मँझोले किसानों के बारे में सर्वहारा दृष्टिकोण का सवाल – तीन 

एस. प्रताप

इस बार बहस में शामिल सम्पादक-मण्डल के सम्पादकीय समाहार और सुखदेव के लेख में बात तो एक ही कही गयी है और दोनों की पोज़ीशन भी एक ही है, बस फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि एक में गाली-गलौज की भाषा का इस्तेमाल किया गया है और दूसरे में विस्तार से विश्लेषण व थोड़ी सन्तुलित भाषा का इस्तेमाल किया गया है। सुखदेव के लेख को तो पढ़कर ऐसा लगता है कि उनका अहम्मन्यतापूर्ण गुस्सा इस बार सभी सीमाओं को पार कर गया और उन्हें दौरा ही पड़ गया।

इस बार सम्पादक-मण्डल ने अपने सम्पादकीय समाहार में अपनी एक ग़लती तो स्वीकार कर ली। सम्पादक-मण्डल ने अपनी पोज़ीशन में इस अन्तरविरोध को माना है कि उसके द्वारा छोटे-मँझोले किसानों को संगठित करने के लिए प्रस्तुत की गयी माँगों की सूची में बिजली, पानी को रियायती दर पर देने की माँग अन्य माँगों से विपरीत चरित्र की है। लेकिन वह सीधी-सीधी भाषा में यह नहीं कहता कि लागत मूल्य घटाने की माँग को सर्वहारा विरोधी बताते हुए भी वह इन माँगों के ज़रिये लागत मूल्य घटाने की ही माँग की वकालत कर रहा था। सम्पादक-मण्डल कहता है, उसके दिमाग़ में यह भ्रामक तर्क काम कर रहा था कि समाजवादी क्रान्ति के बाद मध्यम व छोटे किसानों को ऐसी बहुतेरी रियायतें देनी पड़ती हैं और इसी के चलते वह इन माँगों की वकालत कर बैठा। लेकिन यह बात समझ में नहीं आती। सम्पादक-मण्डल यहाँ पूँजीवादी समाज में छोटे-मँझोले किसानों की लागत मूल्य घटाने की माँग को सर्वहारा विरोधी बताते हुए उसके ख़िलाफ़ बहस का नेतृत्व कर रहा है और इसी बहस को आगे बढ़ाते हुए उसने वह लेख लिखा था। ऐसे में दिमाग़ में उपर्युक्त भ्रामक तर्क आने से ही कोई उस माँग की वकालत कैसे कर सकता है जिसे वह उसी लेख में सर्वहारा विरोधी बता रहा हो? जहाँ तक मेरा ख़याल है, यह तभी सम्भव है जब कोई ख़ुद लम्बे समय से अपने विचारों में इस माँग को सही समझता रहा हो और विचारों में पूरी तरह बदलाव अभी न हुआ हो, फि़र भी वह इसका विरोध करने लगा हो। लेकिन लेखनी ने उसके विचारों को सामने ला दिया।

अब हम बिन्दुवार सम्पादक-मण्डल की प्रस्थापनाओं और उठाये गये सवालों पर आते हैं:

1. सम्पादक-मण्डल कहता है कि लागत मूल्य घटाने की माँग के ख़िलाफ़ उसका पहला तर्क वही है जो पहले दिया गया था – “मान लें यदि उद्योगपति किसी किसान आन्दोलन की माँग मानकर कृषि उपकरणों-उर्वरकों-कीटनाशकों आदि की क़ीमत कम भी कर दें और मान लें कि यह घटोत्तरी किसी तरह तीन तिकड़म करके कृषि उत्पादों के मूल्य में संक्रमित न होने दी जाये तो भी पूँजीपति का मुनाफ़ा कम नहीं होगा, बल्कि इसकी क़ीमत उसके कारख़ाने में काम करने वाले मज़दूरों को ही चुकानी पड़ेगी।” यानी उद्योगपति मज़दूरों की तनख़्वाहें घटा देगा, उन्हें और अधिक निचोड़ेगा, मशीनीकरण करके मज़दूरों को बेकारी के दलदल में धकेलेगा आदि। मैंने पहले भी कहा था कि सम्पादक-मण्डल का यह मार्क्सवाद एकांगी है, वह इसमें औद्योगिक मज़दूरों की भूमिका को नज़रअन्दाज़ कर देता है और उन्हें निरी गाय बना देता है। उद्योगपति मज़दूरों के ऊपर यह क़हर बरपा कर सकेगा या नहीं, यह तो फ़ैक्ट्री और औद्योगिक क्षेत्रों में शक्ति सन्तुलन से ही तय होगा। उनके उत्पादों का दाम घटना उनके मुनाफ़े पर अवश्य असर डालेगा और अपना मुनाफ़ा क़ायम रखने के लिए वे मज़दूरों के ऊपर ही क़हर बरपा करना चाहेंगे। लेकिन उनकी यह चाहत उनकी फ़ैक्ट्री और औद्योगिक क्षेत्र में आन्दोलनों के विस्फ़ोट को भी जन्म देगी।

दूसरी बात, मैंने यह भी कहा था कि यदि सम्पादक-मण्डल का यही मार्क्सवाद लागू किया जाये तो महँगाई विरोधी आन्दोलन भी सर्वहारा विरोधी आन्दोलन होगा, क्योंकि वह भी औद्योगिक उत्पादों के दाम घटाने की ही माँग करता है, और सम्पादक-मण्डल के तर्क के अनुसार इससे उन उद्योगों की भारी मज़दूर आबादी पर क़हर बरपा होगा। सम्पादक-मण्डल यहाँ तो महँगाई विरोधी आन्दोलन पर कोई बात नहीं करता क्योंकि इससे उसके मार्क्सवाद का एकांगीपन उजागर हो जाता। तीन लम्बे पैराग्राफ़ों में कुछ अन्य चर्चा के बाद वह अलग से महँगाई विरोधी आन्दोलन की बात करता है और वहाँ अपने मार्क्सवादी विश्लेषण को भूलकर वह कहता है कि वह महँगाई विरोधी आन्दोलन का समर्थन करता है क्योंकि यह व्यापक मेहतनकश आबादी और निम्न-मध्यमवर्गीय (मध्यवर्गीय नहीं) आबादी का सामूहिक आन्दोलन है। और यह कि इसकी तुलना लागत मूल्य घटाने की मालिक किसानों की माँग पर आन्दोलन से नहीं की जा सकती क्योंकि यह मेहनतकशों का साझा आन्दोलन नहीं है और यह छोटे-मँझोले किसानों को लुटेरे बड़े मालिकों के साथ एकजुट करता है। यहाँ पर वह मेरे इस तर्क को भूल जाता है कि खेती की लागत घटने से अनाज का दाम घटेगा और यह व्यापक मेहनतकश आबादी के हित में होगा। इसीलिए लागत मूल्य घटाने की माँग व्यापक जनता की महँगाई विरोधी माँग से जुड़ती है और यह छोटे-मँझोले किसानों को सर्वहारा वर्ग के साथ खड़ा कर सकती है।

अब इससे एक पैराग्राफ़ पहले ही, इससे अलग करके सम्पादक-मण्डल कहता है, एस. प्रताप का यह कहना कि लागत मूल्य घटाने की माँग व्यापक जनता की महँगाई पर रोक लगाने की माँग से जुड़ती है, एक लचर तर्क है। यहाँ पर सम्पादक-मण्डल दो पैराग्राफ़ पहले कही गयी अपनी ही बात को भूल जाता है कि – “कृषि उपकरण, बिजली, बीज आदि की क़ीमत घट भी जाये तो यह घटोत्तरी सीधे कृषि उत्पादों के मूल्य में संक्रमित हो जायेगी…” इसका यही मतलब हुआ कि कृषि उत्पादों यानी अनाज आदि का दाम घट जायेगा। हालाँकि वह इसे सीधे-सीधे नहीं कहता। यदि लागत मूल्य घटने से अनाज का दाम घट जायेगा तो फि़र लागत मूल्य घटाने की माँग महँगाई विरोधी आन्दोलन से क्यों नहीं जुड़ती है? सम्पादक-मण्डल जहाँ यह दिखाना चाहता है कि लागत मूल्य घटने से छोटे-मँझोले किसानों का फ़ायदा नहीं होगा, वहाँ तो वह कहता है कि इससे अनाज का दाम घट जायेगा और जहाँ उसे यह कहना है कि यह सर्वहारा विरोधी माँग है और महँगाई विरोधी आन्दोलन से नहीं जुड़ती है वहाँ वह कहता है कि यह लचर तर्क है।

