चीनी मिल-मालिकों की लूट से तबाह गन्ना किसान

एस. प्रताप

पश्चिमी उत्तर प्रदेश का गन्ना आन्दोलन इस बार बुरी तरह असफ़ल हुआ। ऐसी शर्मनाक पराजय किसान आन्दोलन के निकट अतीत के इतिहास में शायद ही कभी हुई हो। पिछले साल का गन्ना मूल्य 95 रुपये प्रति कुन्तल था और अब चीनी मिलों ने 64-50 रुपये प्रति कुन्तल पर गन्ना बेचने के लिए किसानों को मजबूर कर दिया है। इस मूल्य पर तो छोटे किसानों की लागत भी निकल आये तो ग़नीमत है।

सत्ता के साथ साँठ-गाँठ करके चीनी मिलें गन्ना मूल्य कम करने के सवाल पर अड़ी रहीं और गन्ना किसानों को इस हालत में पहुँचा दिया कि या तो वे अपना गन्ना खेत में खड़ा रहने दें और गेहूँ की फ़सल से भी हाथ धोएँ या गन्ना खेतों में ही जला डालें। या फि़र कम गन्ना मूल्य स्वीकार कर मिल-मालिकों के हाथों लुटने के लिए तैयार हो जायें। चीनी मिलों को कोई जल्दी नहीं थी क्योंकि उनके गोदाम पहले से ही चीनी से अटे पड़े हैं। उनकी एक साज़िश यह भी थी कि इस साल चीनी का उत्पादन कम हो ताकि चीनी के स्टॉक को समाप्त किया जा सके और बाज़ार में चीनी की क़ीमत गिरने से रोका जा सके। एक पन्थ दो काज। एक हाथ से उन्होंने गन्ना उत्पादकों को भी पीटा और दूसरे हाथ से देश की सारी जनता को, जो चीनी का उपभोग करती है।

किसान आन्दोलन कितनी हास्यास्पद स्थिति में पहुँच गया है, उसे इस बात से ही समझा जा सकता है कि मिलों में पेराई चालू होने को ही वे अपनी जीत के तौर पर प्रचारित करने की होड़ में लगे हुए हैं। लोकदल वाले इसका सेहरा अजीत सिंह के सिर पर बाँध रहे हैं तो भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) वाले टिकैत के सिर पर। भाकियू ने यह भी घोषणा की है कि गन्ना मूल्य बढ़ाने की माँग को लेकर हमारा आन्दोलन जारी रहेगा। शायद उनमें अभी थोड़ी शर्म बची है या शायद उनकी यह मजबूरी है क्योंकि उन्हें रोज़-रोज़ किसानों के बीच ही रहना होता है।

जहाँ तक किसानों का सवाल है, ख़ासकर मध्यम एवं छोटे किसानों का, जिनकी तादाद ही सबसे अधिक है, वे इस बार ख़ून का घूँट पीकर रह गये हैं। उनके चेहरों पर हताशा, मायूसी और गुस्से के भाव जैसे एक-दूसरे में घुलमिल गये हैं। उनका किसी भी राजनीतिक पार्टी, यहाँ तक कि भाकियू में भी विश्वास नहीं रह गया है। कुछ नहीं से कुछ भला की स्थिति है। क्योंकि उनकी भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई संगठन मौजूद ही नहीं है। भारतीय किसान यूनियन एक हद तक उनका प्रतिनिधित्व करती है क्योंकि कैश फ़सल का इलाक़ा होने के चलते फ़सल की अच्छी क़ीमत मिले यह तो उनकी भी माँग है। हालाँकि छोटे-मँझोले किसानों के लिए फ़सल के लाभकारी मूल्य का यह सवाल एक छलावा ही है। यह मुख्यतः धनी किसानों की माँग है जोकि सिर्फ़ बाज़ार के लिए और मुनाफ़े के लिए पैदा करते हैं। लेकिन चूँकि कैश फ़सल तो छोटे किसान भी बेचने के लिए ही पैदा करते हैं इसलिए उनमें यह भ्रम बना रहता है कि इससे उन्हें भी लाभ हो सकता है। वे इस बात को नहीं समझ पाते कि वे तो कोई और फ़सल या अन्य उपभोग की वस्तुएँ ख़रीदने के लिए ही अपनी फ़सल बेचते हैं और फ़सल के लाभकारी मूल्य का तर्क वहाँ भी लागू होता है जो वे ख़रीदते हैं। क्योंकि अमूमन ऐसा नहीं होता कि कुछ ख़ास फसलों का दाम स्वतन्त्र तरीके से बढ़ जाये और अन्य के दामों में कोई बढ़ोत्तरी न हो। यहाँ तक कि लागत मूल्य भी लगभग उसी अनुपात में बढ़ जाता है। अतः लाभकारी मूल्य की माँग से फ़ायदा  तो सिर्फ़ बड़े किसानों को ही है जो उपभोग और लागत मूल्य निकालने के बाद, फ़सल के बड़े हिस्से को बेचकर शुद्ध मुनाफ़ा  कमाते हैं। अगर लाभकारी मूल्य की दर तय कर दी जाये तो लागत मूल्य बढ़ने के साथ उसी ज़मीन के टुकड़े पर उनका मुनाफ़ा  बढ़ता जायेगा जबकि छोटा किसान तबाह हो जायेगा।

