाले कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन अपनी तमाम ईमानदारी, बहादुरी और कुर्बानी के बावजूद और दुनिया के अधिकांश देशों में अपनी सक्रिय मौजूदगी के बावजूद, फिलहाल विचारधारात्मक रूप से काफ़ी कमज़ोर हैं। माओ के महान अवदानों को वैज्ञानिक भाव के बजाय वे भक्ति भाव से स्वीकार करते हैं। इसी कठमुल्लावाद के चलते वे क्रान्ति के कार्यक्रम के प्रश्‍न को भी प्राय: विचारधारा का प्रश्‍न बना देते हैं और माओ के विचारधारात्मक अवदानों को स्वीकारते हुए इस सीमा तक चले जाते हैं कि ऐसा मानने लगते हैं कि चूँकि माओ और चीन की पार्टी ने अपने समय में तीसरी दुनिया के देशों में साम्राज्यवाद–सामन्तवाद विरोधी नवजनवादी क्रान्ति की बात कही थी, इसलिए हमें वैसा ही करना होगा। इससे अलग सोचना ही वे मार्क्सवाद से विचलन मानते हैं। ये कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन जीवन की ठोस सच्चाई को सिद्धान्तों के साँचे में फिट करने की कोशिश करते रहते हैं। यही कठमुल्लावाद है। इसी कठमुल्लावाद के चलते, साम्राज्यवाद की बुनियादी प्रकृति को समझकर आज उसकी कार्यप्रणाली एवं संरचना में आये बदलावों को समझने के बजाय अधिकांश कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन साम्राज्यवाद को हूबहू वैसा ही देखना चाहते हैं जैसा वह लेनिन के समय में था। वे राष्‍ट्रीय–औपनिवेशिक प्रश्‍न की समाप्ति के यथार्थ को, परजीवी, अनुत्पादक वित्तीय पूँजी के भारी विस्तार एवं निर्णायक वर्चस्व के यथार्थ को, राष्‍ट्रपारीय निगमों के बदलते चरित्र एवं कार्यप्रणाली और वित्तीय पूँजी के भूमण्डलीकरण के यथार्थ को, पूँजीवादी उत्पादन–पद्धति में आये अहम बदलावों के यथार्थ को, भूतपूर्व उपनिवेशों में प्राक् पूँजीवादी सम्बन्धों की जगह पूँजीवादी उत्पादन–सम्बन्धों की प्रधानता तथा क्रान्ति के रणनीतिक संश्रय (वर्गों के संयुक्त मोर्चे) में परिवर्तन के यथार्थ को समझने की कोशिश करने के बजाय उनकी अनदेखी करते हैं। ऐसे में उनके क्रान्तिकारी सामाजिक प्रयोग मज़दूर वर्ग और सर्वहारा क्रान्ति के अन्य मित्र वर्गों को लामबंद करने के बजाय प्राय: लकीर की फकीरी और रुटीनी कवायद बनकर रह जाते हैं और कभी–कभी तो शासक वर्गों का कोई हिस्सा अपने आपसी संघर्षों में उनका इस्तेमाल भी कर लेता है। इस कठमुल्लावाद के चलते सामाजिक प्रयोगों की विफलता ने एक लम्बे गतिरोध और व्यापक मेहनतकश जनता से अलगाव की स्थिति पैदा की है। इस स्थिति में, दुनिया के सभी अग्रणी क्रान्तिकारी सम्भावना वाले देशों में न केवल देश स्तर की एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी के गठन का काम लम्बित पड़ा हुआ है, बल्कि, कठमुल्लावाद और गतिरोध की लम्बी अवधि दक्षिणपंथी और “वामपंथी” अवसरवाद के विचारधारात्मक विचलनों को जन्म दे रही है। ने.क.पा. (माओवादी) के नेतृत्व में नेपाल की विजयोन्मुख जनवादी क्रान्ति का उदाहरण देते हुए दुनिया के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर में हावी कठमुल्लावादी सोच जोर–शोर से यह साबित करने की कोशिश करती है कि अभी भी तीसरी दुनिया के देशों में नवजनवादी क्रान्ति की धारा ही विश्‍व सर्वहारा क्रान्ति की मुख्य धारा और मुख्य कड़ी बनी हुई है। हम नेपाल के माओवादी क्रान्तिकारियों को (कुछ अहम विचारधारात्मक मतभेदों, आपत्तियों एवं आशंकाओं के बावजूद) हार्दिक इंकलाबी सलामी देते हैं, लेकिन साथ ही, विनम्रतापूर्वक यह कहना चाहते हैं कि नेपाल की विजयोन्मुख क्रान्ति इक्कीसवीं सदी में होने वाली बीसवीं सदी की क्रान्ति है। यह इतिहास का एक ‘बैकलॉग’ है। यह इक्कीसवीं सदी की प्रवृत्ति–निर्धारक व मार्ग–निरूपक क्रान्ति नहीं है। नेपाल दुनिया के उन थोड़े से पिछड़े देशों में से एक है, जहाँ बहुत कम औद्योगिक विकास हुआ है और जहाँ प्राक्–पूँजीवादी भूमि सम्बन्ध मुख्यत: मौजूद हैं। भारत, ब्राज़ील, अर्जेण्टीना, दक्षिण अफ्रीका आदि की ही नहीं बल्कि पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे देशों की स्थिति भी नेपाल से काफ़ी भिन्न है। आज तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों में प्राक्पूँजीवादी भूमि सम्बन्ध मूलत: और मुख्यत: नष्‍ट हो चुके हैं। वहाँ पूँजीवादी विकास मुख्य प्रवृत्ति बन चुकी है। इन देशों का पूँजीपति वर्ग सत्तासीन होने के बाद साम्राज्यवादी देशों के पूँजीपतियों का कनिष्‍ठ साझेदार बन चुका है। इन देशों की बुर्जुआ राज्यसत्ताएँ देशी पूँजीपति वर्ग के साथ ही साम्राज्यवादी शोषण का भी उपकरण बनी हुई हैं। इन देशों में साम्राज्यवाद–पूँजीवाद विरोधी, नयी समाजवादी क्रान्ति की स्थिति उत्पन्न हुई है और ऐसा विश्‍व पूँजीवाद के इतिहास के नये दौर की एक नयी विशिष्‍टता है। इस नयी ऐतिहासिक परिघटना की अनदेखी आज दुनिया के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर की मुख्य समस्या है। जबतक यह समस्या हल नहीं होगी, तबतक विश्‍व सर्वहारा क्रान्ति की नयी लहर आगे की ओर गतिमान नहीं हो सकती।

भारत में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर – गतिरोध से विघटन तक की यात्रा के आवश्‍यक सबक : आन्दोलन की विचारधारात्मक–राजनीतिक समस्याओं–कमज़ोरियों का एक संक्षिप्त विश्‍लेषण एवं समाहार तथा नयी समाजवादी क्रान्ति के कार्यक्रम और पार्टी निर्माण के कार्यभार के बारे में कुछ बुनियादी बातें

भारत में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के ठहराव–बिखराव की वर्तमान स्थिति को भी हमें इसी वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखना–समझना होगा। गतिरोध के कारणों को सही–सटीक ढंग से समझे बिना उसे तोड़ा नहीं जा सकता।

नक्सलबाड़ी का ऐतिहासिक किसान उभार भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास का एक मोड़ बिन्दु था। क्रान्तिकारी कतारों ने भाकपा और माकपा के संशोधनवादी नेतृत्‍व से निर्णायक विच्छेद करके एक नई सर्वभारतीय क्रान्तिकारी पार्टी के गठन की दिशा में आगे कदम बढ़ाये। लेकिन इस प्रक्रिया के अंजाम तक पहुँचने के पहले ही नये नेतृत्‍व की विचारधारात्मक अपरिपक्वता के कारण जल्दी ही पेण्डुलम दूसरे छोर पर जा पहुँचा और नवोदित कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन का प्रमुख हिस्सा “वामपंथी” दुस्साहसवाद के दलदल में जा धँसा। 1970 में “वामपंथी” दुस्साहसवाद के इसी भटकाव के साथ भा.क.पा. (मा.ले.) अस्तित्व में आई। “वामपंथी” दुस्साहसवाद की पहुँच पद्धति लाजिमी तौर पर हर मामले में कठमुल्लावादी होती है। इसी कठमुल्लावाद के चलते भा.क.पा. (मा.ले.) के नेतृत्‍व ने अपने देश की ठोस परिस्थितियों के ठोस विश्‍लेषण के आधार पर 1947 के बाद भारतीय समाज के विकास की दिशा, उत्पादन–सम्बन्ध और भारतीय शासक वर्ग एवं राज्यसत्ता के चरित्र के सही–सटीक विश्‍लेषण के आधार पर भारतीय क्रान्ति का कार्यक्रम तय करने के बजाय, चीनी क्रान्ति के कार्यक्रम की कार्बन कापी कर लेने का सुगम–सुविधाजनक रास्ता चुना। मा.ले. आन्दोलन की जिस उपधारा ने “वामपंथी” दुस्साहसवाद का विरोध करते हुए क्रान्तिकारी जनदिशा के प्रति अपनी निष्‍ठा जाहिर की, उसने भी कार्यक्रम के प्रश्‍न पर कठमुल्लावादी रवैया अपनाया और भारतीय समाज में पूँजीवादी विकास की सच्चाई की अनदेखी करते हुए नवजनवादी क्रान्ति का ही कार्यक्रम अपनाया।