इस पूरी बात में अपने को सही साबित करने की धुन में सम्पादक-मण्डल की पैंतरेबाज़ी काबिलेग़ौर है।

2. लागत मूल्य घटाने की माँग के विरोध में सम्पादक-मण्डल का दूसरा तर्क है: “लागत मूल्य घटाने का तर्क सिर्फ़ यहीं तक जा सकता है कि मध्यम किसान चल पूँजी को यानी श्रम-शक्ति पर होने वाला ख़र्च घटाये, यानी अपने खेतों में काम करने वाले मज़दूरों को और अधिक निचोड़े।” मेरा तर्क था कि मँझोला किसान मुख्यतः और मूलतः अपने श्रम पर आधारित खेती करता है, इसलिए उसकी माँग में मज़दूरी घटाने या किसी भी रूप में श्रम लागत घटाने की माँग शामिल नहीं हो सकती है। यहाँ से बहस मुख्यतः इस पर केन्द्रित हो गयी कि हम किसे कहेंगे मँझोला किसान।

साथी सुखदेव और सम्पादक-मण्डल का कहना है कि खेती के पूँजीवादी विकास के चलते “भारत की विशेष परिस्थितियों” में अब मँझोले किसानों द्वारा मज़दूर लगाकर खेती करना आम चलन हो गया है। पिछले लेख में सुखदेव ने कहा था कि मँझोले किसान की खेती अब मुख्यतः उजरती श्रम पर आधारित होती है।

मेरा मानना है कि खेती में इन बदली परिस्थितियों से वर्गों की मार्क्सवादी अवधारणा नहीं बदल जाती। उत्पादन में भागीदारी के आधार पर ही वर्गों को परिभाषित किया जा सकता है। क्योंकि इसी से उनके हित और अनहित तय होते हैं और वर्ग दोस्तों और दुश्मनों की पहचान होती है। समाजवादी क्रान्ति के दौर में ऐसा कोई भी वर्ग सर्वहारा का संश्रयकारी नहीं हो सकता जिसका अस्तित्व उजरती श्रम के शोषण पर टिका हो। मँझोला किसान इसीलिए सर्वहारा वर्ग का संश्रयकारी माना जाता है क्योंकि मुख्यतः और मूलतः वह अपने श्रम पर आधारित खेती करता है। वह कभी-कभी और आपात परिस्थितियों में ही मज़दूर लगाता है। खेती की बदली हुई परिस्थितियों में यदि मँझोले किसानों का एक हिस्सा मुख्यतः उजरती श्रम पर आधारित खेती करने लगता है तो इससे उसका वर्गीय रूपान्तरण हो जाता है और वह कुलकों की श्रेणी में शामिल हो जाता है। इसी आधार पर मैंने कहा था कि सम्पादक-मण्डल और सुखदेव जिसे मँझोला किसान कह रहे हैं, वह सर्वहारा वर्ग का संश्रयकारी मँझोला किसान नहीं, छोटा-मोटा कुलक है, धनी किसान है। और यदि उसी मँझोले किसान को गोलबन्द करने के लिए सम्पादक-मण्डल ने माँगों की लम्बी सूची प्रस्तुत की है, तो वह प्रतिक्रियावादी क़दम है। क्योंकि जिसे वे मँझोला किसान कह रहे हैं वह अपने समग्र अस्तित्व के साथ सर्वहारा विरोधी है। सम्पादक-मण्डल मेरे इन तर्कों से बच बचाकर निकल गया और जाते-जाते मेरे ऊपर कीचड़ फ़ेंक गया कि देखो-देखो जब सुखदेव ने मँझोले किसानों के बारे में लेनिन के अन्य उद्धरण दिये तो एस. प्रताप अब उसे छोटा-मोटा कुलक कहने लगे।

3. पहले मेरे द्वारा उद्धृत एंगेल्स की मँझोले किसान की परिभाषा पर सम्पादक-मण्डल द्वारा उठाये गये सवाल पर आते हैं और उसके बाद सुखदेव द्वारा उद्धृत लेनिन के उद्धरणों सम्बन्धी बात पर।

मैंने अपने लेख में कहा था कि फ्रांस और जर्मनी में किसानों का सवाल नामक अपने लेख में एंगेल्स ने जिसे छोटा किसान कहा है, उसे ही लेनिन मँझोला किसान कहते हैं। क्योंकि दोनों की परिभाषा मेल खाती है। मैंने उक्त लेख से एंगेल्स की और ‘गाँव के ग़रीबों से’ से लेनिन की परिभाषा उद्धृत की है। दोनों की परिभाषा का सार है मँझोला (एंगेल्स का छोटा) किसान मुख्यतः अपने श्रम पर आधारित खेती करता है।

सम्पादक-मण्डल कहता है कि मैंने एंगेल्स को ग़लत समझा है और अधूरा उद्धृत किया है। वह उक्त लेख का एक लम्बा उद्धरण देकर दिखाता है एंगेल्स बाद में मँझोला किसान प्रवर्ग का इस्तेमाल करते हैं और एंगेल्स का छोटा किसान लेनिन का मँझोला किसान नहीं है। वह कहता है कि एस. प्रताप लेख को ठीक से पढ़े होते यानी वहाँ तक जहाँ से उद्धरण दिया गया है तो बात उनकी समझ में आ जाती। सम्पादक-मण्डल कहता है कि एंगेल्स का छोटा किसान जर्मनी और फ़्रांस की विशेष परिस्थितियों में ग़रीब किसानों और निम्न-मध्यम किसानों को ही अपने में समेटता है। सम्पादक-मण्डल यह किस आधार पर कहता है इसे वह गुप्त ही रखता है। सम्पादक-मण्डल अपने को सही साबित करने की धुन में यह भूल जाता है कि ग़रीब किसान अर्द्धसर्वहारा है, वह मुख्यतः उजरत पर ही जीता है। यही सर्वमान्य मार्क्सवादी प्रस्थापना है। जबकि एंगेल्स अपनी परिभाषा में साफ़ कहते हैं कि छोटा किसान वह है जिसके पास खेती का टुकड़ा उतने से बड़ा नहीं है कि वह और उसका परिवार जोत सके और उतने से छोटा नहीं, जितने से कि उसके परिवार का भरण-पोषण हो सके। स्पष्ट है कि यह छोटा किसान मुख्यतः खेती पर ही जीता है उजरत पर नहीं। एंगेल्स यहाँ अर्द्धसर्वहारा की बात नहीं कर रहे हैं।

अब एंगेल्स के मँझोले किसान पर आते हैं। सम्पादक-मण्डल, दरअसल सिर्फ़ यह देखकर ही सन्तुष्ट हो गया कि एंगेल्स ने मँझोला किसान शब्द का इस्तेमाल किया है, लेकिन उसने यह समझने की कोशिश नहीं की कि वे यहाँ किसके लिए मँझोला किसान शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं। सम्पादक-मण्डल यदि इस लेख को अपने उद्धरण वाले अंश से थोड़ा और आगे तक पढ़कर मामले पर विचार करता तो बात समझ में आ जाती। पहली बात तो यह कि एंगेल्स ने लेख में बड़े और मँझोले किसानों को एक साथ रखकर बात की है, जबकि लेनिन अमूमन छोटे और मँझोले किसानों को एक साथ रखकर या मँझोले किसानों को अलग रखकर बात करते हैं। इसके अलावा, जिस पैराग्राफ़ को सम्पादक-मण्डल ने उद्धृत किया है, उसके अगले ही पैराग्राफ़ में एंगेल्स कहते हैं: “हमें आर्थिक दृष्टि से पक्का यक़ीन है कि छोटे किसानों की तरह बड़े और मँझोले किसान भी अवश्य ही पूँजीवादी उत्पादन और सस्ते विदेशी गल्ले का शिकार बन जायेंगे… बहुत सम्भव है कि यहाँ भी हमें बलात् सम्पत्तिहरण न करना पड़े और हम इस बात का भरोसा कर सकेंगे कि भविष्य का आर्थिक विकास इन कड़ी खोपड़ियों में भी बुद्धि का प्रादुर्भाव करेगा।”

