सम्पादक-मण्डल छुप-छुपकर धो रहा है धनी किसानों के घर के पोतड़े

एस. प्रताप

मँझोले किसानों के बारे में सर्वहारा दृष्टिकोण के सवाल पर चली बहस में सम्पादक-मण्डल ने अपनी अवस्थिति प्रस्तुत करते हुए उसे ही बहस का सम्पादकीय समाहार घोषित कर दिया। मुझे अपनी आखि़री अवस्थिति प्रस्तुत करने का मौक़ा भी नहीं दिया गया और मेरा लेख छापने से इन्कार कर दिया गया। लेकिन दरअसल बहस सिर्फ़ मेरे लिए ही ख़त्म की गयी है। सम्पादक-मण्डल तो एकतरफ़ा बहस जारी रखे हुए है। मेरा लेख तो उसने प्रकाशित नहीं किया लेकिन इस बार ‘बिगुल’ के मार्च (2005) अंक में मेरे इस अप्रकाशित लेख पर ही छुप-छुपकर पीछे से वार करने की कोशिश की गयी है। इस अंक में लेनिन द्वारा अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की दूसरी कांग्रेस के लिए तैयार की गयी ‘भूमि प्रश्न पर मसविदा थीसिस’ का अंश प्रकाशित किया गया है और इसके साथ ही एक लम्बी सम्पादकीय टिप्पणी प्रकाशित की गयी है। मैंने अपने अप्रकाशित लेख में सम्पादक-मण्डल और सुखदेव के झूठे और घटिया आरोपों को पूरी तरह ख़ारिज कर दिया है और इससे सम्पादक-मण्डल और सुखदेव की निकृष्ट प्रवृत्ति खुलकर सामने आ गयी है (पढ़ें मेरा नप्रकाशित लेख)। इसके अलावा मेरे इस नप्रकाशित लेख में लागत मूल्य घटाने की माँग भी पूरी तरह स्थापित हो चुकी है। सम्पादक-मण्डल के पास अब कोई तर्क नहीं रह जाते। इसमें उसकी कठदलीली भी सामने आ जाती है। सम्पादक-मण्डल ने मेरा लेख छापने का साहस नहीं जुटाया और गुस्से से पागल होकर अपने उन्हीं झूठे और घटिया आरोपों की एक बार फि़र बौछार कर दी। शायद उसे गोयबेल्स की इस बात पर यक़ीन हो गया है कि सौ बार बोलने पर झूठ भी सच हो जाता है। सम्पादक-मण्डल कहता है कि एस. प्रताप नाक का सवाल बनाकर कठदलीली करते रहते हैं; इस लेख में यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जायेगी कि नाक का सवाल बनाकर कठदलीली कौन कर रहा है, मैं या सम्पादक-मण्डल? सम्पादक-मण्डल अपनी टिप्पणी में नरोदवाद के विभिन्न रूपों पर गुस्सा ज़ाहिर करते हुए कहता है कि वे धनी किसानों के घरों में पोतड़े धो रहे हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि उन नरोदवादियों के साथ वह ख़ुद भी छुप-छुपकर धनी किसानों के घरों में पोतड़े धोने में लगा हुआ है। लेकिन इस बार वह रँगे हाथों पकड़ा जायेगा और उसका भण्डाफ़ोड़ हो जायेगा।