छोटे किसानों की असली समस्या तो लागत मूल्य के बढ़ते जाने की है। लेकिन उनकी फ़सल का वाजिब मूल्य उन्हें मिले इसके लिए भी मिलों से उनका अन्तरविरोध हमेशा बना रहेगा। इस समय किसान आन्दोलन की मुख्य माँग लागत मूल्य कम करने पर ही केन्द्रित होनी चाहिए और इसके साथ ही फ़सल का वाजिब मूल्य पाने के लिए भी मिलों पर लगातार दबाव बनाए रखने की रणनीति अख्तियार करनी चाहिए। लेकिन हो रहा है बिल्कुल उलटा। लागत मूल्य के सवाल पर तो आवाज़ उठती ही नहीं, हाँ, हर मीटिंग में इसका रोना ज़रूर रोया जाता है। यही वह बिन्दु है जहाँ छोटे किसान धनी किसानों के संगठन भाकियू के साथ होते हुए भी उससे अलग-थलग पड़ जाते हैं।

इस आन्दोलन से भी अगर फ़ायदे-नुक़सान पर ग़ौर किया जाये तो बड़े किसानों को अधिक नुक़सान नहीं हुआ है, उनकी मुनाफ़े की दर थोड़ी ज़रूर घट गयी। लेकिन जहाँ तक छोटे किसानों का सवाल है, आन्दोलन लम्बा खिंचते देख अपनी तबाही से बचने के लिए उन्होंने औने-पौने दाम पर क्रेशरों-कोल्हुओं को गन्ना बेचा। बाज़ार में गुड़ के दाम गिर जाने से बहुतेरे क्रेशर भी बन्द हो चुके हैं। अतः काफ़ी छोटे किसानों ने चारे के रूप में भी अपना गन्ना बेचा ताकि गेहूँ के लिए कुछ खेत ख़ाली हो सके अन्यथा भुखमरी की नौबत आ सकती है। लेकिन बड़े किसानों को पता था कि मिलें जल्दी ही चालू होंगी और सबसे पहले उन्हीं का गन्ना मिलों में जायेगा और फि़र साधन सम्पन्न होने के चलते आनन-फ़ानन में गेहूँ की बोआई भी कर लेंगे। इसलिए उन्होंने अपना गन्ना खड़ा रखा। प्रचार करने के लिए उन्होंने ही अपना कुछ गन्ना भी खेतों में जलाया। उनके पास गन्ने के खेतों के अलावा भी पर्याप्त ज़मीन है जिसमें गेहूँ की बुवाई उन्होंने पहले ही कर ली है।

इस समय मिलें खुल चुकी हैं लेकिन मिलों की रणनीति अभी भी यही लगती है कि वे इस बार कम से कम गन्ना लेने की कोशिश कर रहे हैं। गन्ना तौल केन्द्र कम हो गये हैं। लगता यही है कि बहुत सारे छोटे किसान इस बार अपना गन्ना मिलों को नहीं दे पायेंगे या कम गन्ना दे पायेंगे। जो भी हो यह साल उन पर भारी गुज़रेगा। और इसे चुपचाप बरदाश्त करने की भी एक सीमा है। देर-सबेर उनका आक्रोश फि़र फ़ूटेगा। और परिस्थितियाँ यह बताती हैं कि छोटे किसान देर-सबेर धनी किसानों के आन्दोलन के दायरे से स्वतन्त्र अपनी नयी राह खोजने की दिशा में ज़रूर आगे बढ़ेंगे।


बिगुल, दिसम्बर 2002


 

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