पूँजीवादी खेती, अकाल और किसानों की आत्महत्याएँ
मुनाफ़े की व्यवस्था में बर्बाद होना ही छोटे किसानों की नियति है

विराट

महाराष्ट्र में किसानों का आत्महत्या करना लगातार जारी है। पिछले कुछ सालों के मुक़ाबले इस साल आत्महत्याओं की दरों में बहुत तेज़ी आयी है। 2015 में जनवरी से जून तक छह महीनों में ही 1300 किसान आत्महत्या कर चुके हैं (यह सरकारी आँकड़ा है, कुछ विश्लेषकों के अनुसार यह संख्या 2000 से भी अधिक है)। महाराष्ट्र के 14,708 गाँवों को सूखाग्रस्त घोषित किया जा चुका है और बड़े पैमाने पर पीने के पानी की भी समस्या उठ खड़ी हुई है। अन्य राज्यों में भी स्थिति कोई बेहतर नहीं है और कर्नाटक के भी 27 ज़िलों को सूखाग्रस्त घोषित किया जा चुका है। खु़द केन्द्र का इस समस्या पर क्या रवैया है यह केन्द्रीय मन्त्री राधा मोहन सिंह के बयान से ही पता चल जाता है, जो कहते हैं कि आत्महत्याओं की असल वजह प्रेम सम्बन्ध, नपुंसकता आदि है। इस वर्ष बरसात भी बेहद कम हुई है जो एक तरह से सूखे का तात्कालिक कारण है। कम बरसात को ही पूरी तरह से सूखे का ज़िम्मेदार बताकर सरकार अपने आपको बचाने में लगी है। अगर पूरी समस्या को समग्रता में देखा जाये तो इसके अनेकों पक्ष निकलकर आते हैं जिन पर विचार करना ज़रूरी है।
58farmer-suicideदेश में सूखे और किसान आत्महत्या की समस्या कोई नयी नहीं है। अगर केवल पिछले 20 सालों की ही बात की जाये तो हर वर्ष 12,000 से लेकर 20,000 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। महाराष्ट्र में यह समस्या सबसे अधिक है और कुल आत्महत्याओं में से लगभग 45 प्रतिशत आत्महत्याएँ अकेले महाराष्ट्र में ही होती हैं। महाराष्ट्र में भी सबसे अधिक ये विदर्भ और मराठवाड़ा में होती हैं। इस साल भी जून तक विदर्भ में 671 और मराठवाड़ा में 438 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। 2012, 2013 और 2014 में क्रमश: 3786, 3146 और 4004 किसानों ने महाराष्ट्र में आत्महत्याएँ की हैं। जून के बाद के आँकड़े हमारे पास मौजूद नहीं हैं लेकिन यह ज़रूर कहा जा सकता है कि स्थिति और भी ख़राब हुई है। बीड़, लातुर, ओस्मानाबाद, जलगाँव, नान्देड़, सतारा, अहमदनगर, यवतमाल, वर्धा आदि सभी ज़िलों से लगातार आत्महत्याओं की ख़बरें रोज़ आ रही हैं।
सूखे और उसके फलस्वरूप आत्महत्याओं के लिए ज़िम्मेदार जिस कारण को सबसे ज़्यादा उछाला जा रहा है वह है – बरसात की कमी। यानी कि प्राकृतिक कारणों को ही पूरी समस्या के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है। नाना पाटेकर, जो आज कल ज़ोरो-शोरों से किसानों की मदद के लिए अभियान चला रहे हैं, भी कहते हैं कि इस समस्या के लिए सरकार को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि बरसात ही बेहद कम हुई है। लेकिन बात या समस्या इतना कह देने से ख़त्म नहीं हो जाती। जिन वर्षों में बरसात की दिक्कत नहीं रही है उनमें भी यह समस्या बड़े स्तर पर मौजूद रही है। असली समस्या बरसात के कम होने के कारण नहीं है बल्कि सरकार द्वारा इस समस्या पर ध्यान न दिये जाने के कारण है। एक सर्वे