ये मौतें बीमारी की वजह से हैं या कारण कुछ और है?

नवमीत

अभी कुछ दिन पहले ही की खबर है कि देश की राजधानी दिल्ली में डेंगू से पीड़ित एक छह वर्षीय बच्चे की समय पर इलाज न मिलने की वजह से मृत्यु हो गई। बच्चे के माता पिता उसको उठाए उठाए इस अस्पताल से उस अस्पताल तक भटकते रहे लेकिन न तो सरकारी अस्पताल में और न ही किसी प्राइवेट अस्पताल में बच्चे को दाखिल किया गया। सरकारी अस्पतालों ने वही रटा रटाया जवाब दिया कि उनके पास बिस्तर नहीं हैं। और चूँकि बच्चे के माता पिता निम्न मध्य वर्ग से सम्बन्ध रखते थे तो बड़े कॉर्पोरेट अस्पतालों की फीस वे दे नहीं सकते थे। अंत में एक प्राइवेट अस्पताल में जब उसको दाखिल किया गया तो तब तक बहुत देर हो चुकी थी और अंततः यह बच्चा इस मुनाफाखोर व्यवस्था की भेंट चढ़ गया। बाद में सदमे से इस बच्चे के माता पिता ने भी आत्महत्या कर ली। लेकिन यह कोई नया मामला नहीं है और न ही पहली बार इस तरह से किसी की मौत हुई है। पिछले दो दशकों से डेंगू हर साल देश को और खासतौर पर दिल्ली को अपनी चपेट में ले लेता है। सिर्फ डेंगू ही नहीं बल्कि मलेरिया, जापानी बुखार, इन्फ्लुएंजा, हैजा जैसी बीमारियाँ हर साल लाखों लोगों को लील जाती हैं। आज जबकि चिकित्सा विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि हम अधिकतर बीमारियों का इलाज कर सकते हैं और बाकी को फैलने से रोक सकते हैं। लेकिन इतनी खोजों और विकास के बावजूद देश की जनता पर बीमारियों का घातक आक्रमण होता है। एक अध्ययन के अनुसार भारत में हर साल 60 लाख डेंगू के मामले होते हैं जो रिपोर्ट ही नहीं होते। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में मलेरिया के हर साल 1000000 केस रिपोर्ट होते हैं जिनमें से 15000 की मौत हो जाती है जबकि एक अन्य अध्ययन के अनुसार भारत में हर साल मलेरिया से 200000 मौतें होती हैं जो रिपोर्ट नहीं हो पाती। भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार हर साल जापानी बुखार से 1714 और 6594 के बीच केस सामने आते हैं जिनमें से 367 और 1665 के बीच मर जाते हैं। इसी तरह अगर टाइफाइड की बात करें तो इस बीमारी से भी भारत में हर साल 10 लाख से ज्यादा लोग पीड़ित होते हैं। मोटे तौर पर देखा जाए तो प्रति 1 लाख की जनसंख्या में से 88 लोग इस बीमारी का शिकार हर साल हो जाते हैं। जाहिर है कि ये आंकड़े देश के स्वास्थ्य की भयावह तस्वीर पेश करते हैं। लेकिन इससे भी भयावह वह तस्वीर है जो यह मानवता विरोधी व्यवस्था इन बीमारियों की रोकथाम और इलाज के दौरान प्रस्तुत करती है।

health corruptionआज हमारे पास अधिकतर बीमारियों से लड़ने के लिए दवाएं मौजूद है। न सिर्फ मौजूद हैं बल्कि इनका बहुत बड़ा जखीरा हमारे पास है। ऐसे में होना तो यह चाहिए कि हर आदमी को हर तरह की दवा समय पर और मुफ्त में उपलब्ध हो, लेकिन अधिकतम जनसंख्या को बहुत जरूरी दवाएं तक नहीं मिल पाती हैं, या तो ये उपलब्ध नहीं हैं और  जहाँ उपलब्ध हैं वहां अधिकतर लोगों की पहुँच नहीं है। भारत में लगभग दो-तिहाई आबादी को समय पर दवाई नहीं मिलती। जाहिर है एक बड़ी आबादी पेटभर कर भोजन नहीं कर पाती है तो दवा कहाँ से खरीद पायेगी। कुछ साल पहले हरियाणा और राजस्थान की सरकारों ने सभी सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कालेजों में सभी को मुफ्त दवाएं उपलब्ध करवाने की परियोजना शुरू की थी। पूंजीवाद गंदगी को ढंकने के लिए अक्सर राज्यसत्ता कल्याणकारी स्कीमें चलाती है। लेकिन विडंबना यह है कि व्यापक मेहनतकश आबादी को इन कल्याणकारी योजनाओं से भी कोई लाभ नहीं हो पाता है। राजस्थान में दो साल से इस परियोजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है और मरीजों को अभी भी दवा के लिए प्राइवेट मेडिकल स्टोरों पर अपनी जेब कटवानी पड़ती है। देखा तो यह भी गया है कि मरीज को सरकार द्वारा भेजी गई दवा भी प्राइवेट स्टोर से खरीदनी पड़ी है। ऐसा नहीं है कि दवाओं की कमी है या सरकार के पास पैसा नहीं है। इंडियन ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन नामक एक गैर सरकारी संगठन द्वारा किए गए एक सर्वे के अनुसार 2020 तक भारतीय दवा मार्किट का कारोबार 85 अरब अमेरिकी डॉलर हो जाने की सम्भावना है। बहुत तेजी से बढ़ता हुआ दवा उद्योग हमारे देश में ही नहीं पूरी दुनिया में हथियारों के बाद सबसे ज्यादा मुनाफे का कारोबार बनता जा रहा है। लेकिन फिर यह एक मुनाफाखोर व्यवस्था ही है जिसमें मानवता के लिए कोई स्थान नहीं है। एक अनुमान के अनुसार अगर सरकार बजट का 2 प्रतिशत भी दवाओं पर खर्च करे तो पूरे देश में मुफ्त दवाएं उपलब्ध करवाई जा सकती हैं। पिछले बजट में केंद्र सरकार ने बड़े कॉर्पोरेट हाउसेस को लगभग छह लाख करोड़ के अनुदान और सब्सिडी दिए हैं, वहीँ जन कल्याणकारी स्कीमों (जिसमे स्वास्थ्य भी है) को दिए जाने वाले बजट से 18000 करोड़ रूपये की कटौती की है। जाहिर है सरकार के पास पैसे की कमी नहीं है, बल्कि असल बात ये है कि सरकार को जनता से कुछ लेना देना नहीं है।