भा.क.पा. (मा.ले.) में फूट–दर–फूट की जो प्रक्रिया 1971 में शुरू हुई, वह आज तक जारी है। बीच–बीच में एकता–प्रयास भी होते रहे और हर एकता कई फूटों को जन्म देती रही। भा.क.पा. (मा.ले.) के “वामपंथी दुस्साहसवाद” का विरोध करने वाली धारा भी कार्यक्रम की गलत समझदारी के चलते गतिरोध का शिकार हो गयी और फूट–दर–फूट एवं विघटन की प्रक्रिया से अपने को बचा नहीं पायी। जिन संगठनों ने आतंकवादी लाइन से साहसिक निर्णायक विच्छेद के बजाय इंच–इंच करके अवसरवादी ढंग से उससे पीछा छुड़ाने की कोशिश की, वे सभी आज दक्षिणपंथी अवसरवाद के दलदल में धँसे हुए हैं। तबसे लेकर आजतक छत्तीस वर्षों का समय गुजर चुका है। लम्बे ठहराव ने पूरे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर को आज विघटन के मुकाम तक ला पहुँचाया है। कुछ कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन संसदीय मार्ग के राही बनकर भूतपूर्व कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी बन चुके हैं। शेष ऐसे हैं जो क्रान्ति और वर्ग–संघर्ष की दुहाई देते हुए राजनीतिक–सांगठनिक व्यवहार के धरातल पर ग़लीज सामाजिक–जनवादी आचरण कर रहे हैं तथा अर्थवाद–ट्रेडयूनियनवाद की गटर–गंगा में गोते लगा रहे हैं, अपने आपको माओवादी कहने वाले “वामपंथी” दुस्साहसवादी अपनी राह पर अब इतना आगे, और मार्क्सवाद से इतनी दूर जा चुके हैं कि उनकी वापसी सम्भव नहीं दिखती।

कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन यदि विचारधारात्मक कमज़ोरी और अधकचरेपन का शिकार नहीं होता तो भारतीय समाज के पूँजीवादी रूपान्तरण की प्रक्रिया को गत शताब्दी के सातवें–आठवें दशक में ही समझकर समाजवादी क्रान्ति के कार्यक्रम के नतीजे़ तक पहुँच सकता था। और अब तो भारतीय समाज का पूँजीवादी चरित्र इतना स्पष्‍ट हो चुका है कि कठमुल्लेपन से मुक्त कोई नौसिखुआ मार्क्सवादी भी इसे देख–समझ सकता है। गाँवों के छोटे और मँझोले किसान आज अपनी ज़मीन के मालिक ख़ुद हैं और सामन्ती लगान और उत्पीड़न नहीं, बल्कि पूँजी की मार उनको लगातार जगह–ज़मीन से उजाड़कर दर–ब–दर कर रही है। किसान आबादी के विभेदीकरण और सर्वहाराकरण की प्रक्रिया एकदम स्पष्‍ट है। सालाना लाखों छोटे और निम्न मध्यम किसान उजड़कर सर्वहारा की कतारों में शामिल हो रहे हैं। धनी और उच्च मध्यम किसान बाज़ार के लिए पैदा कर रहे हैं और खेतों में भाड़े के मज़दूर लगाकर अधिशेष निचोड़ रहे हैं। गाँवों में अनेकश: नये रास्तों और तरीकों से वित्तीय पूँजी की पैठ बढ़ी है और देश के सुदूरवर्ती हिस्से भी एक राष्‍ट्रीय बाज़ार की चौहद्दी के भीतर आ गये हैं। गाँव के धनी और खुशहाल मध्यम किसान आज क्रान्तिकारी भूमि–सुधार के लिए नहीं बल्कि निचोड़े जाने वाले अधिशेष में अपनी भागीदारी बढ़ाने को लेकर आन्दोलन करते हैं। कृषि–लागत कम करने और कृषि–उत्पादों के लाभकारी मूल्यों की माँग की यही अन्तर्वस्तु है, इसे मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र का एक सामान्य विद्यार्थी भी समझ सकता है। देश के पुराने औद्योगिक केन्द्रों को पीछे छोड़ते हुए आज सुदूरवर्ती कोनों तक लाखों की आबादी वाले नये–नये औद्योगिक केन्द्र विकसित हो गये हैं। यातायात–संचार के साधनों का विगत तीन दशकों के दौरान अभूतपूर्व तीव्र गति से विकास हुआ है। आँखें खोल देने के लिए मात्र यह एक तथ्य ही काफ़ी है कि पूरे देश के संगठित–असंगठित, ग्रामीण व शहरी सर्वहारा की आबादी आज पचास करोड़ के आसपास पहुँच रही है और इसमें यदि अर्द्धसर्वहाराओं की आबादी भी जोड़ दी जाये तो यह संख्या कुल आबादी के आधे को भी पार कर जायेगी। यह किसी प्राकृतिक अर्थव्यवस्था या अर्द्धसामन्ती उत्पादन–सम्बन्धों के दायरे में कत्तई सम्भव नहीं हो सकता था। आज का भारत न केवल क्रान्तिपूर्व चीन से सर्वथा भिन्न है, बल्कि वह 1917 के रूस से भी कई गुना अधिक पूँजीवादी है। आज के भारत में केवल पूँजीवाद–विरोधी समाजवादी क्रान्ति की बात ही सोची जा सकती है। जहाँ तक साम्राज्यवाद का प्रश्‍न है, भारत जैसे सभी उत्तर–औपनिवेशिक, पिछड़े पूँजीवादी देश साम्राज्यवादी शोषण और लूट के शिकार हैं। हम आज भी साम्राज्यवाद के युग में ही जी रहे हैं, लेकिन साम्राज्यवादी शोषण की प्रकृति आज उपनिवेशों और नवउपनिवेशों के दौर से सर्वथा भिन्न है। भारतीय पूँजीपति वर्ग आज देशी बाज़ार पर अपना निर्णायक वर्चस्व स्थापित करने के लिए राज्यसत्ता पर कब्जा की लड़ाई नहीं लड़ रहा है। राज्यसत्ता पर तो वह 1947 से ही काबिज है। अब उसकी मुख्य लड़ाई देश की मेहनतकश आबादी और आम जनता के विरुद्ध है लेकिन उद्योगों और बाज़ार के विकास के लिए उसे पूँजी और तकनोलॉजी की दरकार है, इसके लिए ज़रूरी है कि वह साम्राज्यवादियों के साथ समझौता करे और उन्हें भी लूटने का मौक़ा दे। साथ ही, उसे अपने उत्पादित माल के लिए तथा तकनोलॉजी, तेल व अन्य ज़रूरतों के लिए विश्‍व बाज़ार की भी ज़रूरत है। यह ज़रूरत भी उसे विश्‍व बाज़ार के चैधरियों के आगे झुकने के लिए विवश करती है। अपनी इन्हीं ज़रूरतों और विवशताओं के चलते भारतीय पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवाद के सामने झुककर समझौते करता है और उनके साथ मिलकर भारतीय जनता का शोषण करता है। ऐसा करते हुए वह साम्राज्यवादियों से निचोड़े गये कुल अधिशेष में अपनी भागीदारी बढ़ाने को लेकर मोलतोल भी करता है और दबाव भी बनाता है, लेकिन उसकी यह लड़ाई राष्‍ट्रीय मुक्ति की लड़ाई नहीं बल्कि बड़े लुटेरों से अपना हिस्सा बढ़ाने की छोटे लुटेरे की लड़ाई मात्र है। अपनी इस लड़ाई में भारतीय पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवादी लुटेरों की आपसी होड़ का भी यथासम्भव लाभ उठाने की कोशिश करता है। आज़ादी के बाद के तीन दशकों तक, जनता से पाई–पाई निचोड़कर, समाजवाद के नाम पर राजकीय पूँजीवाद का ढाँचा खड़ा करके उसने साम्राज्यवादी दबाव का एक हद तक मुकशबला किया। लेकिन देशी निजी पूँजी की ताकत बढ़ने के साथ ही, निजीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत हुई और फिर एक–दूसरे से आगे निकलने की होड़ में अलग–अलग पूँजीपतियों ने विदेशी कम्पनियों से पूँजी और तकनोलॉजी लेने के लिए सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया। इसके चलते उदारीकरण की प्रक्रिया तेज हुई। निजीकरण–उदारीकरण के इस नये दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था पर साम्राज्यवादी पूँजी का दबाव बहुत अधिक बढ़ा है, लेकिन इसका मतलब यह कदापि नहीं कि उपनिवेशवाद की वापसी हो रही है। ऐसा सोचना भारतीय पूँजीपति वर्ग की स्थिति और शक्ति को नहीं समझ पाने का नतीज़ा है। भारतीय पूँजीपति वर्ग विश्‍व पैमाने के अधिशेष विनियोजन में साम्राज्यवादी शक्तियों के कनिष्‍ठ साझीदारों की पंगत में बैठकर इस देश की राज्यसत्ता पर काबिज बना हुआ है और उसकी राज्यसत्ता साम्राज्यवादी हितों की रक्षा के लिए भी वचनबद्ध है। साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए पूँजीपति वर्ग का कोई भी हिस्सा अब जनता के अन्य वर्गों का रणनीतिक सहयोगी नहीं बन सकता। यानी साम्राज्यवाद–विरोध का प्रश्‍न आज राष्‍ट्रीय मुक्ति का प्रश्‍न न रहकर देशी पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता के विरुद्ध संघर्ष का ही एक अविभाज्य अंग बन गया है। भारत जैसे भूतपूर्व उपनिवेशों में आज एक सर्वथा नये प्रकार की समाजवादी क्रान्ति की- साम्राज्यवाद–पूँजीवाद विरोधी क्रान्ति की स्थिति उत्पन्न हुई है। इस नयी स्थिति को समझे बिना भारतीय जनता की मुक्ति के उपक्रम को एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।

लेकिन ऐसा करने के बजाय, भारत के अधिकांश कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन आज कर क्या रहे हैं ? कुछ तो ऐसे छोटे–छोटे संगठन हैं जो कोई भी व्यावहारिक कार्रवाई करने के बजाय साल भर में मुखपत्र के एकाध अंक निकालकर और कुछ संगोष्‍ठी–सम्मेलन करके बस अपने ज़िन्दा होने का प्रमाण पेश करते रहते हैं। उनकी तो चर्चा ही बेकार है। कुछ ऐसे हैं जो देश की पचास करोड़ सर्वहारा आबादी को छोड़कर मालिक किसानों की लागत मूल्य कम करने और लाभकारी मूल्य तय करने की माँग को लेकर आन्दोलनों में लगे रहते हैं और व्यवहारत: सर्वहारा वर्ग के ही हितों पर कुठाराघात करते हुए, छोटे और मँझोले मालिक किसानों को भी धनी किसानों के आन्दोलनों का पुछल्ला बनाकर नरोदवाद के विकृत भारतीय संस्करण प्रस्तुत करते रहते हैं। ये लोग वस्तुत: कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी नहीं बल्कि “मार्क्सवादी” नरोदवादी हैं। कृषि और कृषि से जुड़े उद्योगों की भारी ग्रामीण सर्वहारा आबादी को संगठित करने तथा राजनीतिक प्रचार एवं आन्दोलन के द्वारा गाँव के ग़रीबों व छोटे किसानों को समाजवाद के झण्डे तले संगठित करने की कोशिशें  कोई संगठन नहीं कर रहा है। इसके बजाय, यहाँ–वहाँ, सर्वोदयियों की तरह, भूमिहीनों के बीच पट्टा–वितरण जैसी माँग उठाकर कुछ संगठन ग्रामीण सर्वहारा में ज़मीन के निजी मालिकाने की भूख पैदा करके उन्हें समाजवाद के झण्डे के खिलाफ़ खड़ा करने का प्रतिगामी काम ही कर रहे हैं। औद्योगिक सर्वहारा वर्ग के बीच किसी भी मा.ले. संगठन की कोई प्रभावी पैठ–पकड़ आजतक नहीं बन पायी है। कुछ संगठन औद्योगिक सर्वहारा वर्ग में काम करने के नाम पर केवल मज़दूर वर्ग के कारख़ाना–केन्द्रित आर्थिक संघर्षों तक ही अपने को सीमित रखे हुए हैं और अर्थवाद–ट्रेडयूनियनवाद की घिनौनी बानगी पेश कर रहे हैं। मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक प्रचार कार्य, उनके बीच से पार्टी–भरती और राजनीतिक माँगों के इर्द–गिर्द व्यापक मज़दूर आबादी को लामबंद करने का काम उनके एजेण्डे पर है ही नहीं। मज़दूर वर्ग के बीच जन–कार्य और पार्टी कार्य विषयक लेनिन की शिक्षाओं के एकदम उलट, ये संगठन मेंशेविकों से भी कई गुना अधिक घटिया सामाजिक जनवादी आचरण कर रहे हैं। भारतीय क्रान्ति के कार्यक्रम की ग़लत समझ के कारण, भारत का कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन शासक वर्गों की आपसी मोल–तोल में, वस्तुगत तौर पर, बटखरे के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। जब कुछ कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन जोर–शोर से कृषि–लागत कम करने और लाभकारी मूल्य की लड़ाई लड़ते हैं तो पूँजीपति वर्ग के साथ मोल–तोल में धनी किसानों के हाथों बटखरे के रूप में इस्तेमाल हो जाते हैं। जब वे साम्राज्यवाद का विरोध करते हुए राष्‍ट्रीय मुक्ति का नारा देते हैं तो साम्राज्यवादियों और भारतीय पूँजीपतियों के आपसी बाँट–बखरे में भारतीय पूँजीपतियों के बटखरे के रूप में इस्तेमाल हो जाते हैं।

कुछ संगठन किताबी फार्मूले की तरह समाजवादी क्रान्ति के कार्यक्रम को स्वीकार करते हैं, लेकिन इनमें से कुछ अपनी गैर बोल्शेविक सांगठनिक कार्यशैली के कारण जनदिशा को लागू कर पाने में पूरी तरह से विफल रहे हैं और निष्क्रिय उग्रपरिवर्तनवाद का शिकार होकर आज एक मठ या सम्प्रदाय में तबदील हो चुके हैं। दूसरे कुछ ऐसे हैं जो मज़दूर वर्ग में काम करने के नाम पर केवल अर्थवादी और लोकरंजकतावादी आन्दोलनपंथी कवायद करते रहते हैं। भूमि–प्रश्‍न पर इनकी समझ के दिवालियेपन का आलम यह है कि कृषि के लागत मूल्य को घटाने की माँग को ये समाजवादी क्रान्ति के कार्यक्रम की एक रणनीतिक माँग मानते हैं।

अपने–आप को माओवादी कहने वाले जो “वामपंथी” दुस्साहसवादी देश के सुदूर आदिवासी अंचलों में निहायत पिछड़ी चेतना वाली जनता के बीच “मुक्तक्षेत्र” बनाने का दावा करते हैं और लाल सेना की सशस्त्र कार्रवाई के नाम पर कुछ आतंकवादी कार्रवाईयाँ करते रहते हैं, वे भी देश के अन्य विकसित हिस्सों में पूरी तरह से “मार्क्सवादी” नरोदवादी आचरण करते हुए मालिक किसानों की लागत मूल्य–लाभकारी मूल्य की माँगों पर छिटपुट आन्दोलन करते रहते हैं और यहाँ–वहाँ कुछ औद्योगिक क्षेत्रों में मज़दूरों के बीच काम के नाम पर जुझारू अर्थवाद की विकृत बानगी प्रस्तुत करते रहते हैं।

निचोड़ के तौर पर कहा जा सकता है कि तीन दशकों से भी अधिक समय से, एक ग़लत कार्यक्रम पर अमल की आधी–अधूरी कोशिशों और एक गै़र बोल्शेविक सांगठनिक कार्यशैली पर अमल ने भारत के अधिकांश कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठनों के पहले से ही कमज़ोर विचारधारात्मक आधार को लगातार ज्यादा से ज्यादा कमज़ोर बनाया है और उनके भटकावों को क्रान्तिकारी चरित्र के क्षरण–विघटन के मुकाम तक ला पहुँचाया है। अधिकांश संगठनों के नेतृत्व राजनीतिक अवसरवाद का शिकार हैं। वे सर्वभारतीय पार्टी खड़ी करने के प्रश्‍न पर संजीदा नहीं हैं और बौद्ध भिक्षुओं की तरह रुटीनी कामों का घण्टा बजाते हुए वक़्त काट रहे हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो वे ज़रूर सोचते कि छत्तीस वर्षों से जारी ठहराव और बिखराव के कारण सर्वथा बुनियादी हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो जूते के हिसाब से पैर काटने के बजाय वे भारतीय समाज के पूँजीवादी रूपान्तरण का अध्ययन करके कार्यक्रम के प्रश्‍न पर सही नतीजे़ तक पहुँचने की कोशिश ज़रूर करते और कठदलीली या उपेक्षा का रवैया अपनाने के बजाय समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल के पक्ष में दिये जाने वाले तर्कों पर संजीदगी से विचार ज़रूर करते। बहरहाल, केन्द्रीय प्रश्‍न आज कार्यक्रम के प्रश्‍न पर मतभेद का रह ही नहीं गया है। अब मूल प्रश्‍न विचारधारा का हो गया है। ज्यादातर संगठनों ने बोल्शेविक सांगठनिक उसूलों और कार्यप्रणाली को तिलांजलि दे दी है, उनका आचरण एकदम खुली सामाजिक जनवादी पार्टियों जैसा ही है तथा पेशेवर क्रान्तिकारी या पार्टी सदस्य के उनके पैमाने बेहद ढीले–ढाले हैं। यदि कोई संगठन विचारधारात्मक कमज़ोरी के कारण लम्बे समय तक सर्वहारा वर्ग के बीच काम ही नहीं करेगा, या फिर लम्बे समय तक अर्थवादी ढंग से काम करेगा तो कालान्तर में विच्युति भटकाव का और फिर भटकाव विचारधारा से प्रस्थान का रूप ले ही लेगा और वह संगठन लाजिमी तौर पर संशोधनवाद के गड्ढे में जा गिरेगा। यदि कोई संगठन कार्यक्रम की अपनी ग़लत समझ के कारण लम्बे समय तक मालिक किसानों की माँगों के लिए लड़ता हुआ परोक्षत: सर्वहारा वर्ग के हितों के विरुद्ध खड़ा होता रहेगा तो कालान्तर में वह एक ऐसा नरोदवादी बन ही जायेगा, जिसके ऊपर बस मार्क्सवादी का लेबल भर चिपका हुआ होगा। यानी, विचारधारात्मक कमज़ोरी के चलते भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी भारतीय क्रान्ति के कार्यक्रम की सही समझ तक नहीं पहुँच सके और अब, लम्बे समय तक ग़लत कार्यक्रम के आधार पर राजनीतिक व्यवहार ने उन्हें विचारधारा का ही परित्याग करने के मुकाम तक ला पहुँचाया है। किसी भी यथार्थवादी व्यक्ति को अब इस खोखली आशा का परित्याग कर देना चाहिए कि मा.ले. शिविर के घटक संगठनों के बीच राजनीतिक वाद–विवाद और अनुभवों के आदान–प्रदान के आधार पर एकता क़ायम हो जायेगी और सर्वहारा वर्ग की एक सर्वभारतीय क्रान्तिकारी पार्टी अस्तित्व में आ जायेगी। जो छत्तीस वर्षों में नहीं हो सका, वह अब नहीं हो सकता। यदि होना ही होता तो यह गत शताब्दी के सातवें या आठवें दशक तक ही हो गया होता। अब कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर की इन संरचनाओं को यदि किसी चमत्कार से एक साथ मिला भी दिया जाये तो देश स्तर की एक बोल्शेविक पार्टी की संरचना नहीं बल्कि एक ढीली–ढाली मेंशेविक पार्टी जैसी संरचना ही तैयार होगी। और सबसे प्रमुख बात तो यह है कि इन संगठनों के अवसरवादी नेतृत्व से अब यह उम्मीद पालना ही व्यर्थ है। जहाँ तक जुनूनी आतंकवादी धारा की बात है तो उनकी दुस्साहसवादी रणनीति दुर्गम जंगल–पहाड़ों और बेहद पिछड़े क्षेत्रों के बाहर लागू ही नहीं हो पायेगी और अन्य क्षेत्रों में वे कुलकों की माँग उठाते हुए नरोदवादी अमल करते रहेंगे, मज़दूरों के बीच अर्थवाद करते रहेंगे और शहरों में बुद्धिजीवियों का तुष्‍टीकरण करते हुए उनका दुमछल्ला बनकर सामाजिक जनवादी आचरण करते रहेंगे। इस सतमेल खिचड़ी की हाँड़ी बहुत देर आँच पर चढ़ी नहीं रह सकती। कालान्तर में, इस धारा का विघटन अवश्‍यम्भावी है। इससे छिटकी कुछ धाराएँ भा.क.पा. (मा.ले.) (लिबरेशन) की ही तरह सीधे संशोधनवाद का रास्ता पकड़ सकती हैं और मुमकिन है कि कोई एक या कुछ धड़े “वामपंथी” दुस्साहसवाद के परचम को उठाये हुए इस या उस सुदूर कोने में अपना अस्तित्व बनाये रखें या फिर शहरी आतंकवाद का रास्ता पकड़ लें। भारत में पूँजीवादी विकास जिस बर्बरता के साथ मध्यवर्ग के निचले हिस्सों को भी पीस और निचोड़ रहा है, उसके चलते, खासकर निम्न मध्यवर्ग से, विद्रोही युवाओं का एक हिस्सा आत्मघाती उतावलेपन के साथ, व्यापक मेहनतकश जनता को जागृत व लामबंद किये बिना, स्वयं अपने साहस और आतंक एवं षड्यंत्र की रणनीति के सहारे आनन–फानन में क्रान्ति कर देने के लिए मैदान में उतरता रहेगा। निम्न पूँजीवादी क्रान्तिवाद की यह प्रवृत्ति लातिन अमेरिका से लेकर यूरोप तक के सापेक्षत: पिछड़े पूँजीवादी देशों में एक आम प्रवृत्ति के रूप में मौजूद है। विश्‍व सर्वहारा आन्दोलन के उद्भव से लेकर युवावस्था तक, यूरोप में (और रूस में भी) कम्युनिस्ट धारा की पूर्ववर्ती एवं सहवर्ती धारा के रूप में निम्नपूँजीवादी क्रान्तिवाद की यह प्रवृत्ति मौजूद थी और मज़दूरों के एक अच्छे–खासे हिस्से पर इनका भी प्रभाव मौजूद था। आश्‍चर्य नहीं कि आने वाले दिनों में भारत में भी क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन के साथ–साथ मध्यवर्गीय क्रान्तिवाद की एक या विविध धाराएँ मौजूद रहें और (कोलम्बिया या अन्य कई लातिन अमेरिकी देशों के सशस्त्र ग्रुपों की तरह) उनमें से कई अपने को मार्क्सवादी या माओवादी भी कहते रहें। लेकिन समय बीतने के साथ ही मार्क्सवाद के साथ उनका दूर का रिश्‍ता भी बना नहीं रह पायेगा।

जहाँ तक कतारों की बात है, यह सही है कि आज भी क्रान्तिकारी कतारें मुख्यत: मा.ले. संगठनों के तहत ही संगठित हैं। पर गैर बोल्शेविक ढाँचों वाले मा.ले. संगठनों में उन्हें मार्क्सवादी विज्ञान से शिक्षित नहीं किया गया है और स्वतंत्र पहलकदमी के साहस व निर्णय लेने की क्षमता का भी उनमें अभाव है। विभिन्न संगठनों में समय काटते हुए उनकी कार्यशैली भी सामाजिक जनवादी प्रदूषण का शिकार हो रही है और निराशा का दीमक उनके भीतर भी पैठा हुआ है। उनके राजनीतिक–सांगठनिक जीवन के व्यवहार ने उन्हें स्वतंत्र एवं निर्णय लेने की क्षमता से लैस वह साहसिक चेतना और समझ नहीं दी है कि वे महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की सच्ची माओवादी स्पिरिट में ‘विद्रोह न्यायसंगत है’ के नारे पर अमल करते हुए अवसरवादी नेतृत्‍व के विरुद्ध विद्रोह कर दें और अपनी पहल पर कोई नयी शुरुआत कर सकें। लेकिन जो कतारें सैद्धान्तिक मतभेदों और विवादों की जटिलताओं को नहीं समझ पाती हैं, उनके सामने यदि कोई सही लाइन व्यवहार में, निरूतरता और सुसंगति के साथ, लागू होती और आगे बढ़ती दिखाई देती है तो फिर निर्णय तक पहुँचने में वे ज़रा भी देर नहीं करतीं। आगे भी ऐसा ही होगा।

इतिहास और वर्तमान के इसी विश्‍लेषण–आकलन के आधार पर हमारा यह मानना है कि भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन का जो चरण नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ था, वह कमोबेश गत शताब्दी के नवें दशक तक ही समाप्त हो चुका था। हमें आज के समय को उस दौर की निरंतरता के रूप में नहीं, बल्कि उसके उत्तरवर्ती दौर के रूप में देखना होगा, यानी निरंतरता और परिवर्तन के ऐतिहासिक द्वंद्व में आज हमारा ज़ोर परिवर्तन के पहलू पर होना चाहिए। निस्संदेह नक्सलबाड़ी और कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन की विरासत को हम स्वीकार करते हैं और उसके साथ एक आलोचनात्मक सम्बन्ध निरंतर बनाये रखते हैं, लेकिन हमारे लिए वह अतीत की विरासत है, हमारा वर्तमान नहीं है। आज भावी भारतीय सर्वहारा क्रान्ति का हरावल दस्ता इस अतीत की राजनीतिक संरचनाओं को जोड़–मिलाकर संघटित नहीं किया जा सकता क्योंकि ये राजनीतिक संरचनाएँ अपनी बोल्शेविक स्पिरिट और चरित्र, मुख्य रूप से, ज्यादातर मामलों में, खो चुकी हैं। यानी एक एकीकृत पार्टी बनाने की प्रक्रिया का प्रधान पहलू आज बदल चुका है। आज कार्यक्रम व नीति विषयक मतभेदों को हल करके विभिन्न क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट संगठनों के ढाँचों को एक एकीकृत पार्टी के ढाँचे में विलीन कर देने का सवाल ही नहीं रह गया है, बल्कि प्रधान प्रश्‍न क्रान्तिकारी बोल्शेविक उसूलों एवं चरित्र वाले संगठन का ढाँचा नये सिरे से बनाने का प्रश्‍न बन गया है। यानी क्लासिकीय लेनिनवादी शब्दावली में कहें तो, प्रधान पहलू पार्टी–गठन का नहीं बल्कि पार्टी–निर्माण का है। जिसे अबतक कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर कहा जाता रहा है, वह, मूलत: और मुख्यत: विघटित हो चुका है। अब इस शिविर के नेतृत्व से ‘पॉलिमिक्स’ के जरिए पार्टी–पुनर्गठन की अपेक्षा नहीं की जा सकती। बेशक़ जनमानस को प्रभावित करने वाले किसी भी विचार की आलोचना और उसके साथ बहस का काम तो होता ही रहता है और इससे क्रान्तिकारी कतारों की वैचारिक–राजनीतिक शिक्षा भी होती रहती है, लेकिन ऐसी राजनीतिक बहसों का लक्ष्य आज किसी संगठन के साथ एकता बनाना नहीं हो सकता। हम आज ऐसी अपेक्षा नहीं कर सकते।