के अनुसार आत्महत्या करने वाले परिवारों में से एक-तिहाई का कहना है कि आत्महत्या के लिए मुख्य तौर पर ज़िम्मेदार कारक सरकार द्वारा कोई राहत का क़दम न उठाया जाना है। वहीं केवल दस फ़ीसदी परिवारों ने ही बरसात को ज़िम्मेदार बताया। सरकार चाहे किसी की भी रही हो लेकिन सूखे से लगातार जूझने वाले इलाक़ों में सिंचाई का एक व्यवस्थित व क्रियाशील बुनियादी ढाँचा खड़ा करने की किसी भी सरकार ने ज़िम्मेदारी नहीं ली है। यदि जल संचयन का प्रबन्धन ढंग से नहीं होगा तो वे इलाक़े जिनमें काफ़ी ज़्यादा बरसात होती है, भी जल की समस्या से जूझेंगे। चेरापूँजी इसका एक प्रातिनिधिक उदाहरण है। चेरापूँजी भारत में सबसे अधिक वर्षा वाले इलाक़ों में से एक है लेकिन फिर भी वह वर्ष के बड़े हिस्से में जल की समस्या से जूझता है। मुख्य बात यह है कि अगर आज हम सूखे जैसी आपदा से जूझते हैं तो इसके लिए प्राकृतिक कारणों का हवाला देना एक कुतर्क ही है। ये हवाले यदि 17वीं या 18वीं शताब्दी के लिए दिये जायें तो बात कुछ समझ में भी आती है। विज्ञान व तकनीक आज इतनी विकसित हो चुकी है कि सबसे कम बरसात वाले इलाक़ों में भी चाहें तो पर्याप्त जल का प्रबन्ध किया जा सकता है। मानसून की अनियमितता के कारण सूखा पड़ने की ख़बरों से हम बचपन से ही परिचित होते आए हैं और यह एक आम धारणा-सी बन गयी है कि सूखे का मुख्य कारण प्राकृतिक है। कम मानसून में भी भारत में इतनी बारिश होती है कि अगर उस जल का संचरण करके सही तरीक़े से इस्तेमाल किया जाये तो सूखे की समस्या से निपटा जा सकता है। नदियों के जल को यदि एक व्यवस्थित तरीक़े से इस्तेमाल किया जाये और इसके लिए ज़रूरी ढाँचा खड़ा किया जाये तो निश्चित तौर पर यह सम्भव है। इसके ज़रिये भूमिगत जल के लगातार गिर रहे स्तर को भी नियन्त्रित किया जा सकता है। सवाल यह है कि यदि यह इतना ही आसान है तो फिर सरकार इस आसान काम को हाथ में क्यों नहीं लेती और क्यों आये दिन लोगों की गालियाँ खाती रहती है। बात यह है कि यह काम तो आसान है लेकिन सरकार के लिए यह काम असम्भव है।
394234-farmer-suicideयह सवाल कि आज की व्यवस्था के भीतर सूखे की समस्या का निपटारा क्यों नहीं हो सकता का क्या जवाब हो सकता है। इस बात का जवाब हमें मौजूदा व्यवस्था के चरित्र में ही खोजना पड़ेगा। मौजूदा व्यवस्था का चरित्र पूँजीवादी है और यह समाज के एक छोटे-से हिस्से के मुनाफ़े की सेवा में लगी है। इस बात का हमारे विषय से क्या सम्बन्ध है? किसी भी सामाजिक समस्या को व्यवस्था के चरित्र के सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है। किसी भी समस्या का हल तभी निकाला जा सकता है जब उसे उसकी समग्रता में समझा जाये। सूखे की समस्या को भी इसी सन्दर्भ में ही हम ठीक से समझ सकते हैं। आज जब सूखे की बात आती है तो आमतौर पर दृष्टिभ्रम की ही स्थिति पैदा हो जाती है। एक चुनावी दल दूसरे चुनावी दल को समस्या के लिए कोसता रहता है। जो पक्ष सरकार में होता है वह यह कहता रहता है कि वे समस्या को गम्भीरता से ले रहे हैं और सरकार द्वारा कुछ आश्वासन दिये जाते हैं। सरकार के द्वारा कुछ योजनाएँ बनायी जाती हैं जो कभी अमल में नहीं लायी जातीं या फिर अमल में लायी भी जाती हैं तो विशाल नौकरशाही के हाथों उनका बेड़ा गर्क कर दिया जाता है। फिर समस्या को नौकरशाही या सरकार की अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार पर लाकर छोड़ दिया जाता है और अन्त में दिखावे के लिए थोड़ा बहुत मुआवज़ा देकर समस्या का निपटारा कर दिया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में समस्या के वास्तविक कारण छुप जाते हैं और व्यवस्था का चरित्र सामने नहीं आ पाता।
इस बार भी कमोबेश ऐसा ही हो रहा है और समस्या को सरकार कितनी गम्भीरता से ले रही है उसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक तरफ़ मराठवाड़ा और विदर्भ में लोगों के सामने पीने के पानी तक की समस्या आ खड़ी हुई है, वहीं दूसरी तरफ़ नाशिक के कुम्भ मेले में साधुओं को डुबकी लगाने में परेशानी न हो इसलिए सरकार ने बड़ी मात्रा में साफ़ पानी साधुओं की सेवा में शाही स्नान के लिए छोड़ दिया। यह अपने आप में ही बेहद शर्मनाक बात है कि जो राज्य सूखे की समस्या से जूझ रहा हो और गाँवों में प्रति व्यक्ति को केवल 5-6 लीटर पानी ही दिया जा रहा हो वहाँ पर साधुओं के स्नान के लिए ही 2 टी.एम.सी. पानी (इतने पानी से 70 लाख लोगों की 2 महीने तक घरेलू ज़रूरतों को पूरा किया जा सकता है) बर्बाद कर दिया गया। पिछली सरकार ने इस समस्या को कितनी गम्भीरता से लिया यह उसके शासन काल में हुए 35000 करोड़ के सिंचाई घोटाले से ही पता चल जाता है। तो हम देख सकते हैं कि किसी भी सरकार को ग़रीब जनता की कोई परवाह नहीं है। तो फिर उन्हें परवाह किसकी है? एक वाक्य में कहा जाये तो उन्हें केवल समाज के एक तबके, यानी कि पूँजीपति वर्ग की ही परवाह है। इसको कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। सूखे के समय भी महाराष्ट्र सरकार पहले जनता की ज़रूरतों को पूरा करने और सूखाग्रस्त इलाक़ों को राहत पहुँचाने के बजाय निजी कम्पनियों के इस्तेमाल के लिए पानी छोड़ती रही है। साल 2012-13 में पानी का आवण्टन पर्याप्त मात्रा में होने के कारण लगभग 47 कम्पनियों को फ़ायदा पहुँचा। इन 47 में से भी 90 प्रतिशत पानी केवल 12 कम्पनियों को ही आवण्टित किया गया। इन 47 कम्पनियों में से 15 थर्मल पावर प्लाण्टों का फ़ायदा हुआ जिनमें से 13 निजी हैं। ये बिजली उत्पादक संयन्त्र बेहद ज़्यादा पानी का इस्तेमाल करते हैं। इसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1000 मेगावॉट बिजली पैदा करने वाले संयन्त्र में पानी की इतनी खपत होती है जिससे हर साल 7000 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की जा सकती है या फिर एक साल तक 8 लाख लोगों को पीने का पानी मुहैया कराया जा सकता है। भले ही ग़रीब आबादी सूखे के कारण भयंकर हालत में जीती रहे लेकिन निजी कम्पनियों का मुनाफ़ा कम न हो इसलिए उन्हें पानी की सप्लाई जारी रहती है। यही कारण है कि मौजूदा व्यवस्था में सूखे की समस्या को ख़त्म नहीं किया जा सकता क्योंकि सरकार आम जनता के मुकाबले मुट्ठीभर निजी लुटेरों को तरजीह देती है।