इस उद्धरण से यह समझा जा सकता है कि यहाँ एंगेल्स धनी किसानों की बात कर रहे हैं। नीचे की लाइनों का मतलब यही है कि सामान्यतः हमें “बड़े और मँझोले किसानों” का बलात् सम्पत्तिहरण करना होगा। लेकिन क्योंकि धनी किसान पूँजीवादी विकास की अगली मंज़िलों में तबाह होते हैं और उनको हज़म करके ही पूँजीवादी भूस्वामी वर्ग का प्राधान्य स्थापित होता है, इसलिए इस तबाही से एंगेल्स उनकी कड़ी खोपड़ियों में भी बुद्धि के प्रादुर्भाव की सम्भावना व्यक्त करते हैं। लेनिन कभी भी मँझोले किसानों के बलात् सम्पत्तिहरण की बात नहीं करते हैं। सम्पादक-मण्डल की भी यही धारणा है। एंगेल्स की “छोटे” किसानों के बारे में यही धारणा है। इससे भी यह अधिक सही लगता है कि एंगेल्स का छोटा किसान मँझोला किसान है और उनका बड़ा और मँझोला किसान धनी किसान है। सम्पादक-मण्डल ने जिस उद्धरण को यह कहकर दिया है कि एंगेल्स मँझोले किसानों के बारे में लिखते हैं, वहाँ एंगेल्स धनी किसानों के बारे में लिख रहे हैं। सम्पादक-मण्डल की तरह अगर बिना किसी ठोस आधार के अटकल लगाये तो अधिक से अधिक उसमें उच्च-मध्यम किसान शामिल हो सकते हैं।

4. सुखदेव और सम्पादक-मण्डल ने कहा है कि मैंने लेनिन के उद्धरणों को काट-छाँटकर अपने अनुरूप बनाने की कोशिश की और इस बार तो यह भी आरोप जड़ दिया गया कि मैं लेनिन को अवसरवादी कह रहा हूँ। आइये ज़रा देखें कि यह मामला क्या है? मैंने अपने लेख में मँझोले किसानों को परिभाषित करते हुए ‘गाँव के ग़रीबों से’ से लेनिन को उद्धृत किया था: “उनमें से मँझोले किसानों में से बहुत कम ही ऐसे किसान हैं जो उजरत पर खेत-बनिहार या दिहाड़ीदार लगाते हों, दूसरों की मेहतन से धनी बनने और दूसरों की पीठ पर सवार होकर दौलतमन्द बनने की कोशिश करते हों। मँझोले किसानों में से अधिकतर के पास इतना पैसा ही नहीं कि वे उजरत पर मज़दूर लगायें – वास्तव में वे ख़ुद ही उजरत पर काम करने को मजबूर होते हैं…।” इस उद्धरण के ऊपर या नीचे या ‘गाँव के ग़रीबों से’ पुस्तक का कोई अंश उद्धृत कर सम्पादक-मण्डल या सुखदेव यह नहीं दिखा सके कि किस रूप में यह अधूरा है, लेकिन आरोप जड़ना था सो जड़ दिया। सुखदेव कहते हैं कि ग़ौर से देखें तो इसमें लेनिन मँझोले किसानों द्वारा उजरती मज़दूरों को काम पर लगाने की बात को बिल्कुल ख़ारिज नहीं करते हैं। सुखदेव ने लेनिन के उद्धरण को तो ग़ौर से देख लिया और मेरी परिभाषा को ग़ौर से देखने की जहमत नहीं उठायी। अब ज़रा मेरे उसी लेख में मँझोले किसानों की मेरी परिभाषा पर ग़ौर करें: “उत्पादन प्रक्रिया में हिस्सेदारी के आधार पर मध्यम किसान उसे ही कहा जा सकता है जो मूलतः और मुख्यतः अपना श्रम लगाकर खेती करता है, अपवादस्वरूप ही, आपात परिस्थितियों में ही वह मज़दूर लगाने को मजबूर होता है।” ‘ग़ौर से देखें’ तो यहाँ मँझोले किसानों द्वारा मज़दूरों को काम पर लगाने की बात ख़ारिज नहीं की गयी है। लगता है सुखदेव ने मुख्यतः और मूलतः शब्द को देखा ही नहीं।

इसके बाद सुखदेव कहते हैं कि 1903 में लिखे गये ‘गाँव के ग़रीबों से’ के बाद परिस्थितियाँ बदलीं और रूस में भी मँझोले किसानों में दिहाड़ी मज़दूरों से काम लेने की प्रवृत्ति बढ़ती गयी, इसलिए बाद के अपने लेखों में लेनिन मँझोले किसानों के बारे में वह परिभाषा देते हैं जो सुखदेव और सम्पादक-मण्डल की है, यानी मँझोला किसान श्रम-शक्ति का ख़रीदार है या यह कि उसकी खेती बुनियादी तौर पर उजरती श्रम के शोषण पर आधारित होती है। मेरे ख़याल से लेनिन के बारे में ऐसी बात करना बेहद ग़लत है। वे हमेशा उत्पादन प्रक्रिया में भागीदारी के आधार पर ही वर्गों को परिभाषित करते हैं। मँझोले किसानों के दोहरे वर्गीय चरित्र के चलते बदलती परिस्थितियों में वे इसे रेखांकित करते हैं कि कैसे उसके ऊपरी हिस्से में कुलकीकरण की प्रवृत्ति बढ़ रही है और कैसे मँझोले किसान का अस्तित्व क़ायम रहने की परिस्थितियाँ समाप्त हो रही हैं। 1908 के लेख से सुखदेव द्वारा उद्धृत अंश के महत्त्वपूर्ण अंश को देखें: “…ऊँचे समूहों में मज़दूरों को भाड़े पर रखना स्पष्टतः एक प्रणाली बनती जा रही है, जो विस्तृत पैमाने पर खेती की शर्त है। इससे भी अधिक, दिनभर के लिए भाड़े पर मज़दूर रखना किसानों के मँझोले समूहों के बीच भी अधिकाधिक व्यापक होता जा रहा है।” पहली बात तो यह कि यहाँ ‘मँझोले समूहों’ शब्द सिर्फ़ मँझोले किसान के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया है। यहाँ लेनिन धनी किसान, ग़रीब किसान, मँझोले किसान की बात करने की बजाय खेती की बड़ी और मँझोली जोतों में मज़दूर लगाकर खेती करने की प्रवृत्ति के व्यापक होने की बात कर रहे हैं। जिस हद तक इस बात को मँझोले किसानों पर लागू किया जायेगा, उसका मतलब यही होगा कि मँझोले किसानों के ऊपरी हिस्से में कुलकीकरण की प्रवृत्ति बढ़ रही है। लेनिन यहाँ यह नहीं कह रहे हैं कि अब मँझोले किसान की परिभाषा बदल गयी है तथा यह कि अब मूलतः और मुख्यतः उजरती श्रम का शोषण करने वाले को हम मँझोला किसान कहेंगे और उसे अपने साथ खड़ा करने के लिए माँगों की लम्बी सूची भी प्रस्तुत करेंगे।

उसके बाद सुखदेव ने 1912 में लिखे लेनिन के एक लेख का अंश उद्धृत किया है, उसके महत्त्वपूर्ण अंश को देखें: “…वास्तविकता यह है कि “छोटे एवं मँझोले किसानों” का विशाल बहुमत…श्रम-शक्ति को या तो बेचता है या ख़रीदता है, या तो ख़ुद को भाड़े पर लगाता है या भाड़े पर मज़दूर रखता है।…” यह लेख तो मैं नहीं देख सका, लेकिन एक ऐसा ही अन्य लेख ‘किसान समुदाय और मज़दूर वर्ग’ के नाम से ‘मज़दूर वर्ग और किसानों की दोस्ती’ वाले लेनिन के संकलन में है। इसमें भी लेनिन ने वही बातें कही हैं। सम्भवतः यह उद्धृत लेख का ही एक अंश है। इसमें लेनिन नरोदवादियों के उस दावे की धज्जी उड़ा रहे हैं, जिसमें वे कहते हैं कि मज़दूर और “मेहनतकश” किसान एक ही वर्ग के हैं। लेनिन कहते हैं कि नरोदवादी छोटे पैमाने के उत्पादन की जीवन शक्ति की प्रशंसा करते हैं और छोटे पैमाने के उत्पादन से उनका आशय होता है बिना उजरती श्रम की खेतीबारी। उसके बाद लेनिन आस्ट्रिया और जर्मनी में छोटे पैमाने की कुल जोतों में लगने वाले कुल उजरती श्रम का आँकड़ा देकर यह साबित करते हैं कि छोटे किसान की खेती लाखों-लाख उजरती मज़दूरों का शोषण करती है। इसके साथ ही वह यह भी कहते हैं कि किसान की गृहस्थी जितनी ही बड़ी है, उसमें उतनी ही बड़ी ही संख्या में मज़दूर लगते हैं। लेख को ‘ग़ौर से’ पढ़ें तो इसमें वे कहीं भी सुखदेव या सम्पादक-मण्डल के इस सिद्धान्त को प्रतिपादित नहीं करते हैं कि छोटे-मँझोले किसान की खेती मुख्यतः और मूलतः अपने श्रम पर आधारित होने की बजाय उजरती श्रम के शोषण पर टिकी है। वे यहाँ पर नरोदवादियों से बहस कर रहे हैं जो मज़दूरों और छोटे किसानों को एक श्रेणी में शामिल करने की कोशिश करते हैं और इसलिए लेनिन छोटे-मँझोले किसानों के इस चरित्र को उद्घाटित करते हैं जो उसके एक हिस्से को कुलकों का नज़दीकी बनाता है और दूसरे को सर्वहारा का। उसका एक हिस्सा कभी-कभी मज़दूर लगाये बग़ैर काम नहीं चला सकता और दूसरे हिस्से को कभी-कभी मज़दूरी करनी पड़ती है।

लेनिन के इस उद्धरण और गाँव के ग़रीबों से मेरे द्वारा दिये गये उद्धरण में मँझोले किसानों के चरित्र के अलग-अलग पहलुओं पर ज़ोर दिया गया है। इसी सन्दर्भ में मैंने कहा था कि लेनिन जहाँ मँझोले किसानों को सर्वहारा वर्ग के दोस्त के रूप में साथ लेने की वकालत करते हैं वहाँ वे उसके उस वर्ग-चरित्र पर ज़ोर देते हैं कि वह मुख्यतः और मूलतः अपने श्रम पर आधारित खेती करता है और जहाँ वे ऐसे लोगों से निपट रहे होते हैं जो मँझोले किसानों को सर्वहारा की तरह ही मेहनतकश बताते हैं तो वे पूरे ज़ोर के साथ मँझोले किसानों के उस वर्ग-चरित्र को चिन्हित करते हैं जो उसे कुलकों का नज़दीकी बनाता है। सुखदेव को इतनी समझ और बहस की इतनी तमीज़ तो हासिल कर ही लेनी चाहिए कि बहस के केन्द्र में जो पहलू होता है, बहस में उसी पहलू पर ज़ोर दिया जाता है। जिन दोनों पहलुओं पर लेनिन ने अपने अलग-अलग समय में लिखे गये लेखों में ज़ोर दिया है वे मँझोले किसानों के वर्ग-चरित्र के ही दो पहलू हैं। ‘गाँव के ग़रीबों से’ के बाद 1919 में क्रान्ति के बाद के प्राथमिक वर्षों में लेनिन ने अपने कई लेखों में मँझोले किसानों को ठीक उसी रूप में परिभाषित किया है। उस समय तक अभी मज़दूर लगाकर खेती की जा रही थी, तभी लेनिन उसे धनी किसानों से अलग श्रेणी में रखते हैं और कहते हैं कि मँझोला किसान बुनियादी तौर पर मुख्यतः अपने श्रम पर आधारित खेती करता है।

अब एक अन्य सवाल पर आते हैं जहाँ लेनिन के उद्धरण को अधूरा उद्धृत करने का आरोप लगाया गया है। सुखदेव ने मेरे द्वारा उद्धृत हिस्से की नीचे की दो लाइनें छोड़कर और ऊपर से उद्धरण का कुछ और अंश लेकर उद्धृत किया है। बात को स्पष्ट करने के लिए यहाँ इस उद्धरण को पूरा का पूरा देना एक मजबूरी है: “सभी मिल्की, सारा बुर्जुआ वर्ग मँझोले किसान की गृहस्थी सुधारने के लिए तरह-तरह की कार्रवाइयों (सस्ते हल, किसान बैंक, सस्ती खाद और सस्ते मवेशी आदि) का वायदा करके उसे अपनी तरफ़ खींचना चाहते हैं। वे मँझोले किसानों को तरह-तरह के खेतिहर संघों (जिन्हें किताबों में सहकार कहा जाता है) में शामिल करने की कोशिश करते हैं; जो खेतीबाड़ी के तरीक़ों में सुधार करने के उद्देश्य से सभी प्रकार के मिल्कियों को ऐक्यबद्ध करने की कोशिश करते हैं। इस तरीक़े से बुर्जुआ वर्ग को न केवल मँझोले किसानों बल्कि छोटे किसानों को भी, यहाँ तक कि अर्द्धसर्वहारा को भी, शहरी मज़दूरों के साथ ऐक्यबद्ध होने से रोकने और मज़दूरों के ख़िलाफ़, सर्वहारा के ख़िलाफ़ लड़ने में धनियों और बुर्जुआ वर्ग की ओर लाने की कोशिश करता है।

“सामाजिक जनवादी मज़दूर इसका जवाब देते हैं: सुधरी गृहस्थी बढ़िया चीज़ है। ज़्यादा सस्ते हल ख़रीदने में कोई बुराई नहीं है; आजकल व्यापारी भी अगर वह बेवक़ूफ़ नहीं, अधिक ख़रीदारों को अपनी ओर खींचने के लिए चीज़ों को सस्ते दामों पर बेचने की कोशिश करता है। लेकिन जब किसी ग़रीब या मँझोले किसान से कहा जाता है कि सुधरी गृहस्थी और ज़्यादा सस्ते हल तुम सबको ग़रीबी से पिण्ड छुड़ाने और अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद करेंगे और यह काम धनियों को हाथ लगाये बग़ैर ही हो सकता है, तो यह सरासर धोखा है। ये सारे सुधार कम क़ीमतें और सहकार (माल ख़रीदन-बेचने के संघ) धनियों को ही अधिक लाभ पहुँचायेंगे…नीचे की दो लाइनें जो मैंने अण्डरलाइन की हैं उन्हें सुखदेव ने छोड़ दिया है।

मैंने अपने लेख में कहा था: “लेनिन ने इस सवाल को (लागत मूल्य के सवाल को) छुआ है और वे इसे सर्वहारा विरोधी माँग का दर्जा देते नहीं दिखायी देते। हाँ, वे बार-बार आगाह करते हैं कि इससे उनकी तबाही-बरबादी रुक जायेगी, ऐसा भ्रम किसानों को नहीं पालना चाहिए। वह उन बुर्जुआ कोशिशों का भण्डाफ़ोड़ करते हैं जो इस तरह की माँगों को किसानों के उद्धार के लिए केन्द्रीय माँग के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। इसके ख़िलाफ़ वे किसानों से कहते हैं: “सुधरी गृहस्थी….अधिक लाभ पहुँचायेंगे।”

अब ज़रा देखा जाये कि क्या मैंने लेनिन के उद्धरण को अपने मुताबिक़ अपनी बात कहलवाने के लिए, काट-छाँटकर, सन्दर्भ से अलग हटाकर प्रस्तुत किया है? क्या उद्धरण के पहले वाले हिस्से को जिसे मैंने उद्धृत नहीं किया था, उसमें कही गयी लेनिन की बात को समेटते हुए ही मैंने उद्धरण का नीचे वाला अंश नहीं दिया है? क्या मैंने लेनिन से लागत मूल्य की माँग उठाने की वकालत करायी है? सुखदेव अपने इस बार वाले लेख में कहते हैं कि यदि ऐसा नहीं है तो मैंने यह उद्धरण दिया ही क्यों। हालाँकि यह स्पष्ट है, लेकिन फि़र भी अब एक बार फि़र इसकी चर्चा करनी होगी।

