सीएए-एनआरसी-एनपीआर विरोधी जनान्दोलन को हिन्दुत्व फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन की शक्ल दो!
फ़ासीवादी दंगाइयों के मंसूबों को नाकाम करो!
आम मेहनतकशों की वर्ग एकजुटता क़ायम करो!
एनपीआर की प्रक्रिया के विरुद्ध नागरिक अवज्ञा आन्दोलन को मज़बूत करो!

– सम्पादकीय

दिल्ली चुनावों के बाद भाजपा सरकार के फ़ासीवादी हमले और भी तेज़ हो गये हैं। ऐसी ही उम्मीद भी थी। 8 फ़रवरी के बाद कुछ ही दिनों के भीतर दिल्ली में सरकारी मशीनरी की पूरी मिलीभगत के साथ मुसलमानों पर किये गये फ़ासीवादी हमले और दंगे के ज़रिये देश भर में नये सिरे से धार्मिक ध्रुवीकरण करने का प्रयास किया गया है। हिन्दुत्व के एजेण्डा पर खुलकर काम करने की रफ़्तार बढ़ा दी गयी है और इसमें फ़ासीवादी दंगे और क़त्लेआम की हमेशा से ही एक विशेष भूमिका रही है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार तो पहले से ही क़ानून और संविधान को ताक पर रखकर, न्यायालयों को ठेंगा दिखाकर लगातार अपनी मनमानी कर रही है और मुसलमानों और राजनीतिक विरोधियों को हर प्रकार से कुचलने की हरकतों में लगी हुई है। कर्नाटक और उत्तराखण्ड की सरकार भी अधिक से अधिक फ़ासीवादी बर्बरता दिखाने में उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के साथ प्रतिस्पर्द्धा में लगी हुई है। ख़ुद केन्द्र की मोदी सरकार ने भी मज़दूर वर्ग, अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और औरतों पर अपने हमलों को दिल्ली चुनावों में बाद बढ़ा दिया है। न्यायालयों, नौकरशाही, सशस्त्र बलों और पुलिस का फ़ासीवादी ‘टेकओवर’ अभूतपूर्व रूप से तेज़ी से बढ़ा है।

अब आम मेहनतकश जनता भी समझ रही है कि न्यायालयों से इन्साफ़ की उम्मीद करना अब बेकार है। जहाँ एक दंगाई नेता के विरुद्ध फ़ैसला सुनाने वाले जज का तबादला कर दिया जाता है, उसके ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज करने वाले अधिकारी को बर्ख़ास्त कर दिया जाता है, जहाँ उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री खुले तौर पर न्यायालय के फ़ैसलों की धज्जियाँ उड़ाते हुए नागरिकता संशोधन क़ानून और नागरिकता रजिस्टर का विरोध करने वालों की तस्वीरें अपराधियों के समान शहर के चौराहों पर लगवाता है और अदालत को हिदायत देता है कि इस कार्रवाई में दख़ल देने की जुर्रत न करे, जहाँ गुजरात के नरसंहार के हत्यारों को अदालत पेरोल देकर “सामाजिक सेवा” करने की सलाह देती है, और दूसरी तरफ़ डॉ. कफ़ील ख़ान को ज़मानत तक नहीं मिलती, जहाँ चिन्मयानन्द जैसे बलात्कारियों को ज़मानत मिल जाती है और जन-अधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों को नाजायज़ तरीक़े से अदालतें ज़मानत देने से इन्कार कर देती हैं, वहाँ मौजूदा मुनाफ़ाखोर समाज में पूँजीवादी न्यायपालिका से न्याय मिलने की बची-खुची उम्मीदें भी ख़त्म हो चुकी हैं। न्यायपालिका से लेकर सशस्त्र बल, पुलिस और नौकरशाही तक को फ़ासीवादी संघ परिवार अपनी घुसपैठ का शिकार बना चुका है, यह ख़ास तौर पर पिछले छह महीनों में दिखलाई पड़ गया है। इन सारी साज़िशों और बर्बर दमन के पीछे मूलभूत कारण क्या हैं? ये मूलभूत कारण हैं अभूतपूर्व आर्थिक संकट और जनता के लिए उसके नतीजे।

मौजूदा आर्थिक संकट फ़ासीवादी उभार के पीछे प्रमुख मूलभूत कारण है

बड़ी पूँजी की सेवा में जनता से लूट कर कॉरपोरेट घरानों की तिजोरियों में माल भरने के मामले में मोदी सरकार ने नंगई और बेशर्मी के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिये हैं। ‘यस बैंक’ के ढहने के साथ बैंकिग सेक्टर में चल रहा फ़ासीवादी घोटाला एक बार फिर से खुलकर सामने आ गया है। 2014 के बाद से जिन बैंकों ने क़र्ज़े वापस न करने वाले पूँजीपतियों को जमकर बड़े-बड़े क़र्ज़ दिये, उन बैंकों में यस बैंक काफ़ी आगे रहा था। अब इन क़र्ज़ों की वापसी न होने के कारण जब यस बैंक ढह रहा है, तो स्टेट बैंक को यह निर्देश दिया जा रहा है कि वह आम जनता की बचत को लगाकर यस बैंक को बचाये। आज अगर भारत में बेरोज़गारी चरम पर है और आर्थिक संकट ने समूची अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ रखी है, तो यह मोदी सरकार द्वारा आर्थिक प्रबन्धन में अज्ञान की कमी मात्र नहीं है, जैसा कि कई लोग समझते हैं। दरअसल, यह वैश्विक मन्दी के दौर में हर क़ीमत पर बड़े पूँजीपतियों को जनता को लूट कर बचाने के लिए फ़ासीवादी मोदी सरकार द्वारा सोच-समझकर उठाये गये क़दम हैं। मन्दी के दौर में चूंकि मुनाफ़े की औसत दर काफ़ी गिर चुकी है और निवेश की दर लगातार गिर रही है, इसलिए सरकार पूँजीपतियों के मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए बैंकों द्वारा क़र्ज़ पर ब्याज़ दर को भी घटाती जा रही है और साथ ही क़र्ज़ लेने पर लगने वाली सारी शर्तों को भी बिल्कुल ढीला कर दिया गया है, ताकि मुनाफ़े की दर बढ़े और पूँजीपति वर्ग निवेश करे। संकट का ज़िम्मेदार पूँजीपति वर्ग और उसके मुनाफ़े की हवस है, लेकिन उसकी क़ीमत हमेशा जनता से वसूली जाती है। पीएमसी बैंक और अब यस बैंक का मामला यही दिखलाता है। कॉरपोरेट घरानों को न लौटाये जाने वाले अरबों रुपये के क़र्ज़ दिये गये और अब लुट गये माल की भरपाई सरकारी स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया आम जनता के पैसों से करेगा। लेकिन यह महज़ अर्थव्यवस्था का मोदी सरकार द्वारा कुप्रबन्धन नहीं है, बल्कि यह आज का फ़ासीवादी प्रबन्धन है जिसमें खुले तौर पर आम मेहनतकश जनता को लूटने की छूट पूँजीपति वर्ग को दी जा रही है, सभी श्रम क़ानूनों से उसे छुटकारा दिलाया जा रहा है, उनकी जुएबाज़ी की क़ीमत जनता से वसूली जा रही है, डूब रहे पूँजीपतियों को जनता के पैसे उड़ाकर बचाया जा रहा है और औने-पौने दामों पर सरकारी कम्पनियाँ अम्बानियों-अडानियों को सौंपी जा रही हैं।

इन नीतियों का ही नतीजा यह है कि बेरोज़गारी 50 वर्षों में अपने चरम पर है। बेरोज़गारी कोई प्राकृतिक आपदा तो है नहीं! यह पूँजीवादी व्यवस्था की पैदावार होती है। बेरोज़गारों की एक रिज़र्व फ़ौज की ज़रूरत पूँजीवाद को हमेशा ही होती है। लेकिन आज के दौर में बेरोज़गारी के अभूतपूर्व रूप से बढ़ने का कारण भी मोदी सरकार की आर्थिक नीतियाँ हैं, जिसमें नोटबन्दी, जीएसटी और निजीकरण प्रमुख हैं। ये ही वे नीतियाँ हैं, जिनके ज़रिये बड़ी पूँजी के लिए हर जगह मोदी सरकार ने रास्ता साफ़ किया है। नोटबन्दी और जीएसटी ने काले धन को सफ़ेद करने और अनौपचारिक क्षेत्र के छोटे पूँजीपतियों के उद्योग-धन्धों को बड़े पैमाने पर बन्द करवाकर बड़ी पूँजी के लिए बाज़ार को ख़ाली करने का काम किया और इसके साथ ही बेरोज़गारों की फ़ौज में चार करोड़ की बढ़ोत्तरी की। वहीं निजीकरण के ज़रिये मुनाफ़े में चल रही सरकारी कम्पनियों को भी पूँजीपतियों के हाथों में सौंपा गया ताकि मुनाफ़े की दर के संकट से उन्हें कुछ राहत मिले। इस नीति से भी बेरोज़गारी में बढ़ोत्तरी हुई है और हो रही है क्योंकि निजी पूँजी हमेशा छँटनी और तालाबन्दी करके और उन्नत तकनोलॉजी के ज़रिये श्रम की उत्पादकता को बढ़ाकर औसत मुनाफ़े के ऊपर अतिरिक्त मुनाफ़ा कमाने का प्रयास करती है, हालाँकि लम्बी दूरी में उत्पादकता को बढ़ाकर लागत कम करने की प्रतिस्पर्द्धा की वजह से ही पूरी अर्थव्यवस्था में मुनाफ़े की औसत दर गिरती है और संकट और गहरे रूप में सामने आता है।

यही वह आर्थिक संकट है, जोकि फ़ासीवाद के पैदा होने की ज़मीन तैयार करता है। आर्थिक संकट का असर क्या होता है? पहला असर होता है कि मज़दूरों के बीच बेरोज़गारी तेज़ी से बढ़ती है और जो मज़दूर रोज़गारशुदा बचे भी रहते हैं, उनकी औसत मज़दूरी गिरती जाती है। इसका कारण यह होता है कि बाज़ार में श्रमशक्ति की आपूर्ति बढ़ जाती है, जबकि मुनाफ़े की दर के गिरने और निवेश में कमी आने के कारण श्रमशक्ति की माँग घट जाती है। नतीजतन, श्रमशक्ति की क़ीमत गिरती जाती है। यह हमारी आँखों के सामने हो भी रहा है और हम सभी मज़दूर इस बात को अच्‍छी तरह से समझते हैं। दूसरा असर होता है छोटी पूँजी का उजड़ना और तबाह होना। मोदी सरकार के साढ़े पाँच साल के राज में यह भी सभी ने देखा है कि किस प्रकार आर्थिक संकट की मार से और मोदी सरकार द्वारा बड़ी पूँजी को बचाने के लिए लागू की गयी आर्थिक नीतियों के कारण किस तरह से छोटे पूँजीपति वर्ग को तबाही का सामना करना पड़ा है। निश्चित तौर पर, इन छोटे मालिकों के वर्ग से हम मज़दूरों की कोई हमदर्दी नहीं हो सकती है क्योंकि हमारी श्रमशक्ति के दोहन में ये किसी भी रूप में बड़े पूँजीपतियों से पीछे नहीं होते, बल्कि अमानवीय तौर-तरीक़ों में तो उनसे आगे ही होते हैं। लेकिन यह सच है कि छोटे उद्योगों के तबाह होने के साथ इस छोटे पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा यदि मज़दूर वर्ग में शामिल नहीं हुआ तो एक सर्वहाराकरण की तलवार ज़रूर उसके सिर के ऊपर लटक गयी है। वह भयंकर आर्थिक अनिश्चितता और असुरक्षा में जी रहा है। यही वह वर्ग है जो कि मोदी-शाह नीत साम्प्रदायिक फ़ासीवाद का सामाजिक समर्थन आधार बनता है। इसके सबसे निचले संस्तर, यानी कि निम्न मध्यवर्ग का एक हिस्सा फ़ासीवादियों की दंगाई भीड़ का भी हिस्सा बनता है। बेरोज़गार मज़दूर आबादी का भी एक हिस्सा, विशेषकर, उन मज़दूरों का जो कि वर्ग चेतना से रिक्त होते हैं, यानी कि लम्पट सर्वहारा वर्ग का भी एक हिस्सा, फ़ासीवादी दंगाइयों की भीड़ में शामिल होता है। बर्बाद हो चुकी या बर्बादी की कगार पर खड़ी यह आबादी फ़ासीवाद का समर्थन आधार और उनके दंगाइयों की भीड़ का हिस्सा क्यों बनती है? इसे समझना ज़रूरी है। निम्न मध्यवर्ग के निम्नतर संस्तर और मज़दूर आबादी का लम्पट हिस्सा एक सतत् अनिश्चितता और असुरक्षा में जीता है, लेकिन यह नहीं समझ पाता कि उसकी ज़िन्दगी के इन हालात के कारण क्या हैं? वह नहीं जानता कि इन सबका ज़िम्मेदार कौन है? वह नहीं जानता कि उसका असली दुश्मन कौन है? लेकिन सतत् अनिश्चितता और असुरक्षा उसके भीतर एक अन्धा ग़ुस्सा, एक अन्धी प्रतिक्रिया पैदा करती है। फ़ासीवाद का क्या काम होता है? इसी अन्धी प्रतिक्रिया और ग़ुस्से को एक नकली दुश्मन देना और असली दुश्मन यानी पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजी‍पति वर्ग को बचाना। हिन्दुत्व फ़ासीवाद ने भी भारत में यही किया है। उसने पूँजीवादी व्यवस्था की नैसर्गिक अराजक गति से तबाह छोटे पूँजीपति वर्ग, निम्न मध्यवर्ग के निम्नतर संस्तरों और लम्पट सर्वहारा वर्ग के अन्धे ग़ुस्से और अन्धी प्रतिक्रिया को एक नकली दुश्मन दिया है, यानी मुसलमान और दलित। सतत् असुरक्षा और अनिश्चितता से बिलबिलाये हुए बेरोज़गारी, महँगाई की मार झेलते और अपने असल दुश्मन को पहचान पाने की राजनीतिक वर्ग चेतना और दृष्टि से वंचित ये वर्ग फ़ासीवादियों द्वारा दिखलाये गये नकली दुश्मन पर टूट पड़ते हैं और फ़ासीवादियों की हत्यारों और दंगाइयों की भीड़ में भी शामिल हो जाते हैं। इस प्रकार ये निम्न मध्यवर्ग और लम्पट सर्वहारा वर्ग के लोग अपने ही वर्ग हितों के ख़िलाफ़ जाते हुए टाटा-बिड़ला-अम्बानी-अडानी जैसे बड़े पूँजीपतियों और पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के हितों की सेवा करने में साम्प्रदायिक फ़ासीवाद की मदद करते हैं। वास्तव में, फ़ासीवाद का हर देश में यही कार्यभार रहा है : टटपुँजिया वर्गों और लम्पट सर्वहारा वर्ग की अन्धी प्रतिक्रिया का इस्तेमाल बड़ी पूँजी के वर्ग हितों की सेवा के लिए करना। हमारे देश में भी संघ परिवार का साम्प्रदायिक फ़ासीवाद यही काम करता रहा है। आज नागरिकता संशोधन क़ानून-राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर-राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर का जो मसला मोदी-शाह की फ़ासीवादी सत्ता द्वारा उछाला गया है, उसका मक़सद वास्तव में भयंकर आर्थिक संकट, बेरोज़गारी, महँगाई, निजीकरण, छँटनी-तालाबन्दी के और जनता की भयंकर बर्बादी के दौर में धार्मिक ध्रुवीकरण और साम्प्रदायिकता को भड़काकर धार्मिक बहुसंख्या यानी हिन्दुओं के बीच के छोटे पूँजीपति वर्ग, टटपुँजिया वर्गों और लम्पट मज़दूरों को फ़ासीवादी हत्यारों और दंगाइयों की भीड़ का हिस्सा बनाया जाये और पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग के हितों की हिफ़ाज़त की जाये।

क्यों उछाला गया है सीएए-एनआरसी-एनपीआर का मसला इस समय?

फ़ासीवादी मोदी सरकार ने बड़ी पूँजी की सेवा में देश की आम मेहनतकश जनता की बेरोज़गारी, महँगाई, निजीकरण और छँटनी-तालाबन्दी से जब कमर तोड़ रखी है, तो उसी समय इसने नागरिकता संशोधन क़ानून, नागरिकता रजिस्टर व जनसंख्या रजिस्टर का खेल खेला है। इन क़दमों के ज़रिये देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और दंगे की राजनीति को बढ़ावा दिया जा रहा है, ताकि लोग अपने जीवन के असली मुद्दों को भूलकर आपस में ही लड़ पड़ें। दूसरी ओर, शाहीन बाग़ से शुरू हुए प्रदर्शनों की फैलती आग से भी मोदी सरकार घबरायी हुई थी। इसलिए भी इन सभी प्रदर्शनों को महज़ ‘पाकिस्तान-परस्त मुसलमानों का प्रदर्शन’ बताकर मोदी सरकार व्यापक ग़ैर-मुसलमान आबादी में इनके ख़िलाफ़ साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काने की नीति पर भी काम कर रही है। बेशक इन प्रदर्शनों में मुसलमान आबादी बहुसंख्या में है क्योंकि वह जानती है कि सीएए और एनआरसी का निशाना सभी मेहनतकशों को बनाया जायेगा, लेकिन मुसलमानों को और ख़ास तौर पर आम मेहनतकश वर्गों से आने वाले मुसलमानों को सबसे पहले निशाना बनाया जायेगा। लेकिन इसके बावजूद सच्चाई यह है कि इन सभी प्रदर्शनों में शामिल लोग केवल मुसलमानों की लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं, बल्कि सभी मेहनतकश वर्गों की लड़ाई लड़ रहे हैं क्योंकि वास्तव में नागरिकता संशोधन क़ानून और एनआरसी सभी धर्मों के आम मेहनतकश लोगों के ख़िलाफ़ है। असम में एनआरसी से यह बात पहले ही साबित हो चुकी है।

लेकिन इस सबके बावजूद भी आम लोगों का एक हिस्सा है जो कि इन बातों से अनभिज्ञ है और संघी प्रचार के प्रभाव में है। उसे लगता है कि सीएए-एनआरसी-एनपीआर का निशाना केवल मुसलमान आबादी बनेगी। चूंकि हमारे देश में सेक्युलर मूल्यों की पहले से ही कमी है और साथ ही राजनीतिक वर्ग चेतना का स्तर भी निम्न है, इसलिए ऐसी आबादी दंगों की सक्रिय समर्थक न होने के बावजूद यह सोचकर ख़ामोश है कि चूंकि वह निशाना नहीं बनने वाली है, इसलिए उसे सीएए-एनआरसी का विरोध करने या विरोध कर रहे प्रदर्शनों में शामिल होने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसलिए आज के आन्दोलन की सबसे पहली समस्या यह है कि किस प्रकार इस आबादी में सतत् सेक्युलर मूल्यों का प्रचार किया जाय और विशेष तौर पर उनकी राजनीतिक वर्ग चेतना को बढ़ाया जाये। वास्तव में, ये दोनों बिल्कुल अलग चीज़ें नहीं हैं और राजनीतिक वर्ग चेतना को बढ़ाये बिना सेक्युलर मूल्यों का प्रचार महज़ मानवतावादी उपदेशबाज़ी बनकर रह जाता है, मसलन ‘मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना’, ‘ईश्‍वर-अल्‍लाह तेरो नाम’, वगैरह। कई बार ऐसे भजन सुनकर जो तात्कालिक तौर पर भावुक हो जाते हैं, वे एक अन्य प्रकार के भावुकतावादी उन्माद में बहकर दंगों और साम्प्रदायिक हिंसा में भी भागीदारी करते हैं। इसलिए ऐसा मानवतावादी प्रचार सही मायनों में वर्ग एकजुटता क़ायम करने और जन समुदायों को सही मायने में सेक्युलर बनाने के लिए हास्यास्पद हदों तक नाकाफ़ी है।

यह समझना ज़रूरी है कि फ़ासीवाद का सामाजिक आधार क्या है। आर्थिक संकट के नतीजों की ज़िम्‍मेदारी से पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग को बचाने के लिए व्यापक निम्न व मध्यवर्गीय आबादी के समक्ष फ़ासीवाद एक ‘नकली दुश्मन’ पैदा करता है। आज जब देश की आम जनता महँगाई और बेरोज़गारी से बिलबिला रही है, तो इस समय इस बदहाली का ठीकरा फोड़ने के लिए कोई नकली दुश्मन पैदा करने की ज़रूरत है। ऐसे दुश्मन के तौर पर हमेशा किसी अल्पसंख्यक समुदाय को ही पेश किया जाता है। जर्मनी के नात्सियों ने यहूदियों को ‘दुश्मन’ के तौर पर पेश किया था और उन्हें ‘राष्ट्र के ग़द्दारों’ की संज्ञा दी थी और भारत में हिन्दुत्व फ़ासीवादी संघ परिवार ने इस भूमिका में हमेशा से मुसलमानों को पेश किया है। सीएए-एनआरसी का मसला इसीलिए उछाला गया है कि साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरपन्थ की लहर पैदा की जा सके और फ़ासीवादी मंसूबों में कामयाबी हासिल की जा सके, यानी कि टटपुँजिया वर्गों की अन्धी प्रतिक्रिया को एक नकली दुश्मन के ख़िलाफ़ जागृत करके पूँजीपति वर्ग और पूँजीवादी व्यवस्था की सेवा की जा सके।

साम्प्रदायिक फ़ासीवादी संघ परिवार और और मोदी-शाह की फ़ासीवादी सत्ता अपने इन मंसूबों में कामयाब न हो सके इसके लिए ज़रूरी है कि व्यापक मेहनतकश अवाम, विशेषकर बहुसंख्यक धार्मिक समुदाय के मज़दूरों और मेहनतकशों को उनके ज़िन्दगी की बर्बादी और अनिश्चितता के असली कारणों के बारे में बताया जाये। उन्हें यह बताया जाये कि उनका असली शत्रु कौन है। उन्हें समझाया जाये कि लड़ना किसके विरुद्ध है। उन्हें दिखलाया जाये कि धार्मिक अल्पसंख्यक या दलित उनके दुश्मन नहीं हैं, बल्कि उनका बड़ा मेहनतकश हिस्सा तो उनका वर्ग-मित्र है। इसके लिए क्रान्तिकारी शक्तियों को एक ओर शाहीन बाग़ जैसे प्रदर्शनों को अधिक से अधिक लम्बे समय के लिए जारी रखने का प्रयास करना होगा, वहीं इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण काम अब यह है कि संघ परिवार से भी ज़्यादा बड़े पैमाने पर क्रान्तिकारी, प्रगतिशील और जनवादी शक्तियाँ गली-गली और मुहल्‍ले-मुहल्‍ले तक अपनी बातों को पहुँचाएँ और जनसमुदायों को यह समझाएँ कि उनके दोस्त कौन हैं और दुश्मन कौन। क्या आज इस कार्यभार को भारत की क्रान्तिकारी, प्रगतिशील और जनवादी शक्तियाँ सन्तोषजनक रूप से कर पा रही हैं?

यहीं से हम मौजूदा आन्दोलन की कुछ चुनौतियों और कार्यभारों के बारे में संक्षेप में अपनी बात रखेंगे।

शाहीन बाग़ को जारी रखना होगा! लेकिन अब सिर्फ़ इतना काफ़ी नहीं है!

शाहीन बाग़ का आन्दोलन एक यादगार और एक हद तक ऐतिहासिक आन्दोलन बन चुका है। यही वजह है कि पूरे देश में सैंकड़ों जगहों पर शाहीन बाग़ की तर्ज़ पर धरने शुरू हुए और उनमें से कई तमाम दमन झेलने के बाद अभी भी जारी हैं। यह अपने आप में बताता है कि शाहीन बाग़ एक ऐतिहासिक प्रोटेस्ट बन चुका है और नागरिकता संशोधन क़ानून और नागरिकता रजिस्टर के विरुद्ध जारी जनान्दोलन का एक प्रतीक बन चुका है। इस प्रतीक को निश्चित तौर पर बचाया जाना चाहिए, इसे जारी रखा जाना चाहिए और हर प्रकार के राजकीय दमन का मुक़ाबला करते हुए इसे क़ायम रखा जाना चाहिए। आन्दोलन के पहले चरण में इस आन्दोलन की ज़बर्दस्त भूमिका थी क्योंकि इसने पूरे देश के लिए ही सीएए-एनआरसी को एक मसला बना दिया, उसके प्रति एक जागरूकता पैदा की, उसके ख़तरों की ओर इशारा किया, यह दिखलाया कि यह विशेष तौर पर मुसलमान मेहनतकश अवाम को और आम तौर पर सारे ही मेहनतकश अवाम को निशाना बनाने वाली साज़िशें हैं। इस रूप में आन्दोलन के पहले चरण में यही प्रमुख कार्यभार था कि इस प्रकार के धरना प्रदर्शनों को पूरे देश में आयोजित किया जाये और जब तक कि सरकार सीएए-एनआरसी को वापस न ले ले, तब तक इन प्रदर्शनों को जारी रखा जाय। लेकिन आज आन्दोलन एक अगले चरण में प्रवेश कर चुका है। इस चरण की विशेषता क्या है?

शाहीन बाग़ और शाहीन बाग़ जैसे धरना प्रदर्शनों के पूरे देश में कई स्थानों पर शुरुआत के बाद संघ परिवार भी चुप नहीं बैठा रहा है। उसने अपने व्यापक ताने-बाने का इस्तेमाल करते हुए देश भर में करोड़ों लोगों के बीच व्हाट्सएप्प और फ़ेसबुक के ही ज़रिये नहीं बल्कि घर-घर जाकर भी झूठा प्रचार किया है। इसमें मुख्य बात यह है कि इन सभी प्रदर्शनों को संघी प्रचारक “मुसलमान प्रदर्शन” और “पाकिस्तान-परस्त लोगों” का प्रदर्शन बता रहे हैं। वे बता रहे हैं कि ये प्रदर्शन “देशद्रोही मुसलमान” पाकिस्तान के इशारों पर कर रहे हैं, जो “खाते तो इस देश का हैं और सेवा पाकिस्तान की करते हैं”; ये संघी प्रचारक बता रहे हैं कि सीएए-एनआरसी के ज़रिये “मोदी जी मुसलमानों को सबक़ सिखा रहे हैं” और सीएए-एनआरसी के ज़रिये “भारत हिन्दू राष्ट्र बन जायेगा और फिर सारी समस्याएँ ख़त्म हो जायेंगी क्योंकि ये सारी समस्याएँ मुसलमानों की वजह से हैं”। यही वह संघी बकवास और झूठों का प्रचार है जिसके ज़रिये राजनीतिक चेतना से वंचित, अपढ़ और अज्ञानी हिन्दू टटपुँजिया आबादी को इन प्रदर्शनों के ख़िलाफ़ भड़काया जा रहा है। साथ ही, फ़ासीवादी प्रशासन, पुलिस बल और न्यायपालिका के ज़रिये भी इन्हें इस बहाने से कुचलने का प्रयास किया जा रहा है कि इन प्रदर्शनों की वजह से “लोगों को असुविधा हो रही है” जबकि सच्चाई बिल्कुल उल्टी है : लोगों को असुविधा हुई है इसीलिए तो वे महीनों से सड़कों पर ठण्ड-गर्मी झेलते हुए बैठे हैं! लेकिन यह सच्चाई होने के बावजूद लोगों तक नहीं पहुँच पा रही है। शाहीन बाग़ आन्दोलन, यानी शाहीन बाग़ की तर्ज़ पर शुरू हुए अनिश्चितकालीन धरनों का आन्दोलन बेहद अहम है, लेकिन अब यह ज़रूरी हो गया है कि इसे जारी रखते हुए हम धरना स्थलों से आगे जायें और गली-मुहल्लों में उस हद से भी ज़्यादा पहुँचें जिस हद तक संघ परिवार के फ़ासीवादी प्रचारक पहुँच रहे हैं।

यही कार्यभार आन्दोलन के इस अगले चरण में हमारे कार्यों की विशेषता और मुख्य केन्द्र को निर्धारित करता है। यानी, शाहीन बाग़ आन्दोलन को जारी रखो! शाहीन बाग़ आन्दोलन को जारी रखते हुए धरना स्थल से आगे जाओ! गाँवों और शहरों के गली-मुहल्लों तक पहुँचो और जनता को यह सच्चाई बताओ कि सीएए-एनआरसी केवल मुसलमानों के ख़िलाफ़ नहीं है, बल्कि समूची मेहनतकश जनता के ख़िलाफ़ है। संघ परिवार के झूठे प्रचार का क़दम-क़दम पर मुक़ाबला करो और उसे मात दो। यह बात समझना बहुत मुश्किल नहीं है क्योंकि असम में एनआरसी का उदाहरण पूरे देश के सामने है जिसमें कि उन 19 लाख लोगों में 13.5 लाख लोग मुसलमान नहीं बल्कि हिन्दू निकले, जिनकी कि नागरिकता छीन ली गयी। वहाँ के डिटेंशन सेन्टरों के मुसलमानों से ज़्यादा हिन्दू हैं और उनमें मरने वालों में भी आधे हिन्दू हैं। क्या आपको पता है कि यह सच्चाई करोड़ों-करोड़ ग़ैर-मुसलमान आबादी के टटपुँजिया व मेहनतकश वर्गों को पता ही नहीं है? इस आबादी को अगर इस सच्चाई से अवगत कराया जाये, तो फ़ासीवादी झूठे प्रचार को बिल्कुल नाकामयाब बनाया जा सकता है।

अगर देश की क्रान्तिकारी व प्रगतिशील-जनवादी शक्तियाँ यह काम करने में नाकामयाब रहती हैं, तो यदि शाहीन बाग़ आन्दोलन जारी भी रहता है, तो फ़ासीवादी शक्तियों की फ़ौरी हार और हमारी फ़ौरी जीत बेहद मुश्किल होगी। हम यदि धरना स्थलों तक सीमित रहे और इलाक़ों में, नुक्कड़-चौराहों पर, बाज़ारों में, गली-मुहल्लों में नहीं पहुँचते हैं, तो पूरे देश के पैमाने पर बहुसंख्यक समुदाय में जो आम राय निर्मित होगी, वह यदि सीधे-सीधे फ़ासीवाद की सक्रिय पक्षधर न भी हो, तो ग़लत कारणों से और अज्ञान के चलते सीएए-एनआरसी का समर्थन करेगी। यह मौजूदा आन्दोलन के लिए घातक होगा। लेकिन इस कार्यभार को पूरा करते हुए हमें आन्दोलन को केवल सीएए-एनआरसी पर नहीं सीमित रखना होगा, बल्कि सीएए-एनआरसी को अभी लाने के पीछे की असल फ़ासीवादी साज़िश को भी बेनक़ाब करना होगा। इसके लिए हमें निम्न कार्य करना होगा।

इस आन्दोलन को सभी असल मुद्दों को समेटते हुए एक फ़ासीवाद-विरोधी जनान्दोलन में तब्दील करो!

व्यापक जनसमुदायों के बीच झूठे फ़ासीवादी प्रचार को बेनक़ाब करने और सीएए-एनआरसी की सच्चाई से उन्हें अवगत कराने के लिए यह आवश्यक है कि लोगों को इस बात से अवगत कराना चाहिए कि सीएए-एनआरसी की साज़िश की इस समय शुरुआत करने के पीछे संघ परिवार की असली मंशा क्या है। यह मंशा वास्तव में आर्थिक संकट, बेरोज़गारी, महँगाई, भ्रष्टाचार, और उससे पैदा हुए सामाजिक संकट पर से आम जनता का ध्यान भटकाना और उन्हें साम्प्रदायिक उन्माद की लहर में बहाना है। इसका सही जवाब यही हो सकता है कि जो वास्तविक मुद्दे हैं उन्हें जनता के लिए भी बुनियादी मुद्दा बनाया जाये। केवल इसी के ज़रिये फ़ासीवादी प्रचार तंत्र द्वारा फैलाये जा रहे झूठ और उन्माद को शिकस्त दी जा सकती है।

इसलिए सीएए-एनआरसी के ख़तरों को बताते हुए जनता को यह भी बताना होगा कि यह शिगूफ़ा इस समय उछाला ही क्यों गया है। इसकी असली वजह को बताकर ही जनता को समूची फ़ासीवादी योजना के प्रति जागरूक बनाया जा सकता है और उसकी मुख़ालफ़त के लिए तैयार किया जा सकता है। यानी कि व्यापक जनसमुदायों को बेरोज़गारी के सवाल पर रोज़गार गारण्टी की माँग पर संगठित करना होगा, निजीकरण के विरुद्ध संगठित करना होगा, और संघ-परिवार की देशभक्ति की नौटंकी के ख़िलाफ़ जागरूक बनाना होगा और गोलबन्द करना होगा। दूसरे शब्दों में, हमें मौजूदा सीएए-एनआरसी विरोधी समूचे आन्दोलन को व्यापक बनाते हुए उन तमाम मुद्दों को इसमें शामिल करना होगा जो कि मोदी सरकार की फ़ासीवादी नीतियों की पैदावार हैं, यानी बेरोज़गारी, महँगाई, और आर्थिक मन्दी। हमें मौजूदा आन्दोलन को महज़ एक क़ानून के विरोध तक सीमित न रखकर इसे आम फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन में तब्दील करना होगा। संघर्ष का एजेण्डा हमें निर्धारित करना होगा न कि हमें यह मौक़ा देना होगा कि संघर्ष का एजेण्डा मोदी सरकार निर्धारित करे। संघर्ष में जीत के लिए ज़रूरी पहला क़दम आम तौर पर ही यह होता है कि संघर्ष का एजेण्डा हम निर्धारित करें न कि दुश्मन को करने दें।

सीएए-एनआरसी-एनपीआर को कामयाब बनाने से रोकने के लिए हमें जनता के जीवन को वास्तविक रूप में प्रभावित करने वाले असल मुद्दों को एजेण्डा बनाना होगा और इसी के आधार पर हम जनता के व्यापक जनसमुदायों को 1 अप्रैल से शुरू होने वाले एनपीआर की प्रक्रिया के बहिष्कार के लिए तैयार कर सकते हैं। तात्कालिक तौर पर, हमारा कार्यभार यही है।

तात्कालिक तौर पर, एनपीआर की प्रक्रिया को नागरिक अवज्ञा आन्दोलन के ज़रिये नाकामयाब बनाओ!

हमारा तात्कालिक कार्यभार यही है कि हम नागरिक अवज्ञा (सिविल नाफ़रमानी) के आन्दोलन को कामयाब बनायें जिसके ज़रिये एनपीआर की प्रक्रिया का जनबहिष्कार किया जा सके। हमें इसके लिए देश भर में जहाँ तक भी हम पहुँच सकते हैं, वहाँ तक गली-गली और मुहल्लों-मुहल्लों में व्यापक जनता को सीएए-एनआरसी-एनपीआर के ख़तरों से अवगत कराना होगा, यह बताना होगा कि ये साज़िश किस प्रकार मोदी सरकार ने जनता के जीवन को प्रभावित करने वाले असली मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाकर उन्हें साम्प्रदायिकता की लहर में बहाने के लिए की है, किस प्रकार हमारे जीवन के सबसे प्रमुख मुद्दे बेरोज़गारी, महँगाई, महँगी होती चिकित्सा, शिक्षा और आवास हैं, और किस प्रकार इन माँगों पर कारगर तौर पर लड़ने के लिए हमारी मूल माँग ही यह है : नागरिकता संशोधन क़ानून नहीं, हमें रोज़गार गारण्टी क़ानून चाहिए! जनसंख्या रजिस्टर और नागरिकता रजिस्टर नहीं हमें बेरोज़गारों का रजिस्टर चाहिए!! यदि मौजूदा सरकार यह नहीं दे सकती तो उसे सरकार बने रहने का कोई हक़ नहीं है।

इन्हीं माँगों को लेकर और एनआरसी-एनपीआर को नकारने के लिए हमारा पहला क़दम होना चाहिए देश भर में एक सिविल नाफ़रमानी का आन्दोलन खड़ा करना और एनपीआर की प्रक्रिया का पूर्ण बहिष्कार करना। इसके लिए कार्यकर्ताओं और वॉलण्टियरों की टीमों को हरेक शहर और गाँव की गली-गली तक जाना होगा, उन्हें सच्चाई बतानी होगी और उन्हें बहिष्कार के लिए तैयार करना होगा। तैयार लोगों की बहिष्कार कमेटियाँ बनानी होंगी जो कि आगे रोज़गार और शिक्षा तथा अन्य जन-अधिकारों के लिए संघर्ष के लिए भी जनकमेटियों का काम करें। इस काम को जल्द से जल्द बिना किसी देरी के शुरू करना होगा।

सत्याग्रह, असहयोग या नागरिक अवज्ञा का अर्थ गांधीवादी बन जाना नहीं होता है! संघर्ष के ये रूप आम मेहनतकश जनता की रचनात्मकता की ऐतिहासिक विरासत के अंग हैं!

कुछ लोगों को लगता है कि यदि हम अपने संघर्षों में जन असहयोग, नागरिक अवज्ञा, सत्याग्रह आदि जैसे रूपों को इस्तेमाल करते हैं, तो यह “गांधीवादी” रूपों को अपनाने और गांधीवाद के समक्ष समर्पण है। इससे ज़्यादा मूर्खतापूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती है। इसके दो कारण हैं : पहला तो यह कि ऐसी दलील पेश करने वाले लोगों को यह नहीं पता है कि संघर्ष के इन रूपों का गांधी ने बुर्जुआ राष्ट्रवाद के भारतीय संस्करण के वर्गीय दायरों के भीतर कुशल उपयोग ज़रूर किया था, लेकिन ये रूप स्वयं गांधी ने ईजाद नहीं किये थे, न ही उनके दार्शनिक शिक्षकों जैसे कि थोरो, तोलस्तोय आदि ने ईजाद किये थे। सच्चाई तो यह है कि इन रूपों का इस्तेमाल बहुत पहले से ही जनता अपने संघर्षों में करती रही है, गांधी के जन्म से भी पहले से। मिसाल के तौर पर, स्त्री मताधिकार आन्दोलन, जिसकी अगुवाई में मज़दूर औरतों की प्रमुख भूमिका रही थी, में संघर्ष के इन रूपों का शानदार तरीक़े से इस्तेमाल किया गया। चार्टिस्ट आन्दोलन के दौरान इंग्लैण्ड के मज़दूरों ने भी इन रूपों को बहुत ही रचनात्मक तरीक़े से इस्तेमाल किया। इसलिए ये रूप कोई “गांधीवादी रूप” नहीं हैं, बल्कि इतिहास में जनता की रचनात्मकता से पैदा हुए संघर्ष के रूप हैं, जिनका इस्तेमाल बहुत-सी विचारधाराओं के लोगों ने किया, और इनमें गांधी भी शामिल हैं, जिन्होंने अपने तरीक़े से इनका इस्तेमाल किया।

दूसरी बात यह है कि संघर्ष के रूप किसी भी संघर्ष में कोई नेतृत्व मनमाने तरीक़े से नहीं कर सकता है। संघर्ष के रूप हर आन्दोलन में उस आन्दोलन की मंज़िल और आन्दोलन में शामिल जनसमुदायों की राजनीतिक वर्ग चेतना और राजनीतिक तैयारी पर निर्भर करते हैं। क्रान्तिकारी हिंसा से प्यार नहीं करते। बल्कि वे मानते हैं कि अन्तत: पूँजीवादी राज्यसत्ता का बलपूर्वक ध्वंस करके ही मज़दूर वर्ग अपनी क्रान्तिकारी सत्ता को क़ायम कर सकता है और एक समाजवादी व्यवस्था का निर्माण कर सकता है। इसका यह अर्थ नहीं होता है कि किसी भी दिये गये मौक़े पर पार्टी और व्यापक जनसमुदाय सामूहिक क्रान्तिकारी बल प्रयोग के लिए तैयार होते हैं। इसका सिर्फ़ यह अर्थ होता है कि अन्तत: बल प्रयोग के द्वारा ही सर्वहारा सत्ता की स्थापना हो सकती है क्योंकि बल प्रयोग के संगठित उपकरण पूँजीवादी राज्यसत्ता को मज़दूर वर्ग की अगुवाई मेहनतकश जनता के द्वारा संगठित बल प्रयोग से ही तोड़ा जा सकता है। लेकिन मज़दूर वर्ग हमेशा इसके लिए तैयार होता हो, ऐसा सोचना हास्यास्पद है। उस मंज़िल तक पहुँचने के लिए मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को और क्रान्तिकारी जनान्दोलन को कई चरणों से होकर गुज़रना होता है, जिनमें संघर्ष के वैविध्यपूर्ण रूपों का इस्तेमाल होता है। जैसा कि लेनिन और माओ ने बताया था कि संघर्ष के क़ानूनी और अहिंसक रूपों के इस्तेमाल की सम्भावनाओं के समाप्त होने की प्रक्रिया में ही जनता के व्यापक जनसमुदाय क्रान्तिकारी और संगठित बल प्रयोग के लिए तैयार होते हैं। कोई समझदार से समझदार पार्टी उन्हें मनमाने तरीक़े से जब चाहे इसके लिए तैयार नहीं कर सकती है।

संघर्ष में अहिंसक रूपों के इस्तेमाल से कोई अहिंसावादी नहीं हो जाता है। जब क्रान्तिकारी शक्तियाँ इन अहिंसक रूपों का इस्तेमाल करते हुए शत्रु से लड़ती हैं, तो भी जहाँ कहीं सम्भव हो वे प्रतिक्रियावादी शक्तियों को सड़क पर बलपूर्वक जवाब देने का कोई अवसर नहीं छोड़ती हैं। लेकिन किन मौक़ों पर संघर्ष के कौन-से रूप अपनाये जायेंगे यह सिद्धान्त का प्रश्न नहीं, बल्कि ठोस संघर्ष के रणकौशल का प्रश्न है। सिद्धान्त के मामले में चट्टान जैसी कठोरता रखते हुए हमें ठोस संघर्ष के रणकौशल के मामले में पूर्ण लचीलापन अपनाना चाहिए।

अन्त में…

अन्त में यह कहना होगा कि आज हमारा यह आन्दोलन जिस चरण में है, उसमें हमारा पहला कार्यभार है देश भर में व्यापक पैमाने पर हर मज़हब के जनसमुदायों को 1 अप्रैल से शुरू हो रही एनपीआर की प्रक्रिया के बहिष्कार के लिए तैयार करना। इसके लिए देश में एक नागरिक अवज्ञा आन्दोलन खड़ा करना ज़रूरी है। पूरे देश में पदयात्राएँ निकालना, सत्याग्रह करना, घर-घर सघन जनसम्पर्क अभियान चलाते हुए जनसमुदायों को सच्चाई से अवगत कराना और उन्हें नागरिक अवज्ञा आन्दोलन में शामिल करने के लिए उनकी जनकमेटियाँ बनाना : यही हमारा तात्कालिक कार्यभार है, जिस पर बिना विलम्ब काम करना शुरू करना होगा।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2020


 

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