कुतर्क, लीपापोती और अपने ही अन्तरविरोधों की नुमाइश की है एस. प्रताप ने

सुखदेव

इस बार (बिगुल, जनवरी 2005 के अंक में) श्री एस. प्रताप की टिप्पणी ‘मँझोले किसानों के बारे में सर्वहारा दृष्टिकोण का सवाल – दो’ पढ़कर बहुत निराशा हुई। इसमें वह अपने ही अन्तरविरोधों की नुमाइश लगाने के अलावा एक भी नयी बात कह सकने में अक्षम रहे हैं। बहुत-सी बातें जो वह पहले ही कह चुके हैं (बिगुल, नवम्बर 2004), उनको उन्होंने बोरियत की हद तक दुहरा दिया है। यह तो श्रीमान एस. प्रताप ही जानते होंगे कि काग़ज़, स्याही और ‘बिगुल’ के पन्नों से उनकी क्या दुश्मनी है? भले ही श्री एस. प्रताप के ऊल-जलूलवाद पर टिप्पणी कर सकना बहुत कठिन लग रहा है, पर फि़र भी कुछ एक बिन्दुओं पर संक्षेप में यहाँ अपनी बात कह रहा हूँ:

(1) श्री एस. प्रताप के लेख का बड़ा हिस्सा सम्पादक-मण्डल के अन्तरविरोधों को ‘उजागर’ करने को समर्पित है। वैसे ये सब बातें काफ़ी विस्तार में वह पहले भी कह चुके हैं। इन सवालों के बारे में, जो उन्होंने सम्पादक-मण्डल पर उठाये हैं, उन्होंने मुझ पर चुप्पी साध लेने का आरोप लगाया है। श्री एस. प्रताप! मेरे पिछले लेख (बिगुल, दिसम्बर 2004) का मुख्य मकसद आपकी अनपढ़ता और अज्ञान को उजागर करना था। आप एक ऐसे विषय पर बहस कर रहे हैं, जिसके बारे में आपकी जानकारी बेहद अधकचरी है, जिसे आपने अपने ताज़ा लेख (बिगुल, जनवरी 2005) में मान भी लिया है। सम्पादक-मण्डल ने बहस को अभी बन्द नहीं किया है। आपको भरोसा करना चाहिए था कि आप द्वारा सम्पादक-मण्डल पर उठाये गये सवालों का जवाब दिया ही जायेगा। मगर श्रीमान आपने तो सम्पादक-मण्डल पर उठाये गये सवालों के बारे में उसका पक्ष जाने बग़ैर ही उसे मूर्ख घोषित कर दिया है।

(2) अपने पिछले लेख (बिगुल, नवम्बर 2004) में श्री एस. प्रताप ने बड़े ज़ोर-शोर से इस बात की वकालत की थी कि मँझोला किसान उजरती श्रम-शक्ति नहीं ख़रीदता। इस बात की पुष्टि के लिए उन्होंने लेनिन से भी मदद लेने की कोशिश की थी और उन्होंने इस सवाल पर साथी नीरज और सम्पादक-मण्डल को लेनिन के विरोध में खड़ा करने की कोशिश की थी। मगर जब हमने यह दिखाया कि लेनिन अपने लेखन में जगह-जगह मँझोले किसानों द्वारा उजरती श्रम-शक्ति ख़रीदे जाने का ज़िक्र करते हैं, तो श्री एस. प्रताप ने ख़ुद ही लेनिन द्वारा दी गयी मँझोले किसान की परिभाषा को नकार दिया। अब वह उजरती श्रम-शक्ति ख़रीदने वाले मँझोले किसान को ‘छोटा-मोटा’ कुलक कह रहे हैं। स्पष्ट है कि साथी नीरज या सम्पादक-मण्डल यहाँ पर लेनिन के विरोध में नही खड़े हैं, बल्कि हमारे “मौलिक चिन्तक” श्री एस. प्रताप ही लेनिन के विरोध में हैं।

(3) श्री एस. प्रताप द्वारा लागत मूल्य घटाने की माँग को छोटे-मँझोले किसानों की मुख्य माँग के रूप में पेश किये जाने की मैंने अपने पिछले लेख (बिगुल, दिसम्बर 04) में काफ़ी विस्तार में चीरफ़ाड़ की थी। मगर श्री एस. प्रताप इस सवाल पर मेरे किसी भी तर्क को काटने में अक्षम रहे हैं। इसके जवाब में उन्होंने कुछ ऊटपटाँग बातें करके ही सब्र कर लिया है और यह कहते हुए कि “मेरे ख़याल से उपर्युक्त चर्चा में साथी सुखदेव के तमाम सवालों का जवाब आ चुका है” ख़ुद ही अपनी पीठ थपथपा ली है। हालाँकि ‘बिगुल’ के पाठक ख़ुद ही देख सकते हैं कि उन्होंने मेरे द्वारा उठाये गये एक भी सवाल का जवाब नहीं दिया है।