सम्पादक-मण्डल और साथी सुखदेव ने लागत मूल्य घटाने की माँग के ख़िलाफ़ जो ‘मार्क्सवादी विश्लेषण’ प्रस्तुत किया है – मसलन इससे औद्योगिक सर्वहारा वर्ग पर क़हर टूटेगा और दूसरी तरफ़ इसका असली मतलब यही होगा कि मँझोले किसान श्रम लागत को घटाएँ व मज़दूरों को और अधिक निचोड़ें आदि आदि, अगर यह सही होता तो इस पर लेनिन की भाषा ही अलग होती। वे ताबड़तोड़ प्रहार करते हुए इसे सीधे-सीधे सर्वहारा विरोधी माँग का दर्जा देते। उनकी भाषा ही यही नहीं होती कि सुधरी गृहस्थी बढ़िया चीज़ है, ज़्यादा सस्ते हल ख़रीदने में कोई बुराई नहीं। वे सम्पादक-मण्डल और सुखदेव के ‘मार्क्सवादी विश्लेषण’ से सहमत होते तो सीधे-सीधे कहते कि इसमें बुराई है और बेमुरव्वत होकर इसका डटकर विरोध करते। यही दिखाने के लिए यह उद्धरण दिया गया था कि लेनिन लागत मूल्य घटाने की माँग को सर्वहारा विरोधी माँग का दर्जा देते नहीं दिखायी देते।

सुखदेव अब आगे कहते हैं: ‘स्पष्ट है कि यहाँ पर लेनिन बुर्जुआ वर्ग द्वारा छोटे-मँझोले किसानों को अपने पक्ष में करने के लिए किये जाने वाले कृषि सुधारों की ही चर्चा कर रहे हैं, न कि लागत मूल्य घटाने को किसानों की मुख्य माँग के रूप में पेश कर रहे हैं। अब अगर हमारे यहाँ भी बुर्जुआ वर्ग या उसकी सरकार कृषि सुधारों का कोई काम करे, जिससे छोटे-मँझोले किसानों को फ़ायदा होता हो तो क्या कम्युनिस्ट उसका विरोध करेंगे? पर ऐसे सुधारों के पीछे बुर्जुआ सरकार की नीयत को ज़रूर नंगा करेंगे।”

बिल्कुल ठीक सुखदेव जी। सुखदेव कहते हैं कि लेनिन जिन कृषि सुधारों का उल्लेख कर रहे हैं, अगर बुर्जुआ सरकार उन्हें करती है तो हम उनका विरोध नहीं करेंगे। लेनिन का उद्धरण सामने है। वे जिन कृषि सुधारों की चर्चा कर रहे हैं उनमें शामिल हैं: सस्ते हल, सस्ते मवेशी, सस्ती खाद, किसान बैंक आदि। सस्ती खाद हो सकती है तो सस्ता बीज और सस्ता बिजली-पानी भी हो सकता है। यानी कुल मिलाकर यह लागत मूल्य घटाने का सवाल ही है। अब अगर खाद का दाम घटाना सर्वहारा विरोधी है तो भला सुखदेव इसका क्यों नहीं विरोध करना चाहते हैं? क्या सरकार यह काम अपने आप करेगी तो यह सर्वहारा विरोधी नहीं होगा? क्या उस समय इसमें मार्क्सवादी विश्लेषण का दूसरा फ़ार्मूला लगेगा?

तो सुखदेव जी यह कृषि सुधार सर्वहारा विरोधी नहीं है, इसीलिए हम इनका विरोध नहीं करते हैं; यह तो तय हो गया। लेकिन बुर्जुआ सरकार यह काम करती है तो हम इसके पीछे उसकी नीयत को ज़रूर नंगा करेंगे। बिल्कुल ठीक। असली बात यह नीयत का सवाल ही है। अगर इन माँगों को अलग-थलग करके छोटे-मँझोले किसानों के उद्धार के लिए केन्द्रीय माँग के रूप में उठाया जाता है तो यह निश्चित तौर पर किसानों में यह भ्रम पैदा करेगा कि इस पूँजीवादी व्यवस्था में जिया जा सकता है और तबाही से बचा जा सकता है। यह बात उसे सर्वहारा आन्दोलन के विरोध में खड़ा करेगी लेकिन यदि सामाजवादी क्रान्ति की लड़ाई से जोड़कर तात्कालिक माँगों के रूप में इन्हें उठाया जाता है तो यह आन्दोलन उन्हें सर्वहारा वर्ग के साथ खड़ा करने में मदद देंगे। सुखदेव ने एक बहुत अच्छा उदाहरण दिया है: “अगर सरकार कोई नहर निकाले तो क्या कम्युनिस्ट उन्हें इस नहर का पानी न इस्तेमाल करने के लिए कहेंगे?’ बिल्कुल नहीं सुखदेव जी। लेकिन सिंचाई सुविधा नहीं है तो कम्युनिस्ट क्या नहर बनाने की माँग नहीं उठा सकते हैं? क्या यह सर्वहारा विरोधी माँग होगी? हालाँकि नहर बनने पर इससे सबसे अधिक फ़ायदा धनी किसानों को ही होगा। लेकिन अगर कम्युनिस्ट इस आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे हों तो क्या इस आन्दोलन से उन्हें छोटे-मँझोले किसानों को अपने साथ खड़ा करने में मदद नहीं मिलेगी?

5. सम्पादक-मण्डल यह तर्क देता है कि लागत मूल्य घटाने की माँग छोटे-मँझोले किसानों को शत्रु वर्ग के पाले में धकेल देगी। इसके लिए वह कोई तर्क नहीं देता। मेरी कही हुई एक बात को ही वह इसके पक्ष में उद्धृत करता है: एस. प्रताप ख़ुद स्वीकार करते हैं कि लागत मूल्य घटाने का भी कुल मिलाकर सबसे अधिक फ़ायदा धनी किसानों को ही होगा। मैंने वहीं पर यह बात भी कही है कि जब तक खेती के मालिकाने का सवाल केन्द्र में नहीं लाया जाता तब तक ऐसी किसी भी माँग का सर्वाधिक फ़ायदा धनी किसानों को ही होगा क्योंकि अधिक ज़मीनें तो उन्हीं के पास हैं। लेकिन पहली बात तो यह कि यहाँ छोटे-मँझोले किसानों के लिए लागत मूल्य घटाने की माँग उठाने की बात हो रही है, श्रम लागत वाले सवाल पर बात करते हुए पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है।

दूसरी बात अधिक महत्त्वपूर्ण है, जो अभी तक बहस में नहीं उठी थी। धनी किसानों की लाभकारी मूल्य की माँग के समानान्तर और उसके ख़िलाफ़ ही छोटे-मँझोले किसानों के लिए लागत मूल्य घटाने की माँग उठाने की बात की जा रही है। हम लाभकारी मूल्य की माँग का विरोध करते हैं और सर्वहारा आन्दोलन मज़बूत होगा तो वह सक्रिय रूप से लाभकारी मूल्य की माँग के ख़िलाफ़ उतरेगा। वह अनाज या अन्य कृषि उत्पादों का दाम बढ़ाने की हर कोशिश का विरोध करेगा। लागत मूल्य घटाने की माँग पर छोटे-मँझोले किसानों के आन्दोलन के समर्थन और लाभकारी मूल्य की माँग के ख़िलाफ़ खड़ा सर्वहारा आन्दोलन ही छोटे-मँझोले किसानों और धनी किसानों के बीच विभाजक रेखा खींच सकता है और उनके वर्गीय अन्तरविरोधों को तीखा कर सकता है। यही उस प्रक्रिया को भी गति देगा तब मँझोले किसानों का एक हिस्सा निर्णायक रूप से सर्वहारा वर्ग के साथ खड़ा हो जायेगा और दूसरा हिस्सा धनी किसानों से जा मिलेगा।

समझदारी के इस धरातल पर पहुँचने के बाद मैं बेलागलपेट यह बात स्वीकार करता हूँ कि वाजिब मूल्य पर दबाव बनाने या किसी भी रूप में किसी भी परिस्थिति में कृषि उत्पादों का दाम गिरने से रोकने या बढ़ाने की बात पूरी तरह प्रतिक्रियावादी है। सच है कि यह लाभकारी मूल्य की माँग से जुड़ती है। यह सच है कि विशेष परिस्थितियों में उदाहरण के तौर पर मिलों द्वारा कृषि उत्पादों का दाम घटाने पर मँझोले किसानों को अपने साथ बनाये रखने की चिन्ता से ही मेरे भीतर यह समझौतावादी सोच पैदा हुई थी। इस प्रतिक्रियावादी पोज़ीशन से मुझे मुक्त करने में सम्पादक-मण्डल, सुखदेव और कुछ अन्य साथियों ने भी भूमिका निभायी। बहस के शुरुआती दौरों में ही मुझे अपनी इस पोज़ीशन के अन्तरविरोध तो समझ में आने लगे थे, लेकिन पूरे तौर पर मामले को न समझ पाने के चलते मैं इसकी विसंगतियाँ ही दूर करने का प्रयास करता रहा था। इस मदद के लिए साथी सुखदेव की गालियों को भी धन्यवाद।

