नेपाल में राजनीतिक-संवैधानिक संकट
संशोधनवाद का भद्दा बुर्जुआ रूप खुलकर सबके सामने है!

– आनन्द

नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (नेकपा) के भीतर के.पी. शर्मा ओली और पुष्प कमल दाहाल (प्रचण्ड) के धड़ों के बीच महीनों से सत्ता पर क़ब्ज़े के लिए चल रही कुत्ताघसीटी की परिणति पिछले साल 20 दिसम्बर को ओली द्वारा नेपाल की संसद के निचले सदन प्रतिनिधि सभा को भंग करने की अनुशंसा और के रूप में हुई। राष्ट्रपति विद्या भण्डारी ने बिना किसी देरी के प्रतिनिधि सभा को भंग करने के फैसले पर मुहर लगा दी। आगामी 30 अप्रैल व 10 मई को मध्यावधि चुनावों की घोषणा भी कर दी गयी है। उसके बाद से ओली ने लगभग सभी संवैधानिक पदों और संस्थाओं में अपने आदमी नियुक्त करके राज्य सत्ता पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया है। उधर नेकपा के भीतर प्रचण्ड गुट, जिसका 446 सदस्यों वाली केन्द्रीय कमेटी और 9 सदस्यों वाले सचिवालय में दो-तिहाई से ज़्यादा बहुमत था, ने ओली को पार्टी से निष्कासित कर दिया है। उधर ओली ने भी अपने धड़े को ही असली नेकपा घोषित कर किया है।
नेपाल की राजनीति में अस्थिरता, अनिश्चितता और संकट का लम्बा इतिहास रहा है। पिछले 30 वर्षों में वहाँ 25 बार सरकारें बदलीं और 14 बार प्रधानमंत्री बदले हैं। लेकिन राजशाही के पतन के बाद अस्तित्व में आये नये संविधान के बाद लोगों ने राजनीतिक स्थिरता और समृद्धि की जो उम्मीदें लगायी थी उसपर पानी फिरता नज़र आ रहा है। तमाम विश्लेषक ओली के अभूतपूर्व क़दम पर हैरानी जता रहे हैं और प्रचण्ड की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देख रहे हैं। परन्तु वे इस तथ्य को नज़रअन्दाज़ कर रहे हैं कि आज नेपाल में जो राजनीतिक हालात बने हैं उसके लिए ओली की सत्तालोलुपता के अलावा प्रचण्ड की अवसरवादी व्यवहारवादी राजनीति भी काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार है।
पिछले पूरे साल ओली और प्रचण्ड गुट के बीच सत्ता हथियाने को लेकर उठापठक चलती रही। कोरोना महामारी की वजह से पहले से ही संकट से जूझ रही नेपाल की जनता के लिए सत्ताधारियों के बीच कुर्सी को लेकर चल रही यह खींचतान जले पर नमक छिड़कने के समान थी। मई के महीने में भारत और नेपाल के बीच उठे कालापानी-लिपुलेख-लिम्पियाधुरा विवाद में ओली ने आक्रामक तेवर दिखाकर अपनी गिरती हुई साख़ बचाने की कोशिश की थी, लेकिन जब ओली को यह स्पष्ट हो गया कि धार्मिक बिम्बों से लैस राष्ट्रवाद की ख़ुराक़ भी की उनकी कुर्सी बचा नहीं पायेगी तो उन्होंने प्रतिनिधि सभा भंग करने का नया पैंतरा चला है। ग़ौरतलब है कि ओली और प्रचण्ड धड़े के बीच यह अलिखित समझौता हुआ था कि 5 साल की सरकार में ढाई साल ओली प्रधानमंत्री रहेंगे और ढाई साल प्रचण्ड। लेकिन प्रचण्ड की पारी आने से पहले ही ओली ने सत्ता की बागडोर पूरी तरह से अपने हाथ में ले ली है। संसद भंग करने के फैसले पर नेपाल के उच्चतम न्यायालय का फैसला इसी महीने आने वाला है। लेकिन इतना तो तय है कि सत्ता के नशे में मदमस्त ओली आने वाले दिनों में आपातकाल लगाने जैसे निरंकुश क़दम उठाने से नहीं चूकेंगे।
ग़ौरतलब है कि ओली ने प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही निरंकुश फैसले लेने शुरू कर दिये थे। 2019 में ही ओली सरकार ने लोगों की बोलने व अभिव्यक्ति की आज़ादी और मीडिया पर नियंत्रण करने से सम्बन्धित विधेयक प्रस्तुत किये थे। यानी पूत के पाँव पालने में ही देखे जा सकते थे। नेपाल के राजनीतिक हलकों में ओली की निरंकुशता और और ओली और प्रचण्ड के गुटों के बीच सत्ता को लेकर चली खींचतान की तो आलोचना होती रही है लेकिन अभी भी जनयुद्ध के बाद के दौर में हुए राजनीतिक घटनाक्रम और भटकावों की मार्क्सवादी नज़रिये से व्याख्या का अभाव दिखता है। ‘मज़दूर बिगुल’ के पन्नों पर हम पहले भी लिखते रहे हैं कि जनयुद्ध के बाद नेपाल में हुए राजनीतिक पतन के लिए महज़ चन्द व्यक्तियों के राजनीतिक चरित्र में आए पतन और कुछ नेताओं के निरंकुश और भ्रष्ट आचरण को ज़िम्मेदार ठहराना पर्याप्त नहीं है। नेपाल में चल रही फूहड़ राजनीतिक नौटंकी के बाद अब इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं बचती कि नेपाली क्रान्ति विच्युति, विचलन, भटकाव और गतिरोध की फिसलन पर आगे बढ़कर विपर्यय और विघटन के गड्ढे में जा पहुँची है। किसी भी सच्चे मार्क्सवादी के लिए यह निर्मम आलोचना का विषय होना चाहिए कि आख़िर ऐसी त्रासदपूर्ण स्थिति पैदा ही क्यों हुई?
नेपाली क्रान्ति पटरी से उसी समय उतरने लगी थी जब प्रचण्ड ने सर्वहारा राज्यसत्ता के ‘ऑर्गन’ के तौर पर सोवियत प्रणाली के बरक्स बहुदलीय प्रतिस्पर्द्धात्मक जनवादी प्रणाली का मॉडल पेश किया था। समाजवादी संक्रमण, 20वीं सदी के समाजवादी देशों में पूँजीवादी पुनर्स्थापना पर अपनी मौलिक प्रस्थापना देते हुए यह समझ प्रस्तुत की गयी थी कि समाजवादी देशों में पूँजीवादी पुनर्स्थापना इसलिए हुई क्योंकि वहाँ सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टियों को अन्य पार्टियों से किसी मुक़ाबले का सामना नहीं करना पड़ा, इसलिए सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टियाँ भ्रष्ट हो गयीं। तत्कालीन नेकपा (माओवादी) की यह थीसिस राज्य और क्रान्ति विषयक लेनिन तथा महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की शिक्षाओं का निषेध थी। यह थीसिस इस पार्टी के संशोधनवाद की ओर प्रस्थान बिन्दु थी। एक बार संशोधनवाद की फिसलन पर पैर रखने के बाद गर्त में जाना बस समय की बात होती है।
लेनिन ने बताया था कि संशोधनवाद का खोल कम्युनिस्ट होता है और उसकी अन्तर्वस्तु बुर्जुआ होती है। नेपाल की राजनीति में नेकपा के भीतर निर्लज्ज संशोधनवादी ओली और घाघ संशोधनवादी प्रचण्ड के धड़ों के बीच कुर्सी को लेकर चली उठापठक और ओली के घोर निरंकुश आचरण ने इस बुर्जुआ अन्तर्वस्तु को ही उभारकर सामने लाया है। बेशक नेपाल में आज का तात्कालिक कार्यभार ओली की तानाशाही को ख़त्म करके संवैधानिक प्रक्रिया की बहाली है और उसके लिए जनान्दोलन को तेज़ करने और जुझारू बनाने की ज़रूरत है। लेकिन किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि ओली को हटाकर प्रचण्ड, माधव कुमार नेपाल या किसी अन्य संशोधनवादी सूरमा को गद्दी पर बिठा देने से नेपाल की क्रान्ति पटरी पर आ जायेगी।
नेपाल के संशोधनवादियों के कुकर्मों की वजह से वहाँ के समाज में कम्युनिज़्म की विचारधारा और सर्वहारा मुक्ति के सपने के प्रति भी बड़े पैमाने पर मोहभंग हुआ है। इस मोहभंग की स्थिति का लाभ उठाकर भाँति-भाँति की बुर्जुआ विचारधाराएँ, संगठन और मूल्य-मान्यताएँ वहाँ के समाज में अपनी जड़ें जमा रहे हैं। लोभ-लालच-स्वार्थ की पूँजीवादी संस्कृति भी नेपाली समाज को अपने शिकंजे में कस रही है। नेपाल में वर्तमान राजनीतिक संरचनाएँ इस परिस्थिति का सटीक मूल्यांकन करके सही दिशा निकालने में अक्षम साबित हो रही हैं। ऐसे में नये सिरे से बोल्शेविक उसूलों व सही क्रान्तिकारी जनदिशा पर आधारित क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण करके ही नेपाली क्रान्ति को पटरी पर लाया जा सकता है। आज ज़रूरत नेपाली समाज में उत्पादन सम्बन्धों के ठोस अध्ययन के आधार पर रणनीति और आम रणकौशल तैयार करने की श्रमसाध्य और दीर्घकालिक चुनौती को स्वीकार करने की है। यह ज़िम्मेदारी वहाँ की युवा पीढ़ी के कन्धों पर है। बेशक यह रास्ता बहुत लम्बा और ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होकर जायेगा, लेकिन इसके सभी शॉर्टकट संशोधनवाद के गड्ढे की ओर जाते हैं।

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2021


 

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