मज़दूर नायक : क्रान्तिकारी योद्धा
वर्ग-सचेत मज़दूरों के बहादुर बेटे जब एक बार अपनी मुक्ति के दर्शन को पकड़ लेते हैं, जब एक बार वे सर्वहारा क्रान्ति के मार्गदर्शक सिद्धान्त को पकड़ लेते हैं तो फिर उनकी अडिग निष्ठा, शौर्य, व्यावहारिक जीवन की जमीनी समझ और सर्जनात्मकता उन्हें हमारे युग के नये नायकों के रूप में ढाल देती है। ऐसे लोग उस करोड़ों-करोड़ आम मेहनतकश जनसमुदाय के उन सभी वीरोचित उदात्त गुणों को अपने व्यक्तित्व के जरिए प्रकट करते हैं, जो इतिहास के वास्तविक निर्माता और नायक होते हैं। इसलिए ऐसे लोग क्रान्तिकारी जनता के सजीव प्रतिनिधि चरित्र और इतिहास के नायक बन जाते हैं और उनकी जीवन-गाथा एक महाकाव्यात्मक आख्यान बन जाती है।
‘बिगुल’ के इस अनियमित स्तम्भ में हम दुनिया की सर्वहारा क्रान्तियों की ऐसी ही कुछ हस्तियों के बारे में उन्हीं के समकालीन किसी महान क्रान्तिकारी नेता या लेखक की संस्मरणात्मक टिप्पणी या रेखाचित्र समय-समय पर अपनी टिप्पणी के साथ प्रकाशित करते रहेंगे। ये ऐसे लोगों की गाथाएं होंगी जिन्होंने शोषण-उत्पीड़न की निर्मम-अंधी दुनिया के अंधेरे से ऊपर उठकर जिन्दगी भर उस अंधेरे से लोहा लिया औश्र क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि चरित्र बन गये। वे क्रान्तिकथाओं के ऐसे नायक थे, जो इतिहास-प्रसिद्धा तो नहीं थे पर जिनकी जिन्दगी से यह शिक्षा मिलती है कि श्रम करने वाले लोग जब ज्ञान तक पहुंचते हैं और अपनी मुक्ति का मार्ग ढूंढ लेते हैं तो फिर किस तरह अडिग-अविचल रहकर वे क्रान्ति में हिस्सा लेते हैं। उनके भीतर ढुलमुलपन, कायरता, कैरियरवाद, उदारतावाद और अल्पज्ञान पर इतराने जैसे दुर्गुण नहीं होते जो मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों से आने वाले कम्युनिस्टों में क्रान्तिकारी जीवन के लम्बे समय तक बने रहते हैं और पार्टी में तमाम भटकावों को बल देने में अहम भूमिका निभाते हैं।
हमारा दृढ़ विश्वास है कि भारतीय मज़दूरों के बीच से भी ऐसे ही वर्ग-सचेत बहादुर सपूत आगे आयेंगे। सर्वहारा वर्ग की पार्टी के क्रान्तिकारी चरित्र के बने रहने की एक बुनियादी शर्त है कि मेहनतकशों के बीच के ऐसे सम्भावनायुक्त तत्वों की राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा करके उन्हें निखारा-मांजा जायेगा और क्रान्तिकारी कतारों में भरती किया जाये।
सम्पादक
रॉबर्ट शा: विश्व सर्वहारा क्रान्ति के इतिहास के मील के पत्थरों में से एक
आलोक रंजन
पिछले करीब डेढ़ सौ वर्षों के विश्व सर्वहारा क्रान्ति के इतिहास में, बहुतेरे देशों में रॉबर्ट शा जैसे हज़ारों ऐसे मज़दूर संगठनकर्ता और नेता हुए हैं, जिनसे आम जनता तो दूर, इतिहास के विद्यार्थी भी परिचित नहीं हैं। ऐसे लोगों के बारे में यहाँ-वहाँ से, बड़ी मुश्किल से छिटपुट जानकारी मिलती है, पर उसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे सर्वहारा चरित्रों के बिना हम सर्वहारा क्रान्तियों की यात्रा की कल्पना भी नहीं कर सकते।