एक अन्य बात जिसके ज़रिये ऊपर कही गयी बात की पुष्टि होती है, वह यह है कि आज कृषि के विकास पर सरकार ज़्यादा ध्यान नहीं देना चाहती है और इसलिए सूखे की समस्या से उसका कोई गहरा सरोकार नहीं है। 1991 की नयी आर्थिक नीतियों के बाद तेज़ी से भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का हिस्सा कम होता गया है। आज़ादी के बाद भारत में उद्योग अपनी शैशवावस्था में थे और भारत की अर्थव्यवस्था काफ़ी हद तक कृषि पर ही निर्भर करती थी। 1961 में राष्ट्रीय आय का 57 प्रतिशत हिस्सा कृषि से आता था जो 2006 आते-आते घटकर केवल 18 प्रतिशत रह गया। इस तरह जहाँ 1950 और 60 के दशक में कृषि का संकट अथवा सूखा पूरी अर्थव्यवस्था को गहराई से प्रभावित कर सकता था, वहीं आज ऐसा नहीं रह गया है। 2002 के सूखे से भारत के सकल घरेलू उत्पाद पर मात्र 1 प्रतिशत का असर पड़ा। 2013 के आँकड़ों के अनुसार सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा केवल 13.7 प्रतिशत रह गया है जो 1950-51 में 52 प्रतिशत था। इस कारण से 50 और 60 के दशक में राज्य की ओर से कृषि के लिए कम से कम एक कामचलाऊ ढाँचा तो खड़ा किया ही गया। इसी दौर में कृषि का धीमी गति से पूँजीवादी रूपान्तरण भी होता रहा। आज यह रूपान्तरण पूरा हो गया है।
पूँजीवादी विकास की यह विशेषता होती है कि यह विकास कभी भी सभी क्षेत्रों में एक समान नहीं होता है। कुछ क्षेत्र दूसरों के मुकाबले पीछे छूट जाते हैं। आज भारत में जिन इलाक़ों में सूखा पड़ता है उनको सूखामुक्त करने के लिए बड़ी मात्रा में निवेश की ज़रूरत है। यह निवेश राज्य नहीं करना चाहता है जिसके पीछे दो कारण हैं – एक तो यह कि इन क्षेत्रों को सूखामुक्त करने के लिए राज्य को मोटी रक़म ख़र्च करनी पड़ेगी। हम देख ही रहे हैं कि आज राज्य कल्याणकारी नीतियों को पूरी तरह से त्याग चुका है और जनता की मेहनत का पैसा बड़े पूँजीपति घरानों की जेबों में जा रहा है। ऐसे में आज कल्याणकारी परियोजनाओं को लागू कर सरकार पूँजीपति वर्ग को हरगिज़ नाराज़ नहीं करना चाहेगी। दूसरी बात यह है कि इन इलाक़ों में पूँजीवादी विकास हो चुका है और यहाँ उद्योग और कृषि के बीच का अन्तरविरोध साफ़ नज़र आ रहा है। एक तरफ़ बड़े-बड़े पावर प्लाण्ट खुल गये हैं जो कि भारी मात्रा में पानी की माँग करते हैं और दूसरी तरफ़ कृषि भी पानी के बग़ैर सम्भव नहीं है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि सरकारें औद्योगिक पूँजीपतियों को ही वरीयता देती है। मुख्यत: इन्हीं कारणों से आज इन इलाक़ों को सूखामुक्त करना किसी भी सरकार के एजेण्डे पर नहीं है।
कृषि के पूँजीवादी रूपान्तरण के चलते एक और परिघटना सामने आती है। वह है ग्रामीण आबादी का विभेदीकरण। जैसे-जैसे पूँजीवाद अपने पैर पसारता जाता है वैसे-वैसे बड़ी ग्रामीण आबादी लगातार अपने घर-ज़मीन से उजड़ती रहती है और या तो ग्रामीण सर्वहारा बन जाती है जो धनी किसानों के खेतों में मज़दूरी करती है या फिर वह शहरों की ओर पलायन करती है, जहाँ वह औद्योगिक पूँजीपतियों के शोषण का शिकार बनती है। सूखे की परिघटना काफ़ी हद तक इस प्रक्रिया को तेज़ बना देती है। इससे गाँवों के धनी किसानों और शहरों में उद्योगपतियों दोनों का फ़ायदा होता है। सूखा पड़ने पर जब ग्रामीण सर्वहारा आबादी के लिए खाने के भी लाले हो जाते हैं तो उनको धनी किसानों और उद्योगपतियों द्वारा बेहद सस्ती मज़दूरी पर खटाया जा सकता है। इस तरह धनी किसानों और उद्योगपतियों को सस्ता श्रम भी मुहैया हो जाता है। विशेषकर अन्य इलाक़ों के धनी किसानों को इससे काफ़ी लाभ पहुँचता है। पश्चिमी महाराष्ट्र के गन्ना किसानों को बेहद सस्ती दरों पर श्रम उपलब्ध हो जाता है जब पूर्वी महाराष्ट्र में सूखा पड़ता है। हर वर्ष बड़ी संख्या में लोग काम की तलाश में सूखाग्रस्त क्षेत्रों से पलायन करते हैं और दूसरे क्षेत्रों के धनी किसानों के लिए बेहद कम मज़दूरी पर काम करते हैं। इसके अलावा जो ग्रामीण आबादी अपनी ज़मीनों से उजड़ती है उसकी ज़मीनों को धनी किसान बेहद सस्ती दरों पर हड़प लेते हैं। ज़्यादा मूल्य की ज़मीन को थोड़ा-सा क़र्ज़ चुकाने के लिए खोना पड़ता है। इससे भी धनी किसानों को फ़ायदा होता है। निश्चित रूप से धनी किसानों को भी सूखे के दौरान भारी नुक़सान उठाना पड़ता है लेकिन चूँकि उनके पास पूँजी होती है, वे अपनी पूँजी को खेती से निकालकर कहीं ओर लगा सकते हैं। आस-पास के शहरों में वे नये काम-धन्धे शुरू कर देते हैं और सूखे के कोप से किसी हद तक खु़द को बचा लेते हैं। कुल मिलाकर उनके सामने आत्महत्या करने जैसी स्थिति पैदा नहीं होती। इसके अपवाद भी हमें मिलते हैं लेकिन मुख्य रूप से आत्महत्या करने वाले किसानों में मध्यम किसानों की संख्या ज़्यादा होती है। कृषि का जब पूँजीवादी रूपान्तरण हो जाता है तो मध्यम किसान भी अधिकाधिक उपभोग के लिए नहीं बल्कि बाज़ार के लिए खेती करने लगते हैं। ऐसी फ़सलें जिन्हें कैश क्रोप्स (नक़दी फ़सलें) कहा जाता है का उत्पादन मुख्य स्थान हासिल कर लेता है। इन फ़सलों को जब किसान उगाते हैं तो इसके लिए अधिक पूँजी की भी ज़रूरत होती है और फ़सल तैयार होने का समय भी लम्बा होता है। ऊपर से ज़्यादातर ऐसी फ़सलें अधिक पानी की माँग करती हैं। इस प्रकार उत्पादन तो बाज़ार के लिए होने लगता है पर जब पानी और पूँजी की समस्या पैदा होती है तो खड़ी फ़सल बर्बाद हो जाती है। ऊपर से खेती के लिए उन्हें क़र्ज़ भी लेना पड़ता है जो वे किसी भी तरह फ़सल बेचकर नहीं चुका सकते। मुख्य रूप से इसी स्थिति में ये किसान आत्महत्या करते हैं। ग़रीब किसानों और ग्रामीण सर्वहाराओं में आत्महत्या की दर कमोबेश देशभर में कम ही रहती है और यह आबादी कहीं धीरे तो कहीं तेज़, शहरों की ओर पलायन करती रहती है। सूखे से इस पलायन की दर अवश्य बढ़ जाती है। इस तरह देखा जा सकता है कि सूखे का भी अलग-अलग वर्गों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। ज़्यादातर लोग इस पूरी प्रक्रिया को समझ नहीं पाते और लगातार राज्य के हस्तक्षेप के ज़रिये सूखे का उपाय निकालने के लिए प्रयास करते रहते हैं। उन्हें यह बात समझ में नहीं आती कि किसानों की आत्महत्या अन्य क्षेत्रों में भी होती है और सूखे का उपाय करने से आत्महत्याओं को रोक पाना असम्भव है। एक बार जब कृषि पूँजीवाद के अन्तर्गत आ जाती है तो मध्यम किसानों की सोच हमेशा अधिक उत्पादन करके और फ़सल को बाज़ार में अच्छे दामों पर बेचकर मुनाफ़ा कमाना होती है। जब उत्पादन के दौरान फ़सल खराब हो जाती है वह तब भी बर्बाद होता है और जब बाज़ार में उसकी फ़सल का अच्छा दाम नहीं मिलता वह तब भी बर्बाद होता है। ऐसी भी घटनाओं की कमी नहीं है जब फ़सल तो अच्छी हुई लेकिन उसका अच्छा दाम न मिल पाने के कारण किसान आत्महत्याएँ करते हैं। कुल मिलाकर मध्यम और छोटे किसानों का बर्बाद होना पूँजीवाद में अवश्यम्भावी है, सूखा केवल इसकी रफ़्तार को तेज़ कर देता है। ऐसे में ज़्यादातर लोग या संगठन जो खु़द को क्रान्तिकारी भी कहते हैं वे मध्यम किसानों के बर्बाद होने पर रोते-पीटते रहते हैं और इस परिघटना की अवश्यम्भाविता को नहीं समझ पाते हैं। ऐसी समझदारी के कारण उनकी माँग भी किसानों को मुआवज़ा दिलाने तक और जो फ़सल हुई है उसका लाभकारी मूल्य बढ़ाने तक ही सिमट जाती हैं। वे इस बात को नज़रअन्दाज़ कर देते हैं कि सूखे का सबसे भयानक प्रभाव मध्यम किसानों पर नहीं बल्कि ग्रामीण सर्वहारा या खेतिहर मज़दूर पर पड़ता है क्योंकि उसकी मज़दूरी भयंकर रूप से गिर जाती है और उसके सामने भूखों मरने का भी संकट उपस्थित हो जाता है। उसे मुआवज़ा भी नहीं मिलता और चूँकि उसके पास ज़मीन भी नहीं है ऐसे में लाभकारी मूल्य को बढ़ाने से उसे कोई लाभ नहीं मिलता बल्कि इसके विपरीत सापेक्षित रूप से उसे नुक़सान ही होता है। लेकिन ग्रामीण सर्वहारा की माँग उठाने का इन लोगों के पास कोई समय नहीं होता और वे एक ऐसे रथ को रोकने की कोशिश करते रहते हैं जो तेज़ी से खाई की ओर बढ़ रहा है और जिसकी रफ़्तार कम करके उसे गिरने से नहीं रोका जा सकता। इसका कत्तई यह मतलब नहीं है कि मध्यम किसानों के बर्बाद होने पर जश्न मनाना चाहिए। इसका मतलब केवल यही है कि पूँजीवाद में मध्यम किसानों को बर्बाद होने से नहीं रोका जा सकता। इसके अलावा मुआवज़ा या लाभकारी मूल्य बढ़ने पर भी मध्यम किसान की हालत सुधर नहीं जाती। मुआवज़े और लाभकारी मूल्य का लाभ भी उसे ही अधिक मिलता है जिसके पास ज़मीन अधिक होती है यानी कि धनी किसान। क़र्ज़ माफ़ करने की माँग भी अपेक्षाकृत धनी किसानों को ही लाभ पहुँचाती है क्योंकि उन्हें सरकारी बैंकों से क़र्ज़ मिल जाता है; छोटे और मँझोले किसानों के क़र्ज़ का स्रोत मुख्यत: गाँवों या कस्बों के सूदख़ोर महाजन या फिर धनी किसान ही होते हैं और वे किसी भी परिस्थिति में क़र्ज़ माफ़ नहीं करने वाले हैं। इस तरह “प्रगतिशील” संगठनों की माँगें धनी किसानों की ही माँगें होती हैं और उनसे उस आबादी को तो कोई भी लाभ नहीं मिलता जिसकी स्थिति सबसे खराब होती है, यानी कि खेतिहर मज़दूर। उसके सामने पलायन करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता।