 लेनिन का यह लेख ‘भूमि प्रश्न पर प्रारम्भिक मसविदा थीसिस’ पढ़ने के बाद तो सम्पादक-मण्डल का रवैया पूरी तरह अचम्भित कर देता है। ऐसा लगता है कि अपने को सही साबित करने की धुन में वह अन्धा होकर कोटेशनों की भीड़ में खो गया है और उनमें शब्दावलियों के अतिरिक्त वह कुछ भी समझने की कोशिश नहीं कर रहा है। लेकिन इस पर थोड़ा आगे बात करेंगे। आइये सबसे पहले इस चीज़ का नज़ारा लें कि वह इस सम्पादकीय टिप्पणी में ‘दायें-बायें खिसकते हुए’ किस तरह ‘चलायमान युद्ध’ चला रहा है। मैंने अपने लेख (नवम्बर 2004) में कहा था कि एंगेल्स जिसे छोटा किसान कहते हैं, लेनिन उसे ही मँझोला किसान कहते हैं क्योंकि दोनों की परिभाषा पूरी तरह मेल खाती है। इसके जवाब में सम्पादक-मण्डल ने अपने सम्पादकीय समाहार में कहा – “एंगेल्स मँझोले किसान (लेनिन के मँझोले किसान) को छोटा किसान नहीं कहते, बल्कि जर्मनी और फ़्रांस की परिस्थितियों में उनका यह प्रवर्गीकरण ग़रीब किसानों और निम्न-मध्यम किसानों को ही अपने दायरे में समेटता है।” सम्पादकीय समाहार का जवाब देते हुए मैंने अपने अप्रकाशित लेख में इस पर सवाल उठाया कि ग़रीब किसान अर्द्धसर्वहारा है और एंगेल्स की परिभाषा से यह पूरी तरह स्पष्ट है कि वे छोटे किसान वर्ग में अर्द्धसर्वहारा को शामिल नहीं करते हैं। सम्पादक-मण्डल ने अपनी इस ग़लती को सीधे-सीधे स्वीकार करने का साहस नहीं जुटाया। उसने चुपचाप पिछले दरवाजे से सम्पादकीय टिप्पणी के भीतर ब्रैकेट (कोष्ठक) में अपनी इस ग़लती से छुटकारा पा लिया। टिप्पणी में उसने कोष्ठक में बताया है कि छोटे किसान को निम्न-मध्यम किसान माना जा सकता है। तो आखि़रकार ‘दायें-बायें खिसकते हुए’ चलायमान युद्ध चलाते हुए वह यहाँ तक पहुँच ही गया कि एंगेल्स का छोटा किसान मँझोला किसान ही है। हालाँकि अभी भी वह सिर्फ़ निम्न-मध्यम किसानों को ही इसमें शामिल करता है, अभी भी वह पूरी तरह सही अवस्थिति नहीं अपना सका है। लेकिन जब उसने क़दम आगे बढ़ा ही लिया है (भले ही छिप-छिपकर) तो यह उम्मीद की जा सकती है कि वह दायें-बायें खिसकता धीरे-धीरे एक क़दम और आगे बढ़ा ही लेगा और मध्यम-मध्यम किसानों को भी एंगेल्स के इस छोटे किसान वर्ग में शामिल कर सही अवस्थिति तक पहुँच जायेगा। मैंने अपने नप्रकाशित लेख में यही कहा है कि एंगेल्स के मँझोले किसान वर्ग में अधिक से अधिक उच्च-मध्यम किसानों का ही हिस्सा शामिल हो सकता है। नतीजतन मध्यम-मध्यम और निम्न-मध्यम किसान एंगेल्स के छोटे किसान की श्रेणी में शामिल होंगे।

लेनिन की भूमि प्रश्न पर मसविदा थीसिस में यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है। इस पर चर्चा से पहले यह बात ध्यान में रखना ज़रूरी है कि यहाँ लेनिन ने रूस की परिस्थितियों में किसानों के अपने वर्गीकरण का इस्तेमाल नहीं किया है। यहाँ वे एंगेल्स के वर्गीकरण का इस्तेमाल कर रहे हैं (क्योंकि यह कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल की कांग्रेस के लिए और पूँजीवादी देशों के लिए भूमि-सम्बन्ध विषयक कार्यक्रम के रूप में लिखा गया है। इसके बारे में आगे बात करेंगे कि क्यों पूँजीवादी विकास की उन्नत मंज़िलों में एंगेल्स का वर्गीकरण ही अधिक सटीक है।) लेनिन ने अपनी इस थीसिस में एंगेल्स के वर्गीकरण को विस्तार देते हुए वर्गों को और सामाजिक परिवर्तन में उनकी भूमिका को बहुत स्पष्टता के साथ व्याख्यायित किया है। इसके बाद इस मामले में किसी भ्रम की गुंजाइश नहीं रह जाती है।