सांगठनिक–राजनीतिक कार्य–योजना की आम दिशा और हमारे कार्यभार

हमें, सारे भ्रमों से मुक्त होकर, पार्टी–निर्माण के काम को साहसपूर्वक हाथ में लेना होगा। हमें नयी समाजवादी क्रान्ति के परचम को उठाकर, भारतीय सर्वहारा वर्ग के सभी हिस्सों के बीच उन साहसी क्रान्तिकारियों की टीम को लेकर जाना होगा, जिन्होंने अब तक धारा के विरुद्ध जूझते हुए अपने बोल्शेविक साहस को खरा सिद्ध किया है। हमें सभी दिशाओं में, जनता के सभी हिस्सों के बीच जाना होगा और क्रान्तिकारी प्रोपेगैण्डा एवं एजिटेशन की घनीभूत, जुझारू और निरंतर कार्रवाई चलाते हुए उन्नत चेतना के युवाओं के बीच से पेशेवर क्रान्तिकारी संगठनकर्ताओं की भरती पर, फिलहाल विशेष ज़ोर देना होगा, क्योंकि सक्षम संगठनकर्ताओं की बेहद कमी है और देश के लाखों मेहनतकश और मध्यवर्गीय युवाओं के बीच आज क्रान्तिकारी भरती की प्रचुर संभावनाएँ मौजूद हैं और आने वाले दिनों में ये संभावनाएँ बढ़ती ही चली जायेंगी।

हमें समूचे सर्वहारा वर्ग को ही संगठित करना होगा, लेकिन शुरुआती दौर में ग्रामीण सर्वहारा के बजाय हमें औद्योगिक सर्वहारा वर्ग पर केन्द्रित करना होगा और उसमें भी पहले हमें, स्थायी नौकरी, बेहतर वेतन और बेहतर जीवन वाले सापेक्षत: सफ़ेदपोश मज़दूरों की छोटी सी आबादी के बजाय झुग्गी बस्तियों में रसातल का जीवन जीने और अस्तित्व की लड़ाई लड़ने वाली उस बहुसंख्यक, असंगठित सर्वहारा आबादी पर केन्द्रित करना होगा जो अपनी उन्नत चेतना और बड़े आधुनिक उद्योगों में काम करने के बावजूद, दिहाड़ी, अस्थायी या ठेका मज़दूर के रूप में पचास–साठ रुपये की दिहाड़ी पर दस–दस, बारह–बारह घण्टे तक काम करती है और जिसे कोई भी सुविधा या सामाजिक सुरक्षा हासिल नहीं होती। यह आबादी कुल औद्योगिक सर्वहारा आबादी के 80 फीसदी के आसपास है। ग्रामीण और शहरी, कुल सर्वहारा आबादी में असंगठित मज़दूरों की संख्या 95 प्रतिशत के आसपास है। ये असंगठित मज़दूर छोटे–छोटे वर्कशापों में उन्नीसवीं शताब्दी में काम करने वाले यूरोपीय मज़दूरों के समान असंगठित नहीं हैं। ये प्राय: उन्नत तकनोलॉजी वाले आधुनिक कारख़ानों में काम करते हैं और उन्नत पूँजीवादी उत्पादन–सम्बन्धों में उजरती गुलाम के रूप में भागीदारी के चलते इनकी चेतना अत्यधिक उन्नत है। ये असंगठित मात्र इसलिए हैं कि इनकी नौकरी स्थायी नहीं होती और प्राय: ये सफे़दपोश मज़दूरों की तरह संशोधनवादी और बुर्जुआ पार्टियों के नेतृत्व वाली यूनियनों में संगठित नहीं हैं। इनके बीच काम करने की सबसे बड़ी समस्या है, इनके काम के घण्टे और लगातार सिर पर टँगी रोजगार–असुरक्षा की तलवार। पर यह कोई असाध्य समस्या नहीं है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि यूरोप में जब मज़दूरों के बीच उन्नीसवीं शताब्दी में ट्रेड यूनियन कार्यों और राजनीतिक कार्यों की शुरुआत हुई थी तो वे लगभग ऐसी ही स्थिति में जी रहे थे। इस आबादी का सकारात्मक पहलू यह है कि किसी एक मालिक के कारख़ाने में काम नहीं करने के कारण इनकी चेतना उस भटकाव से मुक्त होती है, जिसे लेनिन ने “पेशागत संकुचित वृत्ति” का नाम दिया था। काम के घण्टों को कम करने, ठेका–प्रथा समाप्त करने, रोजगार गारण्टी व अन्य सामाजिक सुरक्षा की माँग ही इनकी बुनियादी माँग है। अत: इनकी लड़ाई की प्रकृति पहले दिन से ही मुख्यत: राजनीतिक होगी। वह किसी एक पूँजीपति के बजाए मुख्यत: समूचे पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता के विरुद्ध केन्द्रित होगी। इन्हें संगठित करने की प्रक्रिया कठिन और लम्बी अवश्‍य होगी, लेकिन एकबार यह प्रक्रिया यदि आगे बढ़ गयी तो मज़दूर आन्दोलन में अर्थवादी भटकाव की ज़मीन भी काफ़ी कमज़ोर होगी और राजनीतिक संघर्षों में मज़दूर वर्ग की लामबंदी का रास्ता अधिक आसान हो जायेगा।

कारख़ाना गेटों की प्रचार कार्रवाई और कारखाना–केन्द्रित आन्दोलनों के जरिए मज़दूर वर्ग के इस हिस्से से घनिष्‍ठ एकता बना पाना सम्भव नहीं होगा। इसके लिए क्रान्तिकारी प्रचारकों–संगठनकर्ताओं को मज़दूर बस्तियों में पैठना–फैलना होगा, वहाँ विविध प्रकार की संस्थाएँ और अड्डे विकसित करने होंगे और व्यापक मज़दूर आबादी के बीच विविध रचनात्मक कार्य करते हुए रोजमर्रे के जीवन से जुड़े प्रश्‍नों, जैसे आवास, पेयजल, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि के प्रश्‍नों पर, आन्दोलनात्मक कार्रवाइयाँ संगठित करनी होंगी। इसके बाद काम के घण्टे, ठेका प्रथा, रोजगार–सुरक्षा जैसे प्रश्‍नों पर इलाकाई पैमाने पर आन्दोलन खड़ा करने की दिशा में कदम–ब–कदम आगे बढ़ना होगा।

मज़दूर वर्ग को संगठित करने का मतलब यदि कोई केवल ट्रेड यूनियन कार्य समझता है तो यह एक ट्रेड यूनियनवादी समझ है। बेशक़, ट्रेड यूनियनें मज़दूर वर्ग के लिए वर्ग संघर्ष की प्राथमिक पाठशाला होती हैं, लेकिन ट्रेड यूनियन कार्रवाइयों से अपने आप पार्टी कार्य संगठित नहीं हो जाता। मज़दूरों को ट्रेड यूनियनों में संगठित करने और उनके रोज़मर्रे के संघर्षों को संगठित करने के प्रयासों के साथ–साथ हमें उनके बीच राजनीतिक प्रचार का काम – समाजवाद के प्रचार का काम, मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन के प्रचार का काम शुरू कर देना होगा। मज़दूर आंदोलन में वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा केवल ऐसे सचेतन प्रयासों से ही डाली और स्थापित की जा सकती है। इस काम में मज़दूर वर्ग के एक राजनीतिक अखबार की भूमिका सबसे अहम होगी। ऐसा अखबार राजनीतिक प्रचारक–संगठनकर्ता–आंदोलनकर्ता के हाथों में पहुँचकर स्वयं एक प्रचारक–संगठनकर्ता–आंदोलनकर्ता बन जायेगा तथा मज़दूरों के बीच से पार्टी–भरती और मज़दूरों की क्रान्तिकारी राजनीतिक शिक्षा का प्रमुख साधन बन जायेगा। ऐसे अखबार के मज़दूर रिपोर्टरों–एजेण्टों–वितरकों का एक पूरा नेटवर्क खड़ा किया जा सकता है, उसके लिए मज़दूरों से नियमित सहयोग जुटाने वाली टोलियाँ बनाई जा सकती हैं और अख़बार के नियमित जागरूक पाठकों को तथा मज़दूर रिपोर्टरों–एजेण्टों को लेकर जगह–जगह मज़दूरों के मार्क्सवादी अध्ययन–मण्डल संगठित किये जा सकते हैं। इस प्रक्रिया में मज़दूरों के बीच से पार्टी–भरती और राजनीतिक शिक्षा के काम को आगे बढ़ाकर हमें पार्टी–निर्माण के काम को आगे बढ़ाना होगा।

इस तरह मज़दूरों के बीच से पार्टी–संगठनकर्ताओं और कार्यकर्ताओं की भरती और तैयारी के बाद ही ट्रेड–यूनियन कार्य को आगे की मंज़िल में ले जाया जा सकता है तथा उसे अर्थवाद–ट्रेडयूनियनवाद से मुक्त रखते हुए क्रान्तिकारी लाइन पर क़ायम रखने की एक बुनियादी गारण्टी हासिल की जा सकती है। साथ ही, ऐसा करके ही, किसी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी पार्टी के कम्पोज़ीशन में मध्यवर्गीय पृष्‍ठभूमि से आये पेशेवर क्रान्तिकारी व ऐक्टिविस्ट साथियों के मुकाबले मज़दूर पृष्‍ठभूमि के साथियों का अनुपात क्रमश: ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ाया जा सकता है, पार्टी के क्रान्तिकारी सर्वहारा हिरावल चरित्र को ज़्यादा से ज़्यादा मजबूत बनाया जा सकता है, पार्टी के भीतर विजातीय तत्वों और लाइनों के खिलाफ़ नीचे से निगरानी का माहौल तैयार किया जा सकता है और इनकी ज़मीन कमज़ोर की जा सकती है। इसके साथ ही कम्युनिस्ट संगठनकर्ताओं को व्यापक मज़दूर आबादी के बीच तरह–तरह की संस्थाएँ जनदुर्ग के स्तम्भों के रूप में खड़ी करनी होंगी और व्यापक सार्वजनिक मंच संगठित करने होंगे। ये संस्थाएं और ये मंच न केवल वर्ग के हिरावल दस्ते को वर्ग के साथ मजबूती से जोड़ने का काम करेंगे, बल्कि इनके नेतृत्व और संचालन के जरिए आम मेहनतकश राजकाज और समाज के ढाँचे को चलाने का प्रशिक्षण भी लेंगे तथा अभ्यास भी करेंगे। इसे जनता की वैकल्पिक सत्ता के भ्रूण के रूप में देखा जा सकता है, जिन्हें शुरुआती दौर से ही हमें सचेतन रूप से विकसित करना होगा। भविष्‍य में इनके अमली रूप किस रूप में सामने आयेंगे, यह हम आज नहीं बता सकते, लेकिन क्रान्तिकारी लोक स्वराज्य पंचायत के रूप में हम वैकल्पिक लोक सत्ता के सचेतन विकास की इसी अवधारणा को प्रस्तुत करना चाहते हैं। अक्तूबर क्रान्ति के पूर्व सोवियतों का विकास स्वयंस्फूर्त ढंग से (सबसे पहले 1905–07 की क्रान्ति के दौरान) हुआ था, जिसे बोल्शेविकों ने सर्वहारा सत्ता का केन्द्रीय ऑर्गन बना दिया। अब इक्कीसवीं शताब्दी में, भारत के सर्वहारा क्रान्तिकारियों को नयी समाजवादी क्रान्ति की तैयारी करते हुए मेहनतकश वर्गों की वैकल्पिक क्रान्तिकारी सत्ता को सचेतन रूप से विकसित करना होगा और ऐसा शुरुआती दौर से ही करना होगा। यह एक विस्तृत चर्चा का विषय है, लेकिन यहाँ इतना बता देना ज़रूरी है कि आज की दुनिया में मजबूत सामाजिक अवलंबों वाली किसी बुर्जुआ राज्यसत्ता को आम बग़ावत के द्वारा चकनाचूर करने के लिए “वर्गों के बीच लम्बा अवस्थितिगत युद्ध” अवश्‍यम्भावी होगा और इस “युद्ध” में सर्वहारा वर्ग और मेहनतकश जनता के ऐसे जनदुर्गों की अपरिहार्यत: महत्वपूर्ण भूमिका होगी। साथ ही, जनता की वैकल्पिक सत्ता के निर्माण की प्रक्रिया को सचेतन रूप से आगे बढ़ाकर ही, क्रान्ति के बाद सर्वहारा जनवाद के आधार को व्यापक बनाया जा सकता है और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के लिए सचेष्‍ट बुर्जुआ तत्वों के विरुद्ध सतत् संघर्ष अधिक प्रभावी, निर्मम निर्णायक और समझौताहीन ढंग से चलाया जा सकता है। स्पष्‍ट है कि नयी समाजवादी क्रान्ति की सोच से जुड़ी वैकल्पिक सत्ता के सचेतन निर्माण की अवधारणा के पीछे सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की शिक्षाओं की अहम भूमिका है।

जहाँ तक औद्योगिक मज़दूर वर्ग के बीच ट्रेड यूनियन कार्यों की बात है, हमें कारख़ाना–केन्द्रित यूनियनों में काम करने और उनपर अपनी राजनीति का वर्चस्व स्थापित करने के हर अनुकूल अवसर का इस्तेमाल करना चाहिए, लेकिन हमारा ज़ोर (असंगठित मज़दूर आबादी को मुख्य लक्ष्य बनाने के नाते) मुख्य तौर पर, यदि ताकत जुट जाये तो, इलाकाई पैमाने पर मज़दूरों की यूनियनें संगठित करने पर होना चाहिए। आज इसके लिए वस्तुगत परिस्थितियाँ, पहले हमेशा से अधिक अनुकूल हैं।

आज की मंज़िल में, आगे के कार्यभारों की चर्चा हम संक्षेप में आम दिशा के रूप में ही कर सकते हैं। अपने विकास की आगे की मंजिल में, कोई कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन या सर्वभारतीय पार्टी औद्योगिक सर्वहारा वर्ग के बाद दूसरी प्राथमिकता में अपना काम गाँवों की विशाल सर्वहारा अर्द्धसर्वहारा आबादी पर केन्द्रित करेगी। उसका काम गाँव के ग़रीबों में ज़मीन की भूख पैदा करना नहीं बल्कि उन्हें यह बतलाना होगा कि ज़मीन के किसी छोटे टुकड़े का मालिकाना न तो उनकी समस्याओं का समाधान है, न ही पूँजी की मार से वे उसे बचा ही सकते हैं। केवल समाजवाद के अन्तर्गत भूमि का सामुदायिक व राजकीय स्वामित्व ही उनकी समस्या का समाधान हो सकता है और उनकी आज़ादी एवं समानता की, उनके जनवादी अधिकारों की एकमात्र गारण्टी हो सकता है। हमें उनके राजनीतिक संघर्षों को बुर्जुआ राज्यसत्ता के विरुद्ध केन्द्रित करना होगा और मज़दूरी के सवाल पर उनके आर्थिक संघर्ष को गाँव के पूँजीवादी भूस्वामियों व कृषि–आधारित उद्योगों के मालिकों के विरुद्ध केन्द्रित करना होगा। पूँजी की मार से त्रस्त छोटे और निम्न मध्यम मालिक किसानों को भी हमें लगातार यह बताना होगा कि पूँजीवादी समाज में जगह–ज़मीन से उजड़कर सर्वहारा की कतारों में शामिल होना उनकी नियति है, कि लागत मूल्य और लाभकारी मूल्य की लड़ाई से उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा और उनके सामने एकमात्र रास्ता यही है कि वे सर्वहारा वर्ग के साथ मिलकर साम्राज्यवाद, पूँजीवाद और धनी किसानों की सत्ता के विरुद्ध, समाजवाद के लिए संघर्ष करें। इसके ऊपर मँझोले मालिक किसानों का जो मध्यवर्ती संस्तर है, उसे पूँजी और श्रम के बीच की लड़ाई में तटस्थ या निष्क्रिय बनाने की हर चन्द कोशिश करनी होगी, पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध केन्द्रित उसकी माँगों को पूरा समर्थन देना होगा, ऐसी माँगों पर उनके आन्दोलन (जनता के अन्य वर्गों के साथ साझा आन्दोलन) संगठित करने होंगे तथा बड़े मालिक किसानों के आन्दोलनों से उन्हें अलग करने की हर सम्भव कोशिश करनी होगी।

इसके बाद कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का अगला लक्ष्य शहरों में सेवाक्षेत्र और वाणिज्य से जुड़े सर्वहारा वर्ग को उनके आर्थिक और राजनीतिक माँगों पर संगठित करना होगा। शहरी मध्यवर्ग का एक छोटा–सा ऊपरी हिस्सा आज समृद्धि और विलासिता के शिखर पर बैठा हुआ है और पूँजीवादी व्यवस्था का सर्वाधिक विश्‍वस्त स्तम्भ की भूमिका निभा रहा है। उसका मध्यवर्ती संस्तर बस जैसे–तैसे अपने अस्तित्व को बनाये हुए है, समृद्धि के सपने पाले हुए कभी वह ऊपर की ओर देखता है, तो कभी मोहभंग की स्थिति में व्यवस्था–विरोध की बातें करता है। शेष निम्न मध्यवर्ग की एक भारी आबादी है जो पूँजी की मार से त्रस्त है और रोज़मर्रे की ज़रूरतों भी मुश्किल से ही जुटाती हुई लगातार तमाम अनिश्चितताओं के बीच जी रही है। इस तबके के युवाओं के सामने बेरोज़गारी की विकराल समस्या मुँह बाये खड़ी है। लगातार क्रान्तिकारी प्रचार की कार्रवाई के द्वारा कम्युनिज़्म के प्रति इसके पूर्वाग्रहों और भ्रान्तियों को तोड़कर इसे समाजवाद के पक्ष में खड़ा किया जा सकता है। रोजगार और बुनियादी नागरिक माँगों पर मध्यवर्ग के इस हिस्से को संगठित करके क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट इसे सर्वहारा वर्ग के साथ मोर्चे में साथ ला सकते हैं।

भारतीय सर्वहारा वर्ग का हिरावल दस्ता शहरों और गाँवों की सर्वहारा आबादी को संगठित करने के साथ ही तीन वर्गों का रणनीतिक संयुक्त मोर्चा (गाँवों शहरों की सर्वहारा आबादी, छोटे मालिक किसानों सहित गाँवों–शहरों की अर्द्धसर्वहारा आबादी तथा उनके ढुलमुल दोस्त के रूप में मध्यम किसान एवं गाँवों–शहरों का मध्यवर्ग) क़ायम करके ही नयी समाजवादी क्रान्ति को – साम्राज्यवाद–पूँजीवाद विरोधी क्रान्ति को सफल बना सकता है। पूँजीवादी भूस्वामी–फार्मर–कुलक और सभी छोटे–बड़े पूँजीपति आज क्रान्ति के दुश्‍मनों की श्रेणी में आते हैं। केवल नयी समाजवादी क्रान्ति का रास्ता ही आज भारतीय जनता की मुक्ति का रास्ता हो सकता है। इसके कार्यक्रम को अमल में लाने वाली सर्वहारा वर्ग की पार्टी के निर्माण की दिशा में आगे कदम बढ़ाकर ही आज के गतिरोध को तोड़ा जा सकता है। दूसरा कोई भी रास्ता नहीं है।

नयी शुरुआत कहाँ से करें और प्राथमिकताओं एवं ज़ोर का निर्धारण किस प्रकार और किस रूप में करें ?

सर्वहारा के हिरावल दस्ते के फिर से निर्माण की प्रक्रिया आज, अभी प्रारम्भिक अवस्था में है, बस शुरुआत करने भर की स्थिति में है। ऐसी स्थिति में सभी मोर्चों पर सभी कामों को एक साथ हाथ में कत्तई नहीं लिया जा सकता। आज का महत्वपूर्ण प्रश्‍न यह है कि शुरुआत कहाँ से करें और हमारे कामों की प्राथमिकता क्या हो ?

पार्टी–निर्माण के काम को आज का प्रमुख काम मानते हुए, सबसे पहले यह ज़रूरी है कि हम चन्द एक चुने हुए औद्योगिक केन्द्रों में औद्योगिक सर्वहारा वर्ग के बीच अपनी मुख्य एवं सर्वाधिक ताक़त केन्द्रित करें। वहाँ मज़दूरों के जीवन के साथ एकरूप होकर क्रान्तिकारी संगठनकर्ताओं को ठोस परिस्थितियों के हर पहलू की जाँच पड़ताल एवं अध्ययन करना होगा, मज़दूर आबादी के बीच तरह–तरह की संस्थाएँ बनाकर रचनात्मक कार्य करने होंगे, ताकत एवं अनुकूल अवसर के हिसाब से मज़दूरों के रोज़मर्रे के आर्थिक एवं राजनीतिक संघर्षों में भागीदारी करते हुए उनके बीच व्यवहार के धरातल पर क्रान्तिकारी वाम राजनीति का प्राधिकार स्थापित करना होगा और इसके साथ–साथ राजनीतिक शिक्षा एवं प्रचार की कार्रवाइयाँ विशेष ज़ोर देकर संगठित करना होगा। यह ज़रूरी है कि मज़दूर वर्ग के बीच से पार्टी–भरती और उस नयी भरती की राजनीतिक शिक्षा एवं सांगठनिक–राजनीतिक कार्यों में उसके मार्गदर्शन के लिए मज़दूर वर्ग का एक ऐसा राजनीतिक अख़बार नियमित रूप से प्रकाशित किया जाये तो मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन और समाजवाद का सीधे प्रचार करते हुए मज़दूरों के शिक्षक, प्रचारक और संगठनकर्ता की भूमिका निभाये। ऐसा अख़बार पार्टी–निर्माण के प्रमुख उपकरण की भूमिका निभायेगा।

लेकिन इतने कामों को अंजाम देने के लिए तथा एक छोटे से पार्टी संगठन के ज़रूरी बुनियादी पार्टी कामों को करने के लिए भी आज सक्षम संगठनकर्ताओं की भारी कमी है। इसलिए, आज की फ़ौरी ज़रूरत यह है कि असरदार ढंग से शुरुआत करने के लिए, जल्दी से जल्दी कुछ सक्षम पेशेवर संगठनकर्ताओं की भरती हो, चाहे वह मध्य वर्ग से हो या मज़दूर वर्ग से। इस फ़ौरी ज़रूरत के लिए उचित और व्यावहारिक यही होगा कि मज़दूर वर्ग के बीच प्रचार, शिक्षा एवं आन्दोलन की कार्रवाई को ‘लो प्रोफाइल’ पर जारी रखते हुए, शुरू के कुछ वर्षों के दौरान मध्यवर्गीय शिक्षित युवाओं और छात्रों के मोर्चे पर क्रान्तिकारी भरती को कमान में रखते हुए, कामों पर सबसे अधिक ज़ोर दिया जाये और फिर सक्षम पेशेवर क्रान्तिकारी संगठनकर्ताओं की एक नयी टीम जुटाकर मज़दूरों के बीच कामों पर ज़ोर को मुख्य बना दिया जाये। पेशेवर क्रान्तिकारियों की भरती मज़दूरों के बीच से भी होगी और वहीं भावी क्रान्तिकारी पार्टी की केन्द्रीय शक्ति होगी, लेकिन भारतीय सर्वहारा वर्ग की वर्तमान स्थिति को देखते हुए, उसमें थोड़ा लम्बा समय लगेगा। इसलिए, कम समय में शुरुआती ताकत जुटाने के लिए प्रारम्भ के कुछ वर्षों के दौरान शिक्षित मध्य वर्ग के उन्नत और जुझारू तत्वों की पार्टी–भरती पर ज़्यादा बल देना ही आज की परिस्थितियों में एक सही कदम होगा। फिर ताकत बढ़ते जाने के साथ ही हमें प्राथमिकता–क्रम से उन वर्गों के बीच और उन मोर्चों पर अपने कामों का विस्तार करते जाना होगा, जिनकी चर्चा हमने ऊपर की है।

लेकिन पार्टी–निर्माण के काम की इस प्रारम्भिक अवस्था में भी, बुनियादी विचारधारात्मक कार्यभारों की उपेक्षा नहीं की जा सकती या उन्हें टाला नहीं जा सकता। विपर्यय और पूँजीवादी पुनरुत्थान के वर्तमान अन्धकारमय दौर में पूरी दुनिया की बुर्जुआ मीडिया और बुर्जुआ राजनीतिक साहित्य ने समाजवाद के बारे में तरह–तरह के कुत्सा प्रचार करके विगत सर्वहारा क्रान्तियों की तमाम विस्मयकारी उपलब्धियों को झूठ के अम्बार तले ढँक दिया है। आज की युवा पीढ़ी सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान और विगत सर्वहारा क्रान्तियों की वास्तविकताओं से सर्वथा अपरिचित है। उसे यह बताने की ज़रूरत है कि मार्क्सवाद के सिद्धान्त क्या कहते हैं और इन सिद्धान्तों को अमल में लाते हुए बीसवीं शताब्दी की सर्वहारा क्रान्तियों ने क्या उपलब्धियाँ हासिल कीं। उन्हें यह बताना होगा कि सर्वहारा क्रान्तियों के प्रथम संस्करणों की पराजय कोई अप्रत्याशित बात नहीं थी और फिर उनके नये संस्करणों का सृजन और विश्‍व पूँजीवाद की पराजय भी अवश्‍यम्भावी है। उन्हें यह बताना होगा कि विगत क्रान्तियों ने पराजय के बावजूद, पूँजीवादी पुनर्स्थापना को रोकने का उपाय भी बताया है और इस सन्दर्भ में चीन की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की शिक्षाओं का युगान्तरकारी महत्व है। आज के सर्वहारा वर्ग की नयी पीढ़ी को इतिहास की इन्हीं शिक्षाओं से परिचित कराने के कार्यभार को हम नये सर्वहारा पुनर्जागरण का नाम देते हैं। लेकिन इक्कीसवीं सदी की सर्वहारा क्रान्तियाँ हू ब हू बीसवीं सदी की सर्वहारा क्रान्तियों के नक़्शेक़दम पर नहीं चलेंगी। ये अपनी महान पूर्वज क्रान्तियों से ज़रूरी बुनियादी शिक्षाएँ लेंगी और फिर इस विरासत के साथ, वर्तमान परिस्थितियों का अध्ययन करके, पूँजी की सत्ता को निर्णायक शिकस्त देने की रणनीति एवं आम रणकौशल विकसित करेंगी। यह प्रक्रिया गहन सामाजिक प्रयोग, उनके सैद्धान्तिक समाहार, गम्भीर शोध–अध्ययन, वाद–विवाद, विचार–विमर्श और फिर नई सर्वहारा क्रान्तियों की प्रकृति, स्वरूप एवं रास्ते से सर्वहारा वर्ग और क्रान्तिकारी जनसमुदाय को परिचित कराने की प्रक्रिया होगी। इन्हीं कार्यभारों को हम नये सर्वहारा प्रबोधन के कार्यभार के रूप में प्रस्तुत करते हैं। मार्क्सवादी दर्शन को सर्वतोमुखी नयी समृद्धि तो भावी नयी समाजवादी क्रान्तियाँ ही प्रदान करेंगी, लेकिन यह प्रक्रिया नये सर्वहारा प्रबोधन के कार्यभारों को अंजाम देने के साथ ही शुरू हो जायेगी। नये सर्वहारा पुनर्जागरण और नये सर्वहारा प्रबोधन के कार्यभार विश्‍व–ऐतिहासिक विपर्यय के वर्तमान दौर में, तथा विश्‍व पूँजीवाद की प्रकृति एवं कार्यप्रणाली का अध्ययन करके श्रम और पूँजी के बीच के विश्‍व–ऐतिहासिक महासमर के अगले चक्र में पूँजी की शक्तियों की अन्तिम रूप से पराजय को सुनिश्चित बनाने की सर्वतोमुखी तैयारियों के कठिन चुनौतीपूर्ण दौर में, सर्वहारा वर्ग के अनिवार्य कार्यभार हैं जिन्हें सर्वहारा वर्ग का हिरावल दस्ता अपनी सचेतन कार्रवाइयों के द्वारा नेतृत्व प्रदान करेगा। ये कार्यभार पार्टी–निर्माण के कार्यभारों के साथ अविभाज्यत: जुड़े हुए हैं और पाटी–निर्माण के प्रारम्भिक चरण से ही इन्हें हाथ में लेना ही होगा, चाहे हमारे ऊपर अन्य आवश्‍यक राजनीतिक–सांगठनिक कामों का बोझ कितना भी अधिक क्यों न हो! इन कार्यभारों को पूरा करने वाला नेतृत्व ही नयी समाजवादी क्रान्ति की लाइन को आगे बढ़ाने के लिए सैद्धान्तिक अध्ययन और ठोस सामाजिक–आर्थिक–राजनीतिक परिस्थितियों के अध्‍ययन के कामों को सफलतापूर्वक आगे बढ़ा पायेगा।