जो सूखा आज हमारे सामने मौजूद है उसमें सबसे पहले तो यह बात आती है कि जिन गाँवों में पीने के पानी की भी समस्या खड़ी हो गयी है उसके लिए सरकार से त्वरित राहत पहुँचाने की माँग उठानी चाहिए। अक्सर ज़मीनी हक़ीक़त से परिचित न होने के कारण लोग छोटे पैमाने के माल उत्पादन को बचाने के लिए तो माँगें उठाते रहते हैं जिनसे कि हम ऊपर ही देख चुके हैं कि मध्यम किसानों की अपरिहार्य बर्बादी को रोका नहीं जा सकता, लेकिन सबसे अहम माँगें गायब हो जाती हैं। सबसे पहले वे माँगें हमें सामने रखनी चाहिए जो कि लोगों को समान रूप से राहत पहुँचा सके। ऐसी माँगों को सरकार यदि चाहे तो आसानी से पूरा कर सकती है। ऐसी माँगों में सबसे पहले घरेलू उपयोग के लिए पर्याप्त पानी की उपलब्धता को सुनिश्चित करने की माँग है। अगर कारणों पर ग़ौर किया जाये तो इन इलाक़ों में पीने के पानी की समस्या भी पूँजीवाद की ही देन है। बाज़ार आधारित खेती करने के लिए भूमिगत जल का विशेषकर पिछले दो दशकों में ज़बर्दस्त दोहन किया गया है। इसके परिणामस्वरूप भूमिगत जल का स्तर लगातार गिरता गया है और आज हालत यह हो गयी है कि गाँवों में लगभग सभी कुएँ और हैण्डपम्प पानी नहीं दे रहे हैं। नक़दी फ़सल उगाकर मुनाफ़ा कमाने के लिए इन इलाक़ों में जमकर बोरवैल लगाये गये और आज स्थिति यह है कि 800 फ़ीट के बोरिंग से भी पानी मिल जाये यह निश्चित नहीं है। अब केवल कुछ ही बोरवैल पानी दे रहे हैं और लोगों को कई-कई किलोमीटर दूर से पानी का इन्तज़ाम करना पड़ रहा है। सरकार द्वारा पीने के जल की भी आपूर्ति नहीं की जा रही है और पानी के टैंकरों से लोगों को 5-7 लीटर पानी ही दिया जा रहा है। अगर लोगों को घरेलू ज़रूरतों के लिए पानी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध करा दिया जाता है तो इससे फ़ौरी तौर पर अस्तित्व का संकट झेल रही आबादी को राहत मिल सकती है। हालाँकि घरेलू ज़रूरतों के लिए पानी की आपूर्ति से लोगों को तात्कालिक राहत ही मिल सकती है क्योंकि जब कृषि के लिए पानी उपलब्ध नहीं होगा तो आबादी बेहद तेज़ी से शहरों की ओर पलायन करेगी।
अब सार के तौर पर कुछ बातें कही जा सकती हैं। सबसे पहले सूखे के कारण हमें इस व्यवस्था के चरित्र में ढूँढ़ने चाहिए और इसे प्राकृतिक कारणों से जनित संकट मानने की ग़लती से बचना चाहिए। बरसात कम होने के बाद भी पानी पर्याप्त मात्रा में मौजूद रहता है जिसे मुख्यत: उद्योगों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। दूसरी बात इस व्यवस्था के भीतर सूखे का पक्का उपाय असम्भव है जिसका मुख्य कारण यह है कि आज किसी इलाक़े के कृषि संकट से देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत ज़्यादा असर नहीं पड़ता है और धनिक वर्ग को इससे फ़ायदा ही होता है क्योंकि उसे सस्ता श्रम उपलब्ध हो जाता है। तीसरी बात, हालाँकि सूखाग्रस्त इलाक़े में सभी वर्गों को मुश्किलों को सामना करना पड़ता है लेकिन फिर भी इसका असर सभी वर्गों पर भिन्न होता है। खेतिहर मज़दूरों को इसका सबसे ज़्यादा नुक़सान उठाना पड़ता है। छोटे-मँझोले किसानों के बर्बाद होकर सर्वहारा वर्ग में शामिल होने की गति सूखे के कारण बेहद तेज़ हो जाती है और कोई भी उपाय इस बर्बादी को रोक पाने में अक्षम होता है। चौथी बात सूखे की समस्या का निदान हो जाने पर भी किसानों की सभी समस्याएँ दूर नहीं हो जाती हैं और सूखे को ही आत्महत्याओं का एकमात्र कारण समझना भी एक ग़लती है। यदि सूखे की समस्या का समाधान कर लिया जाता है तब भी गाँवों में विभेदीकरण की प्रक्रिया जारी रहती है। ऐसी माँगों के ज़रिये जो केवल प्रभुत्वशाली वर्ग को ही लाभ पहुँचाती हों, से सूखे की समस्या का निपटारा नहीं हो सकता। हमें सबसे पहले ऐसी ज़रूरी माँगों को उठाना होगा जो सभी को समान रूप से राहत पहुँचाये। इसका मतलब यह नहीं है कि हमें सरकार से सूखे का स्थायी समाधान करने की माँग नहीं उठानी चाहिए और केवल तात्कालिक राहत कार्यों की माँग ही उठानी चाहिए। हमें निश्चित तौर पर सूखे का स्थायी समाधान करने की माँग भी उठानी चाहिए भले ही सरकार उसे पूरा न करे, लेकिन ऐसी माँगों के ज़रिये इस व्यवस्था के चरित्र को अधिकाधिक छोटे-मँझोले किसानों और ग्रामीण सर्वहाराओं के सामने बेनकाब किया जा सकता है।

क्या नाना पाटेकर की मदद से ग़रीब किसानों की समस्याएँ दूर हो जायेंगी

nana-patekarइस साल जब किसानों की आत्महत्याओं का मामला उठा तो नाना पाटेकर ने खु़द को उनके रहनुमा के तौर पर पेश किया है। नाना पाटेकर ने किसानों को आर्थिक मदद पहुँचाने के लिए एक मुहिम ही शुरू कर दी है। नाना ने कहा कि किसान आत्महत्या न करें और अगर कोई समस्या है तो आकर उन्हें बतायें, वे उनकी मदद करेंगे। महाराष्ट्र के अलग-अलग शहरों से लोगों ने नाना पाटेकर का साथ दिया और चन्दा जमा करना शुरू कर दिया। अक्षय कुमार समेत कई कलाकारों ने भी किसानों की मदद के लिए खु़द को पेश किया। इस तरह मुख्य धारा के मीडिया समेत सोशल मीडिया पर नाना पाटेकर की जय-जयकार हो उठी। लेकिन एक सवाल जो सबसे पहले उठना चाहिए था या जिसे बड़ी ही होशियारी से मुख्य धारा के मीडिया ने छुपा लिया है, वह है कि क्या वास्तव में सूखे और आत्महत्याओं की समस्याओं को इस तरह की मुहिम द्वारा दूर किया जा सकता है। हो सकता है नाना पाटेकर बहुत ही नेकदिल इन्सान हों (हालाँकि यह बात थोड़े शक के साथ ही कही जा सकती है क्योंकि नाना पाटेकर बड़ी चतुराई से इस समस्या पर सरकार को अपनी ज़िम्मेदारी से भागने का मौक़ा देते हैं और साफ़ कहते हैं कि सरकार इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं है।) लेकिन इस मुहिम से किसान समस्या का हल बिल्कुल सम्भव नहीं है। इस तरह की एन.जी.ओ. वादी मुहिम थोड़ी राहत पहुँचाने के नाम पर जनता को गुमराह करती हैं और समस्या के वास्तविक कारणों तक पहुँचने से रोकती है। यह जनता का भरोसा सुधारवादी राजनीति में पैदा करती है और उन्हें क्रान्तिकारी राजनीति से दूर रखने में एक मज़बूत दीवार का काम करती है। असल में तो यह सरकार की ही ज़िम्मेदारी बनती है कि सूखाग्रस्त इलाक़ों में पानी पहुँचाये और ऐसी परियोजनाओं को जल्द से जल्द क्रियान्वित करे जो भविष्य में उन इलाक़ों को सूखे का कोप झेलने की सम्भावनाओं से मुक्त करे। सूखे की समस्या का निदान ऐसी किसी भी मुहिम के ज़रिये नहीं हो सकता है।

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2016


 

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