अब अगर स्वास्थ्य सेवाओं की बात की जाए तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हेल्थ सिस्टम की रैंकिंग में भारत का स्थान पूरी दुनिया में 112वाँ है। गृहयुद्ध की मार झेल रहा लीबिया भी इस क्षेत्र में भारत से आगे है। भारत में हर तीस हजार की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, हर एक लाख की आबादी पर 30 बेड वाले एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और हर सब डिविजन पर एक 100 बेड वाले सामान्य अस्पताल का प्रावधान है। आज की मौजूदा हालत में ये प्रावधान ऊंट के मुंह में जीरा ही हैं लेकिन असल में होता क्या है कि जनता तक ये प्रावधान भी नहीं पहुँच पाते हैं। मतलब नौबत ये है कि ऊंट के मुंह में जीरा तक नहीं है। भारत में आज के समय में 381 सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं जिनमें एक एमबीबीएस डॉक्टर को तैयार करने में 30 लाख से ज्यादा का खर्चा आता है। जाहिर है यह सब मेडिकल कॉलेज बनाने में और डॉक्टरों की पढ़ाई का सारा पैसा देश की जनता द्वारा दिए गए टैक्स से ही आता है, लेकिन यहाँ से डिग्री लेने के बाद अधिकतर डॉक्टर बड़े कॉर्पोरेट अस्पतालों में या फिर निजी व्यवसाय में उसी जनता की जेब काटने में जुट जाते हैं। जो थोड़े से डॉक्टर सरकारी नौकरी करना भी चाहते हैं तो उनके लिए जन स्वास्थ्य सेवाओं या सरकारी अस्पतालों में वैकेंसी नहीं निकलती। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में डॉक्टरों की भारी कमी का आलम ये है कि भारत में दस हजार की आबादी पर सरकारी और प्राइवेट मिलाकर कुल डॉक्टर ही 7 हैं और अगर अस्पतालों में बिस्तरों की बात करें तो दस हजार की आबादी पर सिर्फ 9 बिस्तर मौजूद हैं। दूसरे देशों से तुलना की जाये तो क्यूबा में प्रति दस हजार आबादी 67 डॉक्टर हैं, रूस में 43, स्विट्ज़रलैंड में 40 और अमेरिका में 24 डॉक्टर हर दस हजार की आबादी पर हैं। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार दस हजार की आबादी पर कम से कम 25 डॉक्टर और 50 बिस्तर होने ही चाहिएं। बीमारियों के इतनी अधिक बोझ के चलते हालाँकि यह मानक भी पर्याप्त नहीं हैं लेकिन हमारे देश में यह न्यूनतम सुविधा भी लोगों को नहीं मिल पा रही है। ऐसे में अगर कोई महामारी फैलती है तो सरकार पैसे और इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी कह कर पल्ला झाड़ने को तैयार रहती है। ज्यादा से ज्यादा सरकार ये करती है कि किसी भी बीमारी की रोकथाम के लिए ठोस तरीके से कारगर कदम उठाने की बजाय लोगों में बीमारी का हौव्वा खड़ा कर दिया जाता है, जिससे उसपर कण्ट्रोल तो होता नहीं लेकिन प्राइवेट डॉक्टरों के मुनाफे में जरूर बढ़ोतरी हो जाती है। या फिर यह किया जाता है कि जैसे ही महामारी फैलती है और मौतें होने लगती हैं तो फटाफट सम्बंधित रजिस्टरों को भर लिया जाता है और रिकॉर्ड बना लिया जाता है कि सरकार की तरफ से पूरी कोशिशें की गई हैं। स्वास्थ्य कर्मियों और डॉक्टरों की फर्जी विजिट भी सम्बंधित क्षेत्र में दिखा दी जाती हैं। अब डेंगू को ही ले लीजिए। यह एडिस नामक मच्छर से फैलने वाला रोग है। पहले तो सरकारें और नगर निगम कालोनियों और बस्तियों में मच्छर मारने के लिए फोगिंग या कीटनाशकों का छिडकाव कभी कभार ही सही कर देती थी, लेकिन अब तो आलम ये है कि कालोनी वालों यह पता ही नहीं होता कि फोगिंग नाम की भी कोई चीज होती है। साफ़ बात है अगर मच्छरों को मार दिया गया तो फिर डेंगू कैसे फैलेगा, और अगर डेंगू नहीं फैला तो प्राइवेट हेल्थ सेक्टर और दवा कम्पनियों को मुनाफा कैसे मिलेगा? और यह बात सिर्फ डेंगू पर नहीं सभी बीमारियों पर लागू होती है। दूषित पानी से फैलने वाली बीमारी टाइफाइड या हेपेटाइटिस ए का कारोबार भी इसी तरह से होता है। सरकार का काम होता है कि वह सभी नागरिकों को पीने का साफ पानी मुहैया कराए लेकिन कालोनियों और मजदूरों की बस्तियों में अव्वल तो पानी पानी पहुँचता ही नहीं और जो पहुँचता है वह टूटी फूटी पाइपों के जरिये गंदी दूषित जगहों से हो कर आता है जिसको पीने से टाइफाइड ही क्या अनेकों बीमारियाँ हो जाती हैं। और इन का सीधा फायदा दवा कम्पनियों और प्राइवेट अस्पतालों को पहुँचता है।

जैसा कि हम जिक्र कर चुके हैं कि पूंजीवाद कुछ हद तक जन कल्याणकारी योजनाएं चलाता ही है। ये इसकी मजबूरी होती है लेकिन आज पूंजीवाद इस हालत में नहीं है कि इन योजनाओं को जारी रख सके। कल्याणकारी राज्य का कींसियाई फार्मूला लगातार जारी पूंजीवादी संकट के चलते फेल हो चुका है। ऐसे में पूरी दुनिया में सरकारें नागरिकों को मूलभूत सुविधाएँ मुहैया कराने से हाथ खींच रही हैं। लेकिन भारत जैसे देश में यह काम ज्यादा बेशर्मी के साथ और ज्यादा तेजी के साथ किया जा रहा है। स्वास्थ्य और शिक्षा ये दोनों ही बेहद मुनाफा देने वाले कारोबार हैं। और सरकार इन दोनों से ही पल्ला झाड कर जनता को प्राइवेट खून चूसू जोंकों के हवाले करने पर तुली हुई है। जाहिर सी बात है इसका सीधा फायदा बड़े कॉर्पोरेट और पूंजीपतियों को ही होने वाला है। अगर स्वास्थ्य सेवाओं की बात करें तो हर क्षेत्र की तरह पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप नाम की एक घिनौनी स्कीम इस क्षेत्र में भी चलाने की कोशिश की जा रही है, जिसमें इंफ्रास्ट्रक्चर और पैसा सरकार यानि देश की जनता का और मुनाफा पूंजीपतियों का होगा। दलील दी गई है कि गरीब आदमी को इससे उच्च श्रेणी की स्वास्थ्य सुविधाएँ मिलेंगी, जबकि सच्चाई इससे कोसों दूर है। गरीब आदमी को सिर्फ ठोकरें मिलती हैं जैसा कि हम डेंगू से पीड़ित इस बच्चे के केस में देख चुके हैं। अब अगर प्राइवेट अस्पतालों की बात करें तो प्राइवेट अस्पताल असल में इलाज नहीं करते बल्कि इलाज को माल की तरह बेचते हैं, इस तरह से इनके लिए मरीज मरीज नहीं होता, सिर्फ कस्टमर होता है, और जो “माल” को खरीदने की हैसियत रखता है वो खरीद लेता है और जो यह हैसियत नहीं रखता वह मर जाता है। गौरमतलब है कि 2007 में दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्देश के अनुसार दिल्ली सरकार ने प्राइवेट अस्पतालों को नोटिफिकेशन जारी किया हुआ है कि प्राइवेट अस्पतालों में 10 प्रतिशत बिस्तर गरीब मरीजों के लिए फ्री होने चाहिए। लेकिन इस बात से इनके मालिकों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। क्योंकि इस आदेश के उलंघन लाखों रूपये मरीज से वसूलने वाले ये अस्पताल थोडा बहुत आर्थिक दंड कभी भी भर सकते हैं। ये अस्पताल अपने बिस्तरों को खाली रख लेते हैं लेकिन गरीबों को एडमिट नहीं करते, क्योंकि गरीब इनकी फीस नहीं दे सकते। और अगर मरीज कहीं से पैसे का जुगाड़ करके इनके चंगुल में फंस भी जाये तो उसकी जेब को तराशने में ये कोई कसर नहीं छोड़ते। तमाम तरह के गैरजरूरी टेस्ट और गैरजरूरी दवाएं जो बहुत महंगी होती हैं, मरीज पर थोप दी जाती हैं। बिस्तर का खर्चा और डॉक्टर की फीस तो इनसे अलग होती ही है। दो साल पहले दिल्ली हाई कोर्ट में सीमा चौहान नाम की एक महिला ने शिकायत दर्ज कराई थी कि अपोलो अस्पताल ने पहले तो लीवर की बीमारी से पीड़ित उसके पति की इलाज के दौरान मृत्यु के बाद 8 लाख रूपये का बिल थमा दिया और पैसे जमा न होने तक उसके शव को नहीं सौंपा। मानवीय संवेदनाओं की कितनी दुर्गति मानवीय समझे जाने वाले इस पेशे में हो रही है। ये तो एक उदाहरण मात्र है। ऐसे वाकये रोज होते हैं लेकिन किसी सरकार या प्रशासन के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। यह सब कुछ सरकार की नाक के नीचे सरकार की जानकारी या कहिये सरकार की मिलीभगत से ही होता है। साफ है कि सरकार पूंजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी होने का अपना फ़र्ज़ बहुत बढ़िया तरीके से निभा रही है।

कुल मिलकर बात ये है कि पूंजीवादी व्यवस्था अपने आप में एक बीमारी है जो पूरे समाज को खाए जा रही है। इस व्यवस्था के चलते कोई भी जन कल्याणकारी काम होने की उम्मीद करना बेमानी है। इस व्यवस्था में किसी का कल्याण हो सकता है तो वो है सिर्फ और सिर्फ पूंजीपति और उनके दलाल। यूँ तो किसी भी क्षेत्र में समाजवादी व्यवस्था पूंजीवाद से कई गुणा बेहतर होगी लेकिन अगर हम सिर्फ जन स्वास्थ्य की ही बात करें तो सोवियत संघ और चीन में समाजवादी दौर में हुए महान प्रयोगों के दौरान जन स्वास्थ्य और चिकित्सा के क्षेत्र में जो उपलब्धियां हासिल की गई थी वे अद्वितीय थी। यहाँ तक कि क्यूबा में भी स्वास्थ्य सुविधाएँ आज भी दुनिया में सर्वश्रेष्ठ में से एक मानी जाती हैं। आज जरूरत इसी बात की है कि मुनाफे पर टिकी हुई इस मानवद्रोही संवेदनाहीन व्यवस्था को उखाड़ फेंका जाए और मेहनतकश जनता का लोक स्वराज  स्थापित किया जाए। केवल तभी इस बीमारी से मरती हुई मानवता को बचाया जा सकता है।

(लेखक पेशे से डॉक्टर हैं)

मज़दूर बिगुल, अक्‍टूबर-नवम्‍बर 2015


 

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