छोटे किसान वर्ग के बारे में लेनिन कहते हैं: “छोटे किसान यानी, छोटे पैमाने पर खेती करने वाले, जिनके पास मालिक के रूप में या आसामी के रूप में, ज़मीन के छोटे टुकड़े होते हैं जिनसे वह अपने परिवारों और खेतीबाड़ी की ज़रूरतों को पूरा कर सकते हैं और बाहर से श्रम भाड़े पर नहीं लेते।… इसके बाद वह आगे कहते हैं: “साथ ही कम्युनिस्ट पार्टी को साफ़ तौर पर यह समझना चाहिए कि पूँजीवाद से साम्यवाद में संक्रमण की अवधि के दौरान, यानी सर्वहारा अधिनायकत्व के दौरान, यह तबक़ा, या किसी भी समय इसका कोई हिस्सा, अपरिहार्यतः व्यापार की निर्बन्ध स्वतन्त्रता और निजी सम्पत्ति के अधिकारों का मुक्त रूप से लाभ उठाने की दिशा में ढुलमुलपन दिखायेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह तबक़ा छोटे रूप में ही सही, उपभोग की वस्तुओं का विक्रेता है, मुनाफ़ाख़ोरों द्वारा और स्वामित्व की आदतों द्वारा भ्रष्ट हो चुका है। लेकिन अगर दृढ़ सर्वहारा नीति लागू की जाये और अगर विजयी सर्वहारा वर्ग बड़े भूस्वामियों तथा धनी किसानों के साथ बड़ी दृढ़ता से निपटता है तो इस तबक़े का ढुलमुलपन चिन्तनीय नहीं होगा और इस तथ्य को नहीं बदल सकता कि कुल मिलाकर, यह सर्वहारा क्रान्ति के पक्ष में रहेगा।”

स्पष्ट है कि यहाँ छोटे किसान रूस की परिस्थितियों में लेनिन के वर्गीकरण का मँझोला किसान है जो मूलतः और मुख्यतः अपने श्रम पर आधारित खेती करता है। हमारे देश की आज की परिस्थितियों के हिसाब से देखा जाये तो उच्च-मध्यम किसानों का अधिकाधिक भाड़े पर मज़दूर लगाकर खेती करने वाला हिस्सा इसमें शामिल नहीं हो सकता है। मध्यम-मध्यम और निम्न-मध्यम किसान ही छोटे किसान के इस वर्ग में शामिल हो सकते हैं जो मूलतः और मुख्यतः अपने श्रम पर आधारित खेती करते हैं।

भला यह कैसे सम्भव है कि विद्वान सम्पादक-मण्डल को इतनी स्पष्ट बात भी समझ में नहीं आती। आखि़र किस आधार पर वह कहता है कि मध्यम-मध्यम किसान इस छोटे किसान की श्रेणी में शामिल नहीं हो सकते? पहले भी बिना किसी विश्लेषण के, बिना कोई आधार बताये उसने कहा कि एंगेल्स का यह छोटा किसान ग़रीब किसानों और निम्न-मध्यम किसानों को अपने दायरे में समेटता है और अब फि़र बिना किसी आधार के वह कह रहा है कि यह सिर्फ़ निम्न-मध्यम किसान को अपने दायरे में समेटता है। क्या ऐसा नहीं लगता कि सम्पादक-मण्डल बात को समझ तो चुका है, लेकिन मानना नहीं चाहता, खुलकर स्वीकार नहीं करना चाहता कि उसकी अवस्थिति ग़लत है। छुप-छुपकर एक क़दम आगे भी उसने मजबूरी में ही बढ़ाया है। लेनिन ने भूमि प्रश्न पर अपनी इस थीसिस में ग़रीब किसानों (अर्द्धसर्वहारा) को बहुत ही स्पष्ट रूप में छोटे किसानों से अलग परिभाषित कर दिया है। इसके बाद सम्पादक-मण्डल भला क्या करता। इसलिए जल्दी से सम्पादकीय टिप्पणी में ही चुपचाप कुछ इस तरह अपनी ग़लती से पिण्ड छुड़ा लिया कि साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे, ग़लती से छुटकारा भी मिल जाये और किसी को कानोकान ख़बर भी न लगे। अब यह तय किया जाये कि इस पूरे मामले में नाक का सवाल बनाकर कठदलीली मैं कर रहा हूँ या सम्पादक-मण्डल?

 आइये अब ज़रा यह देखा जाये कि सम्पादक-मण्डल किस तरह गरज-गरजकर चार क़दम आगे जाकर दिखाता तो यह है कि वह किसानों के सवाल पर सर्वहारा दृष्टिकोण का हिमायती है लेकिन छिपे रूप में वह कुलकों का हिमायती बनकर खड़ा है।

भूमि प्रश्न पर अपनी इस थीसिस में लेनिन ने एंगेल्स के वर्गीकरण को इस्तेमाल करते हुए उसमें शामिल मँझोले किसान वर्ग की भी बहुत स्पष्ट रूप में और विस्तार से व्याख्या की है। लेनिन कहते हैं: “आर्थिक दृष्टि से ‘मँझोले किसानों’ का मतलब वे किसान होना चाहिए जो, 1. मालिक या आसामी के रूप में ज़मीन के ऐसे टुकड़े जोतते हैं जो छोटे तो हैं लेकिन पूँजीवाद के तहत, न केवल गृहस्थी और खेतीबाड़ी की न्यूनतम ज़रूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त हैं, बल्कि कुछ बेशी पैदावार भी करते हैं जिसे, कम से कम अच्छे वर्षों में, पूँजी में बदला जा सकता है; 2. (इस जगह ‘बिगुल’ में छपे सत्यम के अनुवाद में कुछ गड़बड़ है और कुछ छूट गया है। यह कुछ इस तरह है: वे अक्सर (उदाहरण के तौर पर दो या तीन में से एक फ़ार्म) भाड़े पर मज़दूर लगाते हैं। जर्मनी के पाँच से दस हेक्टेयर के ग्रुप में आने वाले फ़ार्म उन्नत पूँजीवादी देश में मँझोले किसानों का ठोस उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जिनमें 1907 की जनगणना के अनुसार भाड़े पर मज़दूर लगाने वाले फ़ार्मों की संख्या इस ग्रुप के कुल फ़ार्मों की संख्या की एक तिहाई है। फ़्रांस में, जहाँ विशिष्ट फसलों की खेती अधिक विकसित है, उदाहरण के तौर पर अंगूर की खेती, जिसमें बड़ी मात्रा में श्रम की ज़रूरत होती है, वहाँ इस ग्रुप के फ़ार्मों में सम्भवतः कुछ अधिक मात्रा में भाड़े पर श्रम लगाया जाता है (अनुवाद मेरा, भूमि प्रश्न पर प्रारम्भिक मसविदा थीसिस, लेनिन कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड 31, पृ.156)। इसके बाद लेनिन कहते हैं कि यह मँझोला किसान सर्वहारा का दोस्त नहीं हो सकता। इसे अपने साथ खड़ा करने की चिन्ता करने की बजाय तटस्थ करने का ही कार्यभार हम तय कर सकते हैं। यह उजरती मज़दूरों के सीधे ख़िलाफ़ खड़ा होता है।

इससे स्पष्ट है कि लेनिन दो बातों के आधार पर इस मँझोले किसान वर्ग को परिभाषित करते हैं। वह बेशी उत्पाद पैदा करता है जिसे पूँजी में बदला जा सकता है और वह अधिक मात्रा में भाड़े पर श्रम लगाता है। यह भी स्पष्ट है कि इन दोनों में से कोई एक तत्त्व भी मौजूद है तो वह किसान इस वर्गीकरण के मँझोले किसान वर्ग में ही शामिल होगा और उसका चरित्र पूरी तरह सर्वहारा विरोधी होगा। ऐसे मँझोले किसान भी हो सकते हैं जो विशिष्ट परिस्थितियों में भाड़े पर अधिक श्रम न लगाते हों लेकिन बेशी उत्पाद पैदा कर मुनाफ़ा कमाते हों। ऐसे किसान भी हो सकते हैं जो विशिष्ट परिस्थितियों में भाड़े पर अधिक श्रम लगाते हों लेकिन इतना बेशी उत्पादन न पैदा कर पाते हों जिसे पूँजी में बदला जा सके। लेकिन फि़र भी इन दोनों ही स्थितियों में उनका चरित्र सर्वहारा विरोधी होगा।