रॉबर्ट शा पेशे से घरों की रँगाई-पुताई करने वाला एक ग़रीब अंग्रेज़ मज़दूर (रंगसाज़) थे, जो पहले इण्टरनेशनल के संस्थापक सदस्यों में से एक थे।
इण्टरनेशनल वर्किंगमेंस एसोशिएशन (पहला इण्टरनेशनल) की स्थापना 28 सितम्बर, 1854 को लन्दन के सेण्ट मार्टिन हॉल में यूरोप के विभिन्न देशों के मज़दूरों की एक सभा में हुई। सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयता- वाद के उसूलों को साकार करने वाला यह पहला संगठन था। “मार्क्स इस संगठन के हृदय और आत्मा थे। उसके पहले सम्बोधन तथा दर्जनों दूसरे प्रस्तावों, ऐलानों और घोषणापत्रों के भी लेखक वही थे। विभिन्न देशों के मज़दूर आन्दोलनों को एकताबद्ध करके, मार्क्सवाद से पहले के ग़ैरसर्वहारा वर्गीय समाजवाद के विभिन्न रूपों (मेजिनी, प्रूधों, बाकुनिन, ब्रिटिश उदारवादी ट्रेड यूनियन आन्दोलन, जर्मन लासालवादियों आदि को) संयुक्त कार्रवाइयों में लाने की दिशा में कोशिश करके, तथा इन सभी मतों और सम्प्रदायों के सिद्धान्तों से संघर्ष करके, मार्क्स ने विभिन्न देशों के मज़दूर वर्ग के सर्वहारा संघर्ष के लिए एक ही जैसी कार्यनीति निर्धारित की।” (लेनिन)
पेरिस कम्यून (1871) की पराजय तथा अराजकतावादी बाकुनिन के चेलों द्वारा पैदा की गयी फूट के बाद, हेग कांग्रेस (1872) के पश्चात मार्क्स ने इण्टरनेशनल की आम परिषद को न्यूयार्क भिजवा दिया। क्रमशः निष्प्रभावी होता इण्टरनेशनल 1876 में विघटित कर दिया गया, क्योंकि इतिहास के रंगमंच पर अब उसने अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा ली थी। उसने दुनियाभर में मज़दूर आन्दोलन के और अधिक विकास के लिए, एक ऐसे काल के लिए रास्ता तैयार कर दिया था, जिसमें आन्दोलन का दायरा विस्तारित हुआ और अलग-अलग देशों में समाजवादी जनपार्टियों की स्थापना हुई तथा दूसरा इण्टरनेशनल अस्तित्व में आया। लेनिनकालीन बोल्शेविक ढाँचे की क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टियों ने और फिर अक्टूबर क्रान्ति के बाद स्थापित तीसरे इण्टरनेशनल ने इसी विकासयात्रा को आगे बढ़ाया।
रॉबर्ट शा पहले इण्टरनेशनल की आम परिषद के सबसे सक्रिय सदस्यों में से एक थे। उस समय तक ब्रिटेन के मज़दूर आन्दोलन में उदारपन्थी ट्रेड यूनियन नेता और उनका ट्रेड यूनियनवाद मुख्यतः प्रभावी हो चुके थे जो बड़े पैमाने के पूँजीवादी उत्पादन के प्रगतिशील स्वरूप को स्वीकारते हुए पूँजीवाद के पैरोकार कूपमण्डूक अर्थशास्त्रियों के पैरोकार बन चुके थे। उनका मानना था कि पूँजीवाद की बुनियाद बहुत ठोस है और मज़दूर आन्दोलन का काम सिर्फ़ इतना ही है कि वे मज़दूरों के लिए कुछ बेहतर वेतन, बेहतर सुविधाएँ और सुधार हासिल कर लें।
पहले इण्टरनेशनल में मार्क्स के अनुयायियों के साथ ही निम्न पूँजीवादी समाजवाद और अराजकतावाद की जो भी धाराएँ शामिल थीं, वे पूँजीवादी शोषण के ख़िलाफ़ मेहनतकश जनता के विरोध को प्रकट करतीं थीं, पर साथ ही पूँजीवादी उत्पादन के रुझान के ख़िलाफ़ छोटे उत्पादकों के विरोध को भी प्रतिबिम्बित करती थीं, जो एक प्रतिगामी रुझान था। लेकिन ये सभी धाराएँ मेहनतकशों की अन्तरराष्ट्रीय एकता की पक्षधर थीं जबकि उदारपन्थी सुधारवादी ब्रिटिश ट्रेडयूनियनवादी लोग संकीर्ण स्थानीयतावादी थे।
रॉबर्ट शा उन राजनीतिक चेतनासम्पन्न मज़दूरों में से एक थे जिन्होंने पहले इण्टरनेशनल के निर्माण के पहले ही ब्रिटिश सुधारवादी ट्रेड यूनियनवादी नेताओं के प्रभाव एवं वर्चस्व के विरुद्ध संघर्ष शुरू कर दिया था। रॉबर्ट शा उन थोड़े से ब्रिटिश मज़दूर नेताओं में शामिल थे जो चार्टिस्ट या समाजवादी विचार रखते थे और महज़ अपने-अपने कारखानों में वेतन और सुधार की माँग के लिए लड़ने के बजाय मज़दूरों की अन्तरराष्ट्रीय एकजुटता और व्यापक वर्गीय हितों के लिए साझा संघर्ष की वकालत करते थे। इन नेताओं ने जर्मन और फ़्रांसीसी मज़दूरों और पोलिश आप्रवासियों के साथ सम्पर्क स्थापित किये। यह पहले इण्टरनेशनल की स्थापना की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम था।
पहले इण्टरनेशनल की आम परिषद में जॉर्ज ऑडगर, क्रेमर और जॉन हेल्स के साथ ही इंग्लैण्ड से रॉबर्ट शा को चुना गया। साथ ही उन्हें उत्तर अमेरिका के लिए संवादी सचिव की भी ज़िम्मेदारी सौंपी गयी। मार्क्स ने इस बात को स्वीकार किया था कि “मुख्यतः रॉबर्ट शा के निरन्तर प्रयासों का ही नतीजा था कि इंग्लैण्ड के बहुतेरे ट्रेड यूनियन संगठन हमारे साथ लामबन्द हो सके।”
कम्युनिस्ट लीग के पुराने सदस्य लेसनर, लोशनर, फैन्द्रा और कॉब, फ़्रांस के प्रभारी और वाद्ययन्त्र बनाने वाले कारीगर यूजीन द्यूर्या तथा स्विट्ज़रलैण्ड के प्रभारी, घड़ीसाज़ हरमन जंग के साथ मिलकर रॉबर्ट शा ने इण्टरनेशनल की आम परिषद में मार्क्स की काफ़ी सहायता की। अक्सर लन्दन स्थित मार्क्स के आवास पर होने वाली बैठकों में रॉबर्ट शा नियमित रूप से भाग लेते थे।
इण्टरनेशनल को खड़ा करने और ब्रिटिश ट्रेड यूनियनवादी नेताओं के विरुद्ध संघर्ष में रॉबर्ट शा ने अपनी ज़िन्दगी क़ुर्बान कर दी। अनथक श्रम से उनकी सेहत बरबाद होती चली गयी पर वह इसकी बिना परवाह किये अपने काम में जुटे रहे।
31 दिसम्बर 1869 को अन्ततः फेफड़े की टीबी की बीमारी के चलते ही उनकी मृत्यु हुई, जो पिछले कुछ वर्षों से दीमक की तरह उनके शरीर को चाटती जा रही थी। रॉबर्ट शा मरते समय रोग के साथ ही, सपरिवार भूख और बेरोजगारी से भी जूझ रहे थे। इण्टरनेशनल की 1868 की ब्रुसेल्स कांग्रेस से लौटने के बाद, उनको नौकरी से निकाल दिया गया। उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी और बेटी को घोर ग़रीबी में दिन बिताने पड़े। पर जिन हज़ारों ब्रिटिश मज़दूरों के बीच उन्होंने राजनीतिक काम किया था, वे उन्हें कभी नहीं भूल सके। वे उनके साहस, धैर्य, विनम्रता और ज़िन्दादिली की बात करते नहीं अघाते थे।
रॉबर्ट शा की मृत्यु की सूचना इण्टरनेशनल की सभी शाखाओं तक भेजने की ज़िम्मेदारी इण्टरनेशनल की आम परिषद ने कार्ल मार्क्स को सौंपी। कार्ल मार्क्स ने इण्टरनेशनल की बेल्जियम शाखा के नेता दे पाएपे को पत्र भेजते हुए एक निधन-सूचना भी लिखकर भेजी जो ल’ इण्टरनेशनाल (इण्टरनेशनल की बेल्जियम शाखा का मुखपत्र) के 16 जनवरी के अंक (अंक-53) में एक सम्पादकीय टिप्पणी के साथ प्रकाशित हुई।
रॉबर्ट शा (निधन सूचना)
कार्ल मार्क्स
इण्टरनेशनल के संस्थापकों में से एक, लन्दन आम परिषद के सदस्य, उत्तर अमेरिका के लिए संवादी सचिव नागरिक रॉबर्ट शा का इस सप्ताह फुफ्फुस यक्ष्मा (पल्मोनरी ट्यूबरक्लोसिस) रोग से देहान्त हो गया।
वे परिषद के सर्वाधिक सक्रिय सदस्यों में से एक थे। वे एक शुद्ध हृदय, लौह चरित्र, भावप्रवण स्वभाव और सच्ची क्रान्तिकारी प्रतिभा से सम्पन्न व्यक्ति थे जो किसी भी तरह की क्षुद्र महत्त्वाकांक्षा और व्यक्तिगत स्वार्थ से काफी ऊपर थे। वे स्वयं एक ग़रीब मज़दूर थे, पर हमेशा ही वे किसी मज़दूर को अपने से अधिक ग़रीब समझकर उसकी सहायता के लिए तत्पर रहते थे। व्यक्तिगत मामलों में वे एक बच्चे की तरह विनम्र थे, लेकिन अपने सार्वजनिक जीवन में हर तरह के समझौते को वे रोषपूर्वक खारिज करते रहे। यह मुख्यतः उन्हीं की लगातार कोशिशों का नतीजा था कि (ब्रिटिश) ट्रेड यूनियनें हमारे साथ लामबन्द हो सकीं। लेकिन इसी काम ने बहुतों को उनका प्रचण्ड शत्रु भी बना दिया। ब्रिटिश ट्रेड यूनियनें, सबकी सब स्थानीय मूल की रही हैं और मूलतः सबकी स्थापना सिर्फ़ वेतन आदि माँगों के ही ख़ास उद्देश्य से हुई थी। इस नाते, मध्ययुगीन गिल्डों जैसी संकीर्णता कमोबेश इन सभी यूनियनों की अभिलाक्षणिकता थी। एक छोटी-सी अनुदारवादी पार्टी हर क़ीमत पर ट्रेडयूनियनवाद के इस बुनियादी ढाँचे को बरकरार रखना चाहती थी। इण्टरनेशनल की स्थापना के बाद इन अभिप्रेत बन्धनों को छिन्न-भिन्न कर डालने तथा यूनियनों को सर्वहारा क्रान्ति के संगठित केन्द्रों में बदल डालने के काम को शा ने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। सफलता ने हमेशा ही उनके प्रयत्नों को विजय-मुकुट से विभूषित किया लेकिन उसी समय से उनका जीवन एक भयंकर संघर्ष बन गया जिसमें उनकी कमज़ोर सेहत ने उनका साथ छोड़ दिया। ब्रुसेल्स कांग्रेस (सितम्बर, 1868) के लिए रवाना होते समय ही, वे मौत की दहलीज़ पर खड़े थे। लौटने के बाद, उनके भले बुर्जुआ मालिकों ने उन्हें काम से हटा दिया। वे पत्नी और बेटी को ग़रीबी की हालत में अपने पीछे छोड़ गये हैं, लेकिन अंग्रेज मज़दूर उन्हें कत्तई अकेला, बेसहारा नहीं छोड़ेंगे।
(4 जनवरी 1870 को लिखित, ‘ल इण्टरनेशनाल’ के 16 जनवरी 1870 (अंक-53) में प्रकाशित, मार्क्स-एंगेल्स : कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड-21, पृ. 92)
बिगुल, अक्टूबर 1999