6. अब हम इस बात पर आते हैं कि लागत मूल्य घटाने की माँग यदि सामान्य तौर पर भी उठायी जाये तो वह किस रूप में मँझोले किसानों के हित में है जबकि वह धनी किसानों के ख़िलाफ़ जाती है। मँझोला किसान बस उतनी बड़ी जोत का ही मालिक होता है जिससे कि उसके परिवार का भरण-पोषण हो सके। वह मुनाफ़े के लिए खेती नहीं करता है, इसलिए उसकी मुख्य समस्या लागत की ही होती है। बढ़ती लागतों से उसके लिए खेती करना मुश्किल हो जाता है। पूँजीवादी समाज के रहते यह समस्या ख़त्म नहीं हो सकती और उसका चाहे कितना ही सशक्त संगठन और आन्दोलन हो, इस समस्या को पूरी तरह समाप्त नहीं कर सकता और तबाही उसकी नियति है। लेकिन लागत घटाने की माँग पर आन्दोलन उसे कुछ राहत अवश्य पहुँचा सकता है। उसके जीवन की परिस्थितियों को थोड़ा सहनीय बना सकता है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह कि वह अपनी तबाही के ख़िलाफ़ लड़ते हुए पूँजीवादी व्यवस्था के शोषणकारी चरित्र को समझेगा और उसके निचले और रैडिकल हिस्से सर्वहारा वर्ग के मित्र वर्ग के रूप में उसके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर समाजवादी क्रान्ति की लड़ाई में आगे आयेंगे।

लागत मूल्य घटाने की माँग धनी किसानों के हित में नहीं है। धनी किसानों की माँग लाभकारी मूल्य की ही है। यदि लाभकारी मूल्य तय कर दिया जाये तो बढ़ती लागतें धनी किसानों के लिए फ़ायदेमन्द होंगी। क्योंकि वे मुनाफ़े की खेती करते हैं और उनके पास पूँजी का संकट नहीं होता, इसलिए लागतों का दाम बढ़ने पर वे खेती के उसी टुकड़े पर पहले से अधिक मुनाफ़ा कमा सकेंगे। जबकि लागतों का दाम घटने पर उनका मुनाफ़ा गिरेगा। लाभकारी मूल्य तय न होने पर लागतों का दाम घटने पर उन्हें भी फ़ायदा होगा, बल्कि यदि सामान्य तौर पर लागतों का दाम घटाने की माँग की जाये तो उन्हें ही अधिक फ़ायदा होगा।

7. सम्पादक-मण्डल कहता है कि लेनिन ने जहाँ कहीं भी समाजवादी क्रान्ति के कार्यभारों की चर्चा की है और स्टालिन ने भी 1917 में लेनिनवाद के मूल सिद्धान्त में जो लिखा है, उसमें दोनों मार्क्सवादी नेताओं ने अर्द्धसर्वहारा यानी ग़रीब किसानों तक को ही साथ लेने की चर्चा की है और मध्यम किसानों की चर्चा तक नहीं की है। इससे व इससे जोड़कर अपनी अन्य बातों से ऐसा लगता है कि सम्पादक-मण्डल यह आम प्रस्थापना देने की कोशिश कर रहा है कि समाजवादी क्रान्ति के दौर में मँझोले किसानों को सिर्फ़ तटस्थ करने की रणनीति अख़्तियार करनी चाहिए। कम से कम उसे अपनी इस बात को स्टालिन और लेनिन के मत्थे नहीं मढ़ना चाहिए। दूसरी बात, सम्पादक-मण्डल के यह विचार उसके पहले के लेख से भी मेल नहीं खाते हैं। यदि उसे तटस्थ करने की ही रणनीति अख़्तियार करनी चाहिए तो सम्पादक-मण्डल ने उसे संगठित करने के लिए माँगों की इतनी लम्बी-चौड़ी सूची क्यों प्रस्तुत की थी? अब यदि उसके विचार बदल गये हैं तो उसे कम से कम इसका उल्लेख तो करना ही चाहिए कि पिछले लेख में वह जो कुछ सोचता था वह ग़लत था और अब उसके विचार आगे बढ़ गये हैं।

मँझोले किसानों के बारे में सर्वमान्य प्रस्थापना तो अभी तक यही रही है कि उन्हें भरसक अपने साथ खड़ा करने की कोशिश की जानी चाहिए और यदि हम उन्हें अपने साथ खड़ा नहीं कर सकते हैं तो कम से कम उन्हें तटस्थ करने की कोशिश करनी चाहिए। इसीलिए हम उसे ढुलमुल संश्रयकारी मानते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि सम्पादक-मण्डल उसे सिर्फ़ तटस्थ करने की ही बात करता है, वह यह भी कहता है कि उसे भरसक पूँजीवादी सत्ता विरोधी माँगों पर सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी के साथ खड़ा करने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन मुख्य बात ज़ोर की है। सम्पादक-मण्डल की बातों में मुख्य ज़ोर अब उसे तटस्थ करने पर चला गया है न कि उसे साथ लेने पर।

दरअसल, मँझोले किसानों के बारे में हमारा ज़ोर कब तक उन्हें साथ लेने पर ही हो और कब उन्हें तटस्थ करने पर, यह देश-काल की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। ख़ासकर, जब क्रान्ति का तूफ़ान खड़ा हो चुका हो तब तक तो वर्गों का राजनीतिक ध्रुवीकरण साफ़ हो जाता है (जैसा कि रूस में 1917 के आसपास के दौर में)। उस समय तक यदि मँझोला किसान हमारे साथ नहीं खड़ा हो चुका हो तो उस समय उसे अपने साथ खड़ा करने की चिन्ता हम नहीं कर सकते, अधिक से अधिक उसे तटस्थ करने के बारे में ही सोच सकते हैं। हमारे यहाँ भी उसके प्रति हमारा दृष्टिकोण इसी से तय होगा और बदलता जायेगा कि संख्या की दृष्टि से वह कितना प्रभावकारी है और किसका पक्ष लेकर खड़ा हो रहा है।

