फ़ासीवादी सरकार द्वारा प्रायोजित दिल्ली दंगों का एक साल
आज़ादी के बाद के सबसे व्यापक जनान्दोलन को समाप्त करने के लिए रची गयी थी दंगों की साज़िश

पिछले साल देश की राजधानी दिल्ली के उत्तर-पूर्वी दिल्ली क्षेत्र में 23 फ़रवरी से 25 फ़रवरी को जो हिंसा हुई, उसे मीडिया द्वारा ‘दिल्ली दंगा-2020’ का नाम दिया गया। इस हिंसा में तक़रीबन 55 लोगों की मौत हुई, 200 से अधिक लोग घायल हुए और अरबों की सम्पत्ति का नुक़सान हुआ। जिन दिल्ली दंगों को गोदी मीडिया द्वारा हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के बीच हुई हिंसा व दंगा कहा जा रहा है, वे असल में दिल्ली में राज्य की शह पर संघ-भाजपा द्वारा प्रायोजित साम्प्रदायिक हिंसा थी। दिल्ली दंगों के बाद भाजपा की फ़ासीवादी सरकार के इशारे पर दिल्ली पुलिस द्वारा अब तक 4,000 लोगों को गिरफ़्तार व हिरासत में लिया जा चुका है, जिनमें छात्र-युवा कार्यकर्ता, जन संगठनों के कार्यकर्ता व जनपक्ष बुद्धिजीवी भी शामिल हैं। दिल्ली पुलिस ने कई फ़र्ज़ी केस दर्ज कर आज भी हज़ारों बेगुनाह लोगों को जेल में बन्द कर रखा है। जबकि दिल्ली दंगों से पहले भड़काऊ भाषण देने वाले दंगों के असली दोषियों, कपिल मिश्रा, प्रवेश वर्मा, अनुराग ठाकुर और रागिनी तिवारी पर अब तक कोई भी कार्रवाई नहीं की गयी।

दिल्ली दंगे – एक साज़िश! पर किसके द्वारा!!