मैंने अपने लेखों में हमेशा रूस की परिस्थितियों में किसानों के लेनिन के वर्गीकरण को ही इस्तेमाल किया है, जिसमें मँझोला किसान एंगेल्स का और भूमि प्रश्न पर लेनिन की इस थीसिस में भी छोटा किसान है। उपर्युक्त चर्चा में भाड़े पर अधिक मात्रा में श्रम लगाने वाले और बेशी उत्पाद पैदा कर मुनाफ़ा कमाने वाले जिन किसानों की बात की गयी है, उन्हें मैं सर्वहारा के संश्रयकारी मँझोले किसान की श्रेणी में शामिल करने का पुरज़ोर विरोध करता रहा हूँ। मैं बार-बार इस बात पर ज़ोर देता रहा हूँ कि किसान की जोत भले ही छोटी हो, लेकिन यदि वह अधिकाधिक भाड़े पर श्रम लगाकर खेती करने लगता है तो उसका चरित्र सर्वहारा विरोधी हो जाता है और उसका कुलकीकरण हो जाता है। उसे सर्वहारा के दोस्त वर्ग के रूप में गोलबन्द करने की बात करना प्रतिक्रियावादी क़दम होगा। मैंने अपने आखि़री, नप्रकाशित लेख में यह बात भी पूरे ज़ोर के साथ उठायी है कि किसान की जोत भले ही छोटी हो, लेकिन यदि वह अपने उत्पाद का अच्छा-ख़ासा हिस्सा मण्डी में बेचता है तो वह अपनी फसलों पर लाभकारी मूल्य यानी मुनाफ़ा ही चाह सकता है। वह किसी भी रूप में सर्वहारा वर्ग का दोस्त नहीं हो सकता। उसका कुलकीकरण हो चुका है।

दूसरी तरफ़, अब यह स्पष्ट हो चुका है कि किसी भ्रम या नासमझी में नहीं, बल्कि पूरे सोच-विचार के साथ सम्पादक-मण्डल और सुखदेव एंगेल्स के वर्गीकरण (और भूमि प्रश्न पर लेनिन की इस थीसिस में भी) में शामिल मँझोले किसान के अनुरूप ही अपने मँझोले किसान को परिभाषित करते हैं। इसीलिए उन्होंने भूमि प्रश्न पर लेनिन की यह थीसिस भी प्रकाशित की है कि देखो-देखो लेनिन भी उसी को मँझोला किसान कह रहे हैं जिसे सम्पादक-मण्डल और सुखदेव कह रहे हैं। यानी, उनका मँझोला किसान अधिकाधिक भाड़े पर मज़दूर लगाकर खेती करता है और बेशी उत्पाद पैदा करता है जिसे कम से कम अच्छे सालों में पूँजी में बदला जा सकता है।

लेकिन मज़ेदार बात यह है कि लेनिन और एंगेल्स तो इसे सीधे-सीधे सर्वहारा विरोधी बताते हैं( जबकि सम्पादक-मण्डल और सुखदेव इसे अपना ढुलमुल दोस्त मानते हैं। सम्पादक-मण्डल ने (और सुखदेव भी इसका समर्थन करते हैं) इसी मँझोले किसान (साथ में छोटा किसान भी) का आन्दोलन संगठित करने के लिए अख़बार के ढाई पन्नों में (बिगुल, फरवरी2003) विशद ठोस कार्यक्रम और नारे दिये हैं। अपने इस ठोस कार्यक्रम और नारों को लेकर वह इन मँझोले किसानों को सर्वहारा के दोस्त वर्ग के रूप में साथ खड़ा करने के लिए उनके बीच जाने का आह्वान करता है। हालाँकि सम्पादकीय समाहार वाले उसके लेख में ज़ोर उसे तटस्थ करने पर हो गया है, लेकिन वह अभी भी उन्हें संगठित करने की बात करता है। उसने मँझोले किसानों को संगठित करने के लिए अपने विशद ठोस कार्यक्रम और नारों को अभी छोड़ा नहीं है। इस समाहार में भी वह इसका उल्लेख करता है और उसे सही मानता है। भूमि प्रश्न पर लेनिन की थीसिस से यह स्पष्ट हो चुका है कि उसका यह मँझोला किसान सर्वहारा वर्ग का दोस्त नहीं है। वह छोटा कुलक है और क्रान्ति विरोधी है। मैंने अपने लेख (जनवरी 05) में सीधे-सीधे कहा है:

“…समाजवादी क्रान्ति के दौर में ऐसा कोई भी वर्ग सर्वहारा वर्ग का दोस्त नहीं हो सकता जिसका अस्तित्व उजरती श्रम के शोषण पर टिका हो। साथी सुखदेव और सम्पादक-मण्डल जिसे मँझोला किसान कह रहे हैं अगर वही मँझोला किसान है तो उसे संगठित करने की बात ही भूल जानी चाहिए। वह अपने पूरे अस्तित्व के साथ सर्वहारा क्रान्ति का विरोधी है। ऐसे में सम्पादक-मण्डल द्वारा उसे संगठित करने के लिए माँगों की जो लम्बी सूची पेश की गयी है – वह एक प्रतिक्रियावादी क़दम है। और दरअसल, ऐसा ही है भी। क्योंकि जिसे वे मँझोला किसान कह रहे हैं वह सर्वहारा का संश्रयकारी मँझोला किसान नहीं, छोटा-मोटा कुलक है, धनी किसान है।”