8. अब लागत मूल्य घटाने की माँग के ख़िलाफ़ सम्पादक-मण्डल के एक अन्य तर्क पर आते हैं; जो सबसे महत्त्वपूर्ण है। सम्पादक-मण्डल का कहना है कि लागत मूल्य घटाने की माँग छोटे-मँझोले किसानों की किसानी अर्थव्यवस्था के प्रति मध्यम किसानों के मोहभ्रम को बढ़ाने का काम करती है। यह ख़तरा तो है ही। लेकिन यह ख़तरा काफ़ी हद तक उसी प्रकृति का है जैसा जनता के बीच सुधार की कार्रवाइयों के साथ होता है। यदि सुधार की कार्रवाइयों को क्रान्तिकारी कार्रवाइयों के मातहत रखकर न अंजाम दिया जाये तो इससे सुधारवाद का ख़तरा पैदा होता है। मैंने पहले ही लिखा था कि देहात में सर्वहारा वर्ग को संगठित किये बग़ैर छोटे-मँझोले किसानों को संगठित करने के काम को हाथ में नहीं लिया जा सकता है। ऐसा करना गम्भीर भटकाव होगा। समाजवादी क्रान्ति के दौर में औद्योगिक सर्वहारा वर्ग को संगठित करने से पहले ग्रामीण सर्वहारा वर्ग संगठित करने पर ज़ोर देना भी भटकाव ही होगा। देहातों में सर्वहारा वर्ग का सशक्त क्रान्तिकारी आन्दोलन ही वह गारण्टी है जो मँझोले किसानों में किसी भी तरह के मोहभ्रम को पैदा नहीं होने देगा और वर्ग ध्रुवीकरण तीखाकर मँझोले किसानों के निचले व बिचले हिस्सों को निर्णायक तौर पर क्रान्ति के पक्ष में खड़ा करेगा। सर्वहारा वर्ग का आन्दोलन धनी किसानों की लाभकारी मूल्य की माँग का भी डटकर विरोध करेगा और यह भी मँझोले किसानों के बीच ध्रुवीकरण को निर्णायक मंज़िल पर पहुँचायेगा। समाजवादी क्रान्ति के दौर में देहातों में हमारी केन्द्रीय और दीर्घकालिक माँग है भूमि पर निजी मालिकाने को समाप्त कर सामूहिक मालिकाने की व्यवस्था स्थापित करना और बड़े किसानों के फ़ार्मों पर क़ब्ज़ा कर सामूहिक फ़ार्मों की स्थापना करना। इस माँग को एक पल के लिए भी नज़रों से ओझल कर छोटे-मँझोले किसानों के लिए लागत मूल्य घटाने की माँग ही नहीं, कोई भी अन्य माँग उठाना घातक होगा। जहाँ तक इस माँग से यह भ्रम पैदा होने का सवाल है कि इससे छोटी किसानी तबाही से बच जायेगी तो मुझे लगता है कि सम्पादक-मण्डल ख़ुद ही इस भ्रम का शिकार है। अन्यथा यह उसे दिखायी दे जाता कि यह सम्भव नहीं है। किसानी अर्थव्यवस्था में जिस आक्रामक रूप में पूँजी का क़हर जारी है, उसमें अब इन भ्रमों की गुंजाइश ही काफ़ी कम हो गयी है। इस माँग पर आन्दोलन उन्हें सिर्फ़ कुछ राहत ही दे सकता है। तात्कालिक माँगों के साथ ऐसा ही होता है। हाँ, वे अपनी तबाही के ख़िलाफ़ लड़ते हुए अपनी तबाही के कारणों को अवश्य समझ सकेंगे और सर्वहारा क्रान्ति के साथ खड़े हो सकेंगे।

9. मैंने अपने पिछले लेख में इस पर चर्चा की थी कि कैसे पूँजीवादी विकास के साथ-साथ पूरे देश में कई आर्थिक-सामाजिक प्रक्रियाओं से मँझोले किसानों का हिस्सा सिकुड़ रहा है। पिछड़ी खेती के इलाक़ों में तो अभी उसका आधार इतना नहीं सिकुड़ा है कि उसको संगठित करने का सवाल अप्रासंगिक हो गया हो, लेकिन विकसित खेती के इलाक़ों में वह संख्या की दृष्टि से अप्रासांगिक होता जा रहा है। यह एक प्रवृत्ति के रूप में साफ़ दिखायी देता है। लेकिन मेरी जानकारी में, इसके बारे में वर्गीय दृष्टि से कोई शोध या आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए ठोस-ठोस कुछ नहीं कहा जा सकता है। सिर्फ़ बिहार के बारे में एक ऐसे शोध की जानकारी मिली है, लेकिन उसकी रिपोर्ट देखने का अवसर मुझे अभी नहीं मिल सका है। हालाँकि सम्पादक-मण्डल ने भी अपने समाहार में लगभग वही बातें कही हैं जो मैंने कही थीं, इसलिए इस मामले में अभी ‘अनपढ़’ बने रहने से फ़िलहाल बहस में कोई समस्या नहीं आने वाली है। अब हम यहाँ इसी मामले से जुड़ी एक अन्य बात की चर्चा करना चाहेंगे।

पिछले लेखों में मैने खेती के विशेषीकरण की चर्चा करते हुए कहा था अब मँझोले किसान भी सिर्फ़ कुछ फ़सलें ही उगाते हैं और उसे बेचकर अन्य फसलों को बाज़ार से ख़रीदते हैं। यह सच है कि यह प्रवृत्ति के रूप में पूरे देश में मौजूद है। लेकिन यह विकसित खेती के इलाक़ों में ही सबसे अधिक तीखेपन के साथ मौजूद है। ख़ासकर नक़दी फसलों के इलाक़ों में धनी किसानों के साथ-साथ छोटे-मँझोले किसान भी अपनी भूमि के अधिकांश क्षेत्रफ़ल में नक़दी फ़सलें ही उगाते हैं। मुख्यतः दो या तीन फसलों पर ही उनकी खेती केन्द्रित है। लेकिन देश के अन्य अधिकांश खेती के पिछड़े इलाक़ों में मँझोला किसान अभी भी अपनी ज़रूरत की सभी नहीं लेकिन अधिकांश फ़सलें उगाने पर ज़ोर देता है। वह बाज़ार में बहुत कम फ़सलें ही बेचता है। यहाँ तक कि पश्चिम के गन्ना बेल्ट का भी अनुभव यह बताता है कि जब कभी भी गन्ना मूल्य भुगतान का संकट बढ़ जाता है, तो ख़ासकर मँझोले किसानों में गन्ना क्षेत्रफ़ल घटाने और अन्य ज़रूरत की फ़सलें उगाने पर ज़ोर बढ़ जाता है। लेकिन यह सर्वमान्य सच्चाई है कि नक़दी फसलों के इलाक़े में अधिकांश मँझोले किसान अपनी भूमि के अधिकांश क्षेत्रफ़ल पर इन नक़दी फसलों को ही उगाते हैं (कहीं-कहीं एक सीज़न में नक़दी फ़सल और दूसरे सीज़न में सामान्य फ़सल और कहीं-कहीं दोनों सीज़न में नक़दी फ़सल) और अमूमन अन्य ज़रूरत की फसलों को बाज़ार से ख़रीदते हैं। नक़दी फ़सलें उगाने वाले ये ‘मँझोले किसान’ क़र्ज़ लेकर खेती में निवेश करते हैं और मज़दूर लगाकर खेती करने की प्रवृत्ति भी उन्हीं के बीच सबसे अधिक बढ़ी है। पिछले लेख में कही गयी अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मैं यहाँ सिर्फ़ यह कहना चाहता हूँ कि इन किसानों की जोत चाहे कम हो, लेकिन यदि वे अपने उत्पादन का अधिकांश भाग मण्डी में बेचते हैं तो वे अपनी फसलों का मुनाफ़ा ही चाह सकते हैं। इससे उनका वर्गीय रूपान्तरण हो जाता है। मैंने अपने पिछले लेख में कहा था कि ऐसे मँझोले किसान जो अपनी फ़सलें बेचकर अन्य ज़रूरत की फ़सलें बाज़ार से ख़रीदते हैं, उन्हें लाभकारी मूल्य से कोई फ़ायदा नहीं होगा, क्योंकि लाभकारी मूल्य का तर्क तो दोनों ही फसलों पर लागू होगा। यह सच है लेकिन यदि ये किसान अपने उत्पादन का अधिकांश भाग मण्डी में बेचते हैं तो वे लाभकारी मूल्य की माँग का ही समर्थन करेंगे। अधिकाधिक मज़दूर लगाकर खेती करने की प्रवृत्ति और अपने उत्पादन का अधिकांश भाग मण्डी में बेचने से उसका वर्गीय रूपान्तरण हो जाता है और वह अब सर्वहारा का संश्रयकारी मँझोला किसान नहीं, अपने वर्ग-चरित्र में छोटा-मोटा कुलक बन चुका है। इसकी तबाही ही इसे हमारे साथ ला सकती है। क़र्ज़ में डूबे इन किसानों की तबाही की भीषण स्थिति को नक़दी फसलों के इलाक़ों में किसानों की आत्महत्याओं में देखा जा सकता है।

10. सम्पादक-मण्डल अपने लेख में बार-बार कहता है कि मैं अपनी पोज़ीशन से दायें-बायें खिसकता रहा हूँ, लीपापोती करता रहा हूँ और अपनी ग़लती कुछ हद तक मानते हुए भी अपनी पोज़ीशन पर डटा रहा हूँ। पढ़ने से साफ़ लगता है कि वह हमारे लेख पर सामान्य टिप्पणी कर रहा है। अपने तर्क कमज़ोर होने पर ही पाठकों को पूर्वाग्रहित करने के लिए कोई ऐसा काम कर सकता है।

