ख़ुद की ज़िन्दगी दाँव पर लगा महानगर की चमक-दमक को बरकरार रखते बंगलूरू के पोराकर्मिका (सफ़ाईकर्मी)

शिशिर गुप्ता

बंगलूरू का नाम सुनते ही हमें सबसे पहले याद आती हैं वहाँ की शीशे की चमक दमक से लैस बहुमंजिला इमारतें, महँगी कारों से पटा हुआ ट्रैफिक, चमचमाते मॉल और शोरूम, दुनिया भर के खाने की विविधता पेश करने वाले रेस्टोरेंट। इस महानगर को भारत के सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की राजधानी और भारत की ‘सिलिकॉन वैली’ भी कहा जाता है। मुंबई, दिल्ली और कोलकाता के बाद 5634 अरब रुपये के सकल घरेलू उत्पाद के साथ बंगलूरू भारत में शीर्ष का चौथा महानगर है। हर रोज़ 24 घंटे सेवा प्रदान करने वाले रेस्टोरेंट, टैक्सी और अस्पताल यहाँ प्रचुर मात्रा में हैं। मनोरंजन के साधनों और सप्ताहाँत पर परिवार के साथ छुट्टियाँ बिताने के लिए जगहों की भी कोई कमी नहीं है। अगर आप एक मध्यम या उच्च-मध्य वर्गीय पृष्ठभूमि से हैं तो कहने की ज़रूरत नहीं कि बंगलूरू में आप ऐशो-आराम के साथ जी सकते हैं।

बिना दास्ताने, मास्क और गम बूट के कूड़ा इकट्ठा करते पोराकर्मिका, चित्र साभार: ‘द हिन्दू डॉट कॉम’

बिना दास्ताने, मास्क और गम बूट के कूड़ा इकट्ठा करते पोराकर्मिका, चित्र साभार: ‘द हिन्दू डॉट कॉम’