मगर लागत मूल्य के सवाल पर उन्होंने एक नयी बात ज़रूर कही है। उनका कहना है “लागत मूल्य बढ़ने से पूँजी न होने के चलते उनके (मँझोले किसानों के) लिए खेती करना सम्भव नहीं रह गया है। लागत घटने से उनका यह फ़ायदा ज़रूर होगा।” मगर उनका यह फ़ायदा होगा या नहीं( इसके बारे में हम पहले ही काफ़ी (बिगुल, दिसम्बर 2004) चर्चा कर चुके हैं। यहाँ पर श्री एस. प्रताप की नीयत का ज़रूर पता चल गया है कि वह मँझोले किसान को छोटे मालिक के रूप में ही बचाये रखने के लिए अति चिन्तित हैं। वह एक ऐसी इच्छा पाल रहे हैं जो सामाजिक विकास और सर्वहारा आन्दोलन के विकास के लिए अति ख़तरनाक है। प्रूधों, सिसमोन्दी, रूसी नरोदवादी ऐसी ही इच्छाएँ रखते थे। हम पहले ही साबित कर चुके हैं( कि किसान सवाल को वह सर्वहारा के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि एक निम्न पूँजीपति के दृष्टिकोण से देखते हैं। श्री एस. प्रताप मार्क्स, एंगेल्स या लेनिन के नहीं, बल्कि प्रूधों, सिसमोन्दी तथा रूसी नरोदवादियों के ही सच्चे शिष्य हैं।

(4) ‘वाजिब मूल्य’ के सवाल पर तो उन्होंने कुतर्कों का ढेर ही लगा दिया है। अपने पिछले लेख में उन्होंने “विशेष सन्दर्भ” में इस माँग की हिमायत की थी। हमारा कहना है कि वाजिब मूल्य लाभकारी मूल्य ही होता है। इसके जवाब में वह कुतर्क देते हैं कि “मेरे लेख में वाजिब मूल्य पर दबाव बनाने की बात इस सन्दर्भ में थी कि चीनी मिल-मालिकों ने एकाएक गन्ने का दाम घटा दिया था। …लेकिन इसको लाभकारी मूल्य की माँग से अलग करके देखना चाहिए। लाभकारी मूल्य की माँग का मतलब होता है, लागत पर कुछ प्रतिशत मुनाफ़ा जोड़कर फ़सल का दाम तय करने की नीति।” यहाँ पर श्री एस. प्रताप के अर्थशास्त्र की कंगाली एकदम सामने आ जाती है। श्री एस. प्रताप से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या वाजिब मूल्य फ़सल को लागत मूल्य पर बेचना होता है? श्री एस. प्रताप का यह कुतर्क पढ़कर मुझे बहुत पहले सुना हुआ यह शेर याद आ गया “हर शाख पे उल्लू बैठा है, अन्जामे गुलिस्ताँ क्या होगा…।”

मैंने अपने पिछले लेख में यह दिखाया था कि लागत मूल्य के सवाल पर श्री एस. प्रताप ने लेनिन के उद्धरण को काँट-छाँटकर अपनी अवस्थिति के अनुरूप बनाने की कोशिश की है। इसकी सफ़ाई में वह लिखते हैं, “सुखदेव ने ऐसे लिखा है जैसे उद्धरण देकर मैं यह कह रहा हूँ कि लेनिन लागत मूल्य घटाने की माँग उठाने की वकालत कर रहे हैं।” मगर श्रीमान अगर लेनिन लागत मूल्य घटाने की माँग की हिमायत ही नहीं कर रहे तो आपने वह उद्धरण दिया ही क्यों था? श्रीमान इस तरह की लीपापोती से आप किसको मूर्ख बनाने की कोशिश कर रहे हैं?