मैंने अपने नप्रकाशित लेख में “मँझोले किसानों” के इस हिस्से या छोटे कुलकों के बारे में कहा है:

“अधिकाधिक मज़दूर लगाकर खेती करने की प्रवृत्ति और अपने उत्पादन का अधिकांश भाग मण्डी में बेचने से उसका वर्गीय रूपान्तरण हो जाता है और अब वह सर्वहारा का संश्रयकारी मँझोला किसान नहीं, अपने वर्ग-चरित्र में वह छोटा-मोटा कुलक बन चुका है। इसकी तबाही ही इसे हमारे साथ ला सकती है।”

उन्हीं किसानों को जिन्हें मैं छोटा-मोटा कुलक कह रहा हूँ, एंगेल्स के वर्गीकरण में और लेनिन की भूमि प्रश्न सम्बन्धी थीसिस में मँझोले किसान वर्ग में शामिल किया गया है। हमारे देश में वे धनी किसान आबादी का अच्छा-ख़ासा हिस्सा बनते हैं। लेनिन और एंगेल्स तो पूरे ज़ोर के साथ इसे सर्वहारा विरोधी बताते हैं और सीधे-सीधे कहते हैं कि इसे अपने साथ लाने का कार्यभार सर्वहारा वर्ग नहीं तय कर सकता। लेकिन सम्पादक-मण्डल धनी किसानों के इस हिस्से को अपना ढुलमुल दोस्त बताते हुए अभी भी उसे संगठित करने की वकालत कर रहा है। सम्पादक-मण्डल और ‘मार्क्सवादी’ नरोदवादियों में अन्तर बस इतना ही है कि नरोदवादी पूरी बेशर्मी के साथ धनी किसानों की हिमायती कर रहे हैं। लेकिन सम्पादक-मण्डल में अभी शर्मो-हया थोड़ी बाक़ी है, इसलिए वह पर्दे में छुप-छुपकर धनी किसानों के घरों में पोतड़े धो रहा है। भाँडा फ़ूटने के डर से सम्पादकीय समाहार में इस गन्दे काम से छुटकारा पाने के लिए उसकी छटपटाहट साफ़ दिखायी देती है। ईश्वर उसकी मदद करे और उसे इस नरक से शीघ्र मुक्ति दिलाये।

अब हम किसानों के दो तरह के वर्गीकरण की समस्या पर आते हैं: एक रूस की परिस्थितियों में लेनिन का वर्गीकरण और दूसरा यूरोप की परिस्थितियों में एंगेल्स का वर्गीकरण।

लेनिन अपने वर्गीकरण में आमतौर पर किसानों के तीन वर्गों को चिन्हित करते हैं: 1. ग़रीब किसान या अर्द्धसर्वहारा, 2.मँझोला किसान और 3. धनी किसान। जबकि एंगेल्स (जैसा कि लेनिन ने भूमि प्रश्न पर मसविदा थीसिस में भी दिया है) किसानों को चार वर्गों में विभाजित करते हैं: 1. ग़रीब किसान या अर्द्धसर्वहारा, 2. छोटा किसान, 3. मँझोला किसान और 4. बड़े किसान।

यहाँ यह भी ग़ौरतलब है कि भारत में समाजवादी क्रान्ति का कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए लेनिन के वर्गीकरण को ही इस्तेमाल करते हुए एक दस्तावेज़ ‘लाल तारा-2’ में भी किसानों के तीन वर्गों को ही चिन्हित किया गया है। देहात के विभिन्न वर्गों की चर्चा करते हुए उसमें किसानों के उन्हीं तीन वर्गों को रेखांकित किया गया है: 1. ग़रीब किसान या अर्द्धसर्वहारा, 2. मँझोला किसान और 3. पूँजीवादी भूस्वामी व कुलक। हम लोग अभी तक इस वर्गीकरण को अपनी परिस्थितियों में सही मानते रहे हैं। आज तक तो इस वर्गीकरण पर कहीं कोई सवाल नहीं उठाया गया है।