अपनी जगह पर सावधान की मुद्रा में बिल्कुल स्थिर खड़ा विद्वान सम्पादक-मण्डल यह तो समझता ही होगा कि किसी भी मुद्दे (ख़ासकर ऐसे उलझाऊ सवाल) पर मुख्यतः और मूलतः सही अवस्थिति पर पहुँच जाने के बाद भी बहस में या सामाजिक व्यवहार में उसकी बहुतेरी ऐसी विसंगतियाँ उजागर होती हैं और इन्हीं प्रक्रियाओं में इन विसंगतियों को दूर कर सही अवस्थिति तक पहुँचा जा सकता है। मेरे जैसे ‘शाख पर बैठे हुए उल्लू’ पर तो यह और भी अधिक लागू होता है। मुझे नहीं पता कि इस बहस के दौरान सम्पादक-मण्डल की अपनी समझदारी में कुछ इज़ाफ़ा हुआ या नहीं (हालाँकि कम से कम अपनी एक ग़लती को समझने का मौक़ा तो उसे भी मिला), मुझे तो बहस के दौरान इस समस्या से जुड़े कई पहलुओं को और अधिक समझने का मौक़ा मिला और उसी के साथ-साथ मैं अपनी पोज़ीशन को विसंगतियों और अन्तरविरोधों से मुक्त करने और उसे विस्तार देने की कोशिश करता रहा।

सम्पादक-मण्डल ने अपने लेख में दो ऐसे सवाल उठाये हैं, जिनसे उसकी ‘दायें-बायें खिसकने’, ‘लीपापोती करने’ व ग़लती कुछ हद तक मानने की टिप्पणियाँ जुड़ती हैं। वाजिब मूल्य वाली बात पर और मँझोले किसानों की परिभाषा के सवाल पर। वाजिब मूल्य वाली मेरी पोज़ीशन ग़लत थी और इस सवाल को लेकर मैं किस रूप में अन्तरविरोधग्रस्त था, इसके बारे में मैं पहले ही चर्चा कर चुका हूँ।

मँझोले किसानों की परिभाषा के सवाल पर सम्पादक-मण्डल कहता है कि मैंने बहस में शामिल अपने पहले लेख (नवम्बर, 2004) में कहा था कि मध्यम किसान अपने खेतों में परिवार सहित श्रम करता है और उजरती मज़दूरों से काम नहीं लेता है तथा बाद में दायें-बायें खिसककर कुछ सुधार कर मैंने मध्यम किसानों का सर्वमान्य विभेदीकरण प्रस्तुत करते हुए अपनी अवस्थिति कुछ यूँ रखी कि उच्च-मध्यम किसान कभी-कभी उजरती मज़दूरों से थोड़ा-बहुत काम लेता है।

सम्पादक-मण्डल यह ग़लतबयानी कर रहा है या उससे भूलचूक हुई है? मैंने अपने लेख (नवम्बर, 2004) में कहा था – “उत्पादन प्रक्रिया में हिस्सेदारी के आधार पर मध्यम किसान उसे ही कहा जा सकता है जो मूलतः और मुख्यतः अपना श्रम लगाकर खेती करता है, अपवादस्वरूप ही और आपात परिस्थितियों में ही वह मज़दूर लगाने को मजबूर होता है।“ इसी से आगे मैंने लेनिन का उद्धरण भी दिया है जिसमें वे भी कहते हैं कि मँझोले किसानों में कम ही सही, लेकिन कुछ ऐसे किसान हैं जो उजरत पर खेत बनिहार या दिहाड़ीदार लगाते हैं। स्पष्ट है कि यहाँ यही कहा गया है कि मँझोला किसान ‘कभी-कभी’, ‘थोड़ा-बहुत’ मज़दूर लगाता है। इसे व्यंग्यात्मक रूप में दायें-बायें खिसकना कहकर सम्पादक-मण्डल अपनी किस प्रवृत्ति को उजागर कर रहा है?

अपने अगले लेख (जनवरी, 2005) में मैंने अपनी पोज़ीशन को विस्तार देते हुए किसानों का सर्वमान्य विभेदीकरण प्रस्तुत कर यही बात कही है कि मँझोले किसानों का बुनियादी चरित्र उसके बीच वाले हिस्से से ही निर्धारित होता है जो अपने श्रम पर आधारित खेती करता है। इसका ऊपरी हिस्सा और निचला हिस्सा एक तरफ़ कुलकों और दूसरी तरफ़ सर्वहारा वर्ग से नज़दीकी बनाते हैं। कोई भ्रम पैदा न हो, इसीलिए यहीं पर यह सर्वमान्य बात भी कह देना उचित होगा कि यह सर्वमान्य विभेदीकरण सिर्फ़ मँझोले किसानों के चरित्र को समझने के लिए किया जाता है। व्यवहार में यह विभेदीकरण सम्भव नहीं होता है। मँझोले किसान के चरित्र में यह सब घुला-मिला होता है। ऐसे भी मँझोले किसान हो सकते हैं जो मुख्यतः अपने श्रम पर आधारित खेती करते हैं, लेकिन कभी-कभी मज़दूर भी लगाते हैं और कभी-कभी ख़ुद भी मज़दूरी करते हैं। ऐसे भी मँझोले किसान हो सकते हैं जो अन्य मँझोले किसानों की अपेक्षा कुछ अधिक मज़दूर लगाते हों, लेकिन फि़र भी मुख्यतः और मूलतः अपने श्रम पर आधारित खेती करते हैं। ऐसे भी मँझोले किसान हो सकते हैं जो कुछ हद तक अपनी जीविका के लिए मज़दूरी पर निर्भर हो चले हैं, लेकिन अभी मुख्यतः अपने श्रम पर आधारित अपनी खेती से ही जीवनयापन करते हों।

सुखदेव और सम्पादक-मण्डल के अनुसार अब भारत की नयी और “विशिष्ट” परिस्थितियों में निम्न-मध्यम और ग़रीब किसानों को भी कभी-कभी विशेष स्थितियों में मज़दूर लगाना पड़ता है। ये नयी और “विशिष्ट” परिस्थितियाँ नहीं हैं, कृषि उत्पादन का चरित्र ही ऐसा होता है कि पहले भी विशेष परिस्थितियों में उन्हें ऐसा करना पड़ता था। लेकिन उस समय अमूमन अदला-बदली के श्रम से काम चला लिया जाता था। अब बदली हुई परिस्थितियों में पूँजीवाद के विकास ने अदला-बदली के श्रम की परम्परा को लगभग ख़त्म कर दिया है और विशेष परिस्थितियों में अब उन्हें भी मज़दूर लगाना पड़ता है। हाँ, खेती में पूँजीवादी विकास के साथ फसलों के उत्पादन में ऐसे अनेकानेक तत्त्व पैदा होते हैं जब कृषि कार्यों में आसन्नता का तत्त्व बढ़ जाता है और कुछ ख़ास कार्यों को समय पर निपटा लेना ज़रूरी हो जाता है। इसके साथ ही कुछ कार्यों में विशेषज्ञता की ज़रूरत भी बढ़ जाती है। इसी के साथ-साथ खाद-बीज-बिजली-पानी-जुताई-हार्वेस्टिंग आदि का ख़र्च भी बढ़ता जाता है। यही तो वे परिस्थितियाँ हैं जो मँझोले किसानों के एक हिस्से का कुलकीकरण करती जाती हैं और दूसरे हिस्से को तबाह कर ग़रीब किसानों की श्रेणी में धकेलती जाती हैं। लेकिन मज़दूर लगाने की इस मजबूरी के बढ़ने के बाद भी मँझोले किसान की श्रेणी में तो हम उसी को शामिल कर सकते हैं जो मूलतः और मुख्यतः अपने श्रम पर आधारित खेती करता है और उसके इस बुनियादी चरित्र की बात कहते हुए ही मेरे लेख में कहा गया है कि वह मज़दूर लगाकर खेती नहीं करता है और उसकी लागत मूल्य घटाने की माँग में मज़दूरी घटाने या किसी भी रूप में श्रम लागत कम करने की माँग शामिल नहीं हो सकती है। मज़दूर लगाने की मजबूरी जिस समय उसे उस मंज़िल पर पहुँचा देगी कि मूलतः और मुख्यतः मज़दूर लगाकर खेती करना उसका चरित्र बन जाये और मज़दूरी घटाने की माँग उसकी माँग बन जाये, उस समय वह सर्वहारा का संश्रयकारी मँझोला किसान नहीं रह जायेगा और कुलकों की श्रेणी में शामिल हो जायेगा।

(अप्रकाशित; जनवरी, 2005)


 

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