एक नयी लाइन जैसे–जैसे सुनिश्चित शक़्ल अख्तियार करती जाती है, वैसे–वैसे कार्यकर्ता निर्णायक होते चले जाते हैं। लेकिन यह प्रक्रिया अपने आप घटित नहीं होती। एक सही लाइन के नतीजे़ तक पहुँचने के बाद सांगठनिक कार्यों पर विशेष ज़ोर बढ़ा देना पड़ता है। तभी जाकर कतारें निर्णायक ढंग से प्रभावी हो पाती हैं। लाइन के विकास के संदर्भ में अभी काफी कुछ किया जाना है, लेकिन नयी समाजवादी क्रान्ति की आम दिशा और आम स्वरूप आज हमारे सामने है। इसलिए, अब समय आ गया है कि सांगठनिक कार्यों पर हम विशेष ज़ोर दें। सबसे पहले ज़रूरी है कि तमाम विजातीय तत्वों और तमाम ढुलमुलयक़ीनों को तमाम कायरों–निठल्लों और तमाम अवसरवादियों को छाँट–बीनकर बाहर फेंक दिया जाये। कूड़ा–करकट की सफ़ाई लोहे के हाथों से करनी होगी और बोल्शेविक परम्परा को महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की शिक्षाओं के आलोक में आगे बढ़ाते हुए जनवादी केन्द्रीयता पर आधारित इस्पाती सांगठनिक ढाँचे का निर्माण करना होगा। पार्टी–निर्माण के वर्तमान दौर की अन्तर्वस्तु के हिसाब से सांगठनिक ढाँचा खड़ा करना ही आज पार्टी–गठन का कार्यभार है, जिसकी उपेक्षा कदापि नहीं की जा सकती।

नयी समाजवादी क्रान्ति के तूफ़ान को निमंत्रण दो! सर्वहारा के हिरावलों से अपेक्षा है स्वतंत्र वैज्ञानिक विवेक की और धारा के विरुद्ध तैरने के साहस की!

इतिहास में पहले भी कई बार ऐसा देखा गया है कि राजनीतिक पटल पर शासक वर्गों के आपसी संघर्ष ही सक्रिय और मुखर दिखते हैं तथा शासक वर्गों और शासित वर्गों के बीच के अन्तरविरोध नेपथ्य के नीम अँधेरे में धकेल दिये जाते हैं। ऐसा तब होता है जब क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर हावी होती है, ऐतिहासिक प्रगति की शक्तियों पर गतिरोध और विपर्यय की शक्तियाँ हावी होती हैं। हमारा समय विपर्यय और प्रतिक्रिया का ऐसा ही अँधेरा समय है। और यह अँधेरा पहले के ऐसे ही कालखण्डों की तुलना में बहुत अधिक गहरा है, क्योंकि यह श्रम और पूँजी के बीच के विश्‍व ऐतिहासिक महासमर के दो चक्रों के बीच का ऐसा अन्तराल है, जब पहला चक्र श्रम की शक्तियों के पराजय के साथ समाप्त हुआ है और दूसरा चक्र अभी शुरू नहीं हो सका है। विश्‍व–पूँजीवाद के ढाँचागत असाध्य संकट, उसकी चरम परजीविता, साम्राज्यवादी लुटेरों की फिर से गहराती प्रतिस्पर्द्धा, पूरी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में साम्राज्यवादी बर्बरता और पूँजीवादी लूट–खसोट के विरुद्ध जनसमुदाय की लगातार बढ़ती नफ़रत और इस कठिन समय में क्रान्तिकारी सर्वहारा नेतृत्व के अभाव के बावजूद दुनिया के किसी न किसी कोने में भड़कते रहने वाले जन संघर्षों का सिलसिला यह स्पष्‍ट संकेत दे रहे हैं कि आने वाले समय में विश्‍व पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ा जाने वाला युद्ध निर्णायक होगा। श्रम और पूँजी के बीच विश्‍व ऐतिहासिक महासमर का अगला चक्र निर्णायक होगा क्योंकि अपनी जड़ता की शक्ति ये जीवित विश्‍व पूँजीवाद में अब इतनी जीवन शक्ति नहीं बची है कि अक्तूबर क्रान्ति के नये संस्करणों द्वारा पराजित होने के बाद वह फिर विश्‍वस्तर पर उठ खड़ा हो और दुनिया को विश्‍वव्यापी विपर्यय का एक और दौर देखना पड़े। इक्कीसवीं सदी की सर्वहारा क्रान्तियों के ऊपर पूँजीवाद के पूरे युग को इतिहास की कचरा–पेटी के हवाले करने की ज़िम्मेदारी है। साथ ही, ये क्रान्तियाँ केवल पाँच सौ वर्षों की आयु वाले पूँजीवाद के विरुद्ध ही नहीं, बल्कि पाँच हज़ार वर्षों की आयु वाले समूचे वर्ग समाज के विरुद्ध निर्णायक क्रान्तियाँ होंगी, क्योंकि पूँजीवाद के बाद मानव सभ्यता के अगले युग केवल समाजवादी संक्रमण और कम्युनिज़्म के युग ही हो सकते हैं – समाज–विकास की गतिकी का ऐतिहासिक–वैज्ञानिक अध्ययन यही बताता है।

इसलिए, इसमें कोई आश्‍चर्य की बात नहीं कि भावी क्रान्तियों को रोकने के लिए विश्‍व–पूँजीवाद आज अपनी समस्त आत्मिक–भौतिक शक्ति का व्यापकतम, सूक्ष्मतम और कुशलतम इस्तेमाल कर रहा है। इसमें कोई आश्‍चर्य की बात नहीं कि विश्‍व ऐतिहासिक महासमर के निर्णायक चक्र के पहले, प्रतिक्रिया और विपर्यय का अँधेरा इतना गहरा है और गतिरोध का यह कालखण्ड भी पहले के ऐसे ही कालखण्डों की अपेक्षा बहुत अधिक लम्बा है। इसमें कोई आश्‍चर्य की बात नहीं कि पूरी दुनिया में नई सर्वहारा क्रान्तियों की हिरावल शक्तियाँ अभी भी ठहराव और बिखराव की शिकार हैं। यह सबकुछ इसलिए है कि हम युग–परिवर्तन के अबतक के सबसे प्रचण्ड झंझावाती समय की पूर्वबेला में जी रहे हैं।

यह एक ऐसा समय है जब इतिहास का एजेण्डा तय करने की ताक़त शासक वर्गों के हाथों में है। कल इतिहास का एजेण्डा तय करने की कमान सर्वहारा वर्ग के हाथों में होगी। यह एक ऐसा समय है जब शताब्दियों के समय में चन्द दिनों के काम पूरे होते हैं, यानी इतिहास की गति इतनी मद्धम होती है कि गतिहीनता का आभास होता है। लेकिन इसके बाद एक ऐसा समय आना ही है जब शताब्दियों के काम चन्द दिनों में अंजाम दिये जायेंगे।

लेकिन गतिरोध के इस दौर की सच्चाइयों को समझने का यह मतलब नहीं कि हम इतमीनान और आराम के साथ काम करें। हमें अनवरत उद्विग्न आत्मा के साथ काम करना होगा, जान लड़ाकर काम करना होगा। केवल वस्तुगत परिस्थितियों से प्रभावित होना इंकलाबियों की फितरत नहीं। वे मनोगत उपादानों से वस्तुगत सीमाओं को सिकोड़ने–तोड़ने के उद्यम को कभी नहीं छोड़ते। अपनी कम ताकत को हमेशा कम करके ही नहीं आँका जाना चाहिए। अतीत की क्रान्तियाँ बताती हैं कि एक बार यदि सही राजनीतिक लाइन के निष्‍कर्ष तक पहुँच जाया जाये और सही सांगठनिक लाइन के आधार पर सांगठनिक काम करके उस राजनीतिक लाइन को अमल में लाने वाली क्रान्तिकारी कतारों की शक्ति को लाभबंद कर दिया जाये तो बहुत कम समय में हालात को उलट–पुलटकर विस्मयकारी परिणाम हासिल किये जा सकते हैं। हमें धारा के एकदम विरुद्ध तैरना है। इसलिए, हमें विचारधारा पर अडिग रहना होगा, नये प्रयोगों के वैज्ञानिक साहस में रत्ती भर कमी नहीं आने देनी होगी, जी–जान से जुटकर पार्टी–निर्माण के काम को अंजाम देना होगा और वर्षों के काम को चन्द दिनों में पूरा करने का जज़्बा, हर हाल में कठिन से कठिन स्थितियों में भी बनाये रखना होगा।

 

बिगुल, दिसम्‍बर 2006-जनवरी 2007

 


 

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