लेकिन आइये अब एक नज़र डालते हैं तस्वीर के दूसरे पहलू पर। यह सारा ‘विकास’ आख़िर किसकी बदौलत और किनकी कीमत पर हो रहा है? सच तो यह है कि जिनकी बदौलत यह ‘विकास’ संभव हुआ है, उन्हीं की कीमत पर भी हुआ है। एक तरफ़ चमचमाती बहुमंजिला इमारतें और दूसरी तरफ़ गन्दी नालियों से बजबजाती झुग्गी बस्तियाँ इस पूरे ‘विकास’ की कलई खोल के रख देती हैं। जहाँ इन बस्तियों में रहने वाले लोग निहायत ही बदहाली भरे माहौल में जीने को मजबूर होते हैं वहीँ शहर के मध्यवर्गीय, उच्च-मध्यवर्गीय और पॉश इलाकों को चमकाने के लिए यहाँ का स्थानीय निकाय बड़ी तत्परता से पेश आता है। दूसरों के गली-मुहल्लों को साफ़ करने वाले, दूसरों के शौच से भरी नालियों में घुसकर उसको साफ़ करने वाले, दूसरों को राह चलते कहीं बदबू ना आ जाये इसके लिए अपनी जान जोख़िम में डालने वाले ख़ुद निहायत ही गन्दी बस्तियों में रहने को मजबूर होते हैं जहाँ घातक और जानलेवा बीमारियों का खतरा लगातार बना रहता है। आप अब तक समझ चुके होंगे कि हम बंगलूरू के सफ़ाई कर्मचारियों के बारे में बात कर रहे हैं जिन्हें यहाँ की स्थानीय भाषा कन्नड़ में ‘पोराकर्मिका’ कहा जाता है। कमोबेश इन सफ़ाई कर्मचारियों के निवास ही नहीं बल्कि जिन परिस्थितियों में वे काम करते हैं वो भी बेहद अमानवीय होती है। आइये इन्हीं परिस्थितियों पर कुछ आंकड़ों की मदद से एक नज़र दौडाएं।
बृहत बंगलूरू महानगरा पालिके (बीबीएमपी) की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, बंगलूरू में प्रतिदिन 3500 टन कूड़ा पैदा होता है। बीबीएमपी ने सरकारी और ठेका मिलाके लगभग 20500 सफ़ाई कर्मचारियों को काम पर रखा है जिनका काम है हर रोज घरों, झुग्गी बस्तियों, दुकानों और अधिष्ठानों का कूड़ा-कचरा इकट्ठा करना। थोड़ी सी गणित करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हर सफ़ाई कर्मचारी के लिए प्रतिदिन का औसत लक्ष्य 175 किलोग्राम कूड़ा इकट्ठा करना है। बीबीएमपी ने प्रबंधन के लिए शहर को 198 वार्डों में बांटा है, इनमें से कई के दफ़्तरों में तो शौचालय और पीने के पानी जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी नहीं उपलब्ध हैं। ज़्यादातर सफ़ाई कर्मचारी (लगभग 17000 कर्मचारी) ठेके पर ही काम कर रहे हैं और इन ठेके के कर्मचारिओं की निर्धारित तन्ख्वाह महज़ 6991 रुपये है। यही नहीं, ठेकेदारों द्वारा उनका वेतन भुगतान भी समय पर नहीं किया जाता। अधिकतर कर्मचारियों को नंगे हाथों से काम करना पड़ता है, ठेकेदार उनको ‘गम बूट’, मास्क और दास्ताने नहीं देते हैं। कई ठेकेदार तो इतने लालची हैं कि एक झाड़ू तक नहीं देते। 9 घंटे के निर्धारित समय से ज़्यादा काम करने पर इन्हें ओवरटाइम भुगतान भी नहीं किया जाता है। ESP और भविष्य निधि जैसी सुविधाओं का कोई नामोनिशान नहीं है। निहायत ही अमानवीय परिस्थितियों में काम करने की वजह से ये कर्मचारी अक्सर बीमार हो जाते हैं। ठेकेदार उनसे नंगे हाथों से कूड़े में से सूखे और गीले अवयव अलग करवाते हैं। कई कर्मचारियों ने इन परिस्थितियों से तंग आकर नौकरी ही छोड़ दी है। उनकी हथेलियाँ संक्रमित हो जाती हैं और नाख़ून काले पड़ जाते हैं। वार्ड में तात्कालिक तौर पर साबुन नहीं उपलब्ध होने के कारण वार्ड में भोजन कर पाना भी संभव नहीं होता। गौरतलब है कि कूड़े के सूखे और गीले अवयवों को अलग-अलग करके रखना नागरिकों का ही काम है, पर ज़्यादातर महंगे अपार्टमेंट्स में रहने वाला मध्यवर्गीय जीव इतना भी ढंग से नहीं कर पाता और अंततः सफ़ाई कर्मचारियों को फ़िर से पृथक्करण करना ही पड़ता है। और उन्हें दूसरों के द्वारा प्रयोग करके फेंके गये ‘सेनेटरी पैड’ तक नंगे हाथों छूने पड़ते हैं।
बताते चलें कि पिछले कई सालों से ठेके के सफ़ाई कर्मचारी विभिन्न संगठनों के नेतृत्व में अपनी मांगें उठाते रहे हैं मसलन ठेका प्रथा ख़त्म करके उनकी नौकरियों को ‘रेगुलर’ करना, वेतन बढ़ा कर 15000 रुपये करना, नौ घंटे से ज्यादा काम करने पर ओवरटाइम का भुगतान, साप्ताहिक छुट्टी और त्योहारों पर भी अवकाश, दास्ताने, मास्क और गम बूट की व्यवस्था सुनिश्चित करना, शौचालय और पीने के पानी की व्यवस्था का सुनिश्चित किया जाना। अपनी इन्हीं मांगों को उठाते हुए कर्मचारियों ने 2 दिसंबर, 2015 बीबीएमपी के मुख्यालय के सामने धरना भी दिया था। ग़ौरतलब है कि कर्नाटक विधानसभा में २०१३ में मुख्यमंत्री सिद्दारमैया के नेतृत्व में पेश किये गये बजट में ही ठेका प्रथा को चरणबद्ध ढंग से ख़त्म करने का वादा किया गया था। अक्टूबर, 2015 में भी राज्य सरकार ने कर्नाटक राज्य सफ़ाई कर्मचारी आयोग की सिफ़ारिशों को स्वीकार करते हुए ठेका प्रथा बंद करने की बात की। पर ये सभी आश्वासन अभी तक झूठे ही साबित हुए हैं और सफ़ाई कर्मचारियों की हालत में कोई बदलाव नहीं आया है। कमोबेश सफ़ाई कर्मचारियों की ऐसी हालत केवल बंगलूरू ही नहीं बल्कि देश के हर महानगर में है। जगह-जगह ये कर्मचारी हड़ताल करने पर मजबूर हो रहे हैं। राजधानी दिल्ली में ही इस लेख के लिखे जाने के समय वहाँ के सफ़ाई कर्मचारी हड़ताल पर हैं।
इन सफ़ाई कर्मचारिओं की दुर्दशा के लिए आख़िर कौन जिम्मेदार है? क्या हमें इसके लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराना चाहिए? या श्रम मंत्री को? या बीबीएमपी को? या ख़ुद इन कर्मचारियों को ही? आख़िर क्या वजह है कि आज जब विज्ञान और प्रौद्योगिकी में ज़बरदस्त ढंग से बढ़ोत्तरी हो चुकी है यानि की जब सफ़ाई से जुड़ा बहुत सारा काम ऑटोमेटिक मशीनों के द्वारा ही संचालित किया जा सकता है फ़िर भी उसमें मनुष्यों को क्यों लगाया जा रहा है? और लगाया भी जा रहा है तो काम करने के इतने गंदे हालातों में क्यों? जवाबदेह अधिकारियों पर हमें निश्चित तौर पर ऊँगली उठानी चाहिए, पर यह पर्याप्त नहीं होगा क्योंकि अधिकारीयों के क्रूर आचरण के अलावा इस पूरी व्यवस्था का ढांचा भी सफ़ाई कर्मचारियों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। यह व्यवस्था ही ऐसी है जिसमें अमीर-ग़रीब की खाई का दिन पे दिन गहराते जाना अवश्यम्भावी है। और ऐसा किया जाता है मजदूरों का श्रम ज्यादा से ज्यादा निचोड़ के, यानि उनके श्रम की कीमत पर अधिकतम मुनाफ़ा बनाने की होड़ में। और इस मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था में इसीलिए स्वचालित मशीनों की बजाय मनुष्यों से काम लिया जा रहा है क्योंकि ठेके पर मज़दूरी कराकर इंसानों का खून पीना ‘फिलहाल’ सस्ता है। इसीलिए कोई भी इंसाफपसंद इंसान इस व्यवस्था के भीतर ही संवैधानिक तौर पर मिले कुछ अधिकारों को लागू करवाने के लिए तो लड़ेगा ही, पर साथ ही साथ उसे यह नहीं भूलना होगा कि इन सफ़ाई कर्मचारियों की वास्तविक मुक्ति इस पूरे सामाजिक-आर्थिक ढांचे को ही आमूलचूल ढंग से बदल देने में है और एक ऐसी व्यवस्था मुकम्मल करने में है जहाँ पर उत्पादन चंद धन्नासेठों के मुनाफ़े नहीं बल्कि पूरे समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए किया जाये।

मज़दूर बिगुल, मार्च-अप्रैल 2016


 

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