मँझोले किसानों के बारे में ‘लाल तारा-2’ में कहा गया है: “…अपने दोहरे चरित्र के चलते ये क्रान्ति के ढुलमुल दोस्त हैं। ये वर्तमान व्यवस्था के परिवर्तन की महत्त्वपूर्ण शक्ति हैं। इस वर्ग के ऊपरी दो तबक़ों के मुक़ाबले सबसे निचला तबक़ा अपनी श्रम-शक्ति बेचकर गुजारा करता है, इसलिए इसमें क्रान्तिकारी सम्भावनाएँ सबसे अधिक हैं।”

स्पष्ट है कि यह वर्ग-विभाजन और यह निष्कर्ष इसी प्रस्थापना पर आधारित है कि यह मँझोला किसान मुख्यतः और मूलतः अपने श्रम पर आधारित खेती करता है। इसीलिए वह हमारा दोस्त है। लेकिन वह मालिक किसान है और उत्पादन के साधनों का स्वामी है, भले ही उसका गुज़ारा मुश्किल से ही होता है, इसीलिए उसका चरित्र सर्वहारा विरोधी भी है। इसी दोहरे चरित्र के चलते वह हमारा ढुलमुल दोस्त है। स्पष्ट है कि यह एंगेल्स के वर्गीकरण का मँझोला किसान नहीं है।

‘लाल तारा-2’ में किये गये किसानों के वर्गीकरण में ही हमारी समस्या के समाधान के सूत्र भी छिपे हुए हैं। पूँजीवादी भूस्वामियों से अलग कुलकों के बारे में चर्चा करते हुए इसमें कहा गया है: “ख़ुशहाल मध्यम वर्ग के मालिक किसानों का बड़ा हिस्सा आज मूलतः पूँजीवादी उत्पादन में लगा हुआ है या इसी दिशा में तेज़ी से क़दम बढ़ा रहा है। पूरे देश में नये कुलक वर्ग का जन्म, विकास और विस्तार इसी वर्ग से हुआ है।” ‘लाल तारा-2’ में 1980 के आसपास ही ख़ुशहाल मँझोले किसानों के कुलकीकरण की इस प्रक्रिया को चिन्हित कर लिया गया था। यह सर्वमान्य बात है कि तब से उदारीकरण के पूरे दौर में यह प्रक्रिया और तीखी हुई है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि यहाँ मध्यम किसानों के अन्य दो हिस्सों से अलग करते हुए “ख़ुशहाल मध्यम किसानों के बड़े हिस्से” के बारे में बिल्कुल साफ़-साफ़ कहा गया है कि यह पूँजीवादी उत्पादन में लगा हुआ है या उस ओर अग्रसर है। यानी वह मज़दूर लगाकर मुनाफ़े की खेती करता है। इस अर्थ में, उसकी जोत भले ही छोटी हो वह छोटा-मोटा कुलक ही है और ऐसा हो जाने पर उसका चरित्र पूरी तरह सर्वहारा विरोधी हो जाता है और किसी भी रूप में हम उसे दोस्त वर्ग की श्रेणी में खड़ा नहीं कर सकते हैं।

दरअसल, पूँजीवादी विकास जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, कृषि तकनीकों के फ़ैलाव और कृषि के पूरी तरह बाज़ार पर निर्भर होते जाने के साथ ही वर्गविभेदीकरण की प्रक्रिया तीखी हो उठती है। इससे दो वर्गों उच्च-मध्यम किसानों और ग़रीब किसान या अर्द्धसर्वहारा वर्ग के वर्ग-चरित्र का निर्णायक रूप से रूपान्तरण हो जाता है।

पहला, यदि अन्य कोई परिस्थिति आड़े न आये तो अर्द्धसर्वहारा के बड़े हिस्से और सर्वहारा में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। पूँजीवाद की उन्नत मंज़िलों में एक वर्ग के रूप में ग्रामीण अर्द्धसर्वहारा का वजूद ख़त्म हो जाता है, वह सर्वहारा वर्ग में विलीन हो जाता है। उसका अस्तित्व बचा रहता है तो सिर्फ़ पूँजीवादी विकास की विसंगतियों के चलते ही। जैसा कि हमारे देश में इस समय देखा जा सकता है। लेकिन इतना तो तय है कि हमारे यहाँ भी इस अर्द्धसर्वहारा के बड़े हिस्से का वर्ग-चरित्र सर्वहारा का ही हो चुका है या तेज़ी से होता जा रहा है। इसीलिए अब उसे किसान के रूप में नहीं मज़दूर के रूप में ही संगठित और गोलबन्द किया जाना चाहिए। दूसरा, उच्च-मध्यम किसानों का बड़ा हिस्सा पूरी तरह पूँजीवादी उत्पादन में लग जाता है और अधिकाधिक मज़दूर लगाकर बाज़ार के लिए उत्पादन कर मुनाफ़े की खेती करने लगता है। उसके और कुलकों के चरित्र में कोई बुनियादी फ़र्क नहीं रह जाता। वस्तुतः वह कुलक ही बन जाता है। फ़र्क सिर्फ़ बड़ी और छोटी जोतों का ही हो सकता है, कम और अधिक मुनाफ़े का ही हो सकता है। फ़र्क इस बात का हो सकता है कि यह छोटे कुलक अभी भी अपने खेतों पर खटते हैं जबकि बड़े कुलक खेती में अपना श्रम नाममात्र का ही या बिल्कुल नहीं लगाते हैं। लेकिन दोनों की खेती मूलतः और मुख्यतः उजरती श्रम के शोषण पर ही टिकी होती है।

ये दोनों ही कुलक हैं। लेकिन एक बात में दोनों को अलग किया जा सकता है। छोटी जोत वाले ये कुलक मुनाफ़े के नाम पर बहुत कम ही कमा पाते हैं और इसलिए पूँजी के अभाव में वे तबाही के शिकार होते रहते हैं। पूँजीवादी विकास की अगली मंज़िलों में उनकी तबाही भी निश्चित है। इसीलिए कभी-कभी वे हमारी ओर भी उम्मीद भरी निगाहों से देख लेते हैं। लेकिन इससे हमें इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए कि वे हमारा दामन थाम लेंगे। हाँ, इतनी सम्भावना अवश्य पैदा होती है कि पूँजी और श्रम के बीच निर्णायक संघर्ष में उन्हें तटस्थ किया जा सके।

एंगेल्स के वर्गीकरण में यही छोटा कुलक मँझोला किसान है। भूमि प्रश्न पर अपनी थीसिस में लेनिन इसी छोटे कुलक को मँझोले किसान के रूप में परिभाषित करते हुए उसे तटस्थ करने का कार्यभार तय करने की बात करते हैं। उच्च-मध्यम किसानों के इस हिस्से के अलावा मँझोले किसानों का बीच वाला और निचला हिस्सा पूँजीवादी विकास की आगे की मंज़िलों में भी लम्बे समय तक बना रहता है और इसी को छोटे किसान वर्ग के रूप में परिभाषित करते हुए एंगेल्स ने और अपनी इस थीसिस में लेनिन ने, उसे सर्वहारा के दोस्त वर्ग (ढुलमुल) के रूप में लामबन्द करने की बात कही है। रूस में उस समय तक खेती में पूँजीवादी विकास पिछड़ा हुआ था और वर्गविभेदीकरण की वह मंज़िल नहीं थी कि वहाँ ग़रीब किसान, छोटे किसान, मँझोले किसान और बड़े किसान का यह वर्गीकरण करना पड़े। लेकिन यूरोप में यह परिस्थिति एंगेल्स के समय ही पैदा हो चुकी थी।

दरअसल, हमारे देश में भी खेती के पूँजीवादी विकास ने वर्गविभेदीकरण की वह मंज़िल पैदा कर दी है और यहाँ भी उच्च-मध्यम किसानों के बड़े हिस्से का कुलकीकरण हो चुका है। भले ही उनकी जोत छोटी हो लेकिन अब वे क़र्ज़ लेकर खेती में निवेश करते हैं; मज़दूर लगाकर खेती करते हैं; बाज़ार के लिए उत्पादन करते हैं और मुनाफ़ा ही उनका धर्म है। हमारे देश में धनी किसानों की पूरी जमात में इन छोटे कुलकों की संख्या ही अधिक है। धनी किसानों के आन्दोलन का यही मुख्य आधार है। इसकी तबाही पर द्रवित होकर इसे अपना दोस्त मान लेना सर्वहारा क्रान्ति के लिए आत्मघाती होगा।

(अप्रकाशित; फरवरी, 2005)


 

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