(5) श्री एस. प्रताप कहते हैं, “लेनिन जहाँ कहीं भी मँझोले किसानों को सर्वहारा वर्ग के दोस्त के रूप में साथ लेने की वकालत करते हैं वहाँ वे इसके उस वर्ग-चरित्र पर ज़ोर देते हैं जो मुख्यतः और मूलतः अपने श्रम पर आधारित खेती करता है और उजरती श्रम का शोषण नहीं करता है। लेकिन जब वे ऐसे लोगों से निपट रहे होते हैं, मसलन मेंशेविकों से, जो मँझोले किसानों को सर्वहारा की तरह ही मेहनतकश बताते हैं, तो वे उनके मंसूबों का पर्दाफ़ाश करते हुए मँझोले किसान के उस वर्ग-चरित्र को पूरे ज़ोर के साथ चिन्हित करते हैं, जो उसे कुलकों का नज़दीकी बनाता है।”

मगर लेनिन कब और कहाँ पर ऐसा करते हैं इसका वह कोई हवाला नहीं देते। उनके उक्त कथन का तो यह अर्थ निकलता है कि लेनिन बहुत बड़े मौक़ापरस्त थे। बिना किसी ठोस अध्ययन के ही श्री एस. प्रताप इस तरह के फ़तवे जारी किये जा रहे हैं।

आगे श्रीमान का कहना है, “लेनिन द्वारा अलग-अलग समय में मँझोले किसान के अलग-अलग पक्षों पर ज़ोर शायद इसलिए भी हो कि पूँजीवादी विकास की अगली मंज़िलों में मँझोले किसानों के ऊपरी स्तर का अनुपात बढ़ा हो। लेकिन इस पर मेरा कोई अध्ययन न होने से मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता। श्रीमान आप टिप्पणी कर तो चुके हैं वह भी बिना किसी अध्ययन के। आप इतनी गम्भीर बहस में भी अटकलबाज़ी से ही काम चला लेना चाहते हैं।

आइये श्री एस. प्रताप की कुछ और अटकलबाज़ियों के दीदार कर लें। वह लिखते हैं, “…पूँजी की मार से तबाह होने के साथ ही अन्य प्रक्रियाओं के ज़रिये भी उस मँझोले किसान का आधार सिकुड़ रहा है, जो अपने श्रम पर आधारित खेती करता है।…हालाँकि इस पर कोई ठोस अध्ययन उपलब्ध न होने से ठोस-ठोस कुछ भी कह पाना फ़िलहाल सम्भव नहीं है।” श्रीमान एस. प्रताप सब कुछ कहे भी जा रहे हैं और न कहने का पाखण्ड भी किये जा रहे हैं। आगे वह एक और अटकल का सहारा लेते हैं, ऐसा लगता है कि खेती के विकसित इलाक़ों में मँझोले किसानों का सवाल लगभग समाप्त हो चुका है या फि़र निकट भविष्य में समाप्त हो जायेगा।”

श्रीमान एस. प्रताप के पास न तो सर्वहारा वर्ग के शिक्षकों ने जो कुछ किसान प्रश्न पर लिखा है उसका ही कोई अध्ययन है और न ही भारतीय कृषि में आये परिवर्तनों का। और यह बात वह पूरी “दरियादिली” से मानते भी हैं। वह ‘अलग सवालों पर,’ ‘शायद,’ ‘ऐसा लगता है,’ ‘अध्ययन नहीं है,’ आदि उक्तियों से ही काम चला रहे हैं। वह बिना किसी अध्ययन के ही भारतीय क्रान्ति के अहम प्रश्न ‘किसान प्रश्न’ पर बहस में उतर पड़े हैं। इससे यही साबित होता है कि वह इस महत्त्वपूर्ण सवाल पर चल रही बहस में कितनी ग़ैर-ज़िम्मेदारी वाला व्यवहार कर रहे हैं। इससे यही पता चलता है कि वह भारतीय क्रान्ति के इस अहम प्रश्न को सुलझाने के मक़सद से बहस नहीं चला रहे हैं, बल्कि कुछ अन्य कारण ही उनके प्रेरण-स्रोत हैं।

अब जब श्रीमान एस. प्रताप ने किसान प्रश्न पर अपने अज्ञान को ख़ुद ही मान लिया है, तो अन्त में हम श्रीमान को मार्क्स का यह कथन ज़रूर याद दिलाना चाहेंगे, “अज्ञान एक राक्षसी शक्ति है और हमें डर है कि यह कई त्रसदियों का कारण बनेगा। सबसे महान यूनानी कवियों ने इसे मीकेन तथा थेब्स के शाही घरानों के जीवन के हृदयविदारक नाटकों में ठीक ही त्रासदीपूर्ण नियति के रूप में चित्रित किया है (मार्क्स-एंगेल्स, ‘धर्म के बारे में मार्क्स-एंगेल्स, पंजाबी संस्करण, पृ.40)।”

बिगुल, फरवरी 2005


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments