महामारी और संकट के बीच करोड़ों लोगों की रोज़ी-रोटी छिनी मगर पूँजीपतियों के मुनाफ़े में हो गयी 13 लाख करोड़ की बढ़ोत्तरी!

– अनुपम

कोरोना महामारी की वजह से आजकल सभी काम-धन्धे बन्द हुए मालूम पड़ते हैं। लगभग हर गली-मोहल्ले में तो ही रोज़गार का अकाल ही पड़ा हुआ है। वहीं, दूसरी तरफ़, कोरोना काल में अम्बानी-अडानी आदि थैलीशाहों के चेहरे पहले से भी ज़्यादा खिले हुए हैं। करोड़ों-करोड़ का मुनाफ़ा खसोटकर वे अपनी महँगी पार्टियों में जश्न मना रहे हैं।
हाल ही में ऑक्सफ़ैम की एक रिपोर्ट में इन हालात पर कुछ आँकड़े पेश किये गये। रिपोर्ट के अनुसार, लॉकडाउन के बाद से जहाँ एक ओर देश के बड़े-बड़े धनपतियों ने अपना मुनाफ़ा कई-कई गुना बढ़ा लिया है वहीं दूसरी तरफ़, करोड़ों लोग नौकरियाँ छिनने के बाद से ग़रीबी के नरक में धकेल दिये गये हैं। मार्च से अब तक, जहाँ एक ओर देश के 100 बड़े धनपतियों की सम्पदा में 12,97,822 करोड़ का इज़ाफ़ा हुआ है, वहीं दूसरी ओर लॉकडाउन के बाद से अब तक 12.2 करोड़ लोगों का रोज़गार छिन गया है।
लॉकडाउन के दौरान, मुकेश अम्बानी ने हर घण्‍टे 90 करोड़ रुपये मुनाफ़ा कमाया, जबकि उन्‍हीं दिनों देश के क़रीब 24 प्रतिशत लोग हर महीने सिर्फ़ 3000 रुपये महीने कमा पा रहे थे। अकेले अम्बानी की दौलत में इस बीच जितना इज़ाफ़ा हुआ, केवल उसी को बाँट दिया जाये, तो देश के 40 करोड़ असंगठित मज़दूरों की ग़रीबी कम से कम 5 महीने के लिए दूर हो जायेगी। उसका हर घण्टे का मुनाफ़ा इतना था कि एक सामान्य मज़दूर को उतने पैसे कमाने में दस हज़ार साल लग जायेंगे।
वहीं, पिछले साल अप्रैल के महीने में ही हर घण्टे लगभग 1,70,000 लोग बेरोज़गार हो रहे थे। रिपोर्ट के ही अनुसार, लॉकडाउन में उसी दौरान 300 से भी अधिक लोग भूख़, बीमारी, दुर्घटना या फिर पुलिस की बर्बरता के शिकार होकर मर गये। उस वक़्त भारतीय पुलिस ने भी बर्बरता की सारी हदें पार कर दी। भारतीय मानवाधिकार आयोग ने भी माना कि मानवाधिकार हनन के 2,582 मामले केवल अप्रैल के महीने में ही दर्ज किये गये थे।
लॉकडाउन के दौरान जब अचानक ही कोरोना से बचने के लिए घर में रहने का फ़रमान आम जनता को सुनाया गया तो उस समय देश की एक लगभग 18 करोड़ आबादी के पास घर था ही नहीं। जिनके पास था भी, उनमें से 59.6 प्रतिशत आबादी ऐसी थी जो केवल एक कमरे या उसके एक छोटे से हिस्से में परिवार सहित या साझेदारी में गुज़ारा करती थी। इस आबादी के लिए घरों में बन्द रहना जेलों में डाल दिये जाने की तरह कष्टदायक था। यह कल्पना करना ही बड़ा भयावह है कि उन लोगों कि क्या हालत हुई होगी जिनके घर किसी मलिन बस्ती में हैं। उनकी क्या हालत हुई होगी जिनके लिए घर के मायने केवल रात गुज़ारने के लिए एक छत जितने ही हैं। वे दिन में मई की गर्मियों के कैसे बन्द रहे होंगे जबकि उनके घर में हवा के आने-जाने तक का कोई इन्तज़ाम न रहा हो। या उनका क्या हुआ होगा, जिनके घर में नहाने और शौच जाने की कोई व्यवस्था नहीं है। कहने की ज़रूरत नहीं कि इन घरों में कोविड के लिए दो गज़ की दूरी रखने की हिदायत एक भद्दा मज़ाक भर थी।
स्कूलों में ऑनलाइन माध्यम से क्लासों के शुरू किये जाने के बाद, मज़दूरों और ग़रीबों को ही सबसे अधिक दिक़्क़तों का सामना पड़ा। ऑक्सफ़ैम की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण इलाक़ों में बसे 4 प्रतिशत घरों में ही कम्प्यूटर है तो वहीं 15 प्रतिशत से भी कम घरों में इण्टरनेट कनेक्शन की सुविधा है। एक अन्य आँकड़े के अनुसार, देश की कुल छात्र आबादी में से केवल 24 प्रतिशत आबादी ही ऐसी है जिसके घर में इण्टरनेट की सुविधा है। और शहरों में बसे घरों में भी यह आँकड़ा 42 प्रतिशत तक जाता है।
ऐसे में, कुछ इन्साफ़पसन्द लोगों की मदद तथा मिलने वाली थोड़ी-बहुत सरकारी सहायता के बूते जैसे-तैसे वक़्त काट रही मज़दूर आबादी के लिए इस दौरान इण्टरनेट का ख़र्च उठाना लगभग नामुमकिन ही था। कुछ माँ-बाप ने अपने बच्चों की पढ़ाई आगे बढ़ाने के लिए कर्ज़ लेकर स्मार्टफ़ोन खरीदा जबकि अधिकतर इतने लाचार थे कि उन्हें अपने बच्चों की पढ़ाई ही छुड़वानी पड़ी।
ज़ाहिरा तौर पर, लॉकडाउन के दौरान बिना किसी तैयारी के ऑनलाइन माध्यम से शिक्षा दिया जाना मज़दूरों और ग़रीबों के बच्चों के साथ सीधा-सीधा पक्षपात था। वक़्त की ज़रूरत को ध्यान में रखकर सरकार द्वारा इन बच्चों के लिए ऐसे ऑनलाइन सेण्टरों की व्यवस्था करवायी जा सकती थी जहाँ आकर बच्चे पढ़ सकते। लेकिन बिहार में अपनी एक चुनावी रैली के लिए हज़ारों की संख्या में एलईडी स्क्रीन और फ़्लैटस्क्रीन टीवी लगवाने वाली इस सरकार के लिए एक ग़ैर-ज़रूरी काम थी। मुनाफ़ा कमाने का एक जरिया बन चुके स्कूलों-कालेजों को भी इससे कोई मतलब नहीं था कि बच्चे पढ़ पायेंगे या नहीं। उन्हें केवल इससे मतलब था कि उन्हें फ़ीस समय पर मिल जाये।
यह सब जिस समय हो रहा था, उस समय अम्बानी, अडानी, मित्तल, डालमिया और बिरला सहिता तमाम पूँजीपति घरानों की सम्पदा में ज़बरदस्त उछाल जारी था। तुलना के लिए ,अगर हम ऊपर के सबसे अमीर सौ धनपतियों की दौलत में इस दौरान आयी लगभग 13 लाख करोड़ की उछाल को देश की दौलत मान लें तो इस धनराशि से देश के निचले दस प्रतिशत, यानी 13.8 करोड़ सबसे ग़रीब लोगों में सभी को 94,045 रूपये दिये जा सकते हैं।
संकटकाल में आयी यह आर्थिक समृद्धि इतनी अधिक परजीवी है कि देश में जनस्वास्थ्य के लिए जैसे-तैसे चल रही ‘जनऔषधि योजना’ का बजट इसके सामने न के बराबर है। रिपोर्ट के अनुसार, अगर लॉकडाउन के दौरान देश के सबसे बड़े 11 पूँजीपतियों की बढ़ी हुई सम्पत्ति के ऊपर एक प्रतिशत भी टैक्स लगा दिया जाये और उससे मिली धनराशि को ‘जनऔषधि योजना’ में आवण्टित कर दिया जाये तो केवल इससे ही योजना का बजट बढ़कर वर्तमान बजट के मुक़ाबले 140 गुना हो जायेगा। इसी तरह अगर उनकी बढ़ी हुई सम्पत्ति को स्वास्थ्य विभाग या मनरेगा द्वारा ले लिया जाये तो उससे ही वे पूरे दस साल तक अपना ख़र्च चला सकते हैं।
रोज़ी-रोटी की कोई गारण्टी नहीं, पुलिस की मार का डर और बच्चों की पढ़ाई की चिन्ता। इन तमाम उलझनों के बीच दर-दर की ठोकरें खाती मज़दूर आबादी अभी तक लॉकडाउन जैसी परिस्थितियों में ही जीवनयापन कर रही है। वहीं दूसरी ओर, पूँजीपति वर्ग महामारी के दौरान जमकर मुनाफ़ा कमा रहा है। “आपदा के दौरान अवसर” निकाल लेने में “भारत” ने वाकई बाज़ी मार ली है।

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2021


 

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