दिल्ली पुलिस द्वारा दिल्ली दंगों की जांच करते हुए जो चार्जशीट (झूठ का पुलिन्दा) अब तक कोर्ट में जमा की गयी है, उसके मुताबिक़ दिल्ली में दंगे एक साज़िश के तहत हुए और इन दंगों की साज़िश नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) व राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों ने रची, यही बात संसद में तड़ीपार अमित शाह (ग्रह मंत्री) ने भी कही थी, ‘यानी उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’। दिल्ली दंगा प्रदर्शनकारियों ने नहीं बल्कि प्रदर्शन से डरे संघी-भाजपा गिरोह का कारनामा था। सीएए-एनआरसी जैसे काले क़ानूनों के ख़िलाफ़ दिल्ली के शाहीन बाग़ में शुरू हुआ विरोध प्रदर्शन देशभर में फैल चुका था और आज़ादी के बाद का सबसे बड़ा जनउभार था। यह आन्दोलन मोदी-शाह-संघ की पिछले 6 साल की कारगुज़ारियों से उपजे गहरे असन्तोष और जनाक्रोश की भी अभिव्यक्ति था। शाहीन बाग़ और दिल्ली के कई इलाक़ों सहित देशभर में हो रहे इन विरोध प्रदर्शनों से केन्द्र में सत्तासीन मोदी सरकार बौखला गयी थी। दिल्ली पुलिस का यह कहना तो सही है कि दिल्ली दंगा एक साज़िश था, सुनियोजित था, पर यह छुपाया जा रहा है कि यह दंगा जनान्दोलन से डरे हुए फ़ासीवादी सत्ताधारियों की ही साज़िश थी। यह दंगा असल में राज्य प्रायोजित हिंसा थी, जिसमें पुलिस की सक्रिय भागीदारी के साथ हिन्दुत्वादी फ़ासिस्ट गिरोहों ने मुस्लिम कॉलोनियों पर हमले किये थे।
दिल्ली पुलिस की बेसिर-पैर की जाँच के मुताबिक़ सीएए-एनआरसी का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों द्वारा दंगों की साज़िश कई महीने पहले रची गयी थी। पुलिस के मुताबिक़ दिल्ली दंगों की जाँच व गिरफ़्तारियाँ जायज़ हैं, कि उसकी कार्रवाई गवाहों और फॉरेन्सिक जाँच के बाद मिले प्रमाणों के आधार पर हो रही है। यदि ऐसा था तो दिल्ली पुलिस को ऐसे सबूत प्रेस, मीडिया व ज़िम्मेदार नागरिकों के सामने भी रखने चाहिए थे, पर पुलिस ने ऐसा नहीं किया। पुलिस के अनुसार सड़क जाम करना दंगे की साज़िश का हिस्सा था और यहीं से दंगे भड़के। लेकिन सड़क जाम करना अपने आप दंगे का कारण कैसे हो सकता है? सड़क जाम की स्थिति में भी पुलिस सकारात्मक कार्रवाई करके लोगों को वापस धरना स्थलों पर भेज सकती थी। शाहीन बाग़ सहित दिल्ली की 14 जगहों पर डेढ़-दो महीने से शान्तिपूर्वक विरोध प्रदर्शन जारी थे। फिर 23 फ़रवरी 2020 को अचानक ऐसा क्या हो गया था? सच्चाई यही है कि 23 फ़रवरी को पुलिस की मौजूदगी में कपिल मिश्रा के भड़काऊ भाषण देने के बाद ही हिंसक घटनाओं की शुरुआत हुई थी। वैसे लोगों को उकसाने और दंगे भड़काने के प्रयास लम्बे समय से हो रहे थे। पुलिस के द्वारा अब तक क़रीब 4000 लोगों को गिरफ़्तार/डिटेन किया जा चुका है जिनमें से कुछ को विभिन्न धाराएँ लगाकर न्यायिक हिरासत में भी भेज दिया गया है। पर यह ताज्जुब की बात है कि इन 4000 लोगों में दंगों व हिंसा के प्रत्यक्ष ज़िम्मेदारों का पूरा-पूरा अभाव है तथा दंगों की आग में अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाले लोगों में से एक भी शामिल नहीं है। अधिकतर अल्पसंख्यक युवाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को सरकार जनविरोधी नीतियों का विरोध करने की वजह से सज़ा दे रही है।
हालाँकि भाजपा के नेताओं द्वारा लोगों को भड़काने के ही तमाम सबूतों के चलते हाईकोर्ट के जज एस. मुरलीधर ने कई भाजपा नेताओं पर एफ़आईआर तक दर्ज करने के दिल्ली पुलिस को आदेश दिये थे। यह अलग बात है कि एफ़आईआर दर्ज करना तो दूर उन जज महोदय का तुरन्त तबादला हो गया! दंगे के असल दोषियों पर कोई ठोस कार्रवाई न करने के चलते दिल्ली पुलिस की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं। यदि असल दोषी और भड़काऊ नेता ऐसे ही सरेआम मौज उड़ाते घूमते रहेंगे तो भला कौन नहीं पुलिस की निष्पक्षता पर सवाल उठायेगा? बर्बर दंगाई गिरोहों और पुलिस की मिलीभगत को सिद्ध करते कई वीडियो सामने आ चुके हैं, कुछ वीडियों में तो पुलिस वाले पत्थर चलाते दिख रहे हैं, साथ ही कई वीडियो में पुलिस के सिपाहियों को सीसीटीवी कैमरे तोड़ते हुए भी साफ़ देखा गया है! बेशक दंगों में लिप्त व्यक्तियों को बख़्शा नहीं जाना चाहिए, भले ही उनकी जातीय या धार्मिक पृष्ठभूमि कोई भी हो, किन्तु बदले की भावना के तहत कार्रवाई किया जाना भी क़त्तई जायज़ नहीं है। हम सभी जानते हैं कि सीएए-एनआरसी के विरोध में देशभर में हो रहे विरोध-प्रदर्शनों से भाजपा सरकार बुरी तरह बौखलायी हुई थी। इसलिए यह साफ़ तौर पर समझा जा सकता है कि कोरोना महामारी के कारण हुए लॉकडाउन के नाज़ुक दौर में भी सरकार के इशारों पर दिल्ली पुलिस बहुत से निर्दोष कार्यकर्ताओं को परेशान करने, डराने और जेल में बन्द करने के प्रयास में लगी रही है जो आन्दोलन में अगुआ भूमिका में थे। अतः एकदम साफ़ है कि सबकुछ एक सोची-समझी योजना और रणनीति के तहत हुआ है और गुजरात दंगा-2002 मॉडल को ही एक सीमित और नियंत्रित स्तर पर फिर से लागू किया गया है।
‘मज़दूर बिगुल’ के जनवरी 2020 अंक के सम्पादकीय में पहले ही इस बात की सम्भावना जतायी गयी थी कि सीएए-एनआरसी का जनप्रतिरोध अब एक देशव्यापी जनान्दोलन बन रहा है, और इस आन्दोलन से फ़ासीवादी भाजपा सरकार डर गयी है और अपनी बौखलाहट में ये जनद्रोही किसी भी तरह की घृणित हरकत कर सकते हैं। इस जनआन्दोलन को समाप्त करने के लिए ही फ़ासीवादी सत्ताधारियों द्वारा दिल्ली में दंगा कराने की घृणित हरकत की गयी।
दिल्ली की राज्य-प्रायोजित हिंसा व दंगों ने विपक्षी संसदीय दलों का चरित्र एकदम नंगा कर दिया था। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की “विचारधारा-विहीन”, “नागरिकतावाद” की राजनीति एकदम नंगी हो गयी और सभी भ्रमग्रस्त नेकदिल नागरिकों को भी यह बात समझ आ गयी कि यह जोकर संघ की बी टीम है और इसकी धुर-दक्षिणपन्थी लोकरंजक राजनीति कुल मिलाकर संघी फ़ासिज़्म की पूरक शक्ति ही है। दंगों से पहले शाहीन बाग़ या दिल्ली में सीएए-एनआरसी के विरोध में चल रहे किसी भी प्रदर्शन में केजरीवाल नहीं गया। बल्कि केजरीवाल का कहना था कि अगर उसके पास पावर होती तो 2 घण्टे में शाहीन बाग़ का रास्ता खुलवा देता। साथ ही 24 फ़रवरी 2020 को जब कुछ मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्ता केजरीवाल से मिले थे और उनसे अपील की थी कि वे (केजरीवाल) अपने कुछ मंत्रियों के साथ उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगा प्रभावित इलाक़ों में आयें, दंगा रुकवाने की कोशिश करें, वे और उनके मंत्रियों की सुरक्षा में पुलिस की भारी तैनाती होने के चलते दंगे रुक सकते है,’ तो ख़ुद संघी मानसिकता से ग्रस्त केजरीवाल ने लोगों की इस अपील को ठुकरा दिया और दिल्ली के दंगा प्रभावित इलाक़ों में न जाकर 25 फ़रवरी 2020 को दिल्ली के राजघाट जाकर दंगों में शान्ति की अपील करने की नौटंकी की। अन्य विपक्षी दलों के नेता भी बयान देने और ट्वीट करने से इंच भर भी आगे नहीं गये! किसी के कलेजे में यह दम नहीं था कि अपने कार्यकर्ताओं को लेकर फ़ासिस्ट गुण्डों का सामना कर सके! दरअसल इनके पास कार्यकर्ता के नाम पर सिर्फ़ छुटभैया दलाल, गुण्डे-लफ़ंगे ही रह गये हैं और उनके दिमाग़ का भी बड़े पैमाने पर साम्प्रदायीकरण हो गया है।
दिल्ली पुलिस दिल्ली दंगों की जाँच में प्रदर्शनकारियों को ही दंगाई दिखाने की कोशिश कर रही है, पर असलियत यही है कि पिछले साल फ़रवरी में हुए दिल्ली दंगे देशव्यापी जनान्दोलन से डरी फ़ासीवादी मोदी सरकार की साज़िश थी। सत्ताधारी फ़ासीवादियों को लगता है कि दमन से या दंगा-फ़साद से किसी जनान्दोलन को हमेशा के लिए समाप्त किया जा सकता है तो यह उनके ख़्याली पुलाव से ज़्यादा कुछ नहीं है। पिछले दिनों बंगाल चुनाव के दौरान एक रैली में तड़ीपार अमित शाह ने कहा कि कोरोना वैक्सीनेशन का काम पूरा होते ही सीएए लागू किया जायेगा। तो यह तय है कि जनता भी ऐसे काले क़ानूनों के ख़िलाफ़ फिर सड़कों पर उतेरगी। भविष्य में होने वाले जनान्दोलन को सुसंगठित बनाकर और दिशा देकर ही फ़ासीवादियों की किसी भी घृणित हरकत का सामना किया जा सकता है और आन्दोलन को जीत तक पुहँचाया जा सकता है।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2021


 

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