कोविड 19 वैक्सीन : एक पड़ताल

– डॉक्टर्स फ़ॉर सोसाइटी

बीता साल पूरी तरह से कोरोना वायरस के नाम रहा। पूरे साल कोरोना वायरस (SARS CoV 2) ने पूरे विश्व में क़हर बरपा कर रखा हुआ था। नये साल में हालाँकि इसके केसों में काफ़ी हद तक कमी आई है और अब अलग-अलग वैक्सीन भी आ चुकी हैं लेकिन फिर भी यह बीमारी पूरी तरह से कब तक क़ाबू में आयेगी कुछ कहा नहीं जा सकता।
इस विषय पर रोज़ नये शोध सामने आ रहे हैं और वैज्ञानिक इस वायरस और बीमारी को समझने की कोशिशों में लगे हुए हैं। इसके अलावा कोविड 19 के टीके बनाने के दावे भी किये जा रहे हैं और भारत में भी दो तरह के टीके आ चुके हैं। लाखों स्वास्थ्यकर्मियों व डॉक्टरों ने अथक मेहनत करके व अपनी जीवन की कुर्बानियाँ देकर बीमारी को काफ़ी हद तक क़ाबू करने में सफलता पायी है। इसके बावजूद इस वायरस ने अब तक यह दुनिया में काफ़ी क़हर ढा दिया है। हालाँकि ज़्यादातर लोग मौत से बच गये हैं। लेकिन जितनी बड़ी आबादी के इसकी चपेट में आयी है उससे मरनेवाले लोगों कि संख्या 21 लाख से ज़्यादा पहुँच गयी है। चीन में इसकी मृत्युदर 3-4 फ़ीसदी थी और हो सकता है कि अन्तिम आँकड़े आने पर पूरी दुनिया में यह दर एक फ़ीसदी से भी कम हो।17 नवम्बर 2019 को इसका पहला केस चीन में सामने आया था। उसके बाद से अब तक पूरी दुनिया में 1 करोड़ से ज़्यादा केस सामने आ चुके हैं, जिनमें से 21 लाख से ज़्यादा लोगों की मृत्यु हो चुकी है। मरने वालों में ज़्यादातर वे हैं जो या तो 60 साल से ज़्यादा आयु के थे या फिर जिनको कोई गम्भीर बीमारी जैसे डायबिटीज़, टीबी, हृदय रोग या श्वास रोग पहले से थे।
बहरहाल अभी इस विषय पर सबसे ज़्यादा चर्चा इसके टीके यानी वैक्सीन की है। तो हम भी अपनी चर्चा का विषय टीके को ही रखेंगे। मौजूदा समय में उपलब्ध वैक्सीन कैसी हैं इस पर चर्चा करने से पहले हम थोड़ी चर्चा इस बात पर करेंगे कि कोई वैक्सीन काम कैसे करती है और यह भी कि कोई वैक्सीन विकसित कैसे की जाती है?
आपने इम्युनिटी यानी हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता के बारे में तो सुना ही होगा। यह हमारे शरीर की रक्षा प्रणाली होती है जो हमें संक्रमण से बचाती है। इसके दो भाग होते हैं। पहली होती है इनेट इम्युनिटी यानी नैसर्गिक प्रतिरोधक क्षमता। यह जन्मजात होती है और हमारे शरीर की रक्षा की पहली पंक्ति का काम करती है। जब भी कोई बाहरी आक्रमण शरीर पर होता है तो उसका सबसे पहला सामना इसी से होता है। इसके बाद आती है “अक्वायर्ड” यानी अर्जित इम्युनिटी जिसे “सेल मिडीएटेड इम्युनिटी” भी कहते हैं। जैसा कि नाम से पता चलता है यह वह इम्युनिटी है जो हम अपनी ज़िन्दगी के दौरान अर्जित करते हैं। यह हमारे शरीर में मौजूद कुछ ख़ास सेल्स यानी कोशिकाओं से चालित होती है। ये कोशिकाएँ होती हैं श्वेत रक्त कोशिकाएँ यानी लिम्फोसाइट्स। ये दो तरह की होती हैं। T सेल्स और B सेल्स। T सेल्स हमारी छाती में मौजूद एक ग्रन्थि थाइमस में बनती हैं और B सेल्स हमारी बोन मेरो यानी अस्थि मज्जा में। इनमें से T सेल्स दो तरह की होती हैं। किलर यानी मारक T सेल्स और हेल्पर यानी मददगार T सेल्स। मददगार टी सेल्स या तो इम्यून रिस्पॉन्स को रेगुलेट करती हैं या फिर मेमोरी यानी यादगार टी सेल्स में विकसित हो जाती हैं। जैसा कि नाम से जाहिर है किलर T सेल्स आक्रामक कीटाणुओं को मारने का काम करती हैं और मेमोरी T सेल्स उन्हें याद रखने का। इसका मतलब यह हुआ कि एक बार कोई इन्फ़ेक्शन हुआ तो शरीर की किलर टी सेल्स उससे लड़कर उसे ख़त्म कर देती हैं और मेमोरी टी सेल उसके एण्टीजन को याद रख लेती हैं। यहाँ एक चीज़ और जाननी ज़रूरी है। जब कोई बैक्टीरिया या वायरस शरीर पर हमला करता है तो हमारी इम्युनिटी उसके किसी घटक की पहचान करती है जो उस पर मौजूद कोई प्रोटीन, लिपिड या कार्बोहायड्रेट हो सकता है जिसे एण्टीजन कहते हैं। हमारी B सेल्स इनके साथ प्रतिक्रिया करने के लिए ख़ास तरह के प्रोटीन का निर्माण करती हैं जिसे एण्टीबॉडी कहते हैं। किसी भी ख़ास एण्टीजन के ख़िलाफ़ एक ख़ास एण्टीबॉडी का ही निर्माण होता है।
इन सब बातों का वैक्सीन से क्या सम्बन्ध है? सम्बन्ध ये है कि जब कोई रोगाणु शरीर पर हमला करता है तो हमारी B सेल्स एण्टीबॉडी बनाती हैं जो इनका ख़ात्मा करना शुरू कर देती हैं। लेकिन इस रोगाणु के एंटीजन को पहचानने और उसके ख़िलाफ़ इम्यून रिस्पॉन्स देने के लिए शरीर को समय लगता है जोकि सामान्य बात है। समस्या तब आती है जब बीमारी बहुत घातक हो जैसे कि चेचक या फिर बच्चों में होने वाला खसरा जो मरीज़ को इतना समय ही नहीं देते कि इम्यून रिस्पॉन्स पैदा करके उन्हें ख़त्म कर दे। उससे पहले ही रोगी या तो अपंग हो जाता है या फिर उसकी मृत्यु हो जाती है।
तो अब वैक्सीन का क्या रोल है? वैक्सीन मरे हुए या कमज़ोर कर दिये गये एण्टीजन होते हैं। ये शरीर में बीमारी पैदा नहीं कर सकते। लेकिन हमारे शरीर की इम्युनिटी इनको पहचान कर एण्टीबॉडी जरूर बना लेती हैं। इसके साथ ही किलर T सेल्स और मेमोरी T सेल्स भी सक्रिय हो जाती हैं। इस कमज़ोर या मरे हुए एण्टीजन को शरीर की इम्युनिटी ख़त्म कर देती है और मेमोरी T सेल्स इनको याद रख लेती हैं। अब अगर यही रोगाणु भविष्य में कभी शरीर पर हमला करता है तो मेमोरी T सेल्स को इनकी याद रहती है। जैसे ही यह शरीर में पहुँचता है तो शरीर की इम्युनिटी इन्हें तुरन्त पहचान कर इसके ख़िलाफ़ एकदम से इम्यून रिस्पॉन्स पैदा कर देती है और कोई भी नुक़सान पहुँचाने से पहले इनको ख़त्म कर देता है।
वैक्सीन विकसित करने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया होती है। अगर इस प्रक्रिया का अनुसरण न किया जाये तो वैक्सीन की गुणवत्ता से समझौता करना पड़ेगा जिसका फ़ायदा होने की बजाय नुक़सान होने की सम्भावना ज़्यादा होती वैक्सीन चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में मनुष्य द्वारा आविष्कृत एक महान छलाँग है जिसने मनुष्य द्वारा प्रकृति पर उसकी विजययात्रा को नयी बुलन्दियों तक पहुँचाया है। बहुत से असाध्य रोगों को हमने वैक्सीन यानी टीकाकरण की मदद से साधा है। नियंत्रित किया है और कुछ रोगों को तो ख़त्म कर दिया है।
कोविड महामारी की शुरुआत में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि इसका टीका विकसित होने में लगभग 18 महीने लगेंगे। उस वक्त भी कुछ विशेषज्ञों की राय थी कि 18 महीने बहुत कम अवधि है। इतने में टीका तैयार होना मुश्किल है। लेकिन अब वैक्सीन एक साल के अन्दर ही बनकर बाज़ार में भी आ चुकी है तो ऐसे में इसकी गुणवत्ता व सुरक्षा पर सन्देह होना लाज़मी है।
यह सन्देह क्यों है, इसको समझने के लिए हमें नयी वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया को समझना होगा। मुख्यतः पाँच प्रकार की वैक्सीन होती हैं। लाइव एटेनुएटेड, इनऐक्टिवेटेड, टॉक्‍सॉइड, सबयूनिट, कॉन्‍जुगेेट। ये कौन-कौन सी होती हैं और ये एक दूसरे से कैसे भिन्न होती हैं इस पर किसी और पोस्ट में बात करेंगे। फ़िलहाल इतना जान लेते हैं। अब किसी भी नयी वैक्सीन के निर्माण का कार्य छह अलग-अलग स्टेजों में होता है –
1) शुरुआती खोजबीन की स्‍टेज
2) प्री-क्लिनिकल ‍स्टेज
3) क्लिनिकल विकास
4) नियामक संस्थाओं द्वारा समीक्षा और मंज़ूरी
5) उत्पादन
6) गुणवत्ता नियंत्रण
इनमें से प्री क्लीनिकल स्टेज में हम वैक्सीन का ट्रायल जानवरों पर करते हैं। अगर यहाँ यह सफल रहती है तो फिर इसकी टेस्टिंग इन्सानों पर करते हैं। इन्सानों पर टेस्टिंग की इस स्टेज को हम कहते हैं क्लीनिकल स्टेज। यही स्टेज सबसे लम्बी अवधि की होती है। सामान्यतः यह लगभग 8-10 साल की अवधि की स्टेज होती है। इस स्टेज में 3 चरण होते हैं जिनसे गुज़रने के बाद यह प्रक्रिया पूरी होती है। एक एक चरण कुछ वर्षों का समय लेता है। पहला चरण होता है जब हम वैक्सीन का टेस्ट वालण्टियरों के एक बहुत छोटे से समूह पर करते हैं। यह देखने के लिए कि वैक्सीन कितनी सुरक्षित है। इसके नतीजे आने में समय लगता है क्योंकि हमें लम्बे समय में आने वाले साइड इफ़ेक्ट भी देखने पड़ते हैं। यह प्रक्रिया एक से ज़्यादा बार भी दोहरायी जाती है। इस चरण की सफलता के बाद अब हमारी वैक्सीन दूसरे चरण में प्रवेश करती है। अब हम एक ज़्यादा बड़े समूह पर इसका प्रयोग करते हैं जिसमें सैकड़ों वालण्टियर होते हैं। इस चरण में हम शरीर का वैक्सीन पर “इम्यून रिस्पॉन्स” यानी हमारी इम्युनिटी की प्रतिक्रिया देखते हैं। इस चरण में भी काफ़ी समय लगता है। इसके अलावा हमें यह चरण भी एक से ज़्यादा बार पूरा करना होता है। इस चरण में सफल होने पर अब तीसरा चरण आता है। इस चरण में हम वैक्सीन को हज़ारों वालण्टियरों के समूह पर टेस्ट करते हैं। इस बार हमारा मक़सद होता है कि हम यह जाँच लें कि वैक्सीन कितनी कारगर है और यह भी कि यह पूरी तरह से सुरक्षित है। इन तीनों चरणों के पूरा होने में 8-10 साल सामान्यतः लग ही जाते हैं।
लेकिन कोविड 19 की विभिन्न वैक्सीन बहुत जल्दबाज़ी में बाज़ार में उतार दी गयी हैं। इन सबने प्री क्लीनिकल स्टेज, यानी जिसमें जानवरों पर टेस्ट करते हैं, को पूरा ही छोड़ दिया। अब वैक्सीन तो आ गयी लेकिन इतनी जल्द वैक्सीन तैयार करने में वैक्सीन की गुणवत्ता ख़राब होने और सुरक्षा मानकों पर खरा न उतरने का ख़तरा बढ़ गया है। अब चूँकि वैक्सीन को तीसरे चरण के ट्रायल के बिना ही लोगों को लगाने के लिए उतारा गया है तो लोगों में डर स्वाभाविक है। इसके अलावा कुछ दिन पहले ही भारत में मौजूद दोनों टीकों को बनाने वाली कम्पनियों ने एक दूसरे की वैक्सीनों को ख़राब बताया था तो उससे भी लोगों के मन में पैदा हुआ सन्देह और गहरा गया है।
ऐसे में ये टीके कितने सफल होंगे यह भी भविष्य में देखनेवाली बात होगी। इसका अलावा हमें यह भी नहीं पता कि वैक्सीन बनने के बाद यह कितने समय तक सुरक्षा प्रदान करेगी। अब जबकि इस वायरस की नयी स्ट्रेन भी आ गयी हैं तो उनसे ये टीके कितनी सुरक्षा देंगे यह भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। इसके साथ ही एक नयी ख़बर इस विषय में यह है कि नक़ली वैक्सीन बनाने का धन्धा भी शुरू हो गया है। कुछ समय पहले ही चीन में ऐसे ही एक गिरोह को गिरफ़्तार किया गया है जो कथित तौर पर नक़ली कोविड वैक्सीन बनाकर बेचने का काम कर रहे थे।
इन सब बातों के मद्देनज़र हमारे पास यह सन्देह करने के पर्याप्त कारण हैं कि इन तमाम कम्पनियों ने सबसे पहले वैक्सीन बाज़ार में उतार कर सबसे ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के चक्कर में वैक्सीन के निर्माण सम्बन्धी सही प्रक्रिया का पालन नहीं किया है और ऐसे में अगर वैक्सीन के दीर्घकालीन बुरे प्रभाव सामने आते हैं (पूरी दुनिया के विशेषज्ञों के अनुसार हालाँकि इसकी सम्भावना कम है, लेकिन फिर भी है) तो उसके लिए ज़िम्मेदार कौन होगा? जाहिर है, मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था में ज़िम्मेदारी सिर्फ़ मुनाफ़ा कमाने की होती है, जनता की सुरक्षा की नहीं। ग़रीब जनता तो सिर्फ़ इनके लिए नयी दवाओं के ट्रायल के लिए होती है।
कुल मिलाकर कोविड 19 महामारी के दौरान यही चीज पुख़्ता हुई है कि पूँजीवादी व्यवस्था के अन्दर स्वास्थ्य ढाँचा किसी महामारी को न तो फैलने से रोक सकता है और न ही फैलने पर उसे क़ाबू करने के इन्तज़ाम सही ढंग से कर सकता है। पूँजीवादी व्यवस्था आपदा से निपट नहीं सकती, बल्कि आपदा को अवसर बनाकर उससे सिर्फ़ मुनाफ़ा कमा सकती है। विज्ञान और तकनीक की तरक़्क़ी के बावजूद अगर कोई महामारी इतना क़हर बरपा कर जाती है तो ज़ाहिर सी बात है कि समस्या विज्ञान में नहीं बल्कि व्यवस्था में है और समस्या का हल व्यवस्था परिवर्तन यानी पूँजीवाद को ख़त्म करके समाजवाद की स्थापना करने में है।